100% तक छात्रवृत्ति जीतें

रजिस्टर करें

उच्चतम न्यायालय द्वारा राज्यपाल की संवैधानिक प्रतिरक्षा की जाँच

Lokesh Pal July 23, 2024 01:03 125 0

संदर्भ

हाल ही में भारत का उच्चतम न्यायालय एक राज्य के राज्यपाल को प्राप्त संवैधानिक प्रतिरक्षा की रूपरेखा को पुनः परिभाषित करने की माँग वाली याचिका पर सुनवाई करने के लिए सहमत हो गया।

  • पश्चिम बंगाल राजभवन की एक संविदा कर्मचारी द्वारा राज्यपाल के खिलाफ यौन उत्पीड़न का आरोप लगाते हुए याचिका दायर करने के बाद उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने राज्यपाल की उन्मुक्ति के मुद्दे पर विचार किया।

महिला याचिकाकर्ता की गई माँग

  • तत्काल जाँच की माँग: याचिकाकर्ता का तर्क है कि पीड़ितों को ‘उपचारविहीन’ (Remediless) नहीं बनाया जाना चाहिए, उन्हें राज्यपाल के पद छोड़ने तक प्रतीक्षा करने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए, जिससे न्याय में देरी हो सकती है और मुकदमे पर असर पड़ सकता है।
  • विशिष्ट दिशा-निर्देश तैयार करना: याचिका में ऐसे विशिष्ट दिशा-निर्देश तैयार करने के निर्देश माँगे गए हैं, जिसके तहत राज्यपालों को आपराधिक अभियोजन से छूट प्राप्त हो।
  • पुलिस जाँच: यौन उत्पीड़न के आरोपों की पश्चिम बंगाल पुलिस द्वारा गहन जाँच।
  • सुरक्षा और मुआवजा: उसकी और उसके परिवार की सुरक्षा और उसकी पहचान की रक्षा करने में राज्य मशीनरी की विफलता के कारण उसकी प्रतिष्ठा और गरिमा को हुए नुकसान के लिए सरकार से मुआवजा मिलना चाहिए।
  • पूर्ण छूट पर सवाल: याचिका में कहा गया है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद-361 के तहत छूट ‘पूर्ण’ नहीं होनी चाहिए, जिससे अवैध कार्य या संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कार्यों को बढ़ावा मिल सके।
    • यह तर्क दिया गया है कि इस छूट से अपराध की जाँच करने या शिकायत अथवा FIR में अपराधी का नाम दर्ज करने की पुलिस की शक्तियों में कमी नहीं आनी चाहिए।

राज्य के राज्यपाल के बारे में

भारतीय संविधान का भाग VI राज्य कार्यपालिका से संबंधित है। राज्य कार्यपालिका में राज्यपाल, मुख्यमंत्री, मंत्रिपरिषद और राज्य के महाधिवक्ता शामिल होते हैं।

