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उच्चतम न्यायालय ने ग्राम न्यायालय की व्यवहार्यता पर सवाल उठाए

Lokesh Pal October 19, 2024 01:39 99 0

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वह इस प्रश्न पर विचार करेगा कि क्या राज्यों/संघ राज्य क्षेत्रों द्वारा ग्राम न्यायालयों की स्थापना और क्रियान्वयन ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 (Gram Nyayalayas Act, 2008) के अंतर्गत अनिवार्य है। 

संबंधित तथ्य

पृष्ठभूमि
  • जनहित याचिका (Public Interest Litigation- PIL) में ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 के तहत वर्ष 2019 में ग्राम न्यायालयों की स्थापना और कार्यान्वयन की माँग की गई है। 
  • ग्राम न्यायालयों का उद्देश्य ग्रामीण क्षेत्रों में शीघ्र एवं किफायती न्याय उपलब्ध कराना है।
  • मुख्य कानूनी मुद्दा
    • प्रश्न: क्या वर्ष 2008 के अधिनियम के तहत राज्यों के लिए ग्राम न्यायालय स्थापित करना अनिवार्य या वैकल्पिक है?
    • अधिनियम की धारा 3(1) में ‘हो सकता है’ शब्द का प्रयोग किया गया है, जिससे इस बात पर बहस छिड़ गई है कि क्या इसका तात्पर्य राज्यों के लिए इन न्यायालयों की स्थापना करने का विवेकाधिकार या दायित्व है। 

सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश

  • राज्यों को छह सप्ताह के भीतर उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरलों से परामर्श करने के बाद ग्राम न्यायालयों की स्थिति के बारे में विस्तृत जानकारी प्रदान करनी चाहिए।
  • केंद्र सरकार को वर्ष 2020 के न्यायालय के आदेश के अनुपालन के संबंध में, विशेष रूप से इन न्यायालयों के लिए वित्तपोषण एवं वित्तीय सहायता के संबंध में एक नया हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया गया है।
    • वर्ष 2020 का आदेश: न्याय के अधिकार में किफायती न्याय का अधिकार भी शामिल है।
      • न्यायालय ने उन राज्यों को, जिन्होंने अभी तक ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए अधिसूचना जारी नहीं की है, चार सप्ताह के भीतर ऐसा करने का निर्देश दिया तथा उच्च न्यायालयों से कहा कि वे इस मुद्दे पर राज्य सरकारों के साथ परामर्श की प्रक्रिया में तेजी लाएँ।
  • न्यायालय एक अलग सुनवाई में इस बात की जाँच करेगा कि ग्राम न्यायालय की स्थापना अनिवार्य है या नहीं।

ग्राम न्यायालय के बारे में 

  • उत्पत्ति: भारतीय विधि आयोग (Law Commission of India) ने अपनी 114वीं रिपोर्ट में नागरिकों को उनके घर के निकट किफायती एवं त्वरित न्याय उपलब्ध कराने के लिए ग्राम न्यायालयों की स्थापना का सुझाव दिया था। 
  • स्थापना: ग्राम न्यायालय अधिनियम, 2008 को जमीनी स्तर पर ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए अधिनियमित किया गया है।
  • वैधानिक एवं अर्द्ध-न्यायिक निकाय।
    • यह अधिनियम नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, सिक्किम राज्यों को छोड़कर संपूर्ण भारत पर लागू है।
    • परिभाषा: ग्राम न्यायालय एक मोबाइल कोर्ट होगा तथा वह फौजदारी एवं सिविल दोनों न्यायालयों की शक्तियों का प्रयोग करेगा।
    • उद्देश्य: ग्राम न्यायालयों का उद्देश्य नागरिकों को उनके घर के निकट न्याय उपलब्ध कराना तथा यह सुनिश्चित करना है कि किसी भी नागरिक को सामाजिक, आर्थिक या अन्य अक्षमताओं के कारण न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न किया जाए।
  • अपील प्रक्रिया
    • आपराधिक मामले: इसे सत्र न्यायालय में ले जाया जाएगा।
    • सिविल मामले: इसे जिला न्यायालय में ले जाया जाएगा।

संविधान में सहायक प्रावधान

  • अनुच्छेद-39A: भारतीय संविधान के राज्य नीति निदेशक सिद्धांतों (भाग IV) में 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 द्वारा जोड़ा गया यह अनुच्छेद राज्य को ‘समान अवसर के आधार पर समान न्याय सुनिश्चित करने और निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करने’ का निर्देश देता है।
  • भाग IX (पंचायत): सत्ता के विकेंद्रीकरण और जमीनी स्तर पर शासन पर जोर देता है, जिसका समर्थन ग्राम न्यायालय करते हैं।

