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भारत में छात्र आत्महत्याएँ

Lokesh Pal December 10, 2025 03:29 29 0

संदर्भ

हाल के वर्षों में भारत में छात्रों की आत्महत्याओं में वृद्धि देखी गई है, जिससे स्कूलों की जवाबदेही, मानसिक-स्वास्थ्य प्रणालियों और दबाव आधारित शिक्षा संस्कृति में गहरी खामियाँ उजागर हुई हैं, जो बच्चों की भावनात्मक सुरक्षा और गरिमा की अनदेखी करती रहती हैं।

भारत में छात्र आत्महत्याओं से संबंधित चिंताजनक आँकड़े

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) के नवीनतम आँकड़े इस संकट की गंभीर स्थिति प्रस्तुत करते हैं:-

  • छात्र आत्महत्याओं में रिकॉर्ड वृद्धि: वर्ष 2023 में छात्र आत्महत्याओं की संख्या रिकॉर्ड 13,892 तक पहुँच गई।
    • NCRB के आँकड़ों के अनुसार, पिछले दस वर्षों में (वर्ष 2013 में 8,423 से) यह 65% की वृद्धि है।
  • राष्ट्रीय औसत से अधिक: छात्र आत्महत्याओं में वृद्धि दर राष्ट्रीय समग्र आत्महत्या दर (पिछले दशक में 27%) की वृद्धि से दोगुनी से भी अधिक है।
    • यह दर्शाता है कि युवा लोग अधिक जोखिम में हैं।

  • कम आयु में समस्या: यह समस्या अब 9-17 आयु वर्ग में सामने आ रही है, जो सभी स्तरों पर स्कूलों में तनाव और उपेक्षा को उजागर करता है।
  • क्षेत्रीय हॉटस्पॉट और अंतर: महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैसे उच्च जनसंख्या वाले राज्यों में यह संख्या सर्वाधिक है।
    • हालाँकि, केरल जैसे कुछ राज्यों में नियमों का 80% पालन हो रहा है, जिससे घटनाओं में 12% की गिरावट आई है। यह स्थिति उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों से बहुत अलग है, जहाँ अनुपालन कम है।
  • मानसिक स्वास्थ्य पेशेवरों की भारी कमी: भारत में मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों की अत्यधिक कमी है, प्रति 100,000 लोगों पर केवल लगभग 0.75 मनोचिकित्सक हैं।
    • इससे मानसिक रोगों के उपचार में 70-92% का अत्यधिक अंतराल उत्पन्न हो जाता है।
  • आर्थिक और भविष्य के जोखिम: यह संकट भारत की उत्पादकता के लिए खतरा है, जिससे सकल घरेलू उत्पाद का एक से दो प्रतिशत प्रतिवर्ष का नुकसान हो सकता है। हस्तक्षेप के बिना, वर्ष 2032 तक छात्रों की आत्महत्याएँ वार्षिक रूप से 20 हजार से अधिक हो सकती हैं।
    • राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 में निहित प्रावधानों, सामाजिक एवं भावनात्मक अधिगम, तथा सर्वोच्च न्यायालय के दिशा-निर्देशों का सम्यक् कार्यान्वयन वर्ष 2035 तक मामलों की संख्या को आठ हजार से नीचे ला सकता है, जिससे वर्तमान प्रवृत्ति में लगभग 40 प्रतिशत का विपरीत संभावित है।

भारत में छात्र आत्महत्या के कारण

यह त्रासदी शैक्षणिक दबाव और प्रणालीगत असमानताओं के विषाक्त अंतर्संबंध से उत्पन्न होती है:-

  • संरचनात्मक और शैक्षणिक दबाव
    • अत्यधिक प्रतिस्पर्द्धी शैक्षणिक दबाव: NEET और JEE जैसी परीक्षाओं में तीव्र प्रतिस्पर्द्धा, जो आक्रामक कोचिंग संस्कृति से प्रेरित है, एक प्रमुख मनोवैज्ञानिक तनाव है, जो समग्र निपुणता की तुलना में अंकों को प्राथमिकता देता है।
      • यह तनाव परीक्षा के समय में अत्यधिक महसूस किया जाता है, जिसके कारण तेलंगाना और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में परीक्षा के महीनों के दौरान आत्महत्या की घटनाएँ बढ़ जाती हैं।

