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सऊदी अरब-पाकिस्तान रक्षा समझौता

Lokesh Pal September 22, 2025 02:38 173 0

संदर्भ

हाल ही में सऊदी अरब और पाकिस्तान ने रियाद में एक पारस्परिक रक्षा समझौते (Strategic Reciprocal Defence Agreement) पर हस्ताक्षर किए, जिसमें यह प्रतिबद्धता दर्शाई गई कि किसी एक देश पर हमला दोनों देशों पर हमला माना जाएगा।

  • यह समझौता ऐसे समय में हुआ है, जब कतर में इजरायल के हमले के बाद पश्चिम एशिया में अस्थिरता बढ़ गई है।

इस समझौते के रणनीतिक आयाम

  • समझौते का दायरा: यह समझौता संयुक्त प्रशिक्षण, खुफिया जानकारी साझा करने और समन्वित अभ्यास सहित सभी सैन्य साधनों को शामिल करता है।
  • पारस्परिक रक्षा खंड: यह घोषणा करता है किकिसी भी देश पर हमला दोनों पर हमला माना जाएगा,’ जो लंबे समय से चर्चा में रहे सुरक्षा सहयोग को औपचारिक रूप देता है।
  • परमाणु समग्र आयाम (Nuclear Umbrella Dimension): इस समझौते के तहत पाकिस्तान की परमाणु क्षमता सऊदी अरब को उपलब्ध कराई जा सकती है।
    • यह सऊदी अरब को पाकिस्तान के परमाणु निवारक से जोड़ने वाली पहली सार्वजनिक स्वीकृति है, जिस पर 1970 और 1980 के दशक में पाकिस्तान के कार्यक्रम के लिए सऊदी वित्तीय सहायता के कारण लंबे समय से संदेह था।
  • निर्भरता और रणनीतिक पुनर्विचार: सऊदी अरब पारंपरिक रूप से अपनी सुरक्षा आवश्यकताओं के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका पर निर्भर रहा है, अमेरिका पर विश्वास कम होने से सऊदी अरब ने अपनी सुरक्षा नीति का पुनर्मूल्यांकन किया है और पाकिस्तान के साथ रक्षा समझौता इसी का संकेत है।
  • सऊदी अरब की स्थिति: सऊदी अरब ने इस समझौते को क्षेत्रीय शांति और स्थिरता की दिशा में एक कदम के रूप में प्रस्तुत किया है, हालाँकि इसका समय कतर पर इजरायल के हमले के बाद परिवर्तित संतुलन को स्पष्ट रूप से दर्शाता है।