  • नाममात्र का प्रमुख: राज्यपाल, राज्य स्तर पर नाममात्र का प्रमुख होता है। 
    • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-153 से अनुच्छेद-167 राज्य कार्यकारिणी से संबंधित है, जिसका नाममात्र का प्रमुख राज्यपाल होता है और मंत्रिपरिषद का प्रमुख मुख्यमंत्री होता है। 
    • वे केंद्र सरकार के एजेंट के रूप में भी कार्य करते हैं। इस प्रकार, राज्यपाल दोहरी भूमिका निभाता है।
  • नियुक्ति: राज्यपाल की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा अपने हस्ताक्षर एवं मुहर के तहत की जाती है।
    • वर्ष 1979 में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल का पद केंद्र सरकार के अधीन रोजगार का पद नहीं है। 
    • यह एक स्वतंत्र संवैधानिक पद है और केंद्र सरकार के नियंत्रण में या उसके अधीन नहीं है। 
    • भारत ने केंद्र द्वारा राज्यपाल की नियुक्ति के लिए कनाडाई मॉडल को अपनाया। 
      • कनाडाई मॉडल: किसी प्रांत (राज्य) के राज्यपाल की नियुक्ति गवर्नर-जनरल (केंद्र) द्वारा की जाती है।
  • शपथ: संबंधित उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश द्वारा प्रशासित (Chief Justice of the concerned High Court)
  • योग्यता: उसे भारत का नागरिक होना चाहिए और उसकी आयु 35 वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए।
    • नियुक्ति के लिए परंपराएँ: उसे उस राज्य से नहीं होना चाहिए जहाँ उसे नियुक्त किया गया है।
      • राज्यपाल की नियुक्ति करते समय राष्ट्रपति को संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री से परामर्श करना आवश्यक होता है।
  • पदावधि: वह पाँच वर्ष की अवधि के लिए पद पर रहता है। हालाँकि, उनका कार्यकाल राष्ट्रपति की इच्छा पर निर्भर है।
    • संविधान में राष्ट्रपति द्वारा राज्यपाल को हटाने के लिए कोई आधार नहीं दिया गया है।
    • राज्यपाल अपने कार्यकाल से आगे भी तब तक पद पर बने रह सकते हैं, जब तक कि उनके उत्तराधिकारी कार्यभार ग्रहण न कर लें।
  • राज्यपाल की भूमिका का औपनिवेशिक एजेंट से संवैधानिक तक विकास (Evolution of the Governor’s Role from Colonial Agent to Constitutional Head)
    • भारत सरकार अधिनियम 1858: भारत के प्रशासन की जिम्मेदारी ईस्ट इंडिया कंपनी से लेकर ब्रिटिश क्राउन को हस्तांतरित कर दी गई। इसने उन्हें प्रांत का एक एजेंट बना दिया, जो गवर्नर जनरल के माध्यम से कार्य करता था।
    • मोंटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार, 1919 (Montague-Chelmsford reforms, 1919): प्रांतीय सरकार में छोटे-मोटे बदलाव किए गए, जिसमें उत्तरदायी सरकार का एक नगण्य स्तर प्रस्तुत किया गया।
    • भारत सरकार अधिनियम, 1935: प्रांतीय स्वायत्तता दी गई और उन्हें मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करने की आवश्यकता थी।
    • वर्ष 1947 के बाद: वर्ष 1947 के अनुकूलन आदेश ने उनके कार्य को मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के अनुसार बना दिया।
  • राज्यपाल की भूमिका: भारत में राज्यपालों के पास संविधान और कानूनों को बनाए रखने और लागू करने की जिम्मेदारी है। भारत का संविधान राज्यों के लिए संसदीय प्रणाली की कल्पना करता है, जो केंद्र में सरकारी ढाँचे के समान है।
    • राज्य सरकार का सुचारू कामकाज: भारतीय संविधान के अनुच्छेद-153 और अनुच्छेद-154 के अनुसार, राज्यपाल संवैधानिक ढाँचे के भीतर राज्य सरकारों के सुचारू कामकाज को सुनिश्चित करते हैं।
    • कार्यकारी भूमिका: भारतीय संविधान के अनुच्छेद-154 निर्दिष्ट करता है कि राज्य की कार्यकारी शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और वह इसका प्रयोग सीधे या भारत के संविधान के अनुसार अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करेगा।
  • शक्तियाँ: भारत में राज्यपालों के पास संविधान द्वारा परिभाषित विवेकाधीन संवैधानिक शक्तियाँ होती हैं, जिनका वे विशिष्ट परिस्थितियों में प्रयोग कर सकते हैं। ये शक्तियाँ राज्यपालों को कार्यकारी क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम बनाती हैं, विशेषकर राजनीतिक या प्रशासनिक अनिश्चितता के समय में।
    • राज्यपाल के पास कार्यकारी, विधायी, वित्तीय और न्यायिक शक्तियाँ होती हैं, जो कमोबेश भारत के राष्ट्रपति के समान होती हैं। हालाँकि, राष्ट्रपति के विपरीत, राज्यपाल के पास राजनयिक, सैन्य या आपातकालीन शक्तियाँ नहीं होती हैं।
    • हालाँकि ये शक्तियाँ संवैधानिक रूप से दी गई हैं, लेकिन यह सुनिश्चित करने के लिए कि उनका प्रयोग कानूनी और उचित सीमाओं के भीतर किया जाता है, वे न्यायिक समीक्षा के अधीन हैं।

