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एक नए संघीय ढाँचे का पुनः उभार

Lokesh Pal June 22, 2024 05:00 109 0

संदर्भ

भारत में गठबंधन की राजनीति की वापसी से संघवाद और केंद्र-राज्य संबंधों के प्रश्न पुनः सामने आ आने लगे हैं।

भारत सरकार द्वारा हाल के वर्षों में लिए गए निर्णय 

  • पिछले दशक में भारत ने केंद्र-राज्य संबंधों के क्षेत्र में अनेक परिवर्तन देखे, जैसे राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान (नीति आयोग) की स्थापना, वस्तु एवं सेवा कर, अनुच्छेद-370 का उन्मूलन आदि।
    • इसमें “एक राष्ट्र, एक चुनाव” पर भी ध्यान केंद्रित किया गया है।

भारत की नई गठबंधन सरकार के लिए विभिन्न चुनौतियाँ

  • लंबित परिसीमन कार्य: यह उत्तर-दक्षिण भारत विभाजन का केंद्र बिंदु था, जिसमें कम आबादी वाले दक्षिणी राज्य शीघ्र परिसीमन की माँग कर रहे हैं।
    • दक्षिणी राज्य अपनी जनसंख्या को प्रभावी रूप से नियंत्रित करते हैं और परिसीमन प्रक्रिया में देरी करना उनके प्रयासों के विरुद्ध प्रतीत होता है।
  • पुनर्वितरण मॉडल की वैधता: यह वैधता दाँव पर थी, जिसके माध्यम से अमीर दक्षिणी और पश्चिमी राज्यों में एकत्र करों को गरीब उत्तरी राज्यों में पुनर्वितरित किया जाता है।
    • दक्षिणी राज्यों का मानना ​​है कि GST मॉडल से आर्थिक रूप से कम विकसित राज्यों को अनुपातहीन रूप से लाभ पहुँचता है, इसलिए वे अधिक समतापूर्ण और संतुलित दृष्टिकोण की माँग करते हैं।
  • बहुविध शक्ति केंद्र: गठबंधन शासन से बहुविध शक्ति केंद्र स्थापित हो जाएँगे, जिससे निर्णय लेने की प्रक्रिया में केंद्रीकृत होने संबंधी रोक लगेगी।
  • विभिन्न क्षेत्रीय माँगें: राष्ट्रीय गठबंधन सरकार में क्षेत्रीय दल अपनी पार्टियों और अपने राज्यों के हितों को आगे बढ़ाने का प्रयास करते हैं, जैसे कि आंध्र प्रदेश और बिहार की ओर से विशेष दर्जे की माँग।
    • विशेष-हित वाली क्षेत्रीय राजनीति व्यापक संघीय सौदेबाजी के लिए खतरा बन सकती है, यदि यह इस धारणा को बल देती है कि भारत के विभिन्न क्षेत्रों में संसाधनों का वितरण सिद्धांतों के बजाय पक्षपात के आधार पर निर्धारित होता है।

भारत में संघवाद के बारे में

  • संक्षेप में: संघवाद शब्द लैटिन शब्द “फोएडस”  (foedus) से निकला है, जिसका अर्थ है सहमति।
  • सहयोग की व्यवस्था: संघवाद केंद्रीय/संघीय सरकार और उसके सदस्य राज्यों के बीच शक्तियों का बँटवारा करता है। संघ एक ऐसी व्यवस्था है, जिसमें दो तरह की सरकारें सत्ता साझा करती हैं और अपने-अपने क्षेत्रों का प्रबंधन करती हैं।
    • यह प्रणाली राष्ट्रीय और स्थानीय सरकारों को एक साझा संप्रभुता के तहत जोड़ती है, जिसमें राष्ट्रीय और संघीय दोनों इकाइयों को संविधान द्वारा प्रदत्त स्वायत्त डोमेन प्राप्त होते हैं।
  • प्रकृति: भारतीय संविधान एक मजबूत संघ के साथ एक संघीय प्रणाली स्थापित करता है। इसलिए, इसे इस प्रकार संदर्भित किया जाता है:
    • के.सी. व्हेयर (KC Wheare) द्वारा इसे अर्द्ध-संघीय (Quasi-federal) कहा गया।  
    • ग्रानविले ऑस्टिन (Granville Austin) द्वारा सहकारी संघवाद (Cooperative Federalism)
    • मॉरिस जोन्स (Morris Jones) द्वारा सौदाकारी संघवाद (Bargaining Federalism)
    • इवोर जेनिंग (Ivor Jenning) द्वारा केंद्रीकरण की प्रवृत्ति वाला संघवाद (Federalism with Centralising tendency)

