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मंदिरों पर राज्य का नियंत्रण

Lokesh Pal July 24, 2025 03:01 30 0

संदर्भ

हाल ही में तमिलनाडु में मंदिरों के धन को कॉलेजों के निर्माण में लगाने के मुद्दे पर राजनीतिक विवाद छिड़ गया।

  • धर्मनिरपेक्ष उद्देश्यों के लिए मंदिर निधि को विनियमित करने का तमिलनाडु का मॉडल 200 वर्ष प्राचीन विधायी ढाँचे पर आधारित है।

मंदिरों की ऐतिहासिक भूमिका

  • प्राचीन भारत: पूजा और भक्ति के केंद्र (जैसे- वैदिक अनुष्ठान, भक्ति आंदोलन)।
    • राजाओं (जैसे- चोल, पल्लव और गुप्त राजवंशों) द्वारा मंदिर निर्माण के लिए संरक्षण प्राप्त, जो राजनीतिक शक्ति और सांस्कृतिक पहचान को दर्शाता है।
    • उदाहरण: बृहदेश्वर मंदिर (तंजावुर), खजुराहो मंदिर।
  • मध्यकालीन काल: शैक्षिक केंद्रों के रूप में मंदिर (जैसे- वेद, कला और विज्ञान पढ़ाने वाले मंदिर विद्यालय)।
    • भूमि, दान और व्यापार का प्रबंधन करने वाले आर्थिक केंद्र (जैसे- जगन्नाथ मंदिर, पुरी)।
    • विजयनगर के शासकों ने शिक्षा और कल्याण के लिए मंदिरों का उपयोग किया।
  • औपनिवेशिक युग: मंदिर सामाजिक सुधार आंदोलनों के केंद्र बिंदु बन गए (जैसे- वायकोम सत्याग्रह, 1924-25, निचली जातियों के प्रवेश के लिए)।
    • मंदिरों के वित्त की देख-रेख के लिए ब्रिटिश नियम लागू किए गए (जैसे- मद्रास धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम, 1817)।