  • अपीलों का समय पर निपटान: दोनों मामलों में अपीलों की सुनवाई और निपटान छह महीने के भीतर किया जाना चाहिए।
  • न्याय विभाग के अनुसार, वर्तमान में केवल 15 राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों ने ग्राम न्यायालयों को अधिसूचित किया है।
    • देश भर में 481 अधिसूचित ग्राम न्यायालयों में से केवल 313 ही कार्यरत हैं।

ग्राम न्यायालय की विशेषताएँ

  • अधिकार क्षेत्र अधिसूचना: राज्य सरकार ने उच्च न्यायालय के परामर्श से ग्राम न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र की सीमाओं को अधिसूचित किया है। वह किसी भी समय ऐसी सीमाओं में परिवर्तन भी कर सकती है।
  • मोबाइल कोर्ट सेशन: यह अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाले गाँवों में मोबाइल कोर्ट आयोजित कर सकता है और राज्य सरकार सभी आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करेगी।
  • पीठासीन अधिकारी (Presiding Officer): ग्राम न्यायालय प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट का न्यायालय होगा तथा इसका पीठासीन अधिकारी (न्यायाधिकारी) उच्च न्यायालय के परामर्श से राज्य सरकार द्वारा नियुक्त किया जाएगा।
  • नियुक्ति प्रक्रिया: राज्य सरकार उच्च न्यायालय के परामर्श से प्रत्येक ग्राम न्यायालय के लिए न्याय अधिकारी (Nyay Adhikari) नामक पीठासीन अधिकारी की नियुक्ति करेगी, जो प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्रेट के रूप में नियुक्त होने के योग्य व्यक्ति होगा।

  • सीट: ग्राम न्यायालय की सीट मध्यवर्ती पंचायत के मुख्यालय में स्थित होगी, वे गाँवों में जाएँगे, वहाँ कार्य करेंगे और मामलों का निपटारा करेंगे।
  • प्रत्येक जिले में स्थापना: ग्राम न्यायालय की स्थापना प्रत्येक पंचायत में मध्यवर्ती स्तर पर या किसी जिले में मध्यवर्ती स्तर पर समीपवर्ती पंचायतों के समूह में या किसी राज्य में जहाँ मध्यवर्ती स्तर पर कोई पंचायत नहीं है, वहाँ की जाएगी।
    • प्रारंभिक प्रस्ताव: ग्राम न्यायालयों को शुरू में मध्यवर्ती पंचायत स्तर पर स्थापित करने का प्रस्ताव था, जिसमें गैर-आवर्ती व्यय के लिए 18 लाख रुपये का एकमुश्त बजट था।
    • केंद्र सरकार ने पहले तीन वर्षों के लिए आवर्ती व्यय का 50% भी वहन किया।
  • परीक्षण क्षेत्राधिकार (Trial Jurisdiction): ग्राम न्यायालयों को अधिनियम की प्रथम और द्वितीय अनुसूची में उल्लिखित आपराधिक मामलों, सिविल मुकदमों, दावों या विवादों को सँभालने के लिए अधिकृत किया गया है।
    • ऐसे अपराध जो मृत्युदंड, आजीवन कारावास या दो वर्ष से अधिक अवधि के कारावास से दंडनीय नहीं हैं।
  • सारांश प्रक्रिया: ग्राम न्यायालय आपराधिक मुकदमों में सारांश प्रक्रिया का पालन करेगा।
  • भारतीय साक्ष्य अधिनियम से बाध्य नहीं: ग्राम न्यायालय भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 में दिए गए साक्ष्य के नियमों से बाध्य नहीं होगा, बल्कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों द्वारा निर्देशित होगा और उच्च न्यायालय द्वारा बनाए गए किसी भी नियम के अधीन होगा।
  • सुलह पद्धति (Conciliation Methodology): ग्राम न्यायालय यथासंभव पक्षों के बीच सुलह कराकर विवादों को निपटाने का प्रयास करेगा तथा इस उद्देश्य के लिए नियुक्त किए जाने वाले सुलहकर्ताओं का उपयोग करेगा।