संवैधानिक प्रतिरक्षा (Constitutional Immunity) के बारे में 

यह राष्ट्रपति और राज्यपाल को आपराधिक अभियोजन से बचाता है तथा उनके कार्यों की किसी भी न्यायिक जाँच पर रोक लगाता है।

  • राज्यपाल की प्रतिरक्षा की उत्पत्ति: राष्ट्रपति और राज्यपाल को दी गई प्रतिरक्षा का आधार लैटिन कहावतrex non potest peccare’ या ‘राजा कुछ भी गलत नहीं कर सकता’ से लिया जा सकता है, जो ब्रिटिश कानूनी परंपराओं में निहित है। 
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद-361: इसमें कहा गया है कि राष्ट्रपति और राज्यपाल अपने पद की शक्तियों तथा कर्तव्यों के प्रयोग एवं प्रदर्शन के लिए या उन शक्तियों व कर्तव्यों के प्रयोग एवं प्रदर्शन में उनके द्वारा किए गए किसी भी कार्य के लिए किसी भी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं होंगे, जब तक कि संसद द्वारा पद से हटाने के लिए महाभियोग न चलाया जाए।
    • उद्देश्य: यह सुनिश्चित करने के लिए कि वे अपनी आधिकारिक शक्तियों और कर्तव्यों के प्रयोग और प्रदर्शन के लिए या इन कर्तव्यों के दौरान किए गए किसी भी कार्य के लिए किसी भी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं।
    • आपराधिक कार्यवाही: अनुच्छेद-361 के खंड (2) के तहत उनके खिलाफ कोई आपराधिक मामला शुरू नहीं किया जा सकता है या जारी नहीं रखा जा सकता है और कोई भी न्यायालय गिरफ्तारी या कारावास के आदेश जारी नहीं कर सकता है।
    • सिविल कार्यवाही: अनुच्छेद में व्यक्तिगत कृत्यों से संबंधित किसी भी सिविल कार्यवाही के लिए दो महीने का नोटिस अनिवार्य किया गया है।
      • इसके अतिरिक्त, अनुच्छेद-361 का खंड (3) उनके कार्यकाल के दौरान किसी भी गिरफ्तारी या कारावास के आदेश को प्रतिबंधित करता है।
      • राष्ट्रपति या किसी राज्य के राज्यपाल की गिरफ्तारी या कारावास के लिए कोई प्रक्रिया उनके कार्यकाल के दौरान किसी भी न्यायालय से जारी नहीं की जाएगी।
    • अनुच्छेद-14 का अपवाद: यह अनुच्छेद 361 संविधान के अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार) का अपवाद है और यह प्रावधान करता है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने पद की शक्तियों और कर्तव्यों के प्रयोग के लिए किसी भी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं हैं।
  • संविधान सभा में चर्चा: संविधान सभा ने 8 सितंबर, 1949 को अनुच्छेद-361 या मसौदा अनुच्छेद-302 के परिचय पर चर्चा की, जैसा कि तब जाना जाता था।
    • उठाई गई चिंताएँ: आपराधिक उन्मुक्ति पर, विधानसभा सदस्य एच. वी. कामथ ने निम्नलिखित कुछ दूरदर्शी प्रश्न उठाए:
      • क्या इस खंड का अर्थ यह है कि पूरे निर्धारित कार्यकाल के दौरान राष्ट्रपति या राज्यपाल के विरुद्ध कोई कार्यवाही शुरू नहीं की जा सकती है या इसका अर्थ केवल तब है, जब वह पद पर हैं।
      • यदि राष्ट्रपति को ‘आपराधिक कृत्य करने वाले राज्यपाल या शासक’ को हटाना चाहिए, यदि संबंधित राज्यपाल के विरुद्ध प्रथम दृष्टया मामला बनता है।
    • हालाँकि, आपराधिक उन्मुक्ति पर किसी और बहस के बिना ही अनुच्छेद को अपना लिया गया।
      • पिछले दशक में, न्यायालयों ने इस बात पर प्रकाश डाला है कि राज्यपाल के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही “शुरू” करने का क्या अर्थ है, और अनुच्छेद-361(2) के तहत संरक्षण कब समाप्त हो जाता है।

संवैधानिक प्रतिरक्षा से संबंधित विभिन्न न्यायिक घोषणाएँ:

भारत में संवैधानिक प्रतिरक्षा से संबंधित विभिन्न मामले निम्नलिखित हैं:

  • रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ, 2006: वर्ष 2005 में बिहार विधानसभा को भंग करने की सिफारिश करने के बाद उच्चतम न्यायालय को सिविल मामलों में राज्यपाल की प्रतिरक्षा पर निर्णय देना पड़ा।
    • न्यायालय का निर्णय: इस मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि राज्यपाल को अनुच्छेद-361 (1) के तहत ‘पूर्ण उन्मुक्ति’ प्राप्त है, हालाँकि, यह न्यायालय की उस शक्ति को कम नहीं करता है, जिसमें दुर्भावना के आधार पर की गई कार्रवाई सहित कार्रवाई की वैधता की जाँच करना शामिल है।
      • यह निर्णय आपराधिक शिकायतों के लिए नहीं बल्कि विवेकाधीन संवैधानिक शक्तियों या किसी आधिकारिक कर्तव्यों के प्रयोग के लिए है।
  • मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय का निर्णय: वर्ष 2015 में, न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा कि अनुच्छेद-361 (2) ‘किसी राज्य के प्रमुख के विरुद्ध किसी भी दुर्भावनापूर्ण अभियान या प्रचार से पूर्ण सुरक्षा की गारंटी देता है, ताकि उस पद की गरिमा को ठेस न पहुँचे’
    • यह टिप्पणी व्यापम घोटाले से जुड़े एक मामले में आई। राज्यपाल इस घोटाले के आरोपियों में से एक थे और उच्च न्यायालय को यह निर्धारित करना था कि क्या उनके खिलाफ FIR दर्ज करना मामले में आपराधिक कार्यवाही के बराबर होगा?
    • न्यायालय का निर्णय: उच्च न्यायालय ने अन्य आरोपियों के खिलाफ उस FIR में जाँच की अनुमति दी, जबकि राज्यपाल के पद पर रहने तक उनका नाम ‘हटा’ दिया। चूँकि नवंबर 2016 में उनकी मृत्यु हो गई, इसलिए उच्चतम न्यायालय ने अपील पर कोई निर्णय नहीं दिया।
  • बाबरी मस्जिद विध्वंस मामला: वर्ष 2017 में उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस के मामले में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के खिलाफ आपराधिक साजिश के नए आरोप लगने के संबंध में अपनी अनुमति दी थी। हालाँकि, मुकदमा नहीं चला क्योंकि उस समय वे राजस्थान के राज्यपाल थे।
    • न्यायालय का निर्णय: न्यायालय ने कहा कि राजस्थान के राज्यपाल होने के परिप्रेक्ष्य में, जब तक वे राजस्थान के राज्यपाल बने रहेंगे, उन्हें संविधान के अनुच्छेद-361 के तहत उन्मुक्ति का अधिकार है।
      • जैसे ही वह राज्यपाल के पद से हटेंगे, सत्र न्यायालय उनके खिलाफ आरोप तय करेगा और कार्रवाई करेगा।

भारत में राज्यपाल से जुड़े प्रमुख संवैधानिक प्रावधान

राज्यपाल को अपनी शक्तियों एवं कार्यों का प्रयोग मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की सहायता एवं सलाह से करना होता है, केवल उन मामलों को छोड़कर जिनमें उसे अपने विवेक से कार्य करना होता है (अर्थात् मंत्रियों की सलाह के बिना)।