    • संस्थागत और शिक्षक उत्पीड़न: हालिया मामले दंडात्मक संस्थागत संस्कृति को उजागर करते हैं, जहाँ शिक्षकों द्वारा सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करना, धमकाना और कथित उत्पीड़न छात्रों की गरिमा को ठेस पहुँचाते हैं।
    • शोषण का सामान्यीकरण: मौखिक व्यंग्य, बहिष्कार और शारीरिक छेड़छाड़ को कर्मचारी प्रायः ‘सामान्य किशोर व्यवहार’ समझकर दुखद रूप से तुच्छ मान लेते हैं, जबकि वास्तविकता में ये गंभीर प्रतिकूल बचपन के अनुभव (ACE) होते हैं।।
      • UNICEF की बाल एवं किशोर मानसिक स्वास्थ्य सेवा मानचित्रण, भारत 2024 रिपोर्ट के अनुसार, 6.46% सामुदायिक बच्चे (जिनका मूल्यांकन उनके घरों और आस-पड़ोस में किया गया, स्कूलों में नहीं) और 23.33% स्कूली बच्चे और किशोर मानसिक विकारों से ग्रस्त हैं।
      • राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण (वर्ष 2015-16) में पाया गया कि लगभग आठ से 1.1 करोड़ किशोरों को किसी भी समय मानसिक स्वास्थ्य उपचार की आवश्यकता होती है।
      • मानसिक स्वास्थ्य विकार (ACE) अठारह वर्ष की आयु से पहले होने वाली तनावपूर्ण या दर्दनाक घटनाओं को संदर्भित करते हैं जो बच्चे के भावनात्मक विकास, मस्तिष्क संरचना और दीर्घकालिक स्वास्थ्य परिणामों को गंभीर रूप से बाधित कर सकती हैं।
    • डिजिटल अतिउत्तेजना: सोशल मीडिया का डोपामाइन चक्र विकृत आत्म-छवि का निर्माण करता है और आवेगशीलता को बढ़ाता है, जिससे संकट प्रबंधन मुश्किल हो जाता है।
      • महामारी और उसके उपरान्त अनिवार्य रूप से स्क्रीन-समय में वृद्धि ने किशोरों के व्यवहार में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उत्पन्न किए हैं, जिनमें सामाजिक अलगाव, भावनात्मक लचीलेपन में कमी तथा दीर्घकालिक चिंता जैसी स्थितियाँ प्रमुख रूप से उभरकर सामने आई हैं।
  • अंतर्विभागीय कमजोरियाँ
    • जाति और वर्ग हाशिए पर: SC/ST/OBC छात्रों को भेदभाव, आरक्षण के प्रतिकूल प्रभाव और आर्थिक अनिश्चितता के कारण 20-30% अधिक जोखिम का सामना करना पड़ता है।
    • लैंगिक असमानताएँ: छात्राओं में आत्महत्याओं में 7% (वर्ष 2021-22) की वृद्धि हुई, जो पितृसत्तात्मक दबाव, सामाजिक उपेक्षा, प्रजनन स्वास्थ्य संबंधी वर्जनाओं और विवाह संबंधी अपेक्षाओं को दर्शाती है, कुल छात्र आत्महत्याओं में 47% छात्राओं से संबंधित थीं।
    • ग्रामीण-शहरी और LGBTQ+ अंतर: ग्रामीण आत्महत्याएँ सीमित परामर्श पहुँच के कारण होती हैं, जबकि समलैंगिक युवाओं को सामाजिक उपेक्षा और पारिवारिक अस्वीकृति के कारण अत्यधिक सुभेद्यता का सामना करना पड़ता है।
    • पारिवारिक स्तर पर भावनात्मक रिक्तता: संयुक्त परिवारों का विखंडन, माता-पिता के कार्य के दबाव, एकलीकरण और डिजिटल विकर्षण के साथ मिलकर एक भावनात्मक रिक्तता उत्पन्न करता है जहाँ बच्चे अपने दुख को आत्मसात कर लेते हैं।