ग्राम न्यायालयों का महत्त्व 

  • न्याय तक पहुँच: ग्राम न्यायालय न्यायिक सेवाओं को ग्रामीण आबादी के करीब लाते हैं, जिससे दूरदराज के इलाकों में त्वरित और किफायती न्याय सुनिश्चित होता है।
  • न्यायालयों में भीड़भाड़ कम करना: स्थानीय स्तर पर छोटे-मोटे सिविल एवं आपराधिक मामलों को निपटाने के जरिए ग्राम न्यायालय अत्यधिक बोझ से दबे जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों पर बोझ कम करने में मदद कर सकते हैं।
    • लंबित मामलों में सबसे बड़ा योगदान जिला एवं अधीनस्थ न्यायालयों का है, जहाँ 4,53,51,913 मामले लंबित हैं।
  • लागत-प्रभावी कानूनी उपाय: ग्राम न्यायालयों में कानूनी कार्यवाही कम लागत वाली बनाई गई है, जिससे आर्थिक रूप से वंचित समूहों को लाभ मिल सके।
  • अनौपचारिक और कुशल प्रक्रियाएँ: वे सरलीकृत प्रक्रिया का पालन करते हैं, जिसमें साक्ष्य के औपचारिक नियमों का कोई सख्त पालन नहीं होता, जिससे प्रक्रिया तेज हो जाती है और आम लोगों के लिए अधिक सुलभ हो जाती है।
  • स्थानीय न्याय को बढ़ावा देना: ग्राम न्यायालय ग्रामीण समुदायों के भीतर कार्य करते हैं तथा स्थानीय आवश्यकताओं और सांस्कृतिक संदर्भ के प्रति संवेदनशीलता के साथ स्थानीय विवाद समाधान को प्रोत्साहित करते हैं।
  • ग्रामीण शासन को सशक्त बनाना: ये न्यायालय पंचायत क्षेत्रों में कानून और व्यवस्था को सुदृढ़ करके शासन के विकेंद्रीकरण को बढ़ावा देते हैं, जिससे ग्रामीण क्षेत्रों में कानून का शासन मजबूत होता है।

ग्राम न्यायालय की चुनौतियाँ

  • कार्यान्वयन में देरी: ग्राम न्यायालय अधिनियम को वर्ष 2008 में लागू किया गया था। 16 वर्ष बीत चुके हैं और हम इस स्थिति का सामना कर रहे हैं, जहाँ चार प्रतिशत ग्राम न्यायालय भी स्थापित नहीं हुए हैं।
  • बुनियादी ढाँचे की कमी: कई ग्राम न्यायालयों में न्यायालय कक्ष, प्रौद्योगिकी और सहायक कर्मचारियों जैसे बुनियादी ढाँचे की कमी है, जिससे उनका प्रभावी कामकाज सीमित हो जाता है।
  • अनिवार्य नहीं: अधिनियम ग्राम न्यायालयों की स्थापना को अनिवार्य नहीं बनाता है। अधिनियम की धारा 3 में प्रावधान है कि राज्य सरकारें ग्राम न्यायालयों का गठन कर सकती हैं।
  • क्षेत्राधिकार संबंधी टकराव (Jurisdictional Overlaps): तहसील स्तर पर मौजूदा न्यायालयों के साथ टकराव उत्पन्न हो सकता है, जिससे भ्रम और क्षेत्राधिकार संबंधी टकराव के मुद्दे उत्पन्न हो सकते हैं।
  • उच्च न्यायालयों पर अत्यधिक बोझ: वे अपील और रिट याचिकाओं के बोझ से उच्च न्यायालयों पर बोझ बढ़ा सकते हैं।
  • वित्तपोषण संबंधी बाधाएँ: राज्यों को अक्सर इन न्यायालयों की स्थापना और रखरखाव के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन आवंटित करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ता है, विशेषकर ग्रामीण और कम विकसित क्षेत्रों में।
    • केरल ने ग्राम न्यायालयों के विस्तार के लिए अतिरिक्त धनराशि की माँग उठाई थी, लेकिन केरल सरकार ने यह कहते हुए न्यायालयों के लिए धनराशि का वितरण स्थगित कर दिया था कि: ‘’अच्छे समय के लिए स्थगित किया गया है।
  • संसाधनों का कम उपयोग: कुछ क्षेत्रों में, ग्राम न्यायालय बहुत कम मामलों को सँभालते हैं, जिससे उनकी लागत-प्रभावशीलता और कम उपयोग के बारे में चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।
    • कर्नाटक जैसे उदाहरण, जहाँ ग्राम न्यायालय ने चार वर्षों में केवल 116 मामलों का निपटारा किया, जबकि ऐसे न्यायालयों को चलाने में काफी लागत आती है।
  • जागरूकता का अभाव: ग्रामीण लोग ग्रामीण आबादी वाले कई ग्राम न्यायालयों के अस्तित्व और लाभों से अनभिज्ञ रहती है, जिससे उनकी पहुँच और प्रभावशीलता सीमित हो जाती है।