  • अनुच्छेद-153: प्रत्येक राज्य के लिए एक राज्यपाल होगा, परंतु इस अनुच्छेद-153 की कोई बात एक ही व्यक्ति को दो या अधिक राज्यों के लिए राज्यपाल नियुक्त करने से नहीं रोकेगी (7वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, 1956)।
  • अनुच्छेद-154: राज्य की कार्यपालिकीय शक्ति राज्यपाल में निहित होगी और इसका प्रयोग वह इस संविधान के अनुसार, सीधे या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करेगा।
    • इस अनुच्छेद में कुछ भी ऐसा नहीं होगा कि-
      • किसी मौजूदा कानून द्वारा प्रदत्त किसी भी कार्य को किसी अन्य प्राधिकारी को हस्तांतरित करना।
      • संसद या राज्य विधानमंडल को राज्यपाल के अधीनस्थ किसी भी प्राधिकारी को कानून द्वारा कार्य सौंपने से रोकना।
  • अनुच्छेद-155: यह भारत में राज्यपालों की नियुक्ति से संबंधित है।
  • अनुच्छेद-163: मुख्यमंत्री की अध्यक्षता में एक मंत्रिपरिषद होगी, जो मंत्रिपरिषद को उसके कार्यों के निर्वहन में सहायता एवं सलाह देगी, केवल इसके कि उसे अपने कार्यों का निर्वहन अपने विवेक से करना आवश्यक हो।
  • अनुच्छेद-164: मंत्रिपरिषद सामूहिक रूप से राज्य की विधानसभा के प्रति उत्तरदायी होगी, जो संसदीय शासन प्रणाली की आधारशिला है।
  • राज्यपाल और राष्ट्रपति की संवैधानिक स्थिति में अंतर: हालाँकि संविधान में राज्यपाल (अनुच्छेद-163) द्वारा अपने विवेक से कार्य करने की संभावना की परिकल्पना की गई है, राष्ट्रपति के लिए ऐसी कोई संभावना की परिकल्पना नहीं की गई है।
    • 42वें संविधान संशोधन अधिनियम के बाद मंत्रिस्तरीय सलाह राष्ट्रपति के लिए बाध्यकारी बना दी गई, राज्यपाल के संबंध में अभी तक ऐसा कोई प्रावधान नहीं किया गया है।

भारत में राज्यपाल कार्यालय से जुड़े विभिन्न मामले और सिफारिशें

भारत में राज्यपाल कार्यालय से जुड़े विभिन्न मामले और सिफारिशें निम्नलिखित हैं:

  • प्रशासनिक सुधार आयोग, 1969: इसने सिफारिश की कि सार्वजनिक जीवन और प्रशासन में लंबा अनुभव रखने वाले गैर-पक्षपातपूर्ण व्यक्तियों को किसी राज्य के राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया जाना चाहिए।
  • शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य, 1974: उच्चतम न्यायालय ने माना कि राज्यपाल मुख्यमंत्री की अध्यक्षता वाली मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह के अनुसार कार्य करने के लिए बाध्य है। 
  • सरकारिया आयोग रिपोर्ट, 1988: यह विभिन्न महत्त्वपूर्ण सिफारिशें प्रदान करती है जैसे-
    • राज्यपाल को गहन राजनीतिक संबंधों के बिना एक अलग व्यक्ति होना चाहिए या हाल के दिनों में राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए।
    • दुर्लभ और बाध्यकारी परिस्थितियों को छोड़कर, राज्यपालों को उनके पाँच वर्ष का कार्यकाल पूरा होने से पहले नहीं हटाया जाना चाहिए।
    • अनुच्छेद-356 का उपयोग बहुत कम और अंतिम उपाय के रूप में किया जाना चाहिए।
  • एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ, 1994: यह अनुच्छेद-356 के उपयोग और राज्यपाल की राज्य सरकार को बर्खास्त करने की शक्ति से संबंधित था। उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्य सरकार के पास बहुमत है या नहीं, इसका परीक्षण सदन में किया जाना चाहिए।
    • यह राज्यपाल के व्यक्तिपरक मूल्यांकन पर आधारित नहीं होना चाहिए।
  • रामेश्वर प्रसाद केस, 2006: सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि राष्ट्रपति शासन की सिफारिश करने में राज्यपाल का प्रेरित और मनमाना आचरण न्यायिक समीक्षा के योग्य है।
  • बी. पी. सिंघल बनाम भारत संघ, 2010: सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि यद्यपि राष्ट्रपति बिना कारण बताए राज्यपाल को बर्खास्त कर सकता है, लेकिन इस शक्ति का प्रयोग ‘मनमाने, स्वेच्छाचारी या अनुचित तरीके से’ नहीं किया जा सकता
  • नबाम रेबिया बनाम उपसभापति, 2016: उच्चतम न्यायालय ने पुष्टि की कि राज्यपाल को व्यापक विवेकाधीन शक्तियाँ प्राप्त नहीं हैं और वह हमेशा संवैधानिक मानकों के अधीन हैं।
  • राष्ट्रीय संविधान कार्यकरण समीक्षा आयोग (National Commission to Review the Working of the Constitution- NCRWC), 2002: राज्यपाल की नियुक्ति एक समिति द्वारा की जानी चाहिए जिसमें प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, लोकसभा अध्यक्ष और संबंधित राज्य के मुख्यमंत्री शामिल हों।
  • द्वितीय प्रशासनिक सुधार आयोग (Administrative Reforms Commission- ARC), 2008: अंतर-राज्य परिषद को राज्यपालों के लिए कुछ दिशा-निर्देश बनाने की आवश्यकता है, जिनका पालन वे अपनी विवेकाधीन शक्ति का उपयोग करते समय कर सकें।
  • पुंछी आयोग, 2010: इसने सिफारिश की कि संविधान से “राष्ट्रपति की इच्छा के दौरान” वाक्यांश को हटा दिया जाना चाहिए और 5 वर्ष की निश्चित अवधि निर्धारित की जानी चाहिए तथा राज्य विधानमंडल द्वारा महाभियोग प्रक्रिया (राष्ट्रपति के समान) के माध्यम से हटाया जाना चाहिए।