भारत के लिए निहितार्थ

  • पाकिस्तान की स्थिति मजबूत होना: यह समझौता पाकिस्तान को सऊदी अरब से राजनीतिक और संभावित वित्तीय समर्थन प्रदान करता है, जो कश्मीर या आतंकवाद जैसे विवादों में पाकिस्तान को मजबूत कर सकता है।
    • उदाहरण के लिए, सऊदी अरब ने पहले पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए 3 अरब अमेरिकी डॉलर की जमा राशि जारी रखी है, जो अप्रत्यक्ष रूप से उसके रक्षा खर्च को बनाए रखती है।
  • नई सुरक्षा चुनौतियाँ: रक्षा क्षेत्र में सऊदी अरब द्वारा पाकिस्तान को वित्तीय सहयोग की संभावना, पाकिस्तानी सेना के और अधिक सुदृढ़ होने की आशंका को जन्म देती है, जिससे भारत की सुरक्षा संबंधी गणनाएँ जटिल हो सकती हैं।
  • खाड़ी क्षेत्र में ‘डोमिनो’ प्रभाव: इस समझौते से पश्चिम एशिया में डोमिनो’ प्रभाव पड़ने की संभावना है, जहाँ प्रतिद्वंद्विता और मतभेद अधिक देशों को समान रक्षा व्यवस्थाएँ अपनाने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।
    • ऐसे गुटों के उभरने से क्षेत्र में अस्थिरता बढ़ेगी, जो भारत के लिए गंभीर चिंता का विषय है, क्योंकि पश्चिम एशिया उसकी ऊर्जा सुरक्षा के लिए केंद्रीय है और वहाँ बड़ी संख्या में प्रवासी कार्यबल मौजूद हैं।
  • पाकिस्तान के लिए रणनीतिक प्रतिरोध: भविष्य में किसी सैन्य टकराव की स्थिति में या सीमा-पार आतंकवाद में उसकी संलिप्तता के प्रत्युत्तर में एक सुरक्षा ढाल के रूप में, पाकिस्तान इस समझौते को भारत के विरुद्ध एक प्रकार के प्रतिरोधक उपाय के रूप में देख सकता है।
  • भारत-मध्य पूर्व-यूरोप कॉरिडोर (India-Middle East-Europe Corridor-IMEC) पर प्रभाव: यदि सऊदी अरब की प्राथमिकताएँ पाकिस्तान की ओर झुकती हैं, तो भारत-मध्य पूर्व-यूरोप कॉरिडोर (India-Middle East-Europe Corridor- IMEC) जैसी परियोजनाएँ अनिश्चितताओं का सामना कर सकती हैं, जिससे इस क्षेत्र में भारत की रणनीतिक और आर्थिक पहुँच प्रभावित हो सकती है।
  • कूटनीतिक रिक्तता: भारत को सऊदी अरब (ऊर्जा और निवेश के लिए) और इजरायल (रक्षा और प्रौद्योगिकी के लिए) दोनों के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए रखने की आवश्यकता है, जो और अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाएगा।
  • पाकिस्तान का भू-राजनीतिक लाभ: यह समझौता पाकिस्तान को पश्चिम एशिया में एक सुरक्षा प्रदाता के रूप में वैधता प्राप्त करने का अवसर देता है।
    • प्रतीकात्मक रूप से, यह मुस्लिम एकजुटता के आख्यानों को मजबूत करता है, जिसमें पाकिस्तान स्वयं को एक अखिल-इस्लामी सुरक्षा प्रदाता के रूप में स्थापित करता है।