ग्राम न्यायालयों पर सर्वोच्च न्यायालय की चिंताएँ और सिफारिशें

  • राज्य विशिष्ट आवश्यकताएँ: उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और राज्य सरकारों से इनपुट लेकर, प्रत्येक राज्य की आवश्यकताओं के आधार पर ग्राम न्यायालय स्थापित करना।
  • नियमित न्यायालयों पर ध्यान देना: नए ग्राम न्यायालयों की स्थापना की तुलना में नियमित न्यायालयों की संख्या बढ़ाने और उनके बुनियादी ढाँचे में सुधार को प्राथमिकता देना।
  • वित्तीय व्यवहार्यता: अतिरिक्त ग्राम न्यायालय स्थापित करने से पहले राज्यों की वित्तीय क्षमता का मूल्यांकन करना, क्योंकि नियमित न्यायालयों को वित्तपोषित करना पहले से ही एक चुनौती है।
  • उच्च न्यायालयों पर अत्यधिक बोझ को कम करना: ग्राम न्यायालयों के कारण उच्च न्यायालयों में अपील और रिट की संख्या बढ़ सकती है, जिससे संभावित रूप से उन पर मामलों का बोझ बढ़ सकता है।
  • नियमित न्यायालयों को प्रोत्साहित करना: बेहतर सुविधाओं और अधिक न्यायिक अधिकारियों के साथ नियमित न्यायालयों की संख्या बढ़ाना न्यायिक लंबित मामलों को कम करने के लिए अधिक प्रभावी समाधान हो सकता है।

ग्राम न्यायालयों को मजबूत करने की दिशा में आगे की राह

  • त्वरित कार्यान्वयन: वर्ष 2008 के अधिनियम के अनुसार, सभी राज्यों में ग्राम न्यायालयों की समय पर स्थापना सुनिश्चित करना। कार्यान्वयन की प्रगति की नियमित रूप से निगरानी और मूल्यांकन करना।
  • प्रस्तावित संशोधन: अधिनियम में संशोधन किया जाना चाहिए- ग्राम न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र के बारे में अस्पष्टताओं को दूर करने के लिए ग्राम न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र को फिर से परिभाषित किया जा सकता है।
  • एकसमान कार्यप्रणाली: एकरूपता सुनिश्चित करने के लिए राज्यों में ग्राम न्यायालयों के कामकाज को मानकीकृत करना।
  • पर्याप्त निधि और अवसंरचना: ग्राम न्यायालयों की स्थापना एवं रखरखाव के लिए पर्याप्त निधि आवंटित करना। उचित न्यायालय, कार्यालय और अन्य आवश्यक अवसंरचना विकसित करना।
  • ग्राम न्यायालयों को सहायता देने की पहल: ग्राम न्यायालय योजना (केंद्र प्रायोजित योजना (CSS) के तहत, केंद्र सरकार ग्राम न्यायालय स्थापित करने के लिए राज्यों को वित्तीय सहायता प्रदान करती है।
  • प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना: कार्यदक्षता में सुधार के लिए केस प्रबंधन, फाइलिंग और सुनवाई के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग करना। ऑनलाइन सेवाओं तक पहुँच को सक्षम करने के लिए ग्रामीण नागरिकों को डिजिटल साक्षरता प्रशिक्षण प्रदान करना।
  • आवधिक समीक्षा और फीडबैक: ग्राम न्यायालयों के कामकाज की आवधिक समीक्षा करना। समस्याओं की पहचान करने और उनका समाधान करने के लिए ग्रामीण समुदायों से फीडबैक एकत्र करना।

निष्कर्ष

हालाँकि ग्राम न्यायालयों में त्वरित, किफायती कानूनी उपाय प्रदान करके ग्रामीण भारत में न्याय तक पहुँच को बेहतर बनाने की क्षमता है, लेकिन उन्हें अपर्याप्त बुनियादी ढाँचे, वित्तपोषण संबंधी मुद्दों और अधिकार क्षेत्र संबंधी विवादों जैसी महत्त्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उच्च न्यायालयों में केस के भार को कम करने और सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करने में उनकी पूरी क्षमता का एहसास करने के लिए इन चुनौतियों का समाधान करना महत्त्वपूर्ण है।

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