राज्यपाल कार्यालय से जुड़ी विभिन्न चिंताएँ

भारत में राज्यपाल कार्यालय से जुड़ी विभिन्न चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं:-

  • नियुक्ति: राज्यपालों की नियुक्ति करते समय राज्य की निर्वाचित सरकार से परामर्श भी नहीं किया जाता है।
    • इसके अलावा, सत्तारूढ़ दल से जुड़े राजनेताओं और पूर्व नौकरशाहों को कई मामलों में राज्यपाल के रूप में नियुक्त किया गया है, जिससे पद की निष्पक्षता और गैर-पक्षपातपूर्णता पर सवाल उठने लगे हैं।
    • अनुच्छेद-155 कहता है कि राज्यपाल को सार्वजनिक रूप से प्रतिष्ठित उच्च पद के व्यक्तियों में से नियुक्त किया जाना चाहिए (निर्वाचित होने के बजाय)।
  • केंद्र सरकार का प्रभाव: यदि राष्ट्रपति पाँच वर्ष पूरे होने से पहले ही अपना पद छोड़ देता है, तो राज्यपाल को पद छोड़ना पड़ता है। चूँकि राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और केंद्रीय मंत्रिपरिषद की सहायता तथा सलाह पर कार्य करता है, इसलिए राज्यपाल को केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त एवं हटाया जाता है।
    • अनुच्छेद-156 के तहत, ‘राज्यपाल, राष्ट्रपति की इच्छा पर्यंत  पद धारण करेगा’।
  • मनमाना निष्कासन: चूँकि राज्यपालों को हटाने के लिए कोई लिखित आधार या प्रक्रिया नहीं है, इसलिए मनमाने ढंग से निष्कासन को बढ़ावा मिलता है, विशेषकर तब जब केंद्र सरकार में राजनीतिक सत्ता में परिवर्तन होता है।
  • राष्ट्रपति शासन पर: राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति राज्य में संवैधानिक तंत्र की विफलता के कारण राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद-356) की सिफारिश करती है, जो हमेशा ‘वस्तुनिष्ठ सामग्री’ पर आधारित नहीं रही है।
  • संवैधानिक और वैधानिक भूमिका के बीच कोई स्पष्ट अंतर नहीं: मंत्रिपरिषद की सलाह पर कार्य करने के राज्यपाल के संवैधानिक जनादेश को चांसलर के रूप में उनके वैधानिक अधिकार से स्पष्ट रूप से अलग नहीं किया गया है और इसके परिणामस्वरूप राज्यपाल और राज्य सरकार के बीच कई टकराव हुए हैं।
  • विधानसभा के आयोजन और विघटन पर: राज्यपाल राज्य विधानसभा के आयोजन और विघटन में देरी की राजनीति से जुड़े रहे हैं।
  • विधेयकों को स्वीकृति देने में विलंब: चूँकि राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयक पर राज्यपाल द्वारा स्वीकृति रोकने के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है, इसलिए राज्यपाल द्वारा विभिन्न समयों पर इस समय सीमा का दुरुपयोग किया जाता है।
    • इसके अलावा, संविधान के अनुच्छेद-200 के अनुसार, राज्यपाल राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कुछ प्रकार के विधेयकों को राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित कर सकते हैं और राष्ट्रपति या तो इसे स्वीकृति दे सकते हैं अथवा राज्यपाल को अपनी टिप्पणियों के साथ इसे राज्य विधानमंडल को पुनर्विचार के लिए वापस भेजने के लिए कह सकते हैं।
  • मुख्यमंत्री की नियुक्ति में विवेकाधीन शक्ति का दुरुपयोग: राज्यपालों पर उन मामलों में मुख्यमंत्री की नियुक्ति में पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाने का आरोप लगाया गया है, जहाँ किसी एक राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिलता है।
    • राज्य में चुनाव के बाद सबसे बड़ी पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करने की परंपरा है, जो कई बार टूट चुकी है।

