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सूचना का अधिकार (RTI) का ‘सूचना देने से इनकार करने के अधिकार’ में परिवर्तन

Lokesh Pal September 15, 2025 02:18 78 0

संदर्भ

सूचना का अधिकार (Right to Information-RTI) अधिनियम, 2005 को शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए लागू किया गया था। हालाँकि, डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण (Digital Personal Data Protection- DPDP) अधिनियम, 2023 के माध्यम से हाल की न्यायिक व्याख्याएँ और संशोधन इसके दायरे को सीमित कर रहे हैं, जो सूचना के अधिकार (RTI) को ‘सूचना देने से इनकार करने के अधिकार (Right to Deny Information- RDI) की और परिवर्तित कर रहे हैं।

‘सूचना का अधिकार’ (RTI) अधिनियम के बारे में

  • RTI अधिनियम, 2005 इस सिद्धांत पर आधारित है कि सरकार के पास मौजूद सभी जानकारी नागरिकों की है। यह लोगों को सार्वजनिक प्राधिकरणों से जानकारी प्राप्त करने का अधिकार देता है, जिससे पारदर्शिता एवं जवाबदेही बढ़ती है।
  • एक मौलिक अधिकार: RTI इस सिद्धांत पर आधारित है कि सरकार के पास विद्यमान सभी जानकारी स्वाभाविक रूप से नागरिकों की है और लोकतांत्रिक जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए इसे सुलभ बनाया जाना चाहिए।
  • लोकतांत्रिक दर्शन: RTI लोकतांत्रिक विचार को जनता का, जनता द्वारा, जनता के लिए शासन के रूप में दर्शाता है, यह सुनिश्चित करता है कि नागरिकों को सरकारी कार्यों की निगरानी करने का अधिकार प्राप्त हो सके।
  • लोकतांत्रिक सशक्तीकरण: नागरिकों को सूचना माँगने का अधिकार प्राप्त है, जो इस बात को पुष्ट करता है कि सरकार सार्वजनिक सूचना की संरक्षक के रूप में कार्य करती है, न कि स्वामी के रूप में।
  • पारदर्शिता का सिद्धांत: यह अधिनियम सुनिश्चित करता है कि सरकारी कार्यप्रणाली जाँच के लिए खुली रहे, जिससे नागरिकों की शासन में सक्रिय भागेदारी सुनिश्चित हो सकें।
  • संरक्षक के रूप में सरकार: राष्ट्रीय सुरक्षा, संप्रभुता या व्यक्तिगत गोपनीयता की रक्षा के लिए वैध छूट के मामलों के अतिरिक्त, सार्वजनिक अभिलेख सामान्यतः सुलभ हैं।
  • संवैधानिक सुरक्षा उपाय: RTI अनुच्छेद-19(1)(a) (भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) पर आधारित है। संप्रभुता, सुरक्षा, शालीनता या नैतिकता जैसे कारणों से केवल अनुच्छेद-19(2) के तहत प्रतिबंधों की अनुमति है।

  • नागरिक समाज आंदोलन (Civil Society Movements): RTI अधिनियम सतही स्तर के आंदोलनों, विशेष रूप से राजस्थान में ‘मजदूर किसान शक्ति संगठन’ (MKSS) के परिणामस्वरूप उभरा, जहाँ नागरिकों ने सार्वजनिक व्यय से संबंधित सरकारी रिकॉर्ड तक पहुँच की माँग की।
  • विधायी परिवर्तन (2005): इन राज्य-स्तरीय आंदोलनों की सफलता के परिणामस्वरूप, वर्ष 2005 में RTI अधिनियम पारित किया गया, जिसने नागरिकों को सार्वजनिक प्राधिकरणों से सूचना प्राप्त करने के अधिकार को औपचारिक रूप दिया। यह कानून पारदर्शिता और जवाबदेही को बढ़ावा देने में एक मील का पत्थर सिद्ध हुआ।
  • राज्य से राष्ट्रीय स्तर तक: वर्ष 2005 के RTI अधिनियम से पूर्व, कई राज्यों के अपने सूचना का अधिकार कानून थे। हालाँकि, वर्ष 2005 का अधिनियम सूचना कानूनों के राष्ट्रीय एकीकरण की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था, जिसने देश भर में सरकारी सूचनाओं तक एकरूपता और व्यापक पहुँच सुनिश्चित की।