भारत में छात्र संरक्षण के लिए कानूनी और संवैधानिक आधार

भारत में संरक्षण संबंधी संस्थागत ढाँचा यद्यपि निरंतर विकसित हो रहा है, परंतु अब न्यायपालिका द्वारा इसे सशक्त रूप से सुदृढ़ किया गया है:-

  • राष्ट्रीय रणनीति: राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति (NSPS, 2022) का लक्ष्य वर्ष 2030 तक आत्महत्या से होने वाली मौतों में 10% की कमी लाना है।
    • हालाँकि, यह लक्ष्य सतत् विकास लक्ष्य 3.4 के तहत समय से पहले मृत्यु दर में 33% की कमी लाने के लक्ष्य से कम है।
  • हेल्पलाइन सेवा: टेली-मानस, निःशुल्क, 24/7 मानसिक स्वास्थ्य सहायता प्रदान करती है, और इसकी शुरुआत के बाद से अब तक 29.75 लाख से अधिक कॉल प्राप्त हुई हैं।

सुकदेब साहा बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (जुलाई 2025) में सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय

  • संवैधानिक आधार (अनुच्छेद 21)
    • मानसिक स्वास्थ्य एक मौलिक अधिकार: न्यायालय ने स्पष्ट रूप से घोषित किया कि मानसिक स्वास्थ्य और मनोवैज्ञानिक कल्याण संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत जीवन और सम्मान के अधिकार का एक अभिन्न अंग हैं।
    • संरचनात्मक जवाबदेही: यह निर्णय मानसिक स्वास्थ्य को एक वैधानिक अधिकार (मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम, 2017 के तहत) से एक संवैधानिक दायित्व में बदल देता है, जिससे राज्य और शैक्षणिक संस्थान उन प्रणालीगत विफलताओं के लिए जवाबदेह बन जाते हैं जिनसे छात्रों को परेशानी होती है।
  • मुख्य बाध्यकारी दिशा-निर्देश (साहा दिशा-निर्देश): न्यायालय ने सभी शैक्षणिक संस्थानों, छात्रावासों और कोचिंग सेंटर्स के लिए बाध्यकारी निर्देश जारी किए, जो संसद द्वारा कानून बनाए जाने तक अनुच्छेद 141 के तहत कानून के रूप में लागू रहेंगे।
निर्देश श्रेणी मूल अधिदेश
परामर्शदाता पहुँच 100 से अधिक छात्रों वाले संस्थानों को कम-से-कम एक योग्य परामर्शदाता/मनोवैज्ञानिक नियुक्त करना होगा। छोटे संस्थानों को रेफरल लिंकेज स्थापित करने होंगे।
निषिद्ध प्रथाएँ सार्वजनिक रूप से उपेक्षा करने, प्रदर्शन के आधार पर बैच में विभाजन करने तथा असंगत शैक्षणिक लक्ष्य निर्धारित करने पर प्रतिबंध लगाना।
कर्मचारियों का प्रशिक्षण मनोवैज्ञानिक प्राथमिक चिकित्सा, संकटकालीन संकेतों की पहचान, तथा भेदभाव रहित सहायता (विशेष रूप से SC/ST, OBC, तथा LGBTQ+ छात्रों के लिए) में सभी कर्मचारियों के लिए अनिवार्य द्वि-वार्षिक प्रशिक्षण।
कैम्पस सुरक्षा आवासीय संस्थानों में ‘छेड़छाड़-रोधी छत वाले पंखों’ को लगाना तथा उच्च-जोखिम वाले क्षेत्रों (विशेषकर छतों) तक पहुँच पर कठोर प्रतिबंध आवश्यक है।
जवाबदेही और न्याय भेदभाव और उत्पीड़न के लिए गोपनीय शिकायत निवारण प्रणालियों का निर्माण अनिवार्य किया गया, तथा यदि उपेक्षा के कारण आत्म-क्षति होती है तो प्रशासन को संस्थागत दोष के लिए उत्तरदायी ठहराया जाएगा।

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आत्महत्या रोकथाम के लिए प्रमुख वैश्विक पहल