आगे की राह

भारत में राज्यपाल की पूर्ण उन्मुक्ति के दुरुपयोग के संदर्भ में, निम्नलिखित उपाय सुझाए गए हैं:-

  • विशिष्ट दिशा-निर्देश तैयार करने की आवश्यकता: अब समय आ गया है कि राज्यपालों के आपराधिक अभियोजन संबंधी विशिष्ट दिशा-निर्देश तैयार किए जाएँ।
  • गहन पुलिस जाँच: राज्यपाल पर लगे यौन उत्पीड़न जैसे गंभीर आरोपों की पुलिस द्वारा गहन जाँच आवश्यक है।
  • संरक्षण और मुआवजा: यदि प्रतिरक्षा का दुरुपयोग सिद्ध हो गया है या मामले पर विचार किया गया है, तो पीड़ित और उसके परिवार को पर्याप्त मुआवजे के साथ संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।
  • पूर्ण उन्मुक्ति पर प्रतिबंध: अनुच्छेद-361 के तहत उन्मुक्ति पूर्ण नहीं होनी चाहिए, अवैध कार्य या संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले कार्यों को पूर्ण उन्मुक्ति के खंड से छूट दी जानी चाहिए।

निष्कर्ष

भारत में, प्रतिरक्षा की इस चर्चा को राज्यपाल के पद और विपक्ष शासित राज्यों की सरकारों के बीच संघर्ष के व्यापक संदर्भ में देखा जाना चाहिए। इस बात पर बहस कि क्या कार्यकारी प्रतिरक्षा एक व्यापक सुरक्षा है, अन्य देशों में भी हो रही है।

  • उदाहरण: हाल ही में, अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि कोई भी पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति आधिकारिक कृत्यों के लिए आपराधिक अभियोजन से ‘पूर्ण प्रतिरक्षा’ का हकदार है, लेकिन अनौपचारिक या व्यक्तिगत कृत्यों के लिए नहीं।

Final Result – CIVIL SERVICES EXAMINATION, 2023. PWOnlyIAS is NOW at three new locations Mukherjee Nagar ,Lucknow and Patna , Explore all centers Download UPSC Mains 2023 Question Papers PDF Free Initiative links -1) Download Prahaar 3.0 for Mains Current Affairs PDF both in English and Hindi 2) Daily Main Answer Writing , 3) Daily Current Affairs , Editorial Analysis and quiz , 4) PDF Downloads UPSC Prelims 2023 Trend Analysis cut-off and answer key

THE MOST
LEARNING PLATFORM

Learn From India's Best Faculty

      

Final Result – CIVIL SERVICES EXAMINATION, 2023. PWOnlyIAS is NOW at three new locations Mukherjee Nagar ,Lucknow and Patna , Explore all centers Download UPSC Mains 2023 Question Papers PDF Free Initiative links -1) Download Prahaar 3.0 for Mains Current Affairs PDF both in English and Hindi 2) Daily Main Answer Writing , 3) Daily Current Affairs , Editorial Analysis and quiz , 4) PDF Downloads UPSC Prelims 2023 Trend Analysis cut-off and answer key

<div class="new-fform">







    </div>

    Subscribe our Newsletter
    Sign up now for our exclusive newsletter and be the first to know about our latest Initiatives, Quality Content, and much more.
    *Promise! We won't spam you.
    Yes! I want to Subscribe.