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ट्रांसजेंडर रक्तदान प्रतिबंध पर सर्वोच्च न्यायालय ने माँगी विशेषज्ञ सलाह

Lokesh Pal May 20, 2025 03:21 3 0

संदर्भ

हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र से ट्रांसजेंडर (उभयलिंगी व्यक्ति) और समलैंगिक व्यक्तियों के रक्तदान पर प्रतिबंध के संबंध में विशेषज्ञों की राय लेने को कहा था, क्योंकि इससे ये वर्ग उपेक्षा का शिकार होते हैं।

पृष्ठभूमि

  • अक्टूबर 2017: राष्ट्रीय रक्त संचरण परिषद (National Blood Transfusion Council- NBTC) ने रक्तदान के लिए दिशा-निर्देश जारी किए हैं, जिसके तहत ट्रांसजेंडर, समलैंगिक व्यक्तियों और यौनकर्मियों को रक्तदान करने से रोका गया है।
  • वर्ष 2019–2021: कोविड-19 महामारी के दौरान, ट्रांसजेंडर व्यक्ति रक्तदान करने का प्रयास करते रहे, लेकिन उन्हें मना कर दिया गया, जिससे दिशा-निर्देशों की भेदभावपूर्ण प्रकृति प्रदर्शित होती है।
  • मार्च 2021: सर्वोच्च न्यायालय ने सुनवाई शुरू की, केंद्र को नोटिस जारी किया और बहिष्कार नीति के लिए औचित्य माँगा।
  • सितंबर 2023: सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि सार्वजनिक स्वास्थ्य गरिमा और समानता को दरकिनार नहीं कर सकता, पहचान आधारित प्रतिबंधों पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया।
  • मई 2025: सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार को विशेषज्ञ चिकित्सा राय लेने और प्रतिबंध के वैज्ञानिक तथा कानूनी आधार का पुनर्मूल्यांकन करने का निर्देश दिया।

ट्रांसजेंडर (उभयलिंगी व्यक्ति) के बारे में

उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के अनुसार, ट्रांसजेंडर व्यक्ति वह है, जिसकी लिंग पहचान जन्म के समय निर्धारित लिंग से मेल नहीं खाती। इसमें शामिल हैं:-

  • ट्रांसजेंडर पुरुष और महिलाएँ
  • समलैंगिक व्यक्ति
  • जेंडरक्वीर, नॉन-बाइनरी व्यक्ति
  • अलग सामाजिक-सांस्कृतिक पहचान जैसे- अरावानी, जोगता, किन्नर।

याचिकाकर्ताओं के तर्क

  • पहचान के आधार पर भेदभाव: वर्ष 2017 के दिशा-निर्देश व्यक्तिगत जोखिम कारकों का मूल्यांकन करने के बजाय पूरे समुदाय (ट्रांसजेंडर व्यक्ति, समलैंगिक व्यक्ति, यौनकर्मी) पर एक व्यापक प्रतिबंध लगाते हैं, जो अनुच्छेद-14, 15 और 21 का उल्लंघन करते हैं।
  • गरिमा और स्वायत्तता का उल्लंघन: सार्वजनिक रक्तदान व्यवस्था में LGBTQIA+ व्यक्तियों को अपनी पहचान का खुलासा करने की आवश्यकता अपमानजनक है, उनकी गोपनीयता और शारीरिक स्वायत्तता का उल्लंघन है।
  • अवैज्ञानिक और पुरानी नीति: प्रतिबंध रूढ़ियों पर आधारित है, वर्तमान चिकित्सा विज्ञान पर नहीं। आधुनिक परीक्षण (जैसे- NAT एवं ELISA) प्रभावी रूप से संक्रमण का पता लगा सकते हैं, जिससे ऐसे बहिष्करण अनावश्यक हो जाते हैं।
  • आपात स्थितियों के दौरान प्रभाव: COVID-19 संकट के दौरान, रक्तदान करने के इच्छुक ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को प्रतिबंधित कर दिया गया, जिससे रक्त की कमी में वृद्धि हुई और लोगों को जीवन रक्षक आधान से वंचित होना पड़ा।

