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सी.बी.आई. की स्वतंत्रता तथा जाँच संबंधी निष्पक्षता

Lokesh Pal September 16, 2024 02:53 110 0

संदर्भ 

लगभग एक दशक में दूसरी बार भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने देश की प्रमुख अपराध जाँच एजेंसी के संदर्भ में ‘पिंजरे में बंद तोता’ शब्द का प्रयोग किया है।

संबंधित तथ्य

  • दिल्ली के सीएम को जमानत मिली: न्यायमूर्ति उज्जल भुइयाँ ने कथित दिल्ली शराब नीति घोटाले से संबंधित सी.बी.आई. मामले में अरविंद केजरीवाल को जमानत देते हुए यह टिप्पणी की।
  • निष्पक्ष जाँच: उच्चतम न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि भारत की प्रमुख जाँच एजेंसी के रूप में सी.बी.आई. को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उसकी जाँच न केवल निष्पक्ष हो बल्कि जनता द्वारा भी निष्पक्ष मानी जाए।
  • पक्षपात की धारणा: उच्चतम न्यायालय ने पक्षपात या अनुचित व्यवहार की किसी भी धारणा को समाप्त करने के महत्त्व पर जोर दिया, विशेषकर हाई-प्रोफाइल मामलों में।
  • सी.बी.आई. की स्वायत्तता का संदर्भ: न्यायमूर्ति भुइयाँ ने न्यायमूर्ति आर. एम. लोढ़ा की वर्ष 2013 की एक टिप्पणी का संदर्भ दिया, जिसमें सी.बी.आई. को ‘पिंजरे में बंद तोता’ बताया गया था, जिसमें इसकी स्वतंत्रता में आई कमी की आलोचना की गई थी।
  • टिप्पणी का संदर्भ: न्यायमूर्ति लोढ़ा ने यह टिप्पणी ‘कोलगेट घोटाले’ मामले की सुनवाई के दौरान की, जिसमें कोयला ब्लॉक लाइसेंस आवंटन में कथित अनियमितताएँ सामने आई थीं।

कोलगेट घोटाले (Coalgate Scam) के संदर्भ में

कोयला ब्लॉक आवंटन घोटाला (Coal Block Allocation Scam), जिसे ‘कोलगेट’ (Coalgate) के नाम से भी जाना जाता है, में वर्ष 2004 से 2009 तक यूपीए सरकार द्वारा प्रतिस्पर्द्धी बोली प्रक्रिया का पालन किए बिना कोयला ब्लॉकों के आवंटन में कथित अनियमितताएँ शामिल थीं।

  • कैग रिपोर्ट (2012): भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (CAG) ने अपनी रिपोर्ट में इन अनियमितताओं को उजागर किया था, तथा प्रारंभ में राजकोष को 10.7 लाख करोड़ रुपये का अनुमानित नुकसान होने का अनुमान लगाया था, जो बाद में बढ़कर 1.86 लाख करोड़ रुपये तक हो गया था।
  • उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी: सी.बी.आई. की आलोचना तब की गई, जब यह पता चला कि कोलगेट मामले पर एजेंसी की मसौदा स्थिति रिपोर्ट तत्कालीन कानून मंत्री और राजनीतिक अधिकारियों के साथ साझा की गई थी। रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले कथित तौर पर इसमें बदलाव किए गए थे।
  • ‘पिंजरे में बंद तोता’ टिप्पणी: न्यायमूर्ति आर. एम. लोढ़ा ने वर्ष 2013 में सुनवाई के दौरान सी.बी.आई. को ‘पिंजरे में बंद तोता’ कहा था और एजेंसी की आलोचना करते हुए कहा था कि वह स्वतंत्र रूप से कार्य करने के बजाय राजनीतिक कार्यपालिका के प्रभाव में कार्य कर रही है।
  • सी.बी.आई. की छवि पर प्रभाव: इस विवाद के कारण सी.बी.आई. की विश्वसनीयता पर सवाल उठे, जिससे जाँच में राजनीतिक हस्तक्षेप की चिंता और बढ़ गई।

केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (CBI) के बारे में

  • सी.बी.आई. का गठन: दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम (Delhi Special Police Establishment- DSPE Act), 1946 को लागू करके भारत सरकार के विभिन्न विभागों/संभागों में भ्रष्टाचार के आरोपों के अन्वेषण हेतु एक एजेंसी के रूप में इसकी औपचारिक शुरुआत की गई।
    • CBI को दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 द्वारा अन्वेषण करने की शक्ति प्राप्त है।