RTI का उद्भव

  • न्यायिक मान्यता (1975-1989)
    • वर्ष 1975: सर्वोच्च न्यायालय ने जानने के अधिकार को मौलिक अधिकारों का हिस्सा माना।
    • वर्ष 1982: अनुच्छेद-19(1)(a) (अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) और अनुच्छेद-21 (जीवन का अधिकार) के तहत इसकी व्याख्या का विस्तार किया गया, जिससे सूचना के अधिकार को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सूचित निर्णय लेने से जोड़ा गया।
    • वर्ष 1985: भोपाल गैस त्रासदी के बाद, गैर-सरकारी संगठनों ने पर्यावरणीय आँकड़ों तक पहुँच की माँग की, जिससे सार्वजनिक अभिलेखों तक पहुँच के लिए बहस शुरू हुई।
  • सतही स्तर के आंदोलन और प्रारंभिक प्रारूप (1990-1999)
    • 1990 का दशक: राजस्थान में मजदूर किसान शक्ति संगठन (MKSS) जैसे आंदोलनों ने सरकारी सेवाओं में भ्रष्टाचार और अक्षमता को उजागर करने के लिए जनसुनवाई (Jan Sunwai) के आयोजन की व्यवस्था की।
    • वर्ष 1996: भारतीय प्रेस परिषद के साथ मिलकर RTI विधेयक का मसौदा तैयार करने के लिए ‘राष्ट्रीय जन सूचना अधिकार अभियान’ (NCPRI) का गठन किया गया।
    • वर्ष 1997: एच. डी. शौरी समिति ने मसौदे की समीक्षा की, जिससे विधायी प्रगति का मार्ग प्रशस्त हुआ।
  • विधायी प्रयास और प्रारंभिक राज्य RTI कानून (वर्ष 2000-2004)
    • वर्ष 2000: संसदीय स्थायी समिति ने RTI मसौदे की समीक्षा की और राजस्थान, महाराष्ट्र और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने राज्य स्तरीय RTI कानून पारित किए।
    • वर्ष 2002: सूचना की स्वतंत्रता अधिनियम संसद द्वारा पारित तो हुआ, लेकिन वह कभी अधिसूचित नहीं हुआ।
    • वर्ष 2003: सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार पर RTI सुधारों को अपनाने का दबाव डाला।
    • वर्ष 2004: वर्ष 2004 में, संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) सरकार ने अपने साझा न्यूनतम कार्यक्रम में एक सशक्त सूचना का अधिकार (RTI) कानून लाने का वादा किया।
  • RTI अधिनियम का पारित होना (वर्ष 2004 से वर्ष 2005)
    • वर्ष 2004: ‘राष्ट्रीय जन सूचना अधिकार अभियान’ (NCPRI) ने ‘राष्ट्रीय सलाहकार परिषद’ (NAC) को अपने संशोधन प्रस्तुत किए।
    • वर्ष 2005: विरोध और पैरवी के बाद, संसद ने RTI अधिनियम पारित किया, जिसमें केंद्र और राज्य दोनों सरकारों को शामिल किया गया।
    • 12 अक्टूबर, 2005: RTI अधिनियम लागू हुआ, और पुणे में शाहिद रजा बर्नी द्वारा दायर RTI आवेदन इस कानून के तहत दायर किया गया पहला आवेदन था।

RTI अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ

  • सूचना तक पहुँच का अधिकार: कोई भी नागरिक सार्वजनिक प्राधिकरणों से सूचना का अनुरोध कर सकता है।
  • समयबद्ध प्रकटीकरण: PIO को 30 दिनों के भीतर जवाब देना होगा, जीवन या स्वतंत्रता से संबंधित मामलों का समाधान 48 घंटों के भीतर किया जाना चाहिए।
  • छूट: राष्ट्रीय सुरक्षा, संप्रभुता और व्यक्तिगत गोपनीयता से संबंधित कुछ जानकारी को धारा 8 के अंतर्गत छूट प्राप्त है।
  • धारा 8(1)(j) – व्यक्तिगत जानकारी: मूल रूप से, यह केवल तभी सूचना देने से इनकार किया जा सकता है, जब सूचना का सार्वजनिक गतिविधि से कोई संबंध न हो या गोपनीयता का अनुचित उल्लंघन हो, जब तक कि कोई व्यापक जनहित निहित न हो। एक महत्त्वपूर्ण प्रावधान के अंतर्गत यह सुनिश्चित किया गया कि यदि संसद या राज्य विधानमंडलों को सूचना देने से इनकार नहीं किया जाता है, तो नागरिकों को भी सूचना देने से इनकार नहीं किया जा सकता है।
  • DPDP अधिनियम के माध्यम से संशोधन: धारा 8(1)(j) को घटाकर छ: शब्दों तक सीमित कर दिया गया- ‘Information which relates to Personal Information’ (व्यक्तिगत जानकारी से संबंधित सूचना)
    • DPDP (जिसमें HUFs, कंपनियाँ, संघ और राज्य शामिल हैं) के तहत ‘व्यक्ति’ की व्यापक परिभाषा के कारण अधिकांश जानकारी ‘व्यक्तिगत’ मानी जाने और पूरी तरह अस्वीकार किए जाने का खतरा है।
  • अनुपालन न करने पर दंड: यदि PIO गलत तरीके से सूचना देने से इनकार करते हैं तो उन्हें दंडित किया जा सकता है, किंतु DPDP के अंतर्गत दंड का भय, उन्हें गलत तरीके से सूचना न देने के लिए प्रेरित करता है।
  • सक्रिय प्रकटीकरण: धारा 4 अधिकारियों को महत्त्वपूर्ण जानकारी का सक्रिय रूप से खुलासा करने का आदेश देती है, जिससे RTI अनुरोधों पर निर्भरता कम होती है।

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RTI अधिनियम, 2005: इसके अंतर्गत आने वाली संस्थाएँ और सार्वजनिक प्राधिकरणों का दायरा

  • सार्वजनिक प्राधिकरण: RTI अधिनियम सभी सार्वजनिक प्राधिकरणों पर लागू होता है, जिन्हें संविधान, संसद या राज्य विधानमंडल द्वारा बनाए गए कानून, या सरकार द्वारा जारी किसी अन्य अधिसूचना द्वारा स्थापित किसी भी प्राधिकरण, निकाय या संस्था के रूप में परिभाषित किया गया है।
  • शामिल सार्वजनिक प्राधिकरणों के प्रकार
    • सरकारी मंत्रालय और विभाग: केंद्र और राज्य सरकार के मंत्रालय, विभाग और एजेंसियाँ।
    • स्थानीय प्राधिकरण: पंचायतें, नगरपालिकाएँ और सतही स्तर पर कार्यरत अन्य स्थानीय निकाय।
    • सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यम: सरकार के स्वामित्व या नियंत्रण वाले सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम (PSU), निगम और कंपनियाँ।
    • स्वायत्त निकाय और वैधानिक निकाय: विश्वविद्यालय, नियामक निकाय (जैसे- RBI, SEBI) और सरकारी धन प्राप्त करने वाले सार्वजनिक ट्रस्ट जैसे संस्थान।
    • न्यायिक निकाय: RTI अधिनियम में न्यायपालिका को भी शामिल किया गया है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और अधीनस्थ न्यायालय शामिल हैं, हालाँकि न्यायिक निर्णयों के संबंध में कुछ सीमाएँ हैं।
  • नागरिक: कोई भी भारतीय नागरिक RTI आवेदन दायर करने का पात्र है। यह अधिनियम राष्ट्रीयता, लिंग या व्यवसाय के आधार पर RTI तक पहुँच को प्रतिबंधित नहीं करता है; हालाँकि, सुरक्षा और गोपनीयता संबंधी चिंताओं के आधार पर कुछ छूट लागू होती हैं।
  • छूट और सीमाएँ: RTI अधिनियम में कुछ विशिष्ट छूटें शामिल हैं, जहाँ सूचना तक पहुँच से इनकार किया जा सकता है, जैसे:-
    • राष्ट्रीय सुरक्षा: राष्ट्रीय रक्षा, संप्रभुता और अखंडता से संबंधित जानकारी।
    • गोपनीयता संबंधी चिंताएँ: व्यक्तिगत जानकारी, जब तक कि वह जनहित से संबंधित न हो।
    • व्यावसायिक गोपनीयता या व्यापारिक रहस्य: ऐसी सूचना, जिससे सरकार या सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं की प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति प्रभावित हो सकती है।

RTI अधिनियम का महत्त्व

  • लोकतंत्र को मजबूत बनाना और नागरिक सशक्तीकरण: RTI नागरिकों को सरकार के प्रति जवाबदेह बनाने में सक्षम बनाता है और सामाजिक लेखा परीक्षा के एक उपकरण के रूप में कार्य करता है।
  • भ्रष्टाचार पर अंकुश: यह आधिकारिक रिकॉर्ड तक पहुँच प्रदान करके, आदर्श आवास घोटाले और कोलगेट जैसे मामलों में देखे गए भ्रष्टाचार को उजागर करने में मदद करता है।
  • कल्याणकारी योजनाओं में पारदर्शिता सुनिश्चित करना: RTI सार्वजनिक योजनाओं के कार्यान्वयन पर नजर रखता है, धन का उचित उपयोग सुनिश्चित करता है और लक्षित लाभार्थियों तक पहुँचता है।
  • मौलिक अधिकारों का संरक्षण: यह अनुच्छेद-19(1)(a) और 21 से संबंधित है, RTI यह सुनिश्चित करता है कि नागरिक मौलिक अधिकारों का प्रभावी ढंग से प्रयोग कर सकें।
  • मीडिया और व्हिसलब्लोअर्स को सशक्त बनाना: पत्रकार और व्हिसलब्लोअर्स द्वारा अनुचित कार्यों को उजागर करने के लिए RTI का उपयोग करते हैं।
  • RDI का प्रभाव: ‘व्यक्तिगत जानकारी’ को व्यापक रूप से अस्वीकार करने की अनुमति देने वाले संशोधन पारदर्शिता को कमजोर करते हैं, नागरिक निगरानी को सीमित करते हैं, और फर्जी कर्मचारियों, पेंशन धोखाधड़ी तथा आधिकारिक आदेशों जैसे क्षेत्रों में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देते हैं।

वर्तमान समय में RTI की आवश्यकता

  • डिजिटल शासन: रिकॉर्डों के बढ़ते डिजिटलीकरण के साथ, RTI डिजिटल और इलेक्ट्रॉनिक दस्तावेजों की पहुँच सुनिश्चित करता है।
  • सार्वजनिक जवाबदेही: सरकारी परियोजनाओं और कल्याणकारी व्यय, विशेष रूप से बड़े स्तर  की योजनाओं के अंतर्गत, की गई निगरानी के लिए RTI अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
  • भ्रष्टाचार का मुकाबला: नागरिकों को अक्षमताओं और अवैध प्रथाओं को उजागर करने का अधिकार दिया गया है।
  • कमजोर समूहों को सशक्त बनाना: RTI हाशिए पर स्थित समुदायों को कल्याणकारी, भूमि अधिकार, स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं तक पहुँच प्रदान करता है।

RTI बनाम DPDP संशोधन – तुलना तालिका 

पहलू मूल आरटीआई अधिनियम, 2005 DPDP अधिनियम, 2023 के तहत संशोधित स्थिति प्रभाव
आधारभूत सिद्धांत यह इस विचार पर आधारित है कि सरकार एक संरक्षक के रूप में सूचना रखती है, तथा सभी सूचनाएँ डिफॉल्ट रूप से नागरिकों की होती हैं। डेटा संरक्षण और गोपनीयता को प्राथमिकता देकर, प्राय: पारदर्शिता को दरकिनार करके, इस धारणा को कमजोर किया जाता है। यह “जनता के शासन” के मूल लोकतांत्रिक सिद्धांत को क्षीण करता है।
धारा 8(1)(j) – व्यक्तिगत जानकारी विस्तृत प्रावधान: केवल तभी प्रकटीकरण से इनकार किया जाएगा, जब वह सार्वजनिक गतिविधियों से संबंधित न हो या निजता का अनुचित उल्लंघन हो, जब तक कि व्यापक जनहित मौजूद न हो। छ: शब्दों में संक्षिप्त: “व्यक्तिगत जानकारी से संबंधित जानकारी।” व्यापक और अस्पष्ट। लगभग सभी प्रकार की सूचनाओं को पूरी जानकारी देने से इनकार किया जाता है।
प्रावधान (सुरक्षा खंड) जो जानकारी संसद या किसी राज्य विधानमंडल को देने से इनकार नहीं की जा सकती, उसे किसी भी व्यक्ति को देने से इनकार नहीं किया जाएगा। “व्यक्तिगत जानकारी” के व्यापक दायरे के कारण यह सुरक्षा उपाय प्रभावी रूप से निरर्थक हो जाता है। विधायकों के साथ नागरिकों के समानता के अधिकार को कमजोर करता है।
‘व्यक्ति’ की परिभाषा सामान्यतः इसे एक प्राकृतिक व्यक्ति (व्यक्तिगत मानव) के रूप में समझा जाता है। DPDP अधिनियम के अनुसार: इसमें व्यक्ति, HUFs, फर्म, कंपनी, एसोसिएशन और राज्य शामिल हैं। ‘व्यक्तिगत’ शब्द का विस्तार शासन से जुड़ी लगभग प्रत्येक बिंदु तक हो जाता है।
जनहित परीक्षण धारा 8(2) के तहत मजबूत प्रावधान – यदि सार्वजनिक हित नुकसान से अधिक है तो छूट प्राप्त जानकारी का भी खुलासा किया जाना चाहिए। इसे बरकरार रखा गया है, लेकिन व्यवहार में इसका प्रयोग कम ही होता है। अब यह और भी कठिन हो गया है क्योंकि छूटें व्यापक हो गई हैं। नागरिक ‘व्यापक सार्वजनिक हित’ स्थापित करने के लिए संघर्ष करते हैं।
प्रकटीकरण के लिए दंड कठोर दंड का कोई डर नहीं; ध्यान केवल प्रकटीकरण पर था। DPDP अधिनियम व्यक्तिगत डेटा के गलत प्रकटीकरण के लिए 250 करोड़ रुपये तक का जुर्माना लगाता है। PIOs द्वारा दायित्व का जोखिम उठाने की अपेक्षा जानकारी देने से इनकार करने की संभावना अधिक होती है।
PIOs पर परिचालन प्रभाव स्पष्ट रूप से छूट न मिलने पर सूचना जारी करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है। दंड के डर से गोपनीयता का पक्ष लेना। गलत तरीके से इनकार की संस्कृति विकसित करता है।
नागरिक सशक्तीकरण आम नागरिकों, विशेषकर गरीबों और हाशिए पर स्थित लोगों को जवाबदेही की माँग करने के लिए सशक्त बनाया गया। सशक्तीकरण कमजोर होता है; यहाँ तक ​​कि पेंशन सूची, अंकतालिका या हस्ताक्षरित आदेश जैसी बुनियादी जानकारी भी देने से इनकार किया जा सकता है। गरीबों के लिए पारदर्शिता के साधन कमजोर हो जाते हैं।
जवाबदेही और भ्रष्टाचार विरोधी नागरिकों ने निगरानीकर्ता के रूप में कार्य किया; RTI ने घोटालों, अक्षमताओं और फर्जी कर्मचारियों को उजागर किया। व्यक्तिगत