पहल मुख्य फोकस और प्रमुख हस्तक्षेप भारत की प्रासंगिकता/अंतर
WHO का लाइव लाइफ पैकेज
  • राष्ट्रीय रणनीतियों के लिए वैश्विक, साक्ष्य-आधारित रोडमैप।
  • चार मुख्य कार्य (L-I-F-E)
    • साधनों तक पहुँच सीमित करना (छेड़छाड़-रोधी पंखे, आग्नेयास्त्र, कीटनाशक)।
    • मीडिया के साथ वार्ता करना (वेर्थर प्रभाव की तुलना में पापागेनो प्रभाव)।
    • जीवन-कौशल को बढ़ावा देना (स्कूलों में सामाजिक और भावनात्मक शिक्षा (SEL)।
    • प्रारंभिक पहचान (गेटकीपर प्रशिक्षण और अनुवर्ती कार्रवाई)
  • छह आधारभूत स्तंभ
    • स्थिति विश्लेषण (डेटा संग्रह और निगरानी)।
    • बहुक्षेत्रीय सहयोग (स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रम, मीडिया और न्याय क्षेत्रों को शामिल करते हुए)।
    • जागरूकता और समर्थन में वृद्धि करना।
    • क्षमता निर्माण (कर्मचारियों और समुदाय को प्रशिक्षण देना)।
    • वित्तपोषण (पर्याप्त बजट आवंटित करना)।
    • निगरानी, ​​अनुवीक्षण और मूल्यांकन।
  • भारत की राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति (NSPS) का खाका।
  • यह पाठ्यक्रम, सामुदायिक प्रशिक्षण और मीडिया दिशा-निर्देशों के लिए राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति (NSPS) के लक्ष्यों को सीधे प्रभावित करता है।
  • अंतर-मंत्रालयी सहयोग और मानसिक स्वास्थ्य बजट में 0.5% की वृद्धि की महत्त्वपूर्ण आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।
संयुक्त राष्ट्र सतत् विकास लक्ष्य (SDG) लक्ष्य 3.4: गैर-संचारी रोगों (NCD) (आत्महत्या सहित) से होने वाली असामयिक मृत्यु दर को वर्ष 2030 तक एक तिहाई (33%) तक कम करना। भारत का NSPS लक्ष्य (वर्ष 2030 तक 10% की कमी) वैश्विक SDG लक्ष्य की तुलना में अत्यधिक कम महत्त्वाकांक्षी है, जिसके लिए त्वरित प्रयास और निवेश की आवश्यकता है।
शैक्षणिक एवं संस्थागत (WHO/WMH)
  • विश्व मानसिक स्वास्थ्य-अंतरराष्ट्रीय कॉलेज छात्र (WMH-ICS) पहल: कॉलेज के छात्रों पर वैश्विक शोध, ताकि लागत-प्रभावी, वेब-आधारित हस्तक्षेप विकसित किए जा सकें।
  • अंतरराष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम संघ (IASP): वैश्विक गैर-सरकारी संगठन (NGO) जो अनुसंधान, संकट प्रणालियों और आत्महत्या के गैर-अपराधीकरण का समर्थन करता है।

डिजिटल और टेली-परामर्श सेवाओं (जैसे-टेली मेंटल हेल्थ असिस्टेंस एंड नेटवर्किंग एक्रॉस स्टेट्स [टेली-मानस]) के लिए वैज्ञानिक आधार प्रदान करता है और भारत में आत्महत्या के गैर-अपराधीकरण (मानसिक स्वास्थ्य देखभाल अधिनियम (MHCA) 2017) को प्रभावित करता है।

WHO-UNICEF संयुक्त कार्यक्रम

किशोरों को आगे बढ़ने में मदद करना: किशोरों (10-19 वर्ष) की मानसिक स्वास्थ्य आवश्यकताओं को पूरा करने और आत्म-क्षति को रोकने के लिए स्वास्थ्य और शिक्षा प्रणाली की क्षमता को मजबूत करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।

