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दुर्लभ मृदा तत्वों में आत्मनिर्भरता

Lokesh Pal June 11, 2025 04:04 23 0

संदर्भ

वैश्विक व्यापार युद्ध के बीच, चीन ने दुर्लभ मृदा तत्वों (REEs) के निर्यात को निलंबित कर दिया है, जिनका उपयोग स्मार्टफोन, अर्द्धचालक निर्माण और रक्षा उपकरणों जैसी प्रौद्योगिकियों में किया जाता है।

दुर्लभ मृदा तत्व (Rare Earth Elements-REEs) क्या हैं?

  • दुर्लभ मृदा तत्व (REEs) 17 धातु तत्वों का एक समूह है जो अपने अद्वितीय चुंबकीय, प्रवाहकीय और चमकदार गुणों के लिए जाने जाते हैं।
  • निष्कर्षण और परिवर्तन कठिन: उनका खनन करना और आर्थिक रूप से संसाधित करना कठिन है, और वर्तमान में, उनके उच्च-तकनीकी अनुप्रयोगों के लिए कोई आसान विकल्प मौजूद नहीं है।

दुर्लभ मृदा तत्वों (REEs) के भौगोलिक हॉटस्पॉट

  • असमान वितरण: दुर्लभ मृदा तत्व (REE) संपूर्ण विश्व में असमान रूप से फैले हुए हैं, कुछ विशिष्ट क्षेत्र प्रमुख हॉटस्पॉट हैं।
  • चीन: चीन के पास दुनिया के दुर्लभ मृदा तत्त्व (REE) भंडार का सबसे बड़ा 44 मिलियन मीट्रिक टन हिस्सा है और वह वार्षिक रूप से 2,70,000 मीट्रिक टन का उत्पादन करता है।
    • यूनाइटेड स्टेट्स जियोलॉजिकल सर्वे (2025) के अनुसार, चीन दुनिया के कुल REE उत्पादन का एक तिहाई से अधिक उत्पादन करता है।
    • चीन वैश्विक चुंबक उत्पादन क्षमता के 90% से अधिक को नियंत्रित करता है, जिससे वैश्विक उद्योगों के समक्ष कई प्रकार की चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं।
    • बायन ओबो निक्षेप (Bayan Obo Deposit): इनर मंगोलिया में बायन ओबो निक्षेप ने चीन को 1990 के दशक से REE की वैश्विक आपूर्ति में अपनी प्रमुख स्थिति बनाए रखने में सक्षम बनाया है।
  • ब्राजील: ब्राजील के पास दूसरा सबसे बड़ा भंडार (21 मिलियन मीट्रिक टन) है।
  • संयुक्त राज्य अमेरिका: अमेरिका के पास 1.9 मिलियन मीट्रिक टन भंडार है।
    • कैलिफोर्निया में अपने पर्याप्त भंडार के कारण संयुक्त राज्य अमेरिका 1970 और 1980 के दशक के दौरान दुर्लभ मृदा तत्त्व के अग्रणी वैश्विक उत्पादक के रूप में उभरा।
    • हालाँकि, 1990 के दशक में पर्यावरणीय और राजनीतिक कारकों के कारण यह प्रभुत्व समाप्त हो गया।
  • भारत: भारत के पास, विश्व में दुर्लभ मृदा तत्वों का पाँचवाँ सबसे बड़ा भंडार है।