भारतीय मंदिरों की प्रमुख भूमिकाएँ

  • धार्मिक और आध्यात्मिक भूमिका
    • पूजा के केंद्र: देवताओं (जैसे- विष्णु, शिव, देवी) को समर्पित मंदिर अनुष्ठानों, त्योहारों और तीर्थयात्राओं का आयोजन करते हैं।
    • भक्ति आंदोलन: मंदिरों ने भक्ति आधारित पूजा को लोकप्रिय बनाया और विविध समुदायों (जैसे- रामानुज, चैतन्य महाप्रभु) को एकजुट किया।
    • त्योहार: मंदिर कुंभ मेला, रथ यात्रा और दीपावली जैसे समारोहों का आयोजन करते हैं, जिससे आध्यात्मिक एकता बढ़ती है।
  • सामाजिक भूमिका
    • सामुदायिक केंद्र: मंदिर सांस्कृतिक कार्यक्रमों, विवाहों और सामुदायिक चर्चाओं के लिए एकत्रित होने का स्थान होते हैं।
      • उदाहरण: तिरुपति और गुरुवायुर जैसे मंदिरों में अन्नदानम् (मुफ्त भोजन वितरण)
    • सामाजिक न्याय: मंदिर प्रवेश के लिए आंदोलनों (जैसे- सबरीमाला मामला, 2018) ने महिलाओं और हाशिए पर पड़ी जातियों के लिए प्रवेश सुनिश्चित किया।
    • शिक्षा और सशक्तीकरण: ऐतिहासिक रूप से, मंदिरों में गुरुकुल और पाठशालाएँ चलती थीं।
      • आधुनिक मंदिर स्कूलों और व्यावसायिक प्रशिक्षण (जैसे- तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम् की शैक्षिक पहल) को बढ़ावा देते हैं।
  • सांस्कृतिक भूमिका
    • कला और स्थापत्य कला का संरक्षण: मंदिर स्थापत्य कला शैलियों को प्रदर्शित करते हैं: द्रविड़ (दक्षिण भारत), नागर (उत्तर भारत), वेसर (दक्कन)।
      • उदाहरण: कोणार्क सूर्य मंदिर, मीनाक्षी मंदिर।
      • जटिल मूर्तियाँ, चित्रकारी और शिलालेख सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करते हैं।
    • प्रदर्शन कलाओं को बढ़ावा: मंदिर शास्त्रीय नृत्य (जैसे- चिदंबरम् मंदिर में भरतनाट्यम्) और संगीत (जैसे- कर्नाटक संगीत समारोह) को संरक्षण देते हैं।
    • साहित्य और भाषा: मंदिरों ने वेदों, पुराणों और क्षेत्रीय साहित्य (जैसे- दक्षिण भारतीय मंदिरों में तमिल संगम काव्य) जैसे ग्रंथों को संरक्षित किया।
  • आर्थिक भूमिका
    • राजस्व सृजन: तिरुपति बालाजी, वैष्णो देवी और शिरडी साईं बाबा जैसे प्रमुख मंदिरों में दान, चढ़ावे और पर्यटन के माध्यम से अरबों डॉलर का संग्रह होता है।
    • रोजगार: मंदिर पुजारियों, कारीगरों और प्रशासनिक कर्मचारियों को रोजगार देते हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था को सहारा मिलता है।
    • भूमि और संसाधन प्रबंधन: ऐतिहासिक रूप से मंदिरों के पास विशाल भूमि होती थी, जिसका उपयोग कृषि और सामुदायिक कल्याण के लिए किया जाता था।
      • आधुनिक मंदिर ट्रस्ट अस्पतालों और स्कूलों जैसी सामाजिक परियोजनाओं में निवेश करते हैं।
  • राजनीतिक भूमिका
    • ऐतिहासिक प्रभाव: मंदिर शाही सत्ता के प्रतीक (उदाहरण के लिए- चोल राजाओं द्वारा मंदिरों का संरक्षण) थे।
      • मंदिरों को दिए गए दान से राजनीतिक शक्ति को वैधता मिलती थी।
    • आधुनिक संदर्भ: मंदिर चुनावी राजनीति को प्रभावित करते हैं (उदाहरण के लिए, राज्य नियंत्रण पर बहस, अयोध्या राम मंदिर)।
      • राजनीतिक दल लामबंदी के लिए मंदिर के मुद्दों का लाभ उठाते हैं।
  • सामाजिक सुधार और समावेशन
    • जातिगत बाधाओं का उन्मूलन: मंदिर प्रवेश आंदोलनों (जैसे- वायकोम, कालाराम मंदिर प्रवेश सत्याग्रह) ने जातिगत भेदभाव को चुनौती दी।
      • संवैधानिक समर्थन: अनुच्छेद-17 (अस्पृश्यता उन्मूलन), अनुच्छेद-25(2) (सामाजिक सुधार)।
    • लैंगिक समानता: सबरीमाला मामले (2018) के निर्णय ने महिलाओं के प्रवेश की अनुमति दी, जिससे लैंगिक न्याय को बढ़ावा मिला।
      • कुछ मंदिरों में महिला पुजारी (जैसे- महाराष्ट्र के प्रगतिशील मंदिर)।
    • कल्याणकारी गतिविधियाँ: मंदिर अनाथालयों, अस्पतालों और आपदा राहत (जैसे- टीटीडी के कोविड-19 राहत प्रयास) के लिए धन मुहैया कराते हैं।
  • सांस्कृतिक पर्यटन के केंद्र के रूप में मंदिर: मंदिर भारत के सांस्कृतिक पर्यटन का अभिन्न अंग हैं, जो प्रतिवर्ष लाखों राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।

भारत में मंदिरों के नियमन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

पूर्व-औपनिवेशिक युग

  • मंदिर सांस्कृतिक और सामाजिक केंद्र थे, जहाँ राजाओं द्वारा दिए गए दान से धार्मिक अनुष्ठान, शिक्षा और कल्याण (जैसे- स्कूल, अस्पताल) का खर्च चलता था।
  • प्रबंधन: पारंपरिक रूप से स्थानीय समुदायों या राजाओं द्वारा प्रबंधित।