सरकार के तर्क

  • एहतियाती सार्वजनिक स्वास्थ्य उपाय: नीति का उद्देश्य रक्त-जनित संक्रमणों (जैसे- HIV, हेपेटाइटिस B/C) के लिए सांख्यिकीय रूप से उच्च जोखिम वाले समूहों से दान से बचकर प्राप्तकर्ताओं की रक्षा करना है।
  • एक समान परीक्षण अवसंरचना का अभाव: भारत में अभी तक सभी रक्त बैंकों में उच्च-स्तरीय स्क्रीनिंग तकनीकों (जैसे- NAT) तक सार्वभौमिक पहुँच नहीं है, इसलिए एहतियाती बहिष्करण आवश्यक माना जाता है।
  • प्रशासनिक व्यावहारिकता: जोखिम आधारित व्यक्तिगत स्क्रीनिंग संसाधन-गहन है और इसे राष्ट्रव्यापी रूप से लागू करना कठिन है; अतः सरलता और सुरक्षा के लिए पहचान आधारित प्रतिबंध अपनाए गए।
  • वैश्विक अभ्यास: सरकार ने उद्धृत किया कि कुछ अन्य देशों में अतीत में इसी तरह की नीतियाँ रही हैं, हालाँकि अब कई देश उन्हें अधिक समावेशी प्रथाओं की ओर संशोधित कर रहे हैं।

NBTC दिशा-निर्देश क्या हैं?

  • केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के अंतर्गत राष्ट्रीय रक्त संचरण परिषद (National Blood Transfusion Council-NBTC) द्वारा वर्ष 2017 में जारी किया गया।
  • शीर्षक: “रक्तदाता चयन और रक्तदाता रेफरल पर दिशा-निर्देश” (Guidelines on Blood Donor Selection and Blood Donor Referral)।
  • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए प्रासंगिक प्रमुख प्रावधान
    • दिशा-निर्देशों का खंड 12 निम्नलिखित मामलों में रक्तदान को स्थायी रूप से स्थगित (प्रतिबंधित) करता है:
      • ट्रांसजेंडर व्यक्ति
      • समलैंगिक व्यक्ति
      • महिला यौनकर्मी
    • इन समूहों को HIV, हेपेटाइटिस B और हेपेटाइटिस C के लिए ‘उच्च जोखिम वाले दाताओं’ के रूप में चिह्नित किया जाता है, भले ही व्यक्तिगत स्वास्थ्य स्थिति या जाँच कुछ भी हो।

राष्ट्रीय रक्त संचरण परिषद (National Blood Transfusion Council-NBTC)

  • केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा वर्ष 1996 में स्थापित किया गया।
  • कानूनी उत्पत्ति: रक्त बैंकों के विनियमन एवं संचरण में सुरक्षा की माँग करने वाली जनहित याचिकाओं के उत्तर में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार इसकी स्थापना की गई।
  • उद्देश्य
    • स्वैच्छिक और गैर-पारिश्रमिक रक्तदान को बढ़ावा देना।
    • सुरक्षित, गुणवत्तापूर्ण और किफायती रक्त तथा उसके घटकों को सुनिश्चित करना।
    • रक्त आधान सेवाओं (Blood Transfusion Services-BTS) के लिए मानव संसाधन, प्रशिक्षण और बुनियादी ढाँचे का विकास करना।
    • राष्ट्रीय रक्त नीति तैयार करना और उसे लागू करना।
  • भूमिका और संरचना
    • भारत भर में रक्त केंद्रों के संचालन, नीति और विनियमन से संबंधित सभी मामलों के लिए सर्वोच्च निकाय।
    • राज्य रक्त संचरण परिषद (State Blood Transfusion Councils-SBTCs) के साथ समन्वय करता है।

सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • पूरे समुदाय को ‘उच्च जोखिम’ के रूप में प्रस्तुत करके उपेक्षा और पूर्वाग्रह के जोखिम को प्रदर्शित किया।
  • ट्रांसजेंडर पहचान को सीधे उच्च रोग जोखिम से जोड़ने वाले चिकित्सा साक्ष्य की कमी पर सवाल उठाया।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अगर “सामान्य” व्यक्ति भी ऐसी ही गतिविधियों में संलग्न हैं, तो भी जोखिम पैदा हो सकता है, जिससे विशिष्ट समूहों को लक्षित करने की निष्पक्षता पर सवाल उठता है।
  • समुदायों को उपेक्षित किए बिना चिकित्सा सुरक्षा सुनिश्चित करने वाले समाधान को खोजने के लिए विशेषज्ञ परामर्श की आवश्यकता पर जोर दिया।
  • प्रौद्योगिकी और परीक्षण तंत्र में प्रगति को स्वीकार किया, यह सुझाव देते हुए कि विकसित चिकित्सा पद्धतियाँ बिना किसी प्रतिबंध के चिंताओं को दूर कर सकती हैं।

संवैधानिक और कानूनी ढाँचा

शामिल प्रमुख मौलिक अधिकार

  • अनुच्छेद-14 – समानता का अधिकार: कानून के समक्ष समानता और कानूनों का समान संरक्षण सुनिश्चित करता है।
    • पहचान के आधार पर पूर्ण प्रतिबंध समान व्यवहार से इनकार करके इसका उल्लंघन करते हैं।
  • अनुच्छेद-15 – भेदभाव का निषेध: लिंग के आधार पर भेदभाव को रोकता है, जिसकी व्याख्या NALSA बनाम भारत संघ (2014) में सर्वोच्च न्यायालय ने लैंगिक पहचान और यौन अभिविन्यास को शामिल करने के लिए की थी।
    • सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रमों से ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को बाहर रखना इस सुरक्षा का उल्लंघन करता है।
  • अनुच्छेद-21 – जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार: गरिमा, गोपनीयता और स्वायत्तता के अधिकार को शामिल करता है।
    • केवल पहचान के आधार पर रक्तदान करने के अधिकार से इनकार करना गरिमा और शारीरिक स्वायत्तता का उल्लंघन है।

प्रमुख न्यायिक उदाहरण

  • नालसा बनाम भारत संघ (2014): स्वयं की लैंगिक पहचान संबंधी अधिकार को मान्यता दी गई तथा यह माना गया कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को संविधान के तहत समान अधिकार प्राप्त हैं, जिसमें सार्वजनिक स्थानों और सेवाओं तक पहुँच शामिल है।
  • न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टास्वामी बनाम भारत संघ (2017): निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किया गया।
    • पहचान आधारित बहिष्करण, विशेष रूप से यदि उन्हें अपनी पहचान का खुलासा करने के लिए मजबूर किया जाता है, तो गोपनीयता और निर्णयात्मक स्वायत्तता का उल्लंघन होता है।
  • नवतेज सिंह जौहर बनाम भारत संघ (2018): सहमति से समलैंगिक संबंधों को अपराध से मुक्त किया गया।
    • इस बात पर जोर दिया गया कि यौन अभिविन्यास और लैंगिक पहचान व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मुख्य पहलू हैं और इनकी रक्षा की जानी चाहिए।

वैधानिक कानून: उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019

  • धारा 3: स्वास्थ्य सेवा और सार्वजनिक सेवाओं तक पहुँच में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के विरुद्ध भेदभाव को प्रतिबंधित करता है।
  • धारा 15: राज्य को निवारक और सामान्य स्वास्थ्य सेवाओं सहित बिना किसी भेदभाव के स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने का आदेश देता है।
  • विरोधाभास: रक्तदाता दिशा-निर्देश (2017) स्वास्थ्य संबंधी नागरिक कर्तव्यों में भाग लेने से ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को बाहर करके इस अधिनियम की भावना और अर्थ का खंडन करते हैं।

ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए संस्थागत तंत्र और कल्याणकारी योजनाएँ

  • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए राष्ट्रीय परिषद (National Council for Transgender Persons-NCTP): उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के तहत स्थापित किया गया था।
    • सरकार को सलाह देता है, नीतियों की निगरानी करता है और शिकायत निवारण का कार्य करता है।
  • उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 और नियम, 2020: शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवा, आवास में गैर-भेदभाव का प्रावधान करता है।
    • लैंगिक पहचान की कानूनी मान्यता और कल्याणकारी योजनाओं तक पहुँच को अनिवार्य बनाता है।
  • गरिमा गृह (आश्रय गृह): ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए सुरक्षित आवास, कौशल प्रशिक्षण और पुनर्वास प्रदान करने के उद्देश्य से।
    • सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय द्वारा SMILE योजना के तहत संचालित।
  • SMILE योजना (2022): आजीविका और उद्यम के लिए हाशिए पर स्थित व्यक्तियों की सहायता हेतु शुरू की गई।
    • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को पुनर्वास, परामर्श, शिक्षा और आजीविका सहायता प्रदान करता है।
  • आयुष्मान भारत टीजी प्लस: लैंगिक रूप से सकारात्मक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए पीएम-जेएवाई के तहत एक उप-योजना।
    • हार्मोन थेरेपी, एसआरएस, परामर्श और संबंधित खर्चों को शामिल करता है।
  • कौशल विकास पहल: NSDC और राज्य सरकारें ट्रांसजेंडर युवाओं के लिए व्यावसायिक प्रशिक्षण कार्यक्रम प्रदान करती हैं।
    • आर्थिक सशक्तीकरण और निर्भरता को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है।
  • राज्य-स्तरीय कल्याण बोर्ड: तमिलनाडु और केरल जैसे राज्यों ने ट्रांसजेंडर कल्याण बोर्ड बनाए हैं।
    • वे पहचान-पत्र, आवास, पेंशन और माइक्रोफाइनेंस पहुँच प्रदान करते हैं।

ट्रांसजेंडर समुदायों की उपेक्षा

  • उपेक्षा का तात्पर्य लैंगिक असमानता के आधार पर व्यापक सामाजिक अस्वीकृति और भेदभाव से है।
  • यह बहिष्कार, दुर्व्यवहार, अधिकारों से वंचित करने और ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की संस्थागत उपेक्षा के माध्यम से प्रकट होता है।