संघवाद की ओर भारत की यात्रा

  • इसकी शुरुआत औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष से हुई। 
  • स्वायत्तता और स्वशासन की माँग ने विभिन्न भाषायी, सांस्कृतिक और भौगोलिक समूहों पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला।

      • एस.आर. बोम्मई मामले, 1994 में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि भारतीय संविधान संघीय है तथा संघवाद को इसकी ‘आधारभूत विशेषता’ बताया।
  • आवश्यकता: भारतीय संविधान के निर्माताओं ने भारत के लोकाचार यानी विविधता में एकता को बनाए रखने की आवश्यकता को पहचाना। परिणामस्वरूप, भारतीय संविधान ने शासन की संघीय प्रणाली की स्थापना की।
  • उद्देश्य: संवैधानिक ढाँचा संघवाद के लिए संस्थागत आधार प्रदान करता है। यह आमतौर पर दो उद्देश्यों को पूरा करता है:-
    • बहुमत के दुर्व्यवहार की संभावना को कम करने के लिए
    • संघ को मजबूत करने के लिए
  • संवैधानिक प्रावधान
    • अनुच्छेद-1: यह भारत को राज्यों का संघ बताता है।
      • इसमें कहा गया है कि किसी भी राज्य को संघ से अलग होने की शक्ति नहीं है और भारतीय संघ किसी व्यक्तिगत राज्य द्वारा किए गए समझौते का परिणाम नहीं है।
      • भारतीय संविधान में ‘संघ’ शब्द का स्पष्ट रूप से प्रयोग नहीं किया गया है।
    • अनुच्छेद-245: यह संसद और राज्य विधानसभाओं को अपने-अपने अधिकार क्षेत्र में कानून बनाने की शक्ति प्रदान करता है।
    • अनुच्छेद-246: इसमें उन विषयों को सूचीबद्ध किया गया है, जिन पर संसद और राज्य विधानमंडल दोनों ही कानून बना सकते हैं।
    • अनुच्छेद-263: इसमें सहकारी संघवाद को बढ़ावा देने के लिए एक अंतर-राज्यीय परिषद की स्थापना का प्रावधान है।
    • अनुच्छेद-279 A: यह विधेयक राष्ट्रपति को जीएसटी परिषद गठित करने का अधिकार देता है।
    • सातवीं अनुसूची: यह संघ और राज्यों के बीच शक्तियों को तीन सूचियों (संघ सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची) के माध्यम से विभाजित करता है।