दुर्लभ मृदा तत्वों के प्रमुख गुण

  • उच्च चुंबकीय शक्ति: कई REE, विशेष रूप से नियोडिमियम और डिस्प्रोसियम, मजबूत चुंबकीय गुण प्रदर्शित करते हैं, जो उन्हें उच्च-प्रदर्शन चुंबकों में आवश्यक बनाता है।
  • उच्च चालकता: REE में उत्कृष्ट विद्युत चालकता होती है, जो इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों में उनके उपयोग में योगदान देती है।
  • उच्च गलनांक: अधिकांश REE में उच्च गलनांक होते हैं, जो उन्हें उच्च तापमान अनुप्रयोगों के लिए उपयुक्त बनाते हैं।
  • उत्प्रेरक गुण: वे विभिन्न रासायनिक प्रतिक्रियाओं में उत्प्रेरक के रूप में कार्य कर सकते हैं, जो उन्हें शोधन और औद्योगिक प्रक्रियाओं में मूल्यवान बनाता है।
  • ऑप्टिकल गुण: यूरोपियम और टेरबियम जैसे कुछ REE का उपयोग फॉस्फोर और लेजर में प्रकाश उत्सर्जित करने की उनकी क्षमता के कारण किया जाता है।

REEs का उपयोग

  • उच्च तकनीक अनुप्रयोग: स्मार्टफोन, अर्द्धचालक, पवन टर्बाइन, EVs और रक्षा प्रणालियाँ (जैसे- मिसाइल मार्गदर्शन, रडार) में उपयोग किया जाता है।
  • हरित ऊर्जा संक्रमण: पवन टर्बाइन (नियोडिमियम) और EV मोटर्स (डिस्प्रोसियम) में स्थायी चुंबकों के लिए आवश्यक होता है।
  • रक्षा और एयरोस्पेस: जेट इंजन, सोनार सिस्टम और सैटेलाइट तकनीक में उपयोग किया जाता है।
  • बैटरी: लैंटेनम जैसे REE हाइब्रिड वाहनों में उपयोग की जाने वाली निकल-धातु हाइड्राइड (NiMH) बैटरियों का अभिन्न अंग हैं।
  • मेडिकल इमेजिंग: अपने चुंबकीय गुणों के कारण MRI स्कैनर, PET स्कैन और अन्य इमेजिंग उपकरणों में उपयोग किया जाता है।

दुर्लभ मृदा तत्वों (REEs) में भारत की स्थिति

  • भारत के दुर्लभ मृदा भंडार: भारत में विश्व स्तर पर दुर्लभ मृदा तत्वों का पाँचवाँ सबसे बड़ा भंडार है, जिसका अनुमान 6.9 मिलियन मीट्रिक टन है।
  • ये भंडार मुख्य रूप से निम्नलिखित स्थानों पर पाए जाते हैं:
    • आंध्र प्रदेश (सबसे अधिक भंडार)
    • कर्नाटक
    • ओडिशा
    • केरल (मोनाज़ाइट रेत से समृद्ध)
  • बड़े भंडार के बावजूद, भारत वैश्विक REEs उत्पादन में 1% से भी कम योगदान देता है।
  • प्रमुख खनिज
    • मोनाजाइट: मोनाजाइट भारत में REEs का प्राथमिक स्रोत है, जिसमें दुर्लभ मृदा तत्त्व और थोरियम (एक रेडियोधर्मी पदार्थ) होता है।
    • हल्के REEs (भारत में प्रचुर मात्रा में): लैंटेनम (Lanthanum), सेरियम (Cerium), सैमरियम (Samarium)।
    • भारी REEs (सीमित आपूर्ति): डिस्प्रोसियम, टर्बियम (चीन वैश्विक उत्पादन पर शीर्ष पर  है)।