औपनिवेशिक युग: ब्रिटिश शासन

  • प्रारंभिक विनियमन
    • वर्ष 1817: ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने कुप्रबंधन की चिंताओं के कारण मंदिर दान को विनियमित करने के लिए कानून पेश किए।
    • वर्ष 1863: धार्मिक दान अधिनियम ने धन के उचित उपयोग को सुनिश्चित करने के लिए मंदिर की संपत्तियों पर सरकार की निगरानी की अनुमति दी।
  • जस्टिस पार्टी का योगदान (1920 का दशक):
    • वर्ष 1920 में मद्रास प्रेसीडेंसी से निर्वाचित।
    • हिंदू धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम, 1922 प्रस्तुत किया।
    • मंदिर के अधिशेष धन को धर्मनिरपेक्ष उद्देश्यों के लिए उपयोग करने की अनुमति देने वाले प्रावधानों के कारण विरोध का सामना करना पड़ा।
    • वर्ष 1925 में कानून पारित किया गया, जिसने मंदिर के धन का उपयोग जन कल्याण के लिए करने की एक मिसाल कायम की।
  • मद्रास हिंदू धार्मिक बंदोबस्ती अधिनियम (वर्ष 1925): मंदिरों के धर्मनिरपेक्ष कार्यों और वित्त का प्रबंधन करने के लिए हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती बोर्ड की स्थापना की गई।

स्वतंत्रता के बाद का कानूनी ढाँचा

  • संवैधानिक अधिदेश
    • अनुच्छेद-25 धार्मिक स्वतंत्रता की अनुमति देता है, लेकिन धर्म के धर्मनिरपेक्ष पहलुओं (जैसे- मंदिर प्रशासन, वित्तीय पारदर्शिता) के विनियमन की भी अनुमति देता है।
  • तमिलनाडु हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती (Hindu Religious and Charitable Endowments- HR&CE) अधिनियम (1959): यह मंदिर के अधिशेष धन का उपयोग शिक्षा और कल्याण जैसे धर्मनिरपेक्ष उद्देश्यों के लिए करने की अनुमति देता है, जिससे प्रबंधन में पारदर्शिता सुनिश्चित होती है।
    • धारा 36: न्यासियों को आयुक्त की स्वीकृति से अधिनियम में सूचीबद्ध उद्देश्यों के लिए अधिशेष धन का उपयोग करने की अनुमति देती है।
      • अधिशेष: मंदिर के रखरखाव और कर्मचारियों के प्रशिक्षण के बाद बची हुई धनराशि।
    • धारा 66: विश्वविद्यालयों या महाविद्यालयों की स्थापना/रखरखाव के लिए अधिशेष निधियों के उपयोग की अनुमति देता है।
      • शैक्षणिक संस्थानों में हिंदू धर्म या मंदिर वास्तुकला का अध्ययन शामिल होना चाहिए।
    • यदि मूल उद्देश्य संभव न हो, तो संयुक्त/उपायुक्त को निधियों को पुनर्निर्देशित करने का अधिकार देता है।
    • न्यायिक मान्यता: इस अधिनियम को संवैधानिक न्यायालयों द्वारा बरकरार रखा गया है, जिससे इसकी वैधता मजबूत हुई है।

मंदिरों से संबंधित संवैधानिक प्रावधान

  • अनुच्छेद-14: कानून के समक्ष समानता
    • जाति, लिंग या धर्म की परवाह किए बिना सभी नागरिकों के लिए कानून के तहत समान व्यवहार सुनिश्चित करता है।
    • उदाहरण: सबरीमाला मामला (वर्ष 2018) – सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद-14 के तहत समानता का हवाला देते हुए सभी आयु की महिलाओं को सबरीमाला मंदिर में प्रवेश की अनुमति दी।
  • अनुच्छेद-15: धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है।
    • अनुच्छेद-15(2): सभी नागरिकों के लिए मंदिरों सहित सार्वजनिक स्थानों तक पहुँच सुनिश्चित करता है।
  • अनुच्छेद-17: अस्पृश्यता का उन्मूलन
    • अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है और किसी भी रूप में इसके पालन पर रोक लगाता है।
    • उदाहरण: मंदिर प्रवेश आंदोलनों (जैसे- वायकोम सत्याग्रह, वर्ष 1924- वर्ष 2025) ने इस प्रावधान की नींव रखी।
  • अनुच्छेद-25: धार्मिक स्वतंत्रता
    • अनुच्छेद-25(1): सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन, धर्म का पालन, प्रचार और प्रसार करने की स्वतंत्रता की गारंटी देता है।
    • अनुच्छेद-25(2): सामाजिक कल्याण या सुधार के लिए धार्मिक संस्थानों को विनियमित करने हेतु राज्य के हस्तक्षेप की अनुमति देता है।
      • उदाहरण: तमिलनाडु जैसे राज्यों द्वारा पारित हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम इस प्रावधान के तहत मंदिर प्रशासन को विनियमित करते हैं।
  • अनुच्छेद-26: धार्मिक मामलों के प्रबंधन की स्वतंत्रता
    • धार्मिक संप्रदायों को सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के अधीन, संस्थाओं की स्थापना और प्रबंधन का अधिकार प्रदान करता है।
    • उदाहरण: पद्मनाभस्वामी मंदिर मामला (वर्ष 2020) – सर्वोच्च न्यायालय ने राजपरिवार के अधिकारों को बरकरार रखा, लेकिन अनुच्छेद-26 की सीमाओं का हवाला देते हुए पारदर्शिता के लिए राज्य की निगरानी की अनुमति दी।
  • 7वीं अनुसूची की समवर्ती सूची (प्रविष्टि 28): ‘धार्मिक बंदोबस्ती और धार्मिक संस्थान’ केंद्र और राज्यों दोनों को मंदिर प्रशासन पर कानून बनाने की अनुमति देता है।