यह विद्यालयी स्तर (9-17 आयु वर्ग) पर रोकथाम शुरू करने की आवश्यकता पर बल देता है, जो भारत के लिए एक प्रमुख संवेदनशील क्षेत्र है।

छात्र आत्महत्याओं के विरुद्ध भारत के प्रयासों को कमजोर करने वाली प्रणालीगत बाधाएँ

  • नीतिगत कार्यान्वयन और प्रशासन में कमियाँ: सबसे बड़ी बाधा न्यायिक आदेशों और राष्ट्रीय रणनीतियों को प्रभावी कार्रवाई में बदलने में विफलता है, जिसका मुख्य कारण खराब अनुपालन और कम धन है।
    • महत्त्वपूर्ण अनुपालन कमियाँ: अनुमानतः केवल 40-50% विद्यालय ही योग्य परामर्शदाता नियुक्त करने के सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन करते हैं।
      • निजी कोचिंग सेंटरों में नियमों का पालन सबसे कम होता है। इसी वजह से वहाँ बच्चों को सबके सामने डाँटकर शर्मिंदा करना और ‘अलग-अलग बैचों में बाँटकर भेद-भाव करना’ जैसी गलत परंपराएँ अभी भी बनी रहती हैं।
    • वित्त पोषण में भारी कमी: मानसिक स्वास्थ्य को भारत के स्वास्थ्य बजट का केवल 0.5% ही मिलता है।
      • वित्त पोषण में इस भारी कमी के कारण राष्ट्रीय योजनाओं को प्रभावी ढंग से लागू करना, बुनियादी ढाँचे का विस्तार करना या आवश्यक पेशेवरों को नियुक्त करना असंभव हो जाता है।
  • प्रभावकारिता बनाम लक्ष्य: राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति (NSPS) का वर्ष 2030 तक 10% कमी का लक्ष्य, वर्तमान बढ़ती प्रवृत्ति और कमजोर कार्यान्वयन को देखते हुए, अत्यधिक महत्त्वाकाँक्षी है।
    • इसके अलावा, ग्रामीण क्षेत्रों में टेली-मानस की कम पहुँच, लाखों कॉल्स के प्रबंधन के बावजूद, इसकी प्रभावकारिता को कमजोर करती है।
    • अंतर-मंत्रालयी कमजोर समन्वय: प्रभावी रोकथाम के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक न्याय मंत्रालयों के बीच सुव्यवस्थित सहयोग की आवश्यकता होती है, जो एक सतत् प्रशासनिक चुनौती बनी हुई है।
    • योजनाओं को क्रियान्वित करने में चुनौतियाँ: अधिकांश स्कूलों में गोपनीय प्रकटीकरण के लिए सुरक्षित स्थान, समर्पित मानसिक-स्वास्थ्य बजट और मजबूत साक्ष्य-आधारित भावनात्मक-साक्षरता कार्यक्रमों का अभाव है।
  • संस्थागत एवं सांस्कृतिक बाधाएँ प्रचलित शैक्षणिक संस्कृति तनाव को सामान्य रूप में स्थापित कर और संस्थागत नैतिकता के अभाव में इस संकट में सक्रिय रूप से योगदान देती हैं।