REE उत्पादन और शोधन को बढ़ावा देने के लिए सरकारी पहल

  • MMDR अधिनियम संशोधन, 2023: दुर्लभ खनिजों को ‘महत्त्वपूर्ण खनिजों’ के रूप में वर्गीकृत करने के लिए खान और खनिज (विकास एवं विनियमन) अधिनियम में संशोधन किया गया।
    • इससे केंद्र द्वारा उनकी नीलामी की अनुमति मिलेगी और अन्वेषण तथा खनन में निजी क्षेत्र की भागीदारी को सक्षम बनाया जा सकेगा।
  • राष्ट्रीय महत्वपूर्ण खनिज मिशन (National Critical Minerals Mission) (2025): इस मिशन का उद्देश्य अन्वेषण, प्रसंस्करण, पुनर्चक्रण और अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी के माध्यम से REEs जैसे महत्वपूर्ण खनिजों तक सुरक्षित और स्थायी पहुँच सुनिश्चित करना है, जो भारत के ऊर्जा संक्रमण और आत्मनिर्भर भारत लक्ष्यों के अनुरूप है।
  • निजी क्षेत्र के लिए खोलना: पहले सार्वजनिक क्षेत्र (IREL) तक सीमित, सरकार ने अब निजी कंपनियों को अवपरमाण्विक REEs की खोज और खनन की अनुमति दे दी है।
  • इंडियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड (Indian Rare Earths Limited-IREL) को मजबूत बनाना: IREL मोनाजाइट रेत से REE निष्कर्षण के लिए नोडल PSUs है। सरकार IREL की प्रसंस्करण क्षमता का विस्तार कर रही है और कुशल पृथक्करण एवं शोधन के लिए प्रौद्योगिकी को उन्नत कर रही है।
  • रणनीतिक अंतरराष्ट्रीय सहयोग: भारत ने अन्वेषण, प्रौद्योगिकी साझाकरण और REEs आपूर्ति श्रृंखलाओं को सुरक्षित करने पर सहयोग करने के लिए ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका जैसे देशों के साथ समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए हैं।
  • REEs थीम पार्क: दुर्लभ पृथ्वी और टाइटेनियम थीम पार्क, भोपाल, मध्य प्रदेश में IREL (इंडिया) लिमिटेड द्वारा विकसित एक भविष्य की अवधारणा है। 
    • इसका उद्देश्य दुर्लभ पृथ्वी तत्त्वों के प्रसंस्करण और उपयोग के लिए प्रौद्योगिकियों का प्रदर्शन करना है।

REEs आत्मनिर्भरता में चुनौती

  • IREL का एकाधिकार: इंडियन रेयर अर्थ्स लिमिटेड (IREL), एक सरकारी संस्था है, जिसका REEs खनन और प्रसंस्करण पर लगभग एकाधिकार है, जिससे निजी निवेश हतोत्साहित हो रहा है।
    • हालाँकि भारत ने वर्ष 2025 में निजी हितधारकों के लिए REEs खनन खोल दिया है, लेकिन नौकरशाही की देरी और अस्पष्ट नीतियों के कारण प्रगति धीमी है।
  • कमजोर शोधन और प्रसंस्करण: भारत में REEs को अलग करने और परिष्कृत करने के लिए उन्नत सुविधाओं का अभाव है, जिससे मूल्य-वर्धित उत्पादों के स्थान पर कच्चे खनिजों (जैसे- जापान को नियोडिमियम) का निर्यात करना पड़ता है।
  • बड़े पैमाने पर उत्पादन नहीं: चीन दुर्लभ मृदा तत्त्वों के उत्पादन के 90% को नियंत्रित करता है, जबकि भारत में EV, पवन टर्बाइन और रक्षा प्रणालियों के लिए शून्य घरेलू उत्पादन है।
  • पर्यावरण और विनियामक बाधाएँ: मोनाजाइट रेत (भारत का प्राथमिक REE स्रोत) में थोरियम होता है, जिसके लिए परमाणु ऊर्जा कानूनों के तहत सख्त प्रबंधन की आवश्यकता होती है।
    • पिछले अवैध खनन के कारण प्रतिबंध लगे हैं, हाल ही में दी गई छूट के बावजूद नई परियोजनाओं में देरी हो रही है।
  • तकनीकी और वित्तीय अंतर: भारत अनुसंधान एवं विकास पर GDP का 0.6-0.7% खर्च करता है, जबकि चीन 2.6% खर्च करता है, जिससे निष्कर्षण एवं विकल्पों में नवाचार सीमित हो जाता है।
    • प्रस्तावित ₹16,300 करोड़ का राष्ट्रीय महत्वपूर्ण खनिज मिशन पूर्ण आपूर्ति-श्रृंखला विकास के लिए अपर्याप्त हो सकता है।
  • धीमी अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी: हालाँकि भारत अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान के साथ सहयोग करता है, लेकिन विस्तार करने में वर्षों लग जाते हैं, चीन ने दशकों में प्रभुत्व स्थापित किया है।