भारत में पूजा स्थलों का प्रबंधन

  • हिंदू मंदिर: अधिकांश हिंदू मंदिरों का प्रबंधन राज्य के नियमों के तहत होता है।
    • तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में विशिष्ट विभाग (जैसे- तमिलनाडु में मानव संसाधन और सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता विभाग) हैं, जो मंदिर प्रबंधन की देख-रेख करते हैं, जिसमें वित्त, मंदिर प्रमुखों की नियुक्ति और प्रशासन शामिल हैं।
    • उदाहरण: तिरुपति मंदिर का प्रबंधन करने वाला तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम (Tirumala Tirupati Devasthanams- TTD) आंध्र प्रदेश सरकार के नियंत्रण में है।
    • आय उपयोग: मंदिरों से प्राप्त राजस्व छोटे मंदिरों और कल्याणकारी गतिविधियों, जैसे- अस्पताल, अनाथालय और शैक्षणिक संस्थानों के रखरखाव के लिए आवंटित किया जाता है।
  • मस्जिदें: मुख्य रूप से वक्फ अधिनियम, 1995 के तहत वक्फ बोर्डों द्वारा प्रबंधित, जो राज्य सरकारों द्वारा प्रशासित एक केंद्रीय कानून है।
    • वक्फ बोर्ड मस्जिद की संपत्तियों, वित्त और रखरखाव की देख-रेख करते हैं, और यह सुनिश्चित करते हैं कि उनका उपयोग धार्मिक और धर्मार्थ उद्देश्यों के लिए किया जाए।
  • चर्च: भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 और अन्य कानूनों के तहत धर्मप्रांतों, चर्च परिषदों या ट्रस्टों द्वारा प्रबंधित।
    • उदाहरण: चर्च ऑफ साउथ इंडिया (Church of South India- CSI) और कैथोलिक बिशप्स कॉन्फ्रेंस ऑफ इंडिया (Catholic Bishops’ Conference of India- CBCI) चर्च की संपत्तियों और गतिविधियों की देख-रेख करते हैं।
  • गुरुद्वारे: पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (Shiromani Gurdwara Parbandhak Committee- SGPC) द्वारा सिख गुरुद्वारा अधिनियम, 1925 के तहत शासित।
    • SGPC प्रमुख गुरुद्वारों (जैसे- स्वर्ण मंदिर, अमृतसर) का प्रबंधन करती है और वित्तीय, अनुष्ठानों और कल्याणकारी गतिविधियों की देख-रेख करती है।
    • छोटे गुरुद्वारों का प्रबंधन स्थानीय समितियों या ट्रस्टों द्वारा किया जाता है।
  • जैन मंदिर और अन्य अल्पसंख्यक पूजा स्थल: जैन मंदिरों का प्रबंधन ट्रस्टों या सामुदायिक संगठनों (जैसे- राजस्थान में श्री महावीरजी ट्रस्ट) द्वारा किया जाता है।
    • बौद्ध मठों (जैसे- लद्दाख, सिक्किम में) का प्रबंधन मठवासी संघों या ट्रस्टों द्वारा किया जाता है।
    • पारसी अग्नि मंदिरों का प्रबंधन पारसी अंजुमनों या ट्रस्टों द्वारा किया जाता है, जिनमें राज्य की न्यूनतम भागीदारी होती है।

