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संघवाद में हस्तक्षेप और राज्यपाल की भूमिका

Lokesh Pal July 29, 2024 03:25 96 0

संदर्भ

सर्वोच्च न्यायालय इस बात की जाँच करने के लिए सहमत हो गया कि क्या राज्यपाल महत्त्वपूर्ण विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोके रखकर अंततः उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज देते हैं, जो पूरी तरह से केंद्र की सलाह पर कार्य करते हैं, जिससे राज्यों के विधायी क्षेत्र में संघ के हस्तक्षेप के लिए दरवाजे खुल रहे हैं, जिससे संघवाद का पतन हो रहा है। 

पृष्ठभूमि

  • केरल राज्य द्वारा दायर याचिका:  सर्वोच्च न्यायालय ने हस्तक्षेप करने का निर्णय केरल राज्य द्वारा दायर एक याचिका पर लिया, जिसमें राज्य के राज्यपाल की भूमिका को उजागर किया गया, जिन्होंने विधेयकों को दो वर्षों तक लंबित रखा, तथा उनमें से सात को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रख लिया।
  • विचाराधीन विधेयक
    • इनमें से कोई भी विधेयक केंद्र-राज्य संबंधों से संबंधित नहीं था।
    • वे राज्य सहकारी समितियों, लोकायुक्त और विश्वविद्यालय कानूनों में संशोधन को लेकर चिंतित थे।
  • राष्ट्रपति की भूमिका: राष्ट्रपति के पास कोई विवेकाधिकार नहीं है और वह पूरी तरह से केंद्र की सहायता एवं सलाह पर निर्भर है।
    • राष्ट्रपति ने बाद में चार विधेयकों पर सहमति रोक दी थी, हालाँकि सातों विधेयकों में से कोई भी केंद्र-राज्य संबंधों से संबंधित नहीं था।
  • केरल राज्य का तर्क
    • राज्यपाल द्वारा अपेक्षित कार्रवाई: राज्यपाल को आपत्तियों के कारणों के साथ विधेयक को राज्य विधानसभा को वापस लौटा देना चाहिए था।
    • राष्ट्रपति को संदर्भित करना: हालाँकि, राज्यपाल ने समय-अंतराल का उल्लेख किए बिना सात विधेयकों को राष्ट्रपति को संदर्भित कर दिया।
    • स्वीकृति न देना: केरल सरकार ने कहा कि केंद्र सरकार ने बिना कोई कारण बताए चार विधेयकों पर स्वीकृति रोक दी है।
    • कल्याणकारी कानून पर प्रभाव: विलंब के कारण केरल के लोगों को कल्याणकारी कानून के लाभों से वंचित होना पड़ा।
    • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14, अनुच्छेद-200 और अनुच्छेद-201 का उल्लंघन: यह अत्यधिक मनमानी कार्रवाई है, जो भारतीय संविधान के अनुच्छेद-14 (समानता का अधिकार) के साथ-साथ अनुच्छेद-200 (विधेयकों को स्वीकृति देने की प्रक्रिया) और 201 (राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित विधेयकों के संबंध में प्रक्रिया) का उल्लंघन करती है।
    • राज्यपाल की सीमित शक्ति: राज्यपाल की राष्ट्रपति के लिए विधेयक आरक्षित करने की शक्ति सीमित है और संविधान के अनुच्छेद-213 के प्रावधान में विस्तृत रूप से विशिष्ट परिस्थितियों तक ही सीमित है।

हाल ही में पंजाब, तमिलनाडु और दिल्ली ने भी सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर कर माँग की है कि वह राज्यपालों को निर्देश दे कि वे राज्य विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर मंजूरी देने में अनिश्चित काल तक विलंब नहीं कर सकते।

राज्यपालों द्वारा शक्तियों के दुरुपयोग के पीछे के कारक

राज्यपालों पर अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने और विधेयकों को गलत तरीके से मंजूरी न देने के आरोप लगे हैं, जिसके कारण राज्य सरकारों के साथ मतभेद उत्पन्न हो रहे हैं। इस समस्या में योगदान देने वाले प्रमुख कारक इस प्रकार हैं:

  • समय सीमा का अभाव: संविधान में राज्यपाल द्वारा विधेयक पर स्वीकृति के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है, जिससे अनिश्चितकालीन विलंब की अनुमति मिलती है।
    • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-200 के अनुसार, राज्यपाल को विधेयक को ‘जितनी जल्दी हो सके’ वापस करना चाहिए, लेकिन इसमें कोई विशिष्ट समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है।
    • राज्यपाल पॉकेट वीटो का प्रयोग कर सकते हैं।
  • विवेकाधीन शक्तियों का दुरुपयोग
    • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-163 में राज्यपाल को विशेष रूप से विवेकाधीन शक्ति दी गई है। 
    • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-163 के अनुसार, यदि कोई प्रश्न उठता है कि कोई मामला राज्यपाल के विवेक के अंतर्गत आता है या नहीं, तो राज्यपाल का निर्णय अंतिम होता है और उनके द्वारा किए गए किसी भी कार्य की वैधता पर इस आधार पर सवाल नहीं उठाया जा सकता कि उन्हें अपने विवेक से कार्य करना चाहिए था या नहीं।
  • अनुच्छेद-200 और अनुच्छेद-201 का दुरुपयोग: किसी विधेयक पर स्वीकृति रोकने के साथ-साथ उसे राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखने की शक्ति।
    • राज्यों का आरोप है कि इस प्रावधान का अक्सर राज्यपाल द्वारा दुरुपयोग किया जाता है, जो केंद्र सरकार की ओर से कार्य करते हैं।
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद-361: अनुच्छेद-361 में कहा गया है कि राष्ट्रपति या किसी राज्य का राज्यपाल ‘अपने पद की शक्तियों एवं कर्तव्यों के प्रयोग और पालन के लिए या उन शक्तियों तथा कर्तव्यों के प्रयोग व पालन में उनके द्वारा किए गए या किए जाने वाले किसी कार्य के लिए किसी भी न्यायालय के प्रति उत्तरदायी नहीं होगा’, जब तक कि यह संसद द्वारा पद से हटाने के लिए महाभियोग न शुरू किया जाए।
    • यह प्रतिरक्षा किसी विधेयक पर मंजूरी न देने के राज्यपाल के निर्णय को चुनौती देने की सरकार की क्षमता को जटिल बना देती है।

उच्चतम न्यायालय का निर्णय: रामेश्वर प्रसाद एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य।

  • सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया है कि राज्यपाल संविधान के अनुच्छेद-361 के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करते हुए किए गए किसी भी कार्य के लिए न्यायिक कार्यवाही से मुक्त हैं।
  • इस मामले में, न्यायालय ने निर्णय दिया है कि अनुच्छेद-361 (1) राज्यपाल को उन्मुक्ति प्रदान करता है, लेकिन यह राज्यपाल की कार्रवाई की वैधता की जाँच करने की न्यायालय की शक्ति को प्रभावित नहीं करता है, जिसमें दुर्भावना के आधार पर किए गए कार्य भी शामिल हैं।
  • इस प्रकार, यदि राज्यपाल द्वारा सहमति देने से इनकार करना असंवैधानिक पाया जाता है, तो न्यायालय इसे रद्द कर सकता है।

  • पद का राजनीतिकरण: राज्यपाल की भूमिका का अक्सर राजनीतिकरण किया जाता रहा है, जिससे राज्य और केंद्र सरकारों के बीच टकराव होता है। यह राजनीतिकरण राज्यपाल के पद की निष्पक्षता और प्रभावशीलता को कमजोर करता है।
  • स्वतंत्र रूप से कार्य न करने का आरोप: वर्ष 2001 में, संविधान के कामकाज की समीक्षा करने वाले राष्ट्रीय आयोग ने पाया कि केंद्रीय मंत्रिपरिषद द्वारा नियुक्त एवं बनाए रखे गए राज्यपालों को संघ के निर्देशों के साथ संभावित संरेखण के कारण केंद्र और राज्य सरकारों के बीच विवादों में ‘केंद्र के एजेंट’ के रूप में देखा जा सकता है।

राज्यपाल विधेयक को राष्ट्रपति की स्वीकृति के लिए कब सुरक्षित रख सकते हैं?