भारत में REEs उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए आगे की राह

  • निजी क्षेत्र की भागीदारी को प्रोत्साहित करना: REEs की खोज और खनन में अधिक निजी निवेश की अनुमति देना।
    • जापान के टोयोटा त्सुशो** (आंध्र प्रदेश संयंत्र) के साथ IREL की साझेदारी उन्नत प्रसंस्करण के लिए एक मॉडल है, इसी तरह के संयुक्त उद्यमों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  • तकनीकी क्षमता में वृद्धि: विशेष रूप से भारी REEs के लिए उन्नत निष्कर्षण, शोधन और पृथक्करण प्रौद्योगिकियों में निवेश करना।
    • भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (Bhabha Atomic Research Centre-BARC), CSIR-NML और DRDO जैसे संस्थानों के तहत REEs R&D क्लस्टर स्थापित करना।
  • रणनीतिक अंतरराष्ट्रीय भागीदारी का निर्माण करना: ऑस्ट्रेलिया, संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान जैसे देशों के साथ महत्त्वपूर्ण खनिज गठबंधनों का विस्तार करना।
    • खानिज बिदेश इंडिया लिमिटेड (KABIL) अर्जेंटीना, चिली और अफ्रीका में लिथियम/कोबाल्ट परिसंपत्तियों की तलाश कर रही है। अफ्रीकी खदानों में चीन का प्रभुत्व एक बाधा है, भारत को बेहतर शर्तें और सतत् खनन मॉडल प्रस्तुत करने चाहिए।
  • REE-आधारित औद्योगिक पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करना: REE का उपयोग करके इलेक्ट्रॉनिक्स, EV, रक्षा और नवीकरणीय ऊर्जा में डाउनस्ट्रीम उद्योगों को बढ़ावा देना।
    • भारत ने वर्ष 2030 तक 30% EV बिक्री का लक्ष्य रखा है, जिससे EV मोटरों में उपयोग होने वाले नियोडिमियम-आयरन-बोरॉन (NdFeB) मैग्नेट की माँग बढ़ेगी।
  • ई-अपशिष्ट पुनर्चक्रण को बढ़ावा देना: इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट से REEs के शहरी खनन को बढ़ावा देना चाहिए।
    • कर्नाटक राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और भारतीय विज्ञान संस्थान चुंबक और फ्लोरोसेंट लैंप से दुर्लभ पृथ्वी तत्त्वों को निकालने पर कार्य कर रहे हैं।
  • पर्यावरणीय स्थिरता पर ध्यान देना: REEs उत्पादन में पर्यावरण के अनुकूल और शून्य-अपशिष्ट प्रौद्योगिकियों को अनिवार्य करना।
    • सामुदायिक सहभागिता मॉडल (जैसे- यू.एस. ‘राइट-टू-नो’ कानून) सतत् खनन सुनिश्चित कर सकते हैं।

निष्कर्ष

स्मार्टफोन से लेकर सैटेलाइट तक, इलेक्ट्रिक वाहनों से लेकर उन्नत हथियार प्रणालियों तक, 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था के लिए दुर्लभ मृदा तत्व अपरिहार्य हैं। एक महत्त्वपूर्ण REEs हितधारक के रूप में भारत की क्षमता का अभी तक दोहन नहीं हुआ है। प्रभावी नीतिगत समर्थन, प्रौद्योगिकी संचार और स्थिरता पर ध्यान केंद्रित करने के साथ, REE भारत की रणनीतिक स्वायत्तता और स्वच्छ तकनीक के भविष्य को शक्ति प्रदान कर सकते हैं।

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