राज्य विधान और हस्तक्षेप

  • समवर्ती सूची में धार्मिक बंदोबस्ती: धार्मिक बंदोबस्ती और संस्थाएँ संविधान की सातवीं अनुसूची की समवर्ती सूची में सूचीबद्ध हैं, जिससे केंद्र और राज्य दोनों को इस विषय पर कानून बनाने का अधिकार प्राप्त है।
    • इसके परिणामस्वरूप राज्यों में विविध नियामक ढाँचे बनते हैं।
  • विशिष्ट राज्य कानून: तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों के अपने धार्मिक बंदोबस्ती कानून हैं, जो उन्हें मंदिर प्रशासन, आय और व्यय पर अधिकार प्रदान करते हैं।

प्रमुख न्यायिक निर्णय

  • शिरूर मठ मामला (वर्ष 1954): सर्वोच्च न्यायालय ने यह माना कि राज्य धार्मिक प्रथाओं में हस्तक्षेप नहीं कर सकता, लेकिन वह धार्मिक संस्थाओं के प्रशासन और वित्त जैसे धर्मनिरपेक्ष पहलुओं को विनियमित कर सकता है।
    • यह एक ऐतिहासिक निर्णय था, जिसने धार्मिक स्वतंत्रता का अतिक्रमण किए बिना मंदिरों के विनियमन में राज्य की भूमिका को स्पष्ट किया।
  • रतिलाल पनाचंद गांधी बनाम बंबई राज्य (वर्ष 1954): न्यायालय ने यह माना कि राज्य धार्मिक संस्थाओं की संपत्ति और वित्त का विनियमन कर सकता है, लेकिन धार्मिक प्रथाओं का उल्लंघन नहीं कर सकता।
    • इसने इस सिद्धांत को पुष्ट किया कि संविधान के अनुच्छेद-25 के तहत धर्मनिरपेक्ष विनियमन अनुमेय है।
  • शेषम्मल बनाम तमिलनाडु राज्य (वर्ष 1972): न्यायालय ने निर्णय दिया कि पुजारियों की नियुक्ति को एक धर्मनिरपेक्ष कार्य के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है,
    • इस बात पर बल देते हुए कि धार्मिक संस्थाओं का प्रशासनिक प्रबंधन राज्य द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है, लेकिन मूल धार्मिक प्रथाएँ उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर रहेंगी।
  • पन्नालाल बंसीलाल पित्ती बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (वर्ष 1996): सर्वोच्च न्यायालय ने मंदिरों में वंशानुगत पुरोहिती को समाप्त करने के आंध्र प्रदेश सरकार के निर्णय को बरकरार रखा,
    • इसे धार्मिक संस्थानों के प्रबंधन में सामाजिक न्याय और समावेशिता को बढ़ावा देने के उपाय के रूप में देखा।
  • आदित्यायन बनाम त्रावणकोर देवस्वोम बोर्ड (वर्ष 2002): सर्वोच्च न्यायालय ने पुरोहिती नियुक्तियों को सभी जातियों के लिए खोलने के पक्ष में फैसला सुनाया।
    • समानता के संवैधानिक सिद्धांतों के अनुरूप, मंदिर प्रशासन में जाति आधारित समावेशिता को बरकरार रखा।