  • प्रारंभिक उद्देश्य: इसका प्रारंभिक उद्देश्य द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान युद्ध और आपूर्ति विभाग में लेन-देन से संबंधित रिश्वतखोरी एवं भ्रष्टाचार के मामलों की जाँच करना था।
  • मुख्यालय: DSPE का मुख्यालय अपने शुरुआती वर्षों में लाहौर में था।
  • युद्ध के बाद की आवश्यकता: द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद, केंद्र सरकार के कर्मचारियों से जुड़ी भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी की जाँच के लिए एक केंद्रीकृत एजेंसी की निरंतर आवश्यकता थी।
  • सी.बी.आई. में परिवर्तन: दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान का नाम बदलकर वर्ष 1963 में केंद्रीय जाँच ब्यूरो (CBI) कर दिया गया।
    • इस परिवर्तन को केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रस्ताव के माध्यम से औपचारिक रूप दिया गया।
  • वैधानिक निकाय नहीं: सी.बी.आई. न तो वैधानिक निकाय है और न ही संवैधानिक निकाय। इसे दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 से जाँच करने की शक्ति प्राप्त होती है।

सी.बी.आई. द्वारा निगरानी किए जाने वाले मामलों के प्रकार

  • भ्रष्टाचार की जाँच: सी.बी.आई. भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के तहत केंद्र सरकार, सार्वजनिक उपक्रमों और सरकार द्वारा नियंत्रित निकायों के सार्वजनिक अधिकारियों तथा कर्मचारियों से जुड़े मामलों की जाँच करने के लिए उत्तरदायी है।
  • आर्थिक अपराध: यह प्रमुख वित्तीय घोटालों और गंभीर आर्थिक धोखाधड़ी जैसे मामलों की भी जाँच करती है, जिसमें नकली मुद्रा, बैंक धोखाधड़ी, साइबर अपराध और विदेशी मुद्रा में उल्लंघन तथा नशीले पदार्थों एवं प्रतिबंधित वस्तुओं की तस्करी से संबंधित मामले शामिल हैं।
  • गंभीर और संगठित अपराध: एजेंसी, भारतीय दंड संहिता (भारतीय न्याय सहिंता) के तहत गंभीर अपराधों की जाँच करती है, अक्सर राज्य सरकारों के अनुरोध पर या सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों के आदेशों के माध्यम से, जिसमें आतंकवाद, बम विस्फोट और संगठित अपराध शामिल हैं।
  • स्वतः संज्ञान मामले: सी.बी.आई. स्वतंत्र रूप से जाँच शुरू कर सकती है, लेकिन केवल केंद्रशासित प्रदेशों के भीतर।
  • राज्य सरकार की सहमति: केंद्र सरकार, राज्य सरकार की सहमति से ही सी.बी.आई. को किसी राज्य के भीतर अपराधों की जाँच करने के लिए अधिकृत कर सकती है।
  • न्यायिक आदेश: सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालय राज्य की सहमति के बिना, देश भर में किसी भी अपराध की जाँच करने के लिए सी.बी.आई. को आदेश दे सकते हैं।

‘पिंजरे में बंद तोते’ की तरह कार्य कर रही सी.बी.आई. के हालिया मामले

  • 2G स्पेक्ट्रम आवंटन मामला: सी.बी.आई. पर यूपीए शासन के दौरान 2G स्पेक्ट्रम लाइसेंस के आवंटन से जुड़े कथित घोटाले की जाँच में देरी करने का आरोप लगाया गया था। इस मामले में कई राजनीतिक नेता शामिल थे और जाँच प्रक्रिया में राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोप लगे थे।
  • व्यापम घोटाला (मध्य प्रदेश): व्यापम भर्ती घोटाले की जाँच को शुरू में विफल माना गया था, जिसमें गवाहों एवं आरोपियों की कई रहस्यमयी मौतें हुई थीं। उच्चतम न्यायालय ने जाँच सी.बी.आई. को सौंप दी, लेकिन एजेंसी की जाँच की धीमी प्रगति और कथित स्वतंत्रता की कमी के कारण सवाल उठाए गए।
  • आईएनएक्स मीडिया मामला मुद्दा: आईएनएक्स मीडिया मामले में पूर्व वित्त मंत्री पी. चिदंबरम् की गिरफ्तारी और जाँच को कुछ लोगों ने राजनीति से प्रेरित माना। विपक्षी दलों ने दावा किया कि सी.बी.आई. का प्रयोग सत्तारूढ़ पार्टी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को निशाना बनाने के लिए किया जा रहा है।
  • सारदा चिट फंड घोटाला: सारदा चिट फंड घोटाले की जाँच में हाई-प्रोफाइल राजनीतिक नेता शामिल थे और सी.बी.आई. पर राजनेताओं के खिलाफ कार्रवाई में जानबूझकर देरी करने का आरोप लगाया गया था। एजेंसी पर राजनीतिक हितों के दबाव में होने के आरोप थे।
  • सी.बी.आई. निदेशक विवाद: सी.बी.आई. के दो शीर्ष अधिकारियों (निदेशक आलोक वर्मा और विशेष निदेशक राकेश अस्थाना) के बीच सार्वजनिक विवाद के कारण एजेंसी के भीतर राजनीतिक हस्तक्षेप और आंतरिक भ्रष्टाचार के आरोप लगे।