संघवाद के प्रकार

  • संघ को संयुक्त रखना: किसी देश में विविधता को समायोजित करने के लिए विभिन्न घटकों के मध्य शक्तियों को साझा किया जाता है। ऐसे मामलों में, केंद्रीय प्राधिकरण अक्सर सर्वोच्च स्थिति में होता है।
    • उदाहरण: भारत, स्पेन और बेल्जियम।
  • एक साथ आने वाला संघ: इस प्रणाली में, अलग-अलग राज्य मिलकर एक अधिक एकीकृत इकाई बनाते हैं। इस मामले में, होल्डिंग फेडरेशन की तुलना में राज्यों को अधिक स्वायत्तता प्राप्त होती है।
    • उदाहरण: संयुक्त राज्य अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और स्विट्जरलैंड
  • असममित संघ: यह संघवाद के एक ऐसे रूप को संदर्भित करता है, जिसमें एक राष्ट्र को बनाने वाले घटकों के पास राजनीति, प्रशासन और वित्त के क्षेत्रों में असमान शक्तियाँ होती हैं।
    • उदाहरण: रूस (चेचन्या), इथियोपिया (टाइग्रे), कनाडा (क्यूबेक), और [भारत, एकमात्र अपवाद के साथ, निश्चित रूप से, जम्मू और कश्मीर राज्य (वर्ष 2019 तक)] था।
    • इसके अलावा, अनुच्छेद-371 में कई खंड हैं, जो भारत के पूर्वोत्तर राज्यों को विशेष शक्तियाँ प्रदान करते हैं।

संघवाद की विशेषताएँ

  • केंद्र सरकार (संघ) और राज्य सरकारों के बीच शक्तियों का विभाजन।
    • भारत में इसका उल्लेख सातवीं अनुसूची की तीन सूचियों में किया गया है।
  • लिखित संविधान, जो सरकार के विभिन्न स्तरों की शक्तियों का वर्णन करता है।
  • संविधान की सर्वोच्चता और यह संघ तथा राज्यों के बीच संबंधों को नियंत्रित करता है।
    • केंद्र और राज्यों के कानून संविधान के अनुरूप होने चाहिए अन्यथा न्यायिक समीक्षा द्वारा उन्हें रद्द किया जा सकता है।
  • स्वतंत्र न्यायपालिका जो सरकार के विभिन्न स्तरों के बीच विवादों को सुलझाने के लिए संविधान की व्याख्या और प्रवर्तन करती है।
    • न्यायपालिका के प्रशासनिक व्यय और न्यायाधीशों के वेतन भारत की संचित निधि पर भारित होते हैं।
  • दोहरी सरकार, जिसमें केंद्र और राज्य सरकारों दोनों के अपने-अपने प्रभाव और अधिकार क्षेत्र होते हैं।
  • कठोर संविधान का अर्थ है कि संविधान में संशोधन करना आसान नहीं है तथा इसमें परिवर्तन के लिए स्पष्ट प्रक्रियाएँ उपलब्ध हैं।
    • केवल विशेष बहुमत के साथ केंद्र और राज्य सरकारों की संयुक्त कार्रवाई से ही संघीय प्रावधानों में संशोधन किया जा सकता है।
  • द्विसदनीय व्यवस्था में, राज्य सभा (उच्च सदन) भारतीय संघ के राज्यों का प्रतिनिधित्व करती है, जबकि लोक सभा (निचला सदन) संपूर्ण भारत के लोगों का प्रतिनिधित्व करती है।

भारत में संघवाद का विकास 

स्वतंत्रता के बाद से भारत में संघवाद का विकास गतिशील रहा है और इसे निम्नलिखित विभिन्न चरणों के आधार पर जाँचा जा सकता है:

  • आंतरिक पार्टी संघवाद: संघवाद के प्रथम चरण (1950-68) के दौरान, संघीय सरकार और राज्यों के बीच प्रमुख विवादों का समाधान कांग्रेस पार्टी के मंचों पर किया जाता था, जिसे राजनीति शास्त्री रजनी कोठारी ने ‘कांग्रेस प्रणाली’ कहा था।
    • इससे प्रमुख संघीय संघर्षों को रोकने या नियंत्रित करने तथा सर्वसम्मति आधारित ‘आंतरिक पार्टी संघवाद’ का निर्माण करने में मदद मिली।
  • बहुदलीय संघवाद: 1990 के दशक में गठबंधन काल देखा गया, जिसे बहुदलीय संघवाद के नाम से भी जाना जाता है।
    • इस अवधि में केंद्र-राज्य टकराव की तीव्रता में कमी देखी गई, साथ ही राज्य प्रशासन को गिराने के लिए केंद्र द्वारा अनुच्छेद-356 के मनमाने उपयोग में भी कमी आई।
      • एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ मामले में वर्ष 1994 में दिया गया फैसला, जिसमें केंद्र द्वारा इस प्रावधान के मनमाने उपयोग पर सवाल उठाया गया था, आंशिक रूप से इसके लिए जिम्मेदार है।
  • सहकारी संघवाद: इस अवधि के दौरान, भारतीय अर्थव्यवस्था को भी उदार बनाया गया, जिससे मुख्यमंत्रियों और राज्य सरकारों को अपने क्षेत्रों में व्यवसाय शुरू करने और विदेशी निवेश आकर्षित करने के लिए पर्याप्त स्वायत्तता मिली।
    • नीचे से ऊपर तक नींव को मजबूत करते हुए, वर्ष 1992 के 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियमों ने स्थानीय स्वशासन को और अधिक सशक्त बनाया।
    • इस प्रकार, इस अवधि के दौरान संघ और राज्यों के बीच विचार-विमर्श तथा संघर्षों से आदर्श संघवाद संभव हुआ।
  • प्रतिस्पर्द्धी संघवाद: शासन के संदर्भ में, संघीय सरकार ने सहकारी संघवाद की वकालत की और जीएसटी कानून बनाने, जीएसटी परिषद और नीति आयोग की स्थापना आदि जैसे विभिन्न उपायों पर सहमति व्यक्त की। हालाँकि, कुछ राज्य और केंद्र नागरिकता संशोधन अधिनियम, कृषि कानून, जीएसटी छूट और कोविड-19 महामारी के दौरान सहायता सहित कई नीतिगत मामलों पर असहमत रहे।
  • टकरापूर्ण संघवाद: ‘प्रमुख पार्टी’ के अधीन संघवाद वर्ष 2014 में एकल पार्टी के बहुमत के साथ पुनः प्रकट हुआ और साथ ही साथ मजबूत भी हुआ।
    • हालाँकि, यह विपक्ष और केंद्र के नेतृत्व वाले राज्यों के बीच महत्त्वपूर्ण संघीय विवादों के रूप में उभरा। 
    • उदाहरण: राज्यपाल का दुरुपयोग, राज्य राजकोषीय केंद्रीकरण, राज्य सरकार की अस्थिरता और राज्य के अधिकारों का हनन।
  • सौदाकारी संघवाद: सौदाकारी संघवाद के तहत, केंद्र एक प्रमुख निकाय की भूमिका निभाता है। केंद्र की प्रमुखता के कारण, सौदाकारी संघवाद राज्यों की प्रतिकूल स्थिति को उजागर करती है।
    • हालाँकि, वर्ष 1990 के दशक के दौरान पार्टी प्रणाली के क्षेत्रीयकरण और खुली अर्थव्यवस्था के कारण राज्य सरकारों की सौदेबाजी की ताकत बढ़ गई।

भारत में संघवाद को मजबूत करने की आवश्यकता

  • भारत की विविधता को बनाए रखने के लिए: यह सुनिश्चित करने के लिए कि विभिन्न क्षेत्रों की भाषायी और सांस्कृतिक पहचान संरक्षित और सम्मानित हैं, मजबूत संघवाद वांछनीय है।
  • केंद्रीकरण से बचने के लिए: स्थानीय इकाइयों की स्वायत्तता, अधिकारों की सुरक्षा और वृद्धि करने तथा उनकी क्षेत्रीय आकांक्षाओं को समायोजित करने के लिए मजबूत संघवाद की आवश्यकता है।
  • स्थानीय निकायों को और अधिक सशक्त बनाना: संघवाद को मजबूत करने से पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से स्थानीय स्वशासन को सशक्त बनाया जा सकता है, जो जमीनी स्तर पर लोकतंत्र और विकास के लिए आवश्यक है।
  • अधिक न्यायोचित राजकोषीय संघवाद के लिए: राजकोषीय संघवाद को मजबूत करने से संघ की इकाइयों के बीच वित्तीय संसाधनों का अधिक न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित होता है।