  • इजरायल-सऊदी समीकरणों में संतुलन: भारत रक्षा, साइबर और खुफिया सहयोग के लिए इजरायल पर निर्भर है, लेकिन सऊदी अरब का पाकिस्तान की ओर झुकाव इस साझेदारी को और जटिल बना देता है।
    • भारत इजरायल (शीर्ष 5 रक्षा आपूर्तिकर्ताओं में से एक) या सऊदी अरब (शीर्ष 3 ऊर्जा साझेदारों में से एक) को अलग-थलग नहीं कर सकता है।

अन्य हितधारकों के लिए निहितार्थ

  • पाकिस्तान के लिए: यह समझौता यह संकेत देकर उसकी निवारक क्षमता को मजबूत करता है कि सऊदी अरब का समर्थन परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र तक भी विस्तृत है। यह भारत या इजरायल जैसे विरोधियों के आक्रामक कदमों को हतोत्साहित करता है।
    • पश्चिम एशियाई संघर्षों में शामिल होना: इससे पाकिस्तान पश्चिम एशियाई संघर्षों में उलझ सकता है, क्योंकि उससे सऊदी अरब के हितों का समर्थन करने की उम्मीद की जा सकती है।
      • उदाहरण के लिए: पाकिस्तान के क्षेत्र में सऊदी अरब के नेतृत्व वाले संघर्षों में शामिल होने की संभावना है, जिनमें यमन (हूती विद्रोह), ईरान के साथ तनाव और इजरायल द्वारा उत्पन्न चुनौतियाँ शामिल हैं।
    • संयुक्त राज्य अमेरिका के लिए: यह समझौता खाड़ी क्षेत्र के संरक्षक के रूप में अमेरिका की विश्वसनीयता के क्षरण को दर्शाता है, क्योंकि क्षेत्रीय संकटों पर अमेरिका की धीमी प्रतिक्रिया ने सहयोगियों को रक्षा साझेदारी में विविधता लाने के लिए प्रेरित किया है।
    • अब्राहम एकॉर्ड: यह समझौता अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप द्वारा सऊदी अरब को अब्राहम एकॉर्ड में शामिल करने के असफल प्रयासों की पृष्ठभूमि में हुआ है।
      • सऊदी अरब ने स्पष्ट कर दिया है कि वह गाजा युद्ध समाप्त होने और फिलिस्तीनी राष्ट्र के दर्जे पर प्रगति होने तक इजरायल के साथ संबंध सामान्य नहीं करेगा।
  • चीन के लिए: चीन रणनीतिक रूप से एक विजेता है, क्योंकि उसके पाकिस्तान (CPEC के माध्यम से) और सऊदी अरब (बेल्ट एंड रोड और ऊर्जा समझौतों के माध्यम से) दोनों के साथ घनिष्ठ संबंध हैं।
    • यह समझौता चीन को अमेरिका को दरकिनार करते हुए खाड़ी क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने की अनुमति देता है।
    • ऊर्जा सुरक्षा जोखिम: पश्चिम एशिया में बढ़ती अस्थिरता वैश्विक तेल बाजार की स्थिरता के लिए खतरा है।
      • भारत (जो इस क्षेत्र से लगभग 60% कच्चे तेल का आयात करता है) को मूल्य में उतार-चढ़ाव, आपूर्ति में व्यवधान तथा उच्च भू-राजनीतिक प्रीमियम का जोखिम है, जिसका प्रभाव चीन, जापान तथा यूरोपीय संघ जैसे अन्य प्रमुख आयातकों पर भी पड़ेगा।