मंदिरों पर राज्य नियंत्रण के पक्ष में तर्क

  • सामाजिक न्याय और समानता को बढ़ावा: अनुच्छेद-14 (समानता), 15 (भेदभाव न करना), और 17 (अस्पृश्यता उन्मूलन) राज्य के हस्तक्षेप को उचित ठहराते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि मंदिर सभी के लिए सुलभ हों, चाहे उनकी जाति या लिंग कुछ भी हो।
    • ऐतिहासिक रूप से मंदिरों में निचली जातियों और महिलाओं को प्रवेश से वंचित रखा गया (उदाहरण के लिए, वायकोम सत्याग्रह, वर्ष 1924- वर्ष 2025) है।
  • वित्तीय पारदर्शिता और जवाबदेही: प्रमुख मंदिर (उदाहरण के लिए, तिरुपति बालाजी, वैष्णो देवी) दान के माध्यम से महत्त्वपूर्ण राजस्व उत्पन्न करते हैं, जिसका बिना निगरानी के कुप्रबंधन हो सकता है।
    • उदाहरण: तिरुमाला तिरुपति देवस्थानम (Tirumala Tirupati Devasthanams- TTD) अधिशेष निधि का उपयोग शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और आपदा राहत के लिए करता है, जिससे हाशिए पर पड़े समुदायों को लाभ होता है।
  • सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण: मंदिर कला, वास्तुकला और इतिहास के भंडार हैं (उदाहरण के लिए, बृहदेश्वर मंदिर-एक यूनेस्को स्थल)। सरकारी निगरानी रखरखाव सुनिश्चित करती है और मंदिर की भूमि पर अतिक्रमण को रोकती है।
    • कोणार्क और मदुरै मीनाक्षी जैसे मंदिरों के जीर्णोद्धार के लिए भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (ASI) के साथ सहयोग।
  • लोक कल्याण और संसाधन उपयोग: मंदिर के संसाधन (भूमि, धन) सामाजिक आवश्यकताओं को पूरा कर सकते हैं और संवैधानिक आदेशों (अनुच्छेद-46) को पूर्ण कर सकते हैं।
    • राज्य मंदिर के राजस्व को कल्याणकारी कार्यक्रमों, जैसे स्कूल, अस्पताल और सामुदायिक रसोई (जैसे- टीटीडी की अन्नदानम योजना) के लिए निर्देशित करता है।
  • कुप्रबंधन और शोषण की रोकथाम: विनियमन के बिना, मंदिर ट्रस्ट कुलीन हितों को प्राथमिकता दे सकते हैं या कदाचार में लिप्त हो सकते हैं।
    • पद्मनाभस्वामी मंदिर मामला (वर्ष 2020) – सर्वोच्च न्यायालय ने मंदिर की विशाल संपत्ति का पारदर्शी प्रबंधन करने के लिए राज्य की निगरानी को बरकरार रखा।
  • धर्मनिरपेक्ष शासन: राज्य का नियंत्रण भारत के धर्मनिरपेक्ष ढाँचे (अनुच्छेद-25(2)) के अनुरूप है, जिससे सामाजिक सुधार और सार्वजनिक व्यवस्था के लिए हस्तक्षेप की अनुमति मिलती है।
    • राज्य के कानून यह सुनिश्चित करते हैं कि मंदिर संवैधानिक मूल्यों का पालन करें, जैसे भेदभावपूर्ण प्रथाओं को समाप्त करना।

मंदिरों पर राज्य के नियंत्रण के विरुद्ध तर्क

  • धार्मिक स्वायत्तता का उल्लंघन: अनुच्छेद-26 धार्मिक संप्रदायों को अपने मामलों का प्रबंधन स्वयं करने का अधिकार देता है, जिसका राज्य नियंत्रण उल्लंघन कर सकता है।
  • मंदिर प्रशासन का राजनीतीकरण: न्यासियों और अधिकारियों की नियुक्ति प्रायः राजनीतिक संबद्धता से प्रभावित होती है, जिससे पक्षपात और अकुशलता को बढ़ावा मिलता है।
    • राजनीतिक नियंत्रण से मंदिरों को चुनावी लाभ के साधन में बदलने का खतरा है, जिससे उनकी पवित्रता खंडित हो सकती है।
  • चयनात्मक विनियमन और धर्मनिरपेक्षता संबंधी चिंताएँ: राज्य नियंत्रण मुख्यतः हिंदू मंदिरों पर लागू होता है, जबकि अन्य धार्मिक संस्थानों (जैसे, मस्जिद, चर्च) पर कम विनियमन लागू होता है।
    • गैर-हिंदू धार्मिक संस्थानों के लिए समान मानव संसाधन और सामाजिक न्याय अधिनियम (HR&CE) कानूनों का अभाव निष्पक्षता पर बहस को बढ़ावा देता है।
  • राज्य द्वारा कुप्रबंधन की संभावना: राज्य-नियंत्रित मंदिर बोर्डों पर भ्रष्टाचार और धन के दुरुपयोग के आरोप लगे हैं।
    • सरकारी अधिकारियों में धार्मिक संस्थानों का प्रभावी ढंग से प्रबंधन करने की विशेषज्ञता या प्रतिबद्धता का अभाव हो सकता है।
  • सुधार बनाम परंपरा का विरोध: राज्य द्वारा संचालित सुधारों (जैसे- सबरीमाला में महिलाओं का प्रवेश) को प्रायः परंपरावादियों की तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ता है, जिससे सामाजिक अशांति पैदा होती है।
    • सबरीमाला फैसले (वर्ष 2018) के बाद हुए विरोध प्रदर्शनों ने राज्य के आदेशों और पारंपरिक मान्यताओं के बीच तनाव को उजागर किया।
  • मंदिरों का व्यावसायीकरण: राज्य नियंत्रण प्रायः आध्यात्मिक महत्त्व की बजाय राजस्व सृजन (जैसे- पर्यटन, दान) पर जोर देता है।
    • तिरुपति जैसे मंदिरों में राज्य प्रबंधित व्यवस्थाओं द्वारा संचालित व्यस्तता और VIP संस्कृति।