भारत में संघवाद के लिए चुनौतियाँ

  • क्षेत्रवाद: केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन को प्रबंधित करना भारत में संघवाद के लिए एक महत्त्वपूर्ण चुनौती है। भारत का बहुलवादी चरित्र क्षेत्रवाद सहित विभिन्न मुद्दों को जन्म देता है।
    • उदाहरण: अधिक राज्यों के निर्माण की माँग अधिक प्रमुख हो गई है, विशेष रूप से वर्ष 2014 में तेलंगाना के गठन के बाद से। असम की एक प्रमुख जनजाति बोडो, लंबे समय से एक अलग बोडोलैंड राज्य की माँग कर रही है।
  • शक्तियों का विभाजन: भारत में, शक्तियों का वितरण संविधान की सातवीं अनुसूची में पाई जाने वाली तीन सूचियों में उल्लिखित है। आपराधिक कानून, वन और आर्थिक एवं सामाजिक नियोजन जैसे कुछ मुद्दों में केंद्र तथा राज्य दोनों की भागीदारी की आवश्यकता होती है और इसलिए उन्हें समवर्ती सूची में शामिल किया जाता है, जिससे परस्पर विरोधी स्थितियाँ पैदा होती हैं।
    • उदाहरण: केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2020 में पारित तीन कृषि कानूनों को राज्यों द्वारा इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि कृषि राज्य सूची का विषय है।
  • राजकोषीय चिंताएँ: भारतीय संविधान केंद्र को अधिक कराधान शक्तियाँ प्रदान करता है, लेकिन केंद्रीय कर राजस्व में राज्यों की हिस्सेदारी निर्धारित करके इस असंतुलन को ठीक करने के लिए वित्त आयोग की स्थापना करता है।
    • उदाहरण: 15वें वित्त आयोग ने राज्यों के लिए केंद्रीय करों में अधिक हिस्सा देने की सिफारिश की है, इसे 32% से बढ़ाकर 41% कर दिया है। हालाँकि, राज्यों की शिकायत है कि फंड अपर्याप्त है और समय पर वितरित नहीं किया जाता है, जिससे राजकोषीय समस्याएँ पैदा होती हैं।
  • इकाइयों का असमान प्रतिनिधित्व: लोकसभा में प्रतिनिधित्व जनसंख्या पर आधारित है, बड़े राज्यों के पास अधिक सीटें हैं और इससे राष्ट्रीय राजनीति में छोटे राज्यों की आवाज कमजोर हो जाती है।
    • उदाहरण: उत्तर प्रदेश में 80 लोकसभा सीटें हैं, जबकि सिक्किम में केवल 1 है।
    • इसके अलावा, राज्यसभा में राज्यों के समान प्रतिनिधित्व का कोई प्रावधान नहीं है तथा राज्यों के पास संवैधानिक संशोधनों पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव का अभाव है।
      • पुंछी आयोग ने राज्यसभा में राज्यों के समान प्रतिनिधित्व की सिफारिश की थी।
  • आर्थिक असमानताएँ और राजकोषीय अंतर: घटक राज्यों के बीच इस तरह के मतभेद संघ को खतरे में डाल सकते हैं।
    • आर्थिक मानकों में असंतुलन के कारण आर्थिक नियोजन, क्षेत्रीय आर्थिक समानता और राज्यों के लिए वित्तीय स्वायत्तता की माँग पैदा होती है।
    • किसी क्षेत्र के भीतर वित्तीय समानता की खोज एक संघ में चुनौतियाँ उत्पन्न कर सकती है।
  • अन्य चिंताजनक चुनौतियाँ: राज्यपाल की शक्तियों का दुरुपयोग, अनुच्छेद-356 (राष्ट्रपति शासन) का दुरुपयोग, अखिल भारतीय सेवाएँ, अधिकांश मामलों में केंद्रीकृत संशोधन शक्ति, विभिन्न अंतरराज्यीय विवाद आदि।

विभिन्न समितियों की सिफारिशें

  • पुंछी आयोग (Punchhi Commission)
    • राज्यसभा में राज्यों के लिए समान प्रतिनिधित्व की सिफारिश की गई।
    • राज्यपालों की नियुक्ति और हटाने की प्रक्रियाओं की रूपरेखा।
    • अंतर-राज्यीय परिषद को एक स्थायी संस्था बनाने का सुझाव दिया गया।
  • सरकारिया कमीशन (Sarkaria Commission)
    • समवर्ती सूची: इसमें प्रस्ताव दिया गया कि जब संघ समवर्ती सूची के विषय पर कानून बनाने की योजना बनाता है, तो अंतर-सरकारी परिषदों के माध्यम से राज्यों के विचारों पर विचार किया जाना चाहिए।
      • राष्ट्रीय एकरूपता सुनिश्चित करने के लिए संघ को आमतौर पर केवल समवर्ती सूची के विषय में ही हस्तक्षेप करना चाहिए, बाकी को राज्यों पर छोड़ देना चाहिए।
    • राज्यपाल: राष्ट्रपति शासन (अनुच्छेद-356) के दौरान राज्यपाल की रिपोर्ट व्यापक और विस्तारित रूप से जारी होनी चाहिए।
      • राज्यपाल राज्य के बाहर के प्रतिष्ठित व्यक्ति होने चाहिए, जिनका राजनीतिक जुड़ाव न्यूनतम हो।
    • विधान परिषदों के निर्माण या उन्मूलन के संबंध में राज्यों के प्रस्ताव संसद में शीघ्र प्रस्तुत किए जाने चाहिए।
  • दूसरा प्रशासनिक सुधार आयोग (2nd ARC)
    • इसने केंद्र-राज्य संबंधों को बेहतर बनाने के लिए 22 सिफारिशें कीं, इस बात पर जोर दिया कि मौजूदा प्रावधान पर्याप्त थे और संवैधानिक संशोधनों को खारिज कर दिया।
    • राज्यों को अधिकतम सीमा तक शक्तियों का प्रत्यायोजन – वित्तीय और विधायी सहित अन्य।
    • व्यापक सार्वजनिक जीवन और प्रशासनिक अनुभव वाले गैर-पक्षपाती व्यक्तियों को राज्यपाल के रूप में नियुक्त करना।
    • कराधान के अलावा, अवशिष्ट क्षेत्रों को समवर्ती सूची के अंतर्गत रखना।
    • संघ एवं राज्यों के बीच मतभेदों को आपसी परामर्श से सुलझाना।
    • बढ़े हुए वित्तीय संसाधनों के लिए राज्यों की माँग का समर्थन करना।
    • देश में केंद्र-राज्य संबंधों को बढ़ाने के लिए आर्थिक उदारीकरण और उचित संवैधानिक संशोधन का प्रस्ताव।

आगे की राह

  • अंतर-राज्यीय परिषद को सशक्त बनाना: इस परिषद को अधिक स्वतंत्रता और वैधानिक जिम्मेदारियाँ प्रदान करने की आवश्यकता है, जिससे केंद्र-राज्य और अंतर-राज्यीय संवाद के लिए स्थान मजबूत होगा।
    • अंतर-राज्यीय परिषद को सशक्त बनाने से विवादों के समाधान में मदद मिलेगी, राज्यों के बीच बेहतर नीतिगत प्रणाली संभव होगी तथा नीतिगत क्षेत्रों में अंतर-सरकारी सहयोग के लिए एक मंच उपलब्ध होगा।
  • परिसीमन प्रक्रिया का सुचारू और नियमित संचालन: परिसीमन प्रक्रिया के दौरान विश्वास का निर्माण करने के लिए, केंद्र द्वारा थोपे गए निर्णय के बजाय सभी राज्यों के बीच वास्तविक आम सहमति बनाने के लिए एक प्रक्रिया की घोषणा की जा सकती है।
  • प्रतिनिधित्व और पुनर्वितरण के सिद्धांतों का सम्मान: ऐसे संघीय समाधान खोजने की आवश्यकता है, जो राज्यों की आवाज और स्वायत्तता को कम किए बिना प्रतिनिधित्व तथा पुनर्वितरण के सिद्धांतों का सम्मान करें।
    • ऐसे कई उदाहरण हैं, जिनका पालन किया जा सकता है जैसे कि अंतर-राज्यीय संवाद और सर्वसम्मति निर्माण की लंबी प्रक्रिया, जिसके कारण अप्रत्यक्ष कर सामंजस्य स्थापित हुआ, पहले 2000 के दशक की शुरुआत में राज्य स्तरीय VAT के माध्यम से और फिर GST की शुरुआत हुई।
  • स्थानीय शक्तियों का संवर्द्धन और विकास
    • शक्तियों का हस्तांतरण बढ़ाना: राज्यों और स्थानीय निकायों को शक्तियों और संसाधनों का हस्तांतरण बढ़ाकर संघवाद को मजबूत किया जा सकता है, जैसे कि शक्तियों के वितरण की सूची को संशोधित करना, अधिक वित्तीय स्वायत्तता देना आदि।
    • समान विकास सुनिश्चित करना: जनसंख्या, गरीबी, बुनियादी ढाँचे की जरूरतों आदि जैसे प्रमुख प्रभावकारी कारकों पर विचार करके राज्यों को केंद्रीय धन वितरित करने के लिए एक पारदर्शी तथा उद्देश्यपूर्ण सूत्र विकसित करने की आवश्यकता है।
      • वर्ष 2017 में, रघुराम राजन समिति ने वस्तुनिष्ठ मानदंडों के आधार पर राज्यों को केंद्रीय निधियों के हस्तांतरण के लिए एक फार्मूला आधारित सुझाव दिया था।
    • समावेशिता सुनिश्चित करना: राज्यों की बढ़ी हुई भागीदारी से उनका प्रतिनिधित्व, मूल्य और संघवाद की भावना सुनिश्चित होगी।
      • राज्यपाल की नियुक्ति अधिक पारदर्शी और परामर्शपरक होनी चाहिए।
  • क्षेत्रीय असमानताओं का समाधान: संघवाद की भावना को बनाए रखने और मजबूत करने के लिए क्षेत्रीय असमानताओं तथा विषमताओं का समाधान करना महत्त्वपूर्ण है।
    • इसे पिछड़े एवं वंचित क्षेत्रों या समूहों को विशेष सहायता एवं समर्थन प्रदान करके प्राप्त किया जा सकता है।
  • सहकारी और प्रतिस्पर्द्धी संघवाद को बढ़ावा देना: सहकारी संघवाद में, केंद्र और राज्य राष्ट्रीय सुरक्षा, आपदा प्रबंधन आदि जैसे राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों पर मिलकर कार्य करते हैं और सामान्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एकीकृत दृष्टिकोण सुनिश्चित करते हैं।
    • प्रतिस्पर्द्धी संघवाद में, राज्य बुनियादी ढाँचे, सार्वजनिक सेवाओं और विनियामक ढाँचे में सुधार करके निवेश और प्रतिभा के लिए प्रतिस्पर्द्धा करते हैं। इससे पूरे देश में नवाचार और बेहतर शासन प्रथाओं को बढ़ावा मिलता है।
  • संघीय सिद्धांतों का पालन करना: केंद्र को संविधान के अनुच्छेद-355 और 356 (राष्ट्रपति शासन लागू करना) के तहत अपनी शक्तियों के अत्यधिक उपयोग से बचना चाहिए, जिससे राज्यों को अधिक स्वायत्तता सुनिश्चित होगी।

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