उपेक्षा बनाम सार्वजनिक स्वास्थ्य

  • पहचान आधारित प्रतिबंध सुरक्षा को नहीं, बल्कि उपेक्षा को बढ़ावा देते हैं: NBTC के वर्ष 2017 के दिशा-निर्देशों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों, समलैंगिक व्यक्ति और यौनकर्मियों को “उच्च जोखिम” वाले समूहों में शामिल नहीं किया गया है ।
    • यह तर्कसंगत सार्वजनिक स्वास्थ्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के बजाय पूरे समुदायों को उपेक्षित करता है।
  • व्यापक बहिष्कार चिकित्सा प्रगति को अनदेखा करता है: आधुनिक रक्त जाँच तकनीकें (जैसे- NAT, ELISA) एचआईवी और हेपेटाइटिस संक्रमण का प्रभावी ढंग से पता लगा सकती हैं। फिर भी निरंतर व्यापक स्थगन इस प्रगति को अनदेखा करता है और पुरानी रूढ़ियों के पक्ष में वैज्ञानिकता को कमजोर करता है।
  • सार्वजनिक स्वास्थ्य को गरिमा और सुरक्षा को संतुलित करना चाहिए: सर्वोच्च न्यायालय ने सवाल किया कि क्या सुरक्षा प्रोटोकॉल गरिमा की कीमत पर लिए जा सकते हैं।
    • इसने जोर दिया कि चिकित्सा दिशा-निर्देशों को पूर्वाग्रहों को मजबूत नहीं करना चाहिए, खासकर जब कोई निर्णायक साक्ष्य पहचान आधारित बहिष्करण को उचित नहीं ठहराता है।
  • उपेक्षित स्वास्थ्य प्रणालियों के साथ जुड़ाव को हतोत्साहित करता है: ट्रांसजेंडर व्यक्ति प्रायः कर्मचारियों द्वारा भेदभाव और अपमानित होने के डर के कारण अस्पतालों में जाने से बचते हैं।
    • इससे निवारक देखभाल, मानसिक स्वास्थ्य सहायता और यहाँ तक ​​कि रक्तदान जैसे स्वैच्छिक कार्यक्रमों में भागीदारी तक उनकी पहुँच कम हो जाती है।
  • पहचान और बीमारी के बीच गलत संबंध का प्रसार: ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को एचआईवी संक्रमण के लिए स्वाभाविक रूप से जोखिम भरा बताना गलत सूचना आधारित सार्वजनिक तथ्यों को बढ़ावा देता है, जिससे असुरक्षित यौन संबंध या स्क्रीनिंग की कमी जैसे वास्तविक जोखिम वाले व्यवहारों से ध्यान हट जाता है।
  • समावेशी स्वास्थ्य प्रणालियाँ बेहतर परिणामों को बढ़ावा देती हैं: विश्वास, गोपनीयता और व्यक्तिगत जोखिम (पहचान नहीं) पर आधारित नीतियाँ व्यापक भागीदारी, प्रारंभिक परीक्षण और बेहतर सार्वजनिक स्वास्थ्य परिणामों को प्रोत्साहित करती हैं।
    • इसके विपरीत, ये प्रतिबंध कमजोर समूहों को अलग-थलग कर देते हैं, जिससे समग्र रूप से स्वास्थ्य संकेतक की स्थिति खराब हो जाती है।

वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाएँ

  • व्यवहार आधारित जोखिम मूल्यांकन: यूनाइटेड किंगडम (2021) और कनाडा (2022) ने पहचान आधारित प्रतिबंधों से हटकर व्यक्तिगत व्यवहार आधारित जाँच की ओर रुख किया है।
    • दानकर्ताओं का मूल्यांकन यौन गतिविधियों, सुरक्षा प्रथाओं और परीक्षण इतिहास के आधार पर किया जाता है, न कि यौन अभिविन्यास या लैंगिक पहचान के आधार पर।
  • तटस्थ प्रश्नावली द्वारा प्रतिस्थापित विलंब अवधि: कई देशों ने MSM या ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए विलंब अवधि को कम किया है।
    • इसके बजाय, वे तटस्थ प्रश्नावली का उपयोग करते हैं, जो हाल की यौन गतिविधियों, भागीदारों की संख्या और सुरक्षा के उपयोग पर ध्यान केंद्रित करते हैं।
  • आधार के रूप में वैज्ञानिक साक्ष्य: फ्राँस, नीदरलैंड और जर्मनी ने अध्ययनों के बाद अपनी नीतियों में सुधार किया, जब रक्तदान की उचित जाँच की गई तो कोई उच्च संचरण जोखिम नहीं दिखा।
    • यह भेदभावपूर्ण प्रतिबंधों का सहारा लिए बिना सुरक्षा और समावेश दोनों सुनिश्चित करता है।
  • रक्त नीतियों की नियमित समीक्षा: FDA (USA) तथा UK की रक्त सुरक्षा सलाहकार समिति जैसी एजेंसियों के पास नए डेटा के आधार पर प्रत्येक 1-2 वर्ष में रक्त नीतियों की समीक्षा करने के लिए संस्थागत तंत्र हैं।
  • एलजीबीटीक्यू+ समुदायों के साथ जुड़ाव: ऑस्ट्रेलिया और स्पेन जैसे देश नीति सलाहकार निकायों में समुदाय के प्रतिनिधियों को शामिल करते हैं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बहिष्कार प्रथाओं से बचा जाए।
    • इससे विश्वास, जागरूकता तथा बेहतर अनुपालन को बढ़ावा मिलता है।
  • कलंक का मुकाबला करने के लिए सार्वजनिक संचार: यू.के. और न्यूजीलैंड में सार्वजनिक स्वास्थ्य निकायों ने नागरिकों को शिक्षित करने के लिए अभियान चलाए हैं कि रक्तदान नीतियाँ साक्ष्य-आधारित और समावेशी हैं, जिससे सामाजिक पूर्वाग्रह कम होता है।