अब्राहम एकॉर्ड (Abraham Accord) के बारे में 

  • संयुक्त राज्य अमेरिका की मध्यस्थता में वर्ष 2020 में हस्ताक्षरित किया गया।
  • भूमिका: इजरायल और कई अरब देशों: संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, मोरक्को, सूडान के बीच राजनयिक संबंधों को सामान्य बनाया।
  • सऊदी अरब की स्थिति: औपचारिक रूप से समझौते में शामिल नहीं हुआ है।
  • महत्त्व: मध्य पूर्व कूटनीति को नया रूप देने के लिए अमेरिका के नेतृत्व वाली एक रणनीतिक पहल के रूप में देखा जाता है।
  • चुनौती: यह व्यापक अरब-इजरायल सहयोग के लिए एक रूपरेखा प्रदान करता है, लेकिन क्षेत्रीय संघर्षों और गठबंधनों के कारण यह संवेदनशील है।

भारत-सऊदी अरब संबंधों के बारे में

  • भारत-सऊदी अरब संबंधों की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
    • राजनयिक संबंधों की स्थापना: भारत और सऊदी अरब ने वर्ष 1947 में औपचारिक रूप से राजनयिक संबंध स्थापित किए।
    • प्रमुख उपलब्धियाँ: किंग अब्दुल्ला की यात्रा के दौरान दिल्ली घोषणा (2006) ने रणनीतिक साझेदारी की नींव रखी।
      • प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यात्रा के दौरान रियाद घोषणा (2010) ने संबंधों को एक नए रणनीतिक स्तर पर पहुँचाया।
    • रणनीतिक साझेदारी परिषद: वर्ष 2019 में, दोनों देशों ने उच्च-स्तरीय सहयोग को संस्थागत बनाने के लिए रणनीतिक साझेदारी परिषद (Strategic Partnership Council- SPC) का गठन किया।
  • आर्थिक सहयोग
    • व्यापारिक संबंध: सऊदी अरब भारत का पाँचवाँ सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है, जबकि भारत सऊदी अरब का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार है।
      • वर्ष 2023 में द्विपक्षीय व्यापार 42.98 बिलियन अमेरिकी डॉलर का था और भारत निवल आयातक बना रहा।
      • वर्ष 2024 में, सऊदी अरब ने भारत के कुल आवक प्रेषण में 6.7% का योगदान दिया।
    • निवेश प्रवाह: सऊदी अरब में भारतीय निवेश लगभग 3 बिलियन अमेरिकी डॉलर है, जो IT, दूरसंचार, फार्मा और निर्माण क्षेत्र में फैला हुआ है।
      • भारत में सऊदी अरब का निवेश लगभग 10 बिलियन अमेरिकी डॉलर है, जिसका नेतृत्व सार्वजनिक निवेश कोष (Public Investment Fund- PIF) करता है।
  • ऊर्जा साझेदारी
    • कच्चे तेल की आपूर्ति: वित्त वर्ष 2023-24 में, सऊदी अरब भारत का तीसरा सबसे बड़ा कच्चा तेल आपूर्तिकर्ता था, जिसने भारत के कुल कच्चे तेल आयात में लगभग 14.3% का योगदान दिया।
    • LPG आपूर्ति: सऊदी अरब भारत का तीसरा सबसे बड़ा LPG आपूर्तिकर्ता भी था, जिसने उसकी 18.2% आवश्यकताओं को पूरा किया।
    • नवीकरणीय ऊर्जा सहयोग: दोनों देश सौर और हरित हाइड्रोजन परियोजनाओं में सहयोग की संभावनाएँ तलाश रहे हैं, सऊदी अरब के मरुस्थलीय संसाधन और नवीकरणीय प्रौद्योगिकियों में भारत की विशेषज्ञता बड़े पैमाने पर परियोजनाओं के लिए अवसर उत्पन्न कर रही है।
  • रक्षा और सुरक्षा सहयोग
    • संयुक्त अभ्यास: पहला संयुक्त स्थलीय अभ्यास, अभ्यास सदा तनसीक, वर्ष 2024 में राजस्थान में आयोजित किया गया था, जबकि द्विपक्षीय नौसैनिक अभ्यास अल मोहद अल हिंदी’ भी आयोजित किया गया है।
    • समुद्री सहयोग: भारत और सऊदी अरब हिंद महासागर नौसैनिक संगोष्ठी (Indian Ocean Naval Symposium- IONS) और संयुक्त समुद्री बल (Combined Maritime Forces- CMF) जैसे मंचों में सक्रिय भागीदार हैं।
    • आतंकवाद-रोधी सहयोग: सऊदी अरब ने भारत के साथ आतंकवाद के वित्तपोषण की निगरानी, आतंकवाद और हवाला रैकेट में शामिल संदिग्धों के प्रत्यर्पण तथा सूडान में ऑपरेशन कावेरी के दौरान भारतीय नागरिकों की निकासी में सहयोग किया है।
  • सांस्कृतिक और लोगों के बीच संबंध
    • भारतीय प्रवासी: लगभग 26 लाख से 70 लाख लोगों के साथ, भारतीय समुदाय सऊदी अरब में सबसे बड़ा प्रवासी समूह है।
    • हज समझौता: वर्ष 2024 के द्विपक्षीय हज समझौते में लगभग 1.75 लाख भारतीय तीर्थयात्रियों का कोटा आवंटित किया गया है, जिसमें नए सुधारों के तहत महिलाओं को बिना मेहरम के हज करने की अनुमति दी गई है।
    • सांस्कृतिक कूटनीति: योग को वर्ष 2017 में आधिकारिक तौर पर एक खेल के रूप में मान्यता दी गई थी और सऊदी योग प्रवर्तक नौफ अल-मरवाई को वर्ष 2018 में पद्म श्री से सम्मानित किया गया था।

आपसी संबंधों में चुनौतियाँ

  • श्रम कल्याण संबंधी चिंताएँ: सऊदी अरब में कई भारतीय मजदूरों को कफाला प्रणाली के तहत खराब कामकाजी परिस्थितियों, देरी से मिलने वाले वेतन और प्रतिबंधात्मक श्रम कानूनों जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
  • व्यापार घाटा: सऊदी अरब के साथ भारत का व्यापार घाटा बहुत अधिक है, जो तेल आयात के कारण वर्ष 2023-24 में लगभग 20 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया।
  • भू-राजनीतिक मतभेद: यमन में सऊदी अरब का सैन्य हस्तक्षेप, ईरान के साथ प्रतिद्वंद्विता और पाकिस्तान के साथ घनिष्ठ रक्षा संबंध भारत के लिए रणनीतिक जटिलताएँ उत्पन्न करते हैं।