  • राज्यपाल किसी ऐसे विधेयक को अनुमति नहीं देगा, बल्कि राष्ट्रपति के विचार के लिए आरक्षित रखेगा जो राज्यपाल की राय में, यदि वह कानून बन जाए, तो उच्च न्यायालय की शक्तियों से वंचित करेगा।

इसके अतिरिक्त, राज्यपाल विधेयक को सुरक्षित भी रख सकते हैं यदि वह निम्नलिखित प्रकृति का हो:

  • अल्ट्रा-वायर्स, यानी संविधान के प्रावधानों के विरुद्ध।
  • राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के विरुद्ध।
  • देश के व्यापक हित के विरुद्ध।
  • गंभीर राष्ट्रीय महत्त्व का।
  • संविधान के अनुच्छेद 31ए के तहत संपत्ति के अनिवार्य अधिग्रहण से निपटना।

राज्यपाल और राज्य विधेयकों पर उनकी शक्तियाँ (अनुच्छेद-200)

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद-200 के अनुसार, जब कोई विधेयक राज्य विधानमंडल द्वारा पारित होने के बाद राज्यपाल के पास भेजा जाता है, (इन्फोग्राफिक्स में देखें):

स्वीकृति में देरी के खिलाफ कानूनी तर्क क्या हैं?

  • राज्यों का संवैधानिक दायित्व
    • विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर राज्यपाल की निष्क्रियता राज्य सरकार को संविधान के अनुसार कार्य करने से रोकती है।
    • यदि राज्यपाल संवैधानिक रूप से कार्य करने में विफल रहते हैं, तो राज्य सरकार का दायित्व है कि वह अनुच्छेद-355 लागू करे और राष्ट्रपति को सूचित करे।
    • राज्य राष्ट्रपति से अनुरोध कर सकता है कि वह राज्यपाल को निर्देश जारी करें ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सरकार संविधान के अनुसार कार्य करे।
  • सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय का अनादर: अनुच्छेद-361 के तहत राज्यपाल को प्राप्त उन्मुक्ति के बावजूद, राज्यपाल को अनुमति न देने के कारणों का खुलासा करना होगा।
    • एक उच्च संवैधानिक प्राधिकारी के रूप में राज्यपाल मनमाने ढंग से कार्य नहीं कर सकते।
  • ‘सहमति से इनकार करने पर’ को चुनौती देने के आधार
    • असंवैधानिक निषेध: यदि राज्यपाल द्वारा किसी विधेयक को मंजूरी देने से इनकार करना दुर्भावनापूर्ण, बाहरी विचारों या अधिकारों के विरुद्ध है, तो इसे असंवैधानिक माना जा सकता है।
    • सर्वोच्च न्यायालय का उदाहरण: रामेश्वर प्रसाद बनाम भारत संघ मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्थापित किया कि अनुच्छेद-361(1) के तहत प्रतिरक्षा न्यायालय को राज्यपाल की कार्रवाई की वैधता की जाँच करने से नहीं रोकती है, जिसमें दुर्भावनापूर्ण आधार भी शामिल हैं।
  • पंजाब राज्य बनाम पंजाब के राज्यपाल के प्रधान सचिव और अन्य (2023)
    • पंजाब के एक हालिया मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संसदीय लोकतंत्र में राज्यपालों को विधायिका द्वारा पारित विधेयकों पर एकतरफा वीटो का अधिकार नहीं है।
  • तेलंगाना राज्य बनाम तेलंगाना राज्य के लिए राज्यपाल एवं अन्य: सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘अनुच्छेद-200’ का पहला प्रावधान यह कहता है कि राज्यपाल विधेयक को स्वीकृति के लिए प्रस्तुत किए जाने के बाद यथाशीघ्र उसे वापस भेज सकते हैं, यदि वह धन विधेयक नहीं है तो राज्य विधानमंडल के सदन या सदनों को पुनर्विचार के लिए संदेश के साथ विधेयक को वापस भेज सकते हैं।
    • ‘यथाशीघ्र’ अभिव्यक्ति में महत्त्वपूर्ण संवैधानिक तत्त्व निहित है और संवैधानिक प्राधिकारियों को इसे ध्यान में रखना चाहिए।