आगे की राह 

रक्तदान और ट्रांसजेंडर समावेशन

  • पहचान आधारित से व्यवहार आधारित जोखिम मूल्यांकन में बदलाव: हाल के यौन व्यवहार तथा चिकित्सा इतिहास के आधार पर व्यक्तिगत जोखिम जाँच के साथ व्यापक प्रतिबंध को बदलना।
    • लैंगिक रूप से तटस्थ दाता प्रश्नावली को अपनाना, जैसा कि UK तथा कनाडा में किया जाता है।
  • स्क्रीनिंग इन्फ्रास्ट्रक्चर को अपडेट और मानकीकृत करना: सभी रक्त बैंकों में न्यूक्लिक एसिड टेस्टिंग (NAT) और उन्नत निदान तक पहुँच का विस्तार करना।
    • बिना किसी भेदभाव के गुणवत्ता और सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए तकनीशियनों और रक्त बैंक कर्मियों के प्रशिक्षण में निवेश करना।
  • वर्ष 2017 के NBTC दिशा-निर्देशों में संशोधन करना: ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के स्थायी स्थगन को हटाने के लिए खंड 12 को संशोधित करना।
    • नीति समीक्षा प्रक्रिया में चिकित्सा विशेषज्ञों, कानूनी पेशेवरों और ट्रांसजेंडर प्रतिनिधियों को शामिल करना।
  • सूचित सहमति और गोपनीयता सुनिश्चित करना: लैगिक पहचान या यौन अभिविन्यास के अनिवार्य प्रकटीकरण से बचकर दाताओं की गोपनीयता के अधिकार की रक्षा करना।
    • गोपनीय पूर्व-दान परामर्श मॉडल अपनाना।
  • सामुदायिक जुड़ाव के माध्यम से विश्वास का निर्माण करना: सार्वजनिक स्वास्थ्य संवादों और सलाहकार बोर्डों में ट्रांसजेंडर नेताओं को शामिल करना।
    • रूढ़िवादिता को चुनौती देने और स्वैच्छिक रक्तदान अभियान में समावेशन को बढ़ावा देने के लिए जागरूकता अभियान संचालित करना।
  • कानूनी और संस्थागत सुरक्षा उपायों को मजबूत करना: रक्तदान नीतियों को उभयलिंगी व्यक्ति (अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 के साथ संरेखित करना, जो स्वास्थ्य सेवा में भेदभाव को प्रतिबंधित करता है।
    • ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए राष्ट्रीय परिषद के माध्यम से अनुपालन की निगरानी करना।
  • न्यायिक और नीतिगत जवाबदेही: भेदभावपूर्ण खंडों की विशेषज्ञ चिकित्सा समीक्षा करने के लिए वर्ष 2025 से सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों को लागू करना।
    • समय-समय पर दाता समावेशिता, प्रतिकूल घटनाओं और शिकायत निवारण पर डेटा का ऑडिट और प्रकाशन करना।

निष्कर्ष 

NBTC के भेदभावपूर्ण रक्तदान दिशा-निर्देशों का पुनर्मूल्यांकन करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का प्रयास समानता और सम्मान की संवैधानिक गारंटी के साथ सार्वजनिक स्वास्थ्य को संतुलित करने की प्रतिबद्धता को दर्शाता है। साक्ष्य-आधारित, समावेशी नीतियों की वकालत करके, न्यायालय का उद्देश्य उपेक्षित व्यवहार को समाप्त करना और रक्तदान जैसे नागरिक कर्तव्यों में ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की उचित भागीदारी सुनिश्चित करना है।

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