    • विषाक्तता का सामान्यीकरण: दंडात्मक अनुशासन और अत्यधिक शैक्षणिक दबाव, हमारे समाज में बहुत गहराई से जड़ जमा चुका है। इसकी वजह से बच्चे खुद को ही गलत मानने लगते हैं और किसी से मदद माँगने में शर्म या डर महसूस करते हैं।।
    • रटंत सीखने पर ध्यान: अत्यधिक प्रतिस्पर्द्धी परीक्षा संस्कृति (NEET/JEE) समग्र विकास की तुलना में अंकों को प्राथमिकता देती है, जिससे छात्रों की चिंता और आत्महत्या का जोखिम सीधे तौर पर बढ़ जाता है।
    • संस्थागत जवाबदेही का अभाव: हालिया न्यायिक आदेशों से पहले, संस्थागत प्रशासन को लापरवाही (जैसे- अनिवार्य परामर्शदाता प्रदान करने में विफलता) के लिए कानूनी रूप से उत्तरदायी ठहराने के लिए बहुत कम तंत्र मौजूद थे।
  • डेटा, डिजिटल और संक्रामक जोखिम: आधुनिक खतरे (खराब निगरानी से लेकर डिजिटल जोखिम तक) रोकथाम प्रयासों के लिए नई चुनौतियाँ प्रस्तुत करते हैं।
    • खंडित डेटा और निगरानी: NCRB के बुनियादी आँकड़ों से परे विश्वसनीय डेटा खंडित है, जिससे लक्षित, साक्ष्य-आधारित नीति-निर्माण और उच्च-जोखिम वाले समूहों की सटीक निगरानी में बाधा आती है।
    • डिजिटल अधिभार और संक्रामकता: लगातार डिजिटल दबाव, साथ ही छात्र आत्महत्याओं की अनियमित या सनसनीखेज मीडिया कवरेज, सामूहिक आत्महत्याओं (वर्थर प्रभाव) को जन्म दे सकता है, एक ऐसा जोखिम जिसकी निगरानी और नियंत्रण करना मुश्किल है।
  • अंतर्विभागीय कमजोरियाँ: व्यवस्थागत असमानताएँ यह सुनिश्चित करती हैं कि हाशिए पर स्थित समूहों को संकट का असमान बोझ उठाना पड़े।
    • भेदभाव और बहिष्कार: अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति/अन्य पिछड़ा वर्ग पृष्ठभूमि के छात्रों को जाति-आधारित भेदभाव और आर्थिक अनिश्चितता के कारण अत्यधिक जोखिम का सामना करना पड़ता है, जिसे प्रायः सामान्य सहायता कार्यक्रमों द्वारा अनदेखा कर दिया जाता है।
    • लैंगिक और पहचान संबंधी उपेक्षा: छात्राओं पर थोपे जाने वाली पितृसत्तात्मक अपेक्षाएँ तथा LGBTQ+ युवाओं को सामना करनी पड़ने वाली गहन सामाजिक उपेक्षाकारी स्थितियाँ, ऐसी संरचनात्मक कमजोरियाँ उत्पन्न करती हैं जिनके लिए विशेष और संवेदनशील हस्तक्षेप आवश्यक हैं, परंतु वर्तमान व्यवस्था में उनका स्पष्ट अभाव है।