राज्यपालों द्वारा विधेयकों को स्वीकृति न देने से संबंधित मुद्दे

  • संघवाद का उल्लंघन: केंद्र के आदेश पर राज्यपालों द्वारा राज्य के कानून को अस्वीकार करने की पक्षपातपूर्ण कार्रवाई संघवाद को कमजोर कर सकती है, जो संविधान की एक मुख्य विशेषता है।
    • राज्यपाल की कार्रवाई संविधान के संघीय ढाँचे को नष्ट करती है, क्योंकि उन्होंने उन विधेयकों को राष्ट्रपति (जो केंद्रीय मंत्रिमंडल की सहायता और सलाह पर कार्य करते हैं) के लिए आरक्षित कर दिया है,  जो संविधान के तहत पूरी तरह से राज्य के अधिकार क्षेत्र में आते हैं।
  • राज्य के मामलों में केंद्रीय हस्तक्षेप: राज्यपाल के कार्यों ने केंद्र को राज्य के विधायी क्षेत्र के भीतर मुद्दों पर निर्णय लेने की अनुमति दी।
    • यह निर्वाचित कार्यपालिका और राज्य विधानमंडल के कामकाज को भी अप्रभावी बना देता है।
  • लोकतांत्रिक प्रक्रिया को कमजोर करता है: राज्यपाल, जिन्हें केंद्र द्वारा नियुक्त किया जाता है और वे निर्वाचित नहीं होते, राजनीतिक कारणों से विधेयकों को विलंबित या अस्वीकृत कर सकते हैं, जिससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया कमजोर होती है।
  • जवाबदेही का अभाव: राज्यपालों को संवैधानिक रूप से अनुमति न देते समय कारण बताने का अधिकार नहीं है, जिससे जवाबदेही कम होती है।
  • शक्ति का दुरुपयोग: विधेयकों पर सहमति न देना, जब अनुचित तरीके से उपयोग किया जाता है, तो शक्ति का दुरुपयोग माना जा सकता है।
    • यह असाधारण प्राधिकार दुर्लभ परिस्थितियों के लिए है, न कि विधायी प्रक्रिया में बाधा डालने के लिए।
  • निर्णय लेने में देरी: विधेयकों को मंजूरी देने में देरी, इस मामले में राज्य सहकारी समितियों, लोकायुक्त और विश्वविद्यालय कानूनों से संबंधित, आवश्यक सुधारों के प्रभावी कामकाज और कार्यान्वयन को बाधित करती है।

राज्यपालों और राज्य सरकार के बीच टकराव को दूर करने के उपाय

  • संघवाद की मूल भावना को बनाए रखना: संघवाद भारतीय संविधान की एक मौलिक विशेषता है और राज्यपाल को निर्वाचित राज्य सरकारों की शक्तियों को कम नहीं करना चाहिए (एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ मामला, 1994)।
  • पारदर्शी चयन प्रक्रिया: राज्यपालों की नियुक्ति के लिए पारदर्शी और योग्यता आधारित प्रक्रिया लागू करना। इससे राजनीतिक पूर्वाग्रह का प्रभाव कम होगा और यह सुनिश्चित होगा कि योग्य व्यक्तियों का चयन पार्टी संबद्धता के बजाय उनकी योग्यता के आधार पर किया जाएगा।
    • संविधान में संशोधन करके राज्यपालों की नियुक्ति से पहले मुख्यमंत्रियों से परामर्श करना अनिवार्य किया जा सकता है।
    • राज्यपालों के खिलाफ राज्य विधानमंडल द्वारा महाभियोग चलाने की पुंछी आयोग की सिफारिश पर जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए विचार किया जा सकता है।
  • तटस्थता का सिद्धांत (Doctrine of Neutrality): अपने विभिन्न निर्णयों के माध्यम से, सर्वोच्च न्यायालय ने अध्यक्ष और राज्यपाल जैसे अधिकारियों के लिए तटस्थता के सिद्धांत के प्रति निष्ठावान रहने और ‘प्रचलित राजनीतिक दबावों’ के तहत अस्थिर न होने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है, जिससे राजनीतिक तटस्थता बनी रहे।
    • राज्यपाल राज्य के निष्पक्ष संवैधानिक प्रमुख के रूप में यह सुनिश्चित करेंगे कि विधानमंडल प्रभावी ढंग से कार्य करे तथा पारित विधेयक संविधान के अनुरूप हों।
  • सर्वोच्च न्यायालय का हस्तक्षेप: सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना चाहिए और राज्यपाल को बताना चाहिए कि वे कब विधेयकों को अस्वीकार कर सकते हैं और कब उन्हें राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं। उच्चतम न्यायालय के स्पष्ट दिशा-निर्देश इस मुद्दे से निपटने में महत्त्वपूर्ण रूप से मदद कर सकते हैं।
  • उचित समय सीमा का स्पष्टीकरण: उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि राज्यपाल को मंजूरी देने या रोकने में अनावश्यक देरी नहीं करनी चाहिए। ‘उचित समय सीमा’ की स्पष्ट परिभाषा प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता और पूर्वानुमान प्रदान करेगी।
    • न्यायमूर्ति रोहिंटन एफ. नरीमन ने केशम मेघा चंद्र सिंह मामले में अपने वर्ष 2020 के निर्णय में कहा कि ‘उचित समय’ का अर्थ तीन महीने होगा।