भारत में मंदिरों के प्रबंधन के लिए आगे की राह

  • धार्मिक और प्रशासनिक कार्यों का स्पष्ट पृथक्करण: मंदिरों की धार्मिक गतिविधियों (जो स्वायत्त रहनी चाहिए) और उनके धर्मनिरपेक्ष कार्यों, जैसे वित्तीय प्रबंधन और प्रशासनिक निगरानी, के बीच स्पष्ट अंतर होना चाहिए।
  • बढ़ी हुई पारदर्शिता और जवाबदेही: मंदिर प्रबंधन को पारदर्शी वित्तीय प्रथाओं को अपनाना चाहिए, नियमित लेखा-परीक्षण और मंदिर की आय-व्यय से संबंधित जानकारी तक खुली पहुँच होनी चाहिए।
  • सामाजिक न्याय और समावेशिता को बढ़ावा: हाशिए पर स्थित समुदायों, विशेषकर महिलाओं, दलितों और आदिवासियों के लिए मंदिरों तक समान पहुँच सुनिश्चित करने हेतु समावेशी नीतियों का कार्यान्वयन जारी रहना चाहिए।
    • मंदिर प्रवेश सुधारों और पुरोहिताई में समावेशिता को बढ़ावा देने वाले कानूनों के सख्त प्रवर्तन के माध्यम से जाति-आधारित भेदभाव को समाप्त किया जाना चाहिए।
  • धर्मनिरपेक्ष और धार्मिक भूमिकाओं में संतुलन: राज्य को मंदिर प्रबंधन के धर्मनिरपेक्ष पहलुओं (जैसे- भूमि, दान, प्रशासन) को विनियमित करना चाहिए, साथ ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि मूल धार्मिक प्रथाओं को धार्मिक निकायों या समुदायों के प्रबंधन पर छोड़ दिया जाए, अनुच्छेद-26 के तहत धार्मिक स्वायत्तता के अधिकार का सम्मान करते हुए।
  • मंदिर संचालन में सतत् प्रथाओं के लिए समर्थन: मंदिरों को पर्यावरणीय रूप से स्थायी प्रथाओं, जैसे- जल संरक्षण और पारिस्थितिक पर्यटन पहलों को अपनाने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
  • मंदिर प्रशासन का गैर-राजनीतीकरण: मंदिरों के प्रबंधन से, विशेष रूप से न्यासियों की नियुक्ति और प्रशासन में, राजनीतिक प्रभाव को हटाने के प्रयास किए जाने चाहिए।
    • मंदिर प्रबंधन के लिए योग्यता-आधारित प्रणाली प्रभावी शासन सुनिश्चित करने और राजनीतिक लाभ के लिए मंदिरों के दुरुपयोग को रोकने में मदद कर सकती है।
  • सांस्कृतिक संरक्षण और विरासत संरक्षण: मंदिरों को प्राचीन कला, वास्तुकला और विरासत को संरक्षित करते हुए सांस्कृतिक विरासत के रूप में कार्य करना जारी रखना चाहिए।
    • भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण (Archaeological Survey of India- ASI) और अन्य संस्थानों के साथ सहयोग से यूनेस्को विश्व धरोहर स्थलों तथा सांस्कृतिक स्थलों के रूप में मंदिरों का रखरखाव एवं जीर्णोद्धार सुनिश्चित किया जा सकता है।

निष्कर्ष

सामाजिक न्याय के मंदिर’ के रूप में पुनर्कल्पित मंदिर, संवैधानिक आदेशों के तहत समानता, कल्याण और सांस्कृतिक संरक्षण को बढ़ावा दे सकते हैं। राज्य के नियंत्रण और धार्मिक स्वायत्तता के बीच संतुलन स्थापित करना उनकी परिवर्तनकारी क्षमता को साकार करने की कुंजी है।

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