भारत के लिए आगे की राह

  • सऊदी अरब के साथ कूटनीतिक संबंध: भारत को सामरिक साझेदारी परिषद (Strategic Partnership Council- SPC) और खाड़ी सहयोग परिषद (Gulf Cooperation Council- GCC) के माध्यम से उच्च-स्तरीय जुड़ाव बनाए रखना चाहिए।
    • हाल ही में जैसा कि विदेश मंत्रालय ने रेखांकित किया है, भारत सऊदी अरब के साथ एक व्यापक रणनीतिक साझेदारी’ साझा करता है, जो हाल के वर्षों में अत्यधिक गहरी’ हुई है।
    • भारत को उम्मीद है कि सऊदी अरबपारस्परिक हितों और संवेदनशीलताओं’ को ध्यान में रखेगा, जो पाकिस्तान के साथ समझौते के बावजूद सऊदी अरब के साथ संबंधों को संतुलित करने के लिए एक कूटनीतिक सहारा प्रदान करता है।
  • आर्थिक कूटनीति का लाभ उठाना: भारत-मध्य पूर्व-यूरोप कॉरिडोर (India–Middle East–Europe Corridor- IMEC) जैसी पहलों को आगे बढ़ाने से सऊदी  के साथ आर्थिक निर्भरता बढ़ सकती है।
    • सऊदी अरब के विजन 2030 परियोजनाओं में भारत की बढ़ती भागीदारी साझा हित भी बनाती है, जिससे सऊदी अरब के केवल पाकिस्तान की ओर झुकाव की संभावना कम हो जाती है।
  • रक्षा तैयारियों को मजबूत करना: भारत को सीमावर्ती बुनियादी ढाँचे का आधुनिकीकरण, मिसाइल प्रणालियों का उन्नयन और निगरानी क्षमताओं को बढ़ाकर अपनी सुरक्षा संरचना को मजबूत करना चाहिए।
    • S-400 ट्रायंफ वायु रक्षा प्रणाली (S-400 Triumf Air Defence System) का शामिल होना और प्रलय सामरिक मिसाइलों का विकास, उभरते क्षेत्रीय सुरक्षा परिवेश में एक विश्वसनीय निवारक दृष्टिकोण बनाए रखने की भारत की प्रतिबद्धता का उदाहरण है।
  • क्षेत्रीय साझेदारी का विस्तार: भारत को रक्षा वार्ता, समुद्री सुरक्षा और आर्थिक पहलों के माध्यम से संयुक्त अरब अमीरात तथा ओमान के साथ सहयोग को गहरा करना चाहिए।
    • इस प्रकार की भागीदारी सऊदी अरब के संबंधों को संतुलित करने में सहायक होगी और पश्चिम एशिया में विशिष्ट सुरक्षा गुटों के विरुद्ध एक स्थिर सुरक्षा ढाँचा प्रदान करेगी।।
  • ऊर्जा स्रोतों में विविधता: भारत को नवीकरणीय साझेदारी और हरित सहयोग का विस्तार करके एक संतुलित ऊर्जा रणनीति अपनानी चाहिए। 
    • अंतरराष्ट्रीय सौर गठबंधन (International Solar Alliance- ISA) और संयुक्त हरित हाइड्रोजन पहल जैसे मंच पारंपरिक हाइड्रोकार्बन संबंधों को पूरक बनाते हुए एक स्थायी तथा सुरक्षित ऊर्जा भविष्य का आधार बन सकते हैं।
    • माँग में वृद्धि के साथ दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल आयातक होने के नाते, भारत सऊदी अरब का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार और कच्चा तेल खरीदार है, जिससे ऊर्जा क्षेत्र में रणनीतिक लाभ प्राप्त होता है।
  • प्रवासी लाभ: सऊदी अरब में मौजूद विशाल भारतीय कार्यबल (30 लाख से अधिक) को द्विपक्षीय सद्भावना बढ़ाने के लिए शामिल करना।
    • प्रवासी हितों की रक्षा से सऊदी अरब की नीतिगत गणनाओं में भारत का रणनीतिक लाभ बढ़ता है।

निष्कर्ष

सऊदी-पाकिस्तान रक्षा समझौता पश्चिम एशिया में परिवर्तित शक्ति समीकरणों का संकेत देता है, जिससे भारत के लिए नए सुरक्षा जोखिम उत्पन्न होते हैं। अपने राष्ट्रीय हितों की रक्षा के लिए भारत को केवल सैन्य तैयारी ही नहीं, बल्कि रणनीतिक कूटनीति और लचीली ऊर्जा साझेदारी को भी समन्वित करना होगा।

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