सी.बी.आई. के पिंजरे में बंद तोते की तरह कार्य करने के पीछे क्या कारण हैं?

  • प्रशासनिक नियंत्रण: सी.बी.आई. कार्मिक एवं प्रशिक्षण विभाग (Department of Personnel and Training-DoPT) के अधीन कार्य करती है, जो प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) के अंतर्गत आता है। यह प्रत्यक्ष प्रशासनिक संबंध इसे अपने कामकाज में राजनीतिक हस्तक्षेप के लिए अतिसंवेदनशील बनाता है, विशेषकर सरकारी अधिकारियों से जुड़े हाई-प्रोफाइल मामलों में।
  • मुख्य अधिकारियों की नियुक्ति: सी.बी.आई. निदेशक की नियुक्ति में प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता (लोकसभा) और भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के नेतृत्व वाली एक चयन समिति शामिल होती है। हालाँकि, सरकार का प्रभाव प्रमुख बना हुआ है।
    • यह चिंता का विषय है कि वरिष्ठ अधिकारियों को सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाले लाभ उनकी स्वतंत्रता को और कम कर देते हैं, जिससे वे सरकार के प्रभाव में आ जाते हैं।
  • जाँच के लिए पूर्व स्वीकृति: वरिष्ठ अधिकारियों (संयुक्त सचिव स्तर और उससे ऊपर) की जाँच करने से पहले सी.बी.आई. को केंद्र सरकार से पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता होती है। यह आवश्यकता, विशेष रूप से भ्रष्टाचार के मामलों में, स्वतंत्र रूप से जाँच करने की इसकी क्षमता को प्रतिबंधित करती है और उच्च पदस्थ अधिकारियों से जुड़े मामलों में एक महत्त्वपूर्ण बाधा के रूप में कार्य कर सकती है।
  • राज्य की सहमति: सी.बी.आई. को उस राज्य के भीतर अपराधों की जाँच करने के लिए राज्य सरकार की सहमति की आवश्यकता होती है। पश्चिम बंगाल और पंजाब जैसे कई राज्यों ने सी.बी.आई. पर केंद्र सरकार द्वारा राजनीतिक रूप से दुरुपयोग करने का आरोप लगाते हुए सामान्य सहमति रद्द कर दी है। इससे एजेंसी का अधिकार क्षेत्र सीमित हो जाता है और इसकी कार्यकुशलता प्रभावित होती है।
  • गैर-सांविधिक स्थिति: सी.बी.आई. के पास वैधानिक समर्थन का अभाव है, क्योंकि इसे दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम (1946) से अपनी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं। यह एजेंसी को कार्यकारी निर्णयों पर अधिक निर्भर बनाता है और स्पष्ट विधायी ढाँचे वाली एजेंसियों के विपरीत राजनीतिक प्रभाव के प्रति संवेदनशील बनाता है।
  • सार्वजनिक धारणा और विश्वसनीयता: बोफोर्स और हवाला घोटाले जैसे कई हाई-प्रोफाइल मामलों ने सी.बी.आई. की विश्वसनीयता को और भी कम कर दिया है, जिसमें देरी और राजनीतिक हितों के लिए हेरफेर के आरोप शामिल हैं। इससे यह धारणा निर्मित हुई है कि सी.बी.आई. एक स्वतंत्र जाँच एजेंसी की तुलना में एक राजनीतिक उपकरण के रूप में अधिक कार्य करती है।
  • कार्मिकों की भारी कमी: इस कमी का एक प्रमुख कारण सरकार द्वारा सी.बी.आई. के कार्यबल का कुप्रबंधन है, जो अकुशल तथा पक्षपातपूर्ण भर्ती नीतियों के माध्यम से नुकसानदेह, पसंदीदा अधिकारियों को लाने के लिए किया जाता है।

