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क्षेत्रवाद और सांप्रदायिकता पर सर्वोच्च न्यायालय की चिंता

Lokesh Pal July 18, 2025 03:02 44 0

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने राजनीतिक दलों द्वारा मत प्राप्त करने के लिए क्षेत्रवाद और धर्म का प्रयोग करने पर चिंता व्यक्त की है तथा इसे ‘समाज में सांप्रदायिक विभाजन को बढ़ावा देने वाले खतरनाक कृत्य’ के रूप में बताया है।

संबंधित तथ्य 

  • सर्वोच्च न्यायालय ने ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (All India Majlis-e-Ittehadul Muslimeen- AIMIM) का पंजीकरण रद्द करने की माँग वाली याचिका खारिज कर दी।

सर्वोच्च न्यायालय की मुख्य टिप्पणियाँ

  • क्षेत्रवाद सांप्रदायिकता जितना ही खतरनाक: क्षेत्रवाद को बढ़ावा देना सांप्रदायिकता को बढ़ावा देने जितना ही खतरनाक है।
    • दोनों ही राष्ट्र की एकता और अखंडता के लिए खतरा हैं।
  • कई दल दोषी: न्यायालय ने कहा कि कई राजनीतिक दल जाति, क्षेत्र या धर्म-आधारित अपीलों को बढ़ावा देते हैं।
    • किसी एक राजनीतिक दल को चुन-चुनकर निशाना नहीं बनाया जा सकता।
    • चुनाव सुधारों पर एक निष्पक्ष और व्यापक याचिका दायर करने का आग्रह किया।
  • AIMIM की नीतियाँ अवैध नहीं: संविधान के अनुच्छेद-15(4) और 16(4) के तहत पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों के कल्याण पर केंद्रित प्रयासों की अनुमति दी गई है।
    • इस्लामी शिक्षा या मुसलमानों के कल्याण का समर्थन करना असंवैधानिक नहीं है।
    • लेकिन धर्म या जाति के आधार पर वोट माँगना जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की धारा 123(3) का उल्लंघन है।
  • संवैधानिक संरक्षण: यदि कोई धार्मिक कानून संविधान द्वारा संरक्षित है, तो दल उसका प्रचार कर सकते हैं।
    • लेकिन चुनावी लाभ के लिए उसका दुरुपयोग निषिद्ध है।

क्षेत्रवाद के बारे में

  • क्षेत्रवाद किसी विशिष्ट भौगोलिक क्षेत्र के भीतर एक विशिष्ट पहचान की अभिव्यक्ति को संदर्भित करता है, जो प्रायः संस्कृति, भाषा, धर्म या आर्थिक हितों से जुड़ा होता है।
    • यह एक सामाजिक-राजनीतिक परिघटना है, जहाँ लोग राष्ट्र की तुलना में अपने क्षेत्र के साथ अधिक मजबूती से अपनी पहचान बनाते हैं।
  • प्रकार: क्षेत्रवाद सकारात्मक या नकारात्मक हो सकता है:
    • सकारात्मक क्षेत्रवाद: यह राष्ट्रीय एकता का सम्मान करते हुए सांस्कृतिक संरक्षण, सामाजिक-आर्थिक विकास और स्वायत्तता पर जोर देता है।
    • नकारात्मक क्षेत्रवाद: यह तब उत्पन्न होता है, जब क्षेत्रीय माँगें या भावनाएँ राष्ट्रीय एकीकरण को कमजोर करती हैं और अलगाववादी आंदोलनों को बढ़ावा देती हैं, जिससे विखंडन या विभाजन को बढ़ावा मिलता है।

भारत में प्रमुख क्षेत्रीय आंदोलन

  • तेलंगाना आंदोलन (2014): तेलंगाना के रूप में एक अलग राज्य की माँग मुख्य रूप से आर्थिक उपेक्षा, राजनीतिक रूप से हाशिए पर स्थित होने और तेलंगाना तथा तटीय आंध्र प्रदेश के बीच सांस्कृतिक मतभेदों के कारण उत्पन्न हुई थी।
    • यह आंदोलन वर्ष 2014 में भारत के 29वें राज्य के रूप में तेलंगाना के गठन के साथ परिणत हुआ।
  • गोरखालैंड आंदोलन (पश्चिम बंगाल): दार्जिलिंग के गोरखा जातीय समूह द्वारा अपनी विशिष्ट पहचान, सांस्कृतिक संरक्षण और अविकसितता की शिकायतों के कारण गोरखालैंड की माँग उठी।
  • बोडो आंदोलन (असम): असम में बोडो जातीय समूह ने राज्य सरकार द्वारा सांस्कृतिक और आर्थिक उपेक्षा के कारण एक अलग राज्य की माँग की।
    • बोडो लिबरेशन टाइगर्स फोर्स (Bodo Liberation Tigers Force- BLTF) ने 1980 के दशक के अंत में स्वायत्तता की माँग करते हुए एक विद्रोह शुरू किया।
    • यह आंदोलन बोडो शांति समझौते (2020) के रूप में परिणत हुआ, जिसके परिणामस्वरूप एक बोडो स्वायत्त क्षेत्रीय परिषद का गठन हुआ और समुदाय को अधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिला।
  • नागा विद्रोह (नागालैंड): जातीय, राजनीतिक और सांस्कृतिक मतभेदों का हवाला देते हुए, नागा राष्ट्रीय परिषद (Naga National Council- NNC) के नेतृत्व में नागा समुदाय द्वारा स्वतंत्रता की माँग की गई। दशकों से, नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नागालिम (National Socialist Council of Nagalim- NSCN) ने एक अलग नागा राज्य के लिए विद्रोह छेड़ रखा है।
    • वर्ष 2015 में एक फ्रेमवर्क समझौते पर हस्ताक्षर किए गए थे, लेकिन अभी तक पूर्ण शांति और समाधान नहीं हो पाया है, हालाँकि नागा शांति प्रक्रिया के तहत आंदोलन जारी है।
  • मिजो आंदोलन (मिजोरम): केंद्र सरकार द्वारा वर्षों की जातीय और आर्थिक उपेक्षा के बाद, मिजो नेशनल फ्रंट (Mizo National Front- MNF) ने एक अलग मिजोरम राज्य की माँग की। 1960 के दशक में विद्रोह तेज हो गया।
    • वर्ष 1986 के मिजो शांति समझौते के परिणामस्वरूप मिजोरम एक पूर्ण राज्य के रूप में बना, जिसने संघ के भीतर जातीय माँगों को एकीकृत करने का एक आदर्श प्रस्तुत किया।
  • हिंदी विरोधी आंदोलन (तमिलनाडु): तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (Dravida Munnetra Kazhagam- DMK) ने हिंदी को भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में लागू करने का विरोध किया, यह तर्क देते हुए कि इससे तमिल भाषियों की सांस्कृतिक पहचान और भाषायी अधिकारों को खतरा है।

भारत में क्षेत्रवाद के रूप

  • भाषायी क्षेत्रवाद: क्षेत्रवाद का यह रूप किसी क्षेत्र में किसी विशेष भाषा को आधिकारिक या प्राथमिक भाषा के रूप में मान्यता देने और बढ़ावा देने की माँग से उत्पन्न होता है।
    • महाराष्ट्र और गुजरात: वर्ष 1960 में मराठी और गुजराती भाषा पर आधारित राज्यों का गठन।
  • जातीय और सांस्कृतिक क्षेत्रवाद: क्षेत्रीय संस्कृति, परंपराओं, रीति-रिवाजों और प्रथाओं के संरक्षण तथा संवर्द्धन पर केंद्रित है।
    • द्रविड़ आंदोलन (तमिलनाडु): हिंदी थोपे जाने का विरोध और तमिल पहचान को बढ़ावा।
  • जातीय क्षेत्रवाद: क्षेत्रवाद का यह रूप जातीयता और विशिष्ट पहचान वाले जातीय समूहों द्वारा स्वायत्तता या अलग राज्य की माँग पर आधारित है।
    • गोरखालैंड आंदोलन (पश्चिम बंगाल): जातीय और सांस्कृतिक पहचान के आधार पर दार्जिलिंग में गोरखा लोगों द्वारा एक अलग राज्य की माँग।
  • आर्थिक क्षेत्रवाद: क्षेत्रवाद का यह रूप तब उत्पन्न होता है, जब क्षेत्रों के बीच आर्थिक असमानताएँ स्थानीय विकास को बढ़ावा देने के लिए बेहतर संसाधन आवंटन या स्वायत्तता की माँग को जन्म देती हैं।
    • विदर्भ (महाराष्ट्र) और बुंदेलखंड (उत्तर प्रदेश/मध्य प्रदेश): उपेक्षा के कारण बेहतर आर्थिक सहायता और राज्य का दर्जा दिए जाने की माँग करने वाले आंदोलन।
  • अलगाववादी क्षेत्रवाद: एक अधिक उग्र रूप, जहाँ क्षेत्र ऐतिहासिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक शिकायतों के कारण पूर्ण स्वतंत्रता या राष्ट्र से अलगाव की माँग करते हैं।
    • नागा विद्रोह (नागालैंड): भारतीय राज्य से स्वतंत्रता या स्वायत्तता की दीर्घकालिक माँग।
  • स्वायत्तता-आधारित क्षेत्रवाद: पूर्ण स्वतंत्रता की माँग किए बिना राज्य के मौजूदा ढाँचे के भीतर अधिक शक्ति और स्वायत्तता की माँग।
    • असम और मेघालय: विशेष रूप से शासन और संसाधन आवंटन में अधिक क्षेत्रीय स्वायत्तता की माँग।
  • अंतर-राज्यीय क्षेत्रवाद: एक ही राज्य के भीतर क्षेत्रवाद, जहाँ कुछ क्षेत्र या जिले अधिक राजनीतिक या आर्थिक शक्ति की माँग करते हैं।
    • उत्तराखंड: पहाड़ी क्षेत्र की विशिष्ट भौगोलिक और सांस्कृतिक पहचान के कारण एक अलग राज्य के निर्माण की माँग।
  • राज्य के अतिरिक्त क्षेत्रवाद: राज्य की सीमाओं से परे क्षेत्रवाद, जहाँ कई क्षेत्र या राज्य साझा हितों के आधार पर एक साथ आते हैं, प्रायः समान मुद्दों या माँगों को संबोधित करने के लिए।
    • पूर्वोत्तर राज्य: केंद्र सरकार से अधिक स्वायत्तता की माँग के लिए असम, मणिपुर और नागालैंड जैसे राज्यों के बीच क्षेत्रीय सहयोग।

भारत में क्षेत्रवाद के कारण

  • औपनिवेशिक विरासत: ‘फूट डालो और राज करो’ जैसी ब्रिटिश नीतियों के कारण प्रशासनिक सुविधा के आधार पर अलग-अलग प्रांतों का निर्माण हुआ, जिससे क्षेत्रीय पहचान की स्थिति और भी विकृत हो गई।
    • उदाहरण के लिए, बंगाल और पंजाब जैसे क्षेत्रों का विभाजन किया गया, जिससे जातीय और सांस्कृतिक आधार पर विभाजन पैदा हुआ।
  • आर्थिक असमानताएँ: तटीय आंध्र प्रदेश, जहाँ औद्योगिक और कृषि विकास बेहतर था, की तुलना में तेलंगाना जैसे क्षेत्र आर्थिक रूप से वंचित महसूस करते थे।
    • इस असमानता के कारण वर्ष 2014 में तेलंगाना का गठन हुआ।
  • सांस्कृतिक और भाषायी कारक: स्वतंत्रता के बाद के क्षेत्रीय आंदोलनों में भाषा ने एक केंद्रीय भूमिका निभाई।
    • वर्ष 1956 के राज्य पुनर्गठन अधिनियम ने तेलुगु भाषियों के लिए आंध्र प्रदेश और मराठी भाषियों के लिए महाराष्ट्र का निर्माण किया।
    • इन भाषायी विभाजनों ने क्षेत्रीय गौरव को बढ़ावा दिया और भाषायी क्षेत्रवाद को और मजबूत किया।
  • राजनीतिक कारक: कथित केंद्रीकृत शासन ने राज्य स्तर पर अधिक राजनीतिक शक्ति की माँग को जन्म दिया है।
    • वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ और उत्तराखंड जैसे राज्यों का निर्माण स्थानीय राजनीतिक नेताओं द्वारा अविकसितता और केंद्र की उपेक्षा से जुड़ी शिकायतों का लाभ उठाने के कारण हुआ था।
  • भौगोलिक अलगाव: भारत का पूर्वोत्तर क्षेत्र, अपने दुर्गम भू-भाग और देश के बाकी हिस्सों से अलग-थलग होने के कारण, अलगाव की भावना को बढ़ावा देता रहा है।
    • इस क्षेत्र की जातीय विविधता और विशिष्ट इतिहास ने असम में नागा विद्रोह और उल्फा जैसे अलगाववादी आंदोलनों को जन्म दिया, जिन्होंने स्वतंत्रता या अधिक स्वायत्तता की माँग की।
  • जातीय और धार्मिक कारक: जातीय और धार्मिक पहचान क्षेत्रवाद को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
    • असम में बोडो आंदोलन ने सांस्कृतिक और आर्थिक असमानताओं के कारण बोडो जातीय समूह के लिए एक अलग राज्य बनाने की माँग की।
  • जाति और सामाजिक असमानता: तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश जैसे क्षेत्रों में जातिगत राजनीति ने सामाजिक अन्याय को दूर करने के उद्देश्य से क्षेत्रीय आंदोलनों को जन्म दिया है।
    • उदाहरण के लिए, तमिलनाडु में गैर-ब्राह्मण आंदोलन के कारण द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (Dravida Munnetra Kazhagam- DMK) का गठन हुआ, जिसने पिछड़ी जातियों के उत्थान पर ध्यान केंद्रित किया।
  • भूमिपुत्र और मूलनिवासीवाद: भूमिपुत्र नीति, विशेष रूप से महाराष्ट्र और असम में, क्षेत्रवादी भावनाओं को दर्शाती है जहाँ स्थानीय लोग (क्षेत्र के मूल निवासी) प्रवासियों की तुलना में वरीयता प्राप्त व्यवहार की माँग करते हैं, जिससे तनाव पैदा होता है।