इस मुद्दे से संबंधित समितियों की सिफारिशें और सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय

  • सरकारिया आयोग: आयोग ने कहा कि विधेयकों को राष्ट्रपति के लिए आरक्षित करने की राज्यपाल की विवेकाधीन शक्ति को असंवैधानिकता के दुर्लभ मामलों तक सीमित रखा जाना चाहिए।
    • अपवादस्वरूप मामलों को छोड़कर, राज्यपाल को अनुच्छेद-200 के तहत मंत्रियों की सलाह पर कार्य करना चाहिए।
    • आयोग ने सिफारिश की है कि राष्ट्रपति को अधिकतम छह महीने के भीतर आरक्षित विधेयकों का निपटारा करना चाहिए।
    • यदि राष्ट्रपति अपनी सहमति नहीं देते हैं, तो जब भी संभव हो, राज्य सरकार को कारण बताए जाने चाहिए।
    • राज्यपाल को एक अलग व्यक्ति होना चाहिए, जिसका कोई गहरा राजनीतिक संबंध न हो या जिसने हाल के दिनों में राजनीति में भाग नहीं लिया हो।
    • उसे सत्तारूढ़ दल का सदस्य नहीं होना चाहिए।
  • पुंछी आयोग (Punchhi Commission): इसने सिफारिश की कि राज्यपाल को उनकी स्वीकृति के लिए प्रस्तुत विधेयक के संबंध में 6 महीने की अवधि के भीतर निर्णय लेना चाहिए।
  • केंद्र-राज्य संबंधों पर राजमन्नार समिति: इसमें इस बात पर जोर दिया गया कि राज्यपाल को स्वयं को केंद्र का एजेंट नहीं समझना चाहिए, बल्कि राज्य के संवैधानिक प्रमुख के रूप में अपनी भूमिका निभानी चाहिए।
  • रामेश्वर प्रसाद केस: उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्यपालों को अनुच्छेद-361 के तहत दी गई छूट उनके कार्यों की न्यायिक समीक्षा को नहीं रोकती। अगर सहमति देने से इनकार करने से दुर्भावनापूर्ण उद्देश्य का पता चलता है, तो निर्णय को असंवैधानिक माना जा सकता है।
  • नबाम रेबिया निर्णय (2016): सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों में इस बात पर जोर दिया गया कि अनुच्छेद-163 के तहत विवेकाधिकार का प्रयोग सीमित है और कार्रवाई का उसका विकल्प मनमाना या काल्पनिक नहीं होना चाहिए।
    • यह निर्णय तर्क से निर्धारित होना चाहिए, सद्भावना से प्रेरित होना चाहिए तथा सावधानी से लिया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

उच्चतम न्यायालय को राज्य विधानमंडल और राज्यपालों के बीच शक्ति संतुलन की रक्षा करने की आवश्यकता है। सभी संवैधानिक अधिकारियों को उचित तरीके से कार्य करने की आवश्यकता है।

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