सी.बी.आई. की स्वायत्तता और कार्यप्रणाली पर सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय

  • विनीत नारायण बनाम भारत संघ (1997): इस निर्णय में सी.बी.आई. की स्वायत्तता के लिए विभिन्न सुरक्षा उपाय स्थापित किए गए, जैसे कि उच्चस्तरीय समिति द्वारा सी.बी.आई. निदेशक की नियुक्ति और सी.बी.आई. निदेशक के लिए दो वर्ष का निश्चित कार्यकाल।
  • सुब्रमण्यम स्वामी बनाम निदेशक, सी.बी.आई. (2014)
    • इसने दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम की धारा 6A को निरस्त कर दिया, जिसके तहत वरिष्ठ अधिकारियों की जाँच के लिए सरकार की पूर्व अनुमति की आवश्यकता थी।
    • निर्णय में कहा गया कि यह प्रावधान संविधान के अनुच्छेद-14 (विधि के समक्ष समानता) का उल्लंघन करता है, जिससे सी.बी.आई. की स्वतंत्रता बढ़ती है।
  • कॉमन कॉज बनाम भारत संघ (2018)
    • निर्णय में DSPE अधिनियम की धारा 4A की वैधता को बरकरार रखा गया, जिसके तहत सी.बी.आई. निदेशक की नियुक्ति/हटाने के लिए चयन समिति (प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता, मुख्य न्यायाधीश) की आवश्यकता होती है।
    • इसने निर्देश दिया कि सी.बी.आई. निदेशक के तबादलों या कर्तव्यों में बदलाव के लिए समिति की सहमति होनी चाहिए।

सी.बी.आई. की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए सिफारिशें

  • प्रशासनिक नियंत्रण का पृथक्करण: सी.बी.आई. को स्वतंत्र रहने के लिए, इसकी नियुक्तियों और स्थानांतरणों पर सरकार के नियंत्रण से मुक्त किया जाना चाहिए। जब ​​तक सरकार के पास यह शक्ति रहेगी, तब तक सी.बी.आई. की स्वतंत्र और निष्पक्ष जाँच करने की क्षमता से समझौता किया जाएगा।
  • वैधानिक स्थिति: सी.बी.आई. को नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक और चुनाव आयोग की तरह स्वतंत्रता प्रदान करने के लिए कानून के माध्यम से वैधानिक स्थिति प्रदान करने की तत्काल आवश्यकता है।
  • संरचनात्मक सुधार और समर्पित कैडर विकास 
    • सी.बी.आई. को दो इकाइयों में विभाजित किया जाना चाहिए: एक भ्रष्टाचार निरोधक निकाय और एक राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो, जिससे दोनों क्षेत्रों में विशेषज्ञता सुनिश्चित हो सके।
    • इसके अलावा, एजेंसी को अधिकारियों का अपना समर्पित कैडर बनाने, बाहरी सेवाओं पर निर्भरता कम करने और व्यावसायिकता में सुधार लाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
  • सी.बी.आई. पर संसदीय स्थायी समिति की 24वीं रिपोर्ट की सिफारिशें: निम्नलिखित सिफारिशें सी.बी.आई. को मजबूत बना सकती हैं और इसकी स्वतंत्रता सुनिश्चित कर सकती हैं।
    • परिचालन क्षमता में सुधार के लिए सी.बी.आई. के भीतर जनशक्ति को मजबूत करना।
    • बुनियादी ढाँचे को बढ़ाना और बेहतर सुविधाओं में निवेश करना।
    • जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए वित्तीय संसाधन और प्रशासनिक स्वायत्तता बढ़ाना।
    • संविधान की 7वीं अनुसूची की संघ, राज्य और समवर्ती सूचियों में सूचीबद्ध मामलों में अधिक जाँच शक्तियाँ प्रदान करना।
    • पुराने DSPE अधिनियम के स्थान पर केंद्रीय खुफिया एवं अन्वेषण ब्यूरो अधिनियम के तहत एक नया कानून प्रस्तावित किया जाना चाहिए।
  • अन्य सिफारिशें: एल.पी. सिंह समिति (1978) और द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (2007) जैसी पिछली सिफारिशों में भी इसी तरह सी.बी.आई. को आत्मनिर्भर वैधानिक ढाँचे के साथ सशक्त बनाने के लिए एक व्यापक केंद्रीय कानून की आवश्यकता पर बल दिया गया था।

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