आगे की राह

इस संकट से निपटने के लिए भारत के भविष्य को सुरक्षित करने हेतु एक समग्र, संरचनात्मक सुधार के प्रति अटूट प्रतिबद्धता की आवश्यकता है।

  • संरचनात्मक सुधार: छात्र आत्महत्या संकट से निपटने के लिए सभी स्तरों पर व्यापक संरचनात्मक परिवर्तनों की आवश्यकता है, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि भारत के भावी कार्यबल और कल्याण की सुरक्षा हो।
  • जवाबदेही और स्कूल सुधार: न्यायिक प्रवर्तन त्वरित होना चाहिए, और संस्थागत दोषसिद्धि के तहत स्कूलों को परामर्शदाताओं की नियुक्ति में विफलता सहित उपेक्षा के लिए कानूनी रूप से उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए।
    • परीक्षा संबंधी तनाव को कम करने के लिए पाठ्यक्रमों में समग्र मूल्यांकन और अनिवार्य सामाजिक एवं भावनात्मक शिक्षा पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।
    • तमिलनाडु के हैप्पीनेस करिकुलम और केरल के स्टूडेंट पुलिस कैडेट और ऑपरेशन ‘सुकून’ जैसे कार्यक्रम 10 से 15 प्रतिशत कम तनाव दर्शाते हैं, और मापनीय मॉडल प्रस्तुत करते हैं।
    • राज्य सरकारों को कोचिंग सेंटर विनियमन दिशा-निर्देशों (2024) को सख्ती से लागू करना चाहिए, विशेष रूप से अनिवार्य छात्रावास में रहने और 16 वर्ष से कम आयु के छात्रों के प्रवेश जैसी प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाना चाहिए ताकि छोटे छात्रों पर प्रतिस्पर्द्धात्मक दबाव कम हो सके।
    • स्कूलों को किशोर न्याय (JJ) अधिनियम और यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (पॉक्सो) मानदंडों के तहत बाल संरक्षण समितियों का गठन अनिवार्य रूप से करना चाहिए ताकि समय-समय पर सुरक्षा ऑडिट किया जा सके।
    • उच्च-स्तरीय परीक्षाओं की जगह चरणबद्ध मूल्यांकन और परियोजना-आधारित शिक्षण को अपनाया जाना चाहिए, जिससे रटने की आदत से हटकर समग्र निपुणता पर ध्यान केंद्रित किया जा सके।
    • परीक्षा-पूर्व तनाव को कम करने के लिए, स्कूलों को होमवर्क सीमित करना चाहिए, कोचिंग के दबाव को नियंत्रित करना चाहिए और परीक्षा कार्यक्रम के निकट अनिवार्य ‘बफर दिन’ सुनिश्चित करने चाहिए।
  • शिक्षक और समुदाय सशक्तीकरण: सभी शिक्षकों के लिए मनोवैज्ञानिक प्राथमिक चिकित्सा प्रशिक्षण अनिवार्य होना चाहिए।
    • माता-पिता, मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता और आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं को सामुदायिक संरक्षक के रूप में प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, जिससे जोखिम कम हो और प्रारंभिक सहायता प्रदान की जा सके।
    • फिनलैंड जैसे अंतरराष्ट्रीय मॉडल, सामुदायिक सहभागिता के माध्यम से युवाओं की आत्महत्याओं में 25 प्रतिशत की कमी दर्शाते हैं।
  • नवाचार और बहु-क्षेत्रीय शासन: शिक्षा मंत्रालय और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के बीच सहयोग अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
    • कॉर्पोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व निधि बुनियादी ढाँचे की सुरक्षा में सहायक हो सकती है, जबकि AI चैटबॉट और पूर्वानुमानात्मक विश्लेषण प्रारंभिक चेतावनी संकेतों का पता लगा सकते हैं।
    • जिम्मेदार मीडिया रिपोर्टिंग, पापागेनो प्रभाव की नकल करते हुए, आत्महत्याओं की घटनाओं को रोक सकती है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 10 से 13 प्रतिशत की कमी देखी गई है।
    • शिक्षा मंत्रालय को, इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MeitY) के सहयोग से, डिजिटल सुरक्षा दिशा-निर्देशों को अंतिम रूप देना चाहिए और स्क्रीन समय को नियंत्रित करने और ऑनलाइन शैक्षणिक चिंता को प्रबंधित करने के लिए डिजिटल डिटॉक्स कार्यक्रमों को बढ़ावा देना चाहिए।

निष्कर्ष

जैसा कि महात्मा गांधी ने कहा था, ‘एक अच्छे घर के बराबर कोई स्कूल नहीं है और एक अच्छे अभिभावक के बराबर कोई शिक्षक नहीं है।’ राज्य को एक अच्छे अभिभावक की तरह कार्य करना चाहिए और बच्चों को निराशा से बचाना चाहिए। इस समस्या के चलते भारत प्रत्येक दिन 38 प्रतिभाशाली युवाओं को खो देता है।

  • यदि इस पर ध्यान नहीं दिया गया, तो यह खामोश महामारी भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश की 8-10 वर्ष की अवधि को नष्ट कर देगी और तत्काल, मिशन-मोड सुधारों के बिना वर्ष  2047 तक विकसित भारत का लक्ष्य असंभव हो जाएगा। जब शिक्षा वास्तव में घुटन उत्पन्न करने के बजाय मुक्ति प्रदान करेगी, तभी टैगोर के स्वतंत्रता के स्वर्ग का वास्तविक उदय होगा।

अभ्यास प्रश्न 

विद्यार्थियों की भावनात्मक कल्याण की रक्षा में विद्यालयों और शैक्षणिक संस्थानों की भूमिका का मूल्यांकन कीजिए। विद्यार्थियों की बढ़ती आत्महत्याओं के मद्देनजर, शिक्षा प्रणाली में जवाबदेही और गरिमा सुनिश्चित करने के लिए किन संरचनात्मक सुधारों की आवश्यकता है?

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