क्षेत्रवाद का प्रभाव

क्षेत्रवाद का सकारात्मक प्रभाव

  • सांस्कृतिक संरक्षण और पहचान: क्षेत्रवाद किसी क्षेत्र की विशिष्ट सांस्कृतिक, भाषायी और ऐतिहासिक पहचान को सुरक्षित रखने और बढ़ावा देने में मदद करता है।
    • तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (DMK) ने तमिल भाषा और संस्कृति को बढ़ावा दिया है, जिससे यह सुनिश्चित हुआ है कि तमिल पहचान राज्य के राजनीतिक और सामाजिक जीवन का अभिन्न अंग बनी रहे।
  • विकेंद्रीकृत शासन और स्थानीय प्रतिनिधित्व: क्षेत्रवाद सत्ता के विकेंद्रीकरण को प्रोत्साहित करता है, यह सुनिश्चित करता है कि स्थानीय आवश्यकताओं को अधिक प्रभावी ढंग से पूरा किया जाए और लोगों को अधिक प्रतिनिधित्व दिया जाए।
    • वर्ष 2014 में तेलंगाना का निर्माण आंध्र प्रदेश के तटीय क्षेत्र द्वारा आर्थिक और राजनीतिक उपेक्षा के परिणामस्वरूप हुआ, जिससे अधिक स्थानीय निर्णय लेने और बेहतर शासन की अनुमति मिली।
  • हाशिये पर पड़े क्षेत्रों का आर्थिक सशक्तीकरण: क्षेत्रवाद प्रायः कुछ क्षेत्रों की आर्थिक उपेक्षा को उजागर करता है, जिससे बेहतर संसाधन आवंटन और लक्षित विकास होता है।
    • मध्य प्रदेश में आदिवासी क्षेत्रों के अविकसित होने की समस्या को दूर करने के लिए वर्ष 2000 में छत्तीसगढ़ राज्य का गठन किया गया, जिससे स्थानीय बुनियादी ढाँचे और कल्याण पर अधिक ध्यान केंद्रित हुआ।
  • संघवाद को मजबूत करना: क्षेत्रवाद राज्य की स्वायत्तता का समर्थन करके और केंद्र व राज्यों के बीच शक्तियों के अधिक संतुलित वितरण को बढ़ावा देकर संघीय व्यवस्था को मजबूत बनाता है।
    • नीति आयोग के गठन ने सहकारी संघवाद को बढ़ावा दिया है, जिससे राज्य सरकारों को निर्णय लेने में भागीदारी करने में मदद मिली है, जिससे क्षेत्रीय चिंताओं का प्रभावी ढंग से समाधान होता है।
  • राजनीतिक विविधीकरण और प्रतिनिधित्व: क्षेत्रवाद ने क्षेत्रीय दलों के उदय को बढ़ावा दिया है, जिससे स्थानीय मुद्दों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हुआ है और राष्ट्रीय दलों का प्रभुत्व कम हुआ है।
    • महाराष्ट्र में शिवसेना और तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक (AIADMK) प्रमुख क्षेत्रीय दल हैं, जो भाषा, सांस्कृतिक संरक्षण और क्षेत्रीय विकास जैसे स्थानीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करते हैं।

क्षेत्रवाद का नकारात्मक प्रभाव

  • राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा: क्षेत्रवाद के चरम रूप, राष्ट्रीय एकता को कमजोर कर सकते हैं, जिससे अलगाववादी आंदोलन या अलगाववादी माँगें पैदा हो सकती हैं।
    • पंजाब में खालिस्तान आंदोलन और पूर्वोत्तर में नागा विद्रोह इस बात का उदाहरण हैं कि कैसे क्षेत्रवाद, अलगाववादी माँगों में बदल सकता है, जिससे भारत की क्षेत्रीय अखंडता को चुनौती मिलती है।
  • राजनीतिक अस्थिरता: स्वायत्तता या राज्य के दर्जे की क्षेत्रीय माँगों के परिणामस्वरूप राजनीतिक अस्थिरता पैदा हो सकती है और राज्य तथा राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर शासन व्यवस्था बाधित हो सकती है।
    • असम में बोडोलैंड आंदोलन और पश्चिम बंगाल में गोरखालैंड आंदोलन ने बार-बार अशांति, राजनीतिक अस्थिरता और हिंसक विरोध प्रदर्शन किए हैं।
  • आर्थिक विखंडन: क्षेत्रवाद राष्ट्रीय आर्थिक एकीकरण की तुलना में स्थानीय विकास को प्राथमिकता देकर अर्थव्यवस्था को विखंडित कर सकता है, जिससे असमान विकास होता है।
    • विदर्भ क्षेत्र की राज्य के दर्जे की माँग आर्थिक असमानता को उजागर करती है, क्योंकि यह क्षेत्र महाराष्ट्र के समृद्ध क्षेत्रों द्वारा उपेक्षित महसूस करता है।
  • संसाधन आवंटन संघर्ष: क्षेत्रवाद साझा संसाधनों, जैसे जल आदि पर विवादों को जन्म दे सकता है, जिससे राज्यों के बीच तनाव पैदा हो सकता है।
    • कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच कावेरी जल विवाद दर्शाता है कि जल संसाधनों पर क्षेत्रवाद कैसे अंतर-राज्यीय संबंधों और राष्ट्रीय शासन पर दबाव डाल सकता है।
  • भेदभावपूर्ण मूलनिवासीवाद: ‘सन ऑफ सॉइल’ सिद्धांत अन्य क्षेत्रों के प्रवासियों के साथ भेदभाव करता है, जो अनुच्छेद-19 का उल्लंघन करता है।
    • महाराष्ट्र में उत्तर भारतीय विरोधी रुख के कारण प्रवासियों पर हमले हुए, जिससे अंतर-क्षेत्रीय शत्रुता पैदा हुई।
  • राष्ट्रीय नीतियों में बाधा: क्षेत्रीय दावे राष्ट्रीय कार्यक्रमों या कानूनों के समान कार्यान्वयन में बाधा डाल सकते हैं।
    • तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने प्रायः क्षेत्रीय प्राथमिकताओं का हवाला देते हुए हिंदी प्रचार या राष्ट्रीय शिक्षा नीति जैसी केंद्रीय योजनाओं का विरोध किया है।

क्षेत्रवाद (Regionalism) बनाम राष्ट्रवाद (Nationalism)

पहलू 

क्षेत्रवाद (Regionalism)

राष्ट्रवाद (Nationalism)

परिभाषा क्षेत्रीय पहचान, स्वायत्तता और हितों पर ध्यान केंद्रित करता है। समग्र रूप से राष्ट्र की एकता और पहचान पर ध्यान केंद्रित करता है।
विभाजन की संभावना यदि यह अलगाववाद में बदल जाता है या राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करता है तो इससे विभाजन पैदा हो सकता है। इसका उद्देश्य विविध क्षेत्रों और लोगों को एक राष्ट्र के रूप में एकीकृत करना है।
पहचान की प्रकृति प्रायः यह किसी क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक, भाषायी या जातीय पहचान पर आधारित होता है। साझा पहचान पर आधारित, जो प्रायः राष्ट्रीय प्रतीकों, इतिहास और मूल्यों से जुड़ी होती है।
उदहारण तेलंगाना आंदोलन, खालिस्तान आंदोलन, गोरखालैंड। भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन, राष्ट्रीय संकटों के दौरान देशभक्ति।

क्षेत्रीय राजनीतिक दलों की भूमिका

  • राजनीतिक प्रतिनिधित्व: क्षेत्रीय दल यह सुनिश्चित करते हैं कि विधायी निकायों में स्थानीय आकांक्षाओं और शिकायतों का प्रतिनिधित्व हो। उदाहरण के लिए, डीएमके (तमिलनाडु), TMC (पश्चिम बंगाल) और बीजेडी (ओडिशा) ने क्षेत्रीय शासन को महत्त्वपूर्ण रूप से आकार दिया है।
  • संघीय संतुलन: ये दल गठबंधन की राजनीति के माध्यम से केंद्रीय प्रभुत्व को नियंत्रित करते हैं और सहकारी संघवाद को मजबूत करते हैं।
  • सांस्कृतिक संरक्षण: ये क्षेत्रीय भाषाओं, परंपराओं और पहचान को बढ़ावा देते हैं, जिससे राष्ट्रीय राजनीति में बहुलवाद सुनिश्चित होता है।
    • शिवसेना और DMK ने क्रमशः मराठी और तमिल पहचान को प्रमुखता से बढ़ावा दिया है।
  • विकास पर ध्यान: क्षेत्रीय पिछड़ेपन (जैसे- तेलंगाना में TRS) को उजागर करके, ये लक्षित योजनाओं और राज्य गठन पर जोर देते हैं।
  • चिंताएँ: कभी-कभी, ये वोट-बैंक की राजनीति के लिए क्षेत्रीय भावनाओं का शोषण करते हैं, जिससे ध्रुवीकरण होता है (जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 2025 में AIMIM और चुनावों में क्षेत्रीय अपीलों पर दिए गए फैसले में उल्लेख किया है)।

क्षेत्रवाद से संबंधित संवैधानिक प्रावधान

  • संघीय संरचना
    • अनुच्छेद-1: भारत एक ‘राज्यों का संघ’ है, जो क्षेत्रीय विविधता को मान्यता देते हुए एकता पर जोर देता है।
    • अनुच्छेद-3: यह संसद को राज्यों की सीमाओं में परिवर्तन करने, उनका विलय करने या भाषा, संस्कृति या आर्थिक चिंताओं के आधार पर नए राज्य बनाने का अधिकार देता है।
    • सातवीं अनुसूची: क्षेत्रीय स्वायत्तता और राष्ट्रीय प्राधिकार के बीच संतुलन बनाते हुए, संघ और राज्यों के बीच शक्तियों का विभाजन करती है।
    • अनुच्छेद-19 नागरिकों के भारत के किसी भी भाग में निवास करने और बसने के अधिकार की रक्षा करता है।
  • विशेष प्रावधान
    • अनुच्छेद-370 और 371: जम्मू और कश्मीर (वर्ष 2019 में निरस्त) और पूर्वोत्तर राज्यों जैसे क्षेत्रों को विशिष्ट क्षेत्रीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए विशेष दर्जा।
    • 5वीं और 6वीं अनुसूचियाँ: क्षेत्रीय पहचान की रक्षा के लिए पूर्वोत्तर में जनजातीय क्षेत्रों और स्वायत्त परिषदों के लिए प्रावधान।

क्षेत्रवाद से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख मामले

  • बिहार राज्य बनाम कामेश्वर सिंह (1952): सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि यद्यपि भारत के राज्यों को अपने मामलों का प्रबंधन स्वयं करने का अधिकार है, फिर भी ऐसी क्षेत्रीय माँगों से राष्ट्रीय अखंडता को खतरा नहीं होना चाहिए। न्यायालय ने विविधता में एकता की आवश्यकता पर बल दिया।
  • नागराज बनाम भारत संघ (2006): न्यायालय ने जाति आधारित आरक्षण की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा, लेकिन इस बात पर जोर दिया कि ऐसे आरक्षण राष्ट्रीय एकता को बाधित नहीं करने चाहिए या जाति या क्षेत्र के आधार पर विभाजन को बढ़ावा नहीं देना चाहिए।
  • एस.आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994): न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद-356 के तहत राज्य सरकारों को भंग करने की राष्ट्रपति की शक्ति का दुरुपयोग क्षेत्रीय स्वायत्तता को कम करने के लिए नहीं किया जाना चाहिए और ऐसी कार्रवाइयों को लोकतांत्रिक सिद्धांतों का पालन करना चाहिए।

विभिन्न आयोगों द्वारा सिफारिशें

  • सरकारिया आयोग (1988): राज्यों की स्वायत्तता को बनाए रखते हुए केंद्र-राज्य संबंधों को मजबूत करने की अनुशंसा की।
    • बेहतर समन्वय के लिए अंतर-राज्यीय परिषद की स्थापना की सिफारिश की।
    • अलगाववादी प्रवृत्तियों का विरोध किया; एक मजबूत संवैधानिक ढाँचे के भीतर सांस्कृतिक संघवाद का समर्थन किया।
  • पुंछी आयोग (2010): क्षेत्रीय सरकारों के विरुद्ध दुरुपयोग से बचने के लिए अनुच्छेद-356 के उपयोग हेतु स्पष्ट दिशा-निर्देश सुझाए।
    • सांस्कृतिक और सामाजिक नीति में राज्यों के लिए अधिक स्वायत्तता की सिफारिश की।
    • राज्यों को प्रभावित करने वाली संधि वार्ताओं में बेहतर वित्तीय हस्तांतरण और राज्यों की भूमिका का आह्वान किया।

भारत में क्षेत्रवाद से निपटने के लिए आगे की राह

  • सहकारी संघवाद को मजबूत बनाना: योजना और नीति क्रियान्वयन में केंद्र और राज्यों के बीच वास्तविक सहयोग को बढ़ावा देना।
  • समतामूलक क्षेत्रीय विकास सुनिश्चित करना: लक्षित योजनाओं और संतुलित संसाधन आवंटन के माध्यम से आर्थिक और अवसंरचनात्मक अंतराल को पाटना।
  • विविधता का संवैधानिक समायोजन: संघीय ढाँचे के भीतर विशिष्ट क्षेत्रीय आवश्यकताओं का सम्मान करने के लिए अनुच्छेद-3 और अनुच्छेद-371 जैसे प्रावधानों का उपयोग करना।
  • पहचान-आधारित राजनीति को विनियमित करना: चुनाव प्रचार के दौरान क्षेत्रीय, भाषायी या धार्मिक पहचान के दुरुपयोग को रोकने के लिए चुनावी कानूनों को लागू करना।
  • सांस्कृतिक बहुलवाद को बढ़ावा देना: विविधता के माध्यम से एकता का निर्माण करने के लिए भारत की विविध संस्कृतियों, भाषाओं और परंपराओं को मान्यता देना ।
  • प्रवासन संबंधी चिंताओं का संवेदनशीलता से समाधान करना: स्थानीय लोगों की आकांक्षाओं को मुक्त आवागमन और समान अवसर के संवैधानिक अधिकारों के साथ संतुलित करना।
  • क्षेत्रीय दलों की जिम्मेदार भूमिका को प्रोत्साहित करना: राष्ट्रीय शासन और समावेशी नीति-निर्माण में क्षेत्रीय दलों की रचनात्मक भागीदारी को बढ़ावा देना।

निष्कर्ष

भारत में क्षेत्रवाद एक द्विआयामी अवधारणा है। हालाँकि यह स्थानीय पहचान को सशक्त और संघवाद को मजबूत कर सकता है, लेकिन अनियंत्रित क्षेत्रवाद—जब राजनीतिक अवसरवाद या सामाजिक-आर्थिक उपेक्षा से प्रेरित हो, राष्ट्रीय एकता के लिए खतरा बन सकता है। संवैधानिक समायोजन और सहयोगात्मक शासन के माध्यम से एक संतुलित, समावेशी दृष्टिकोण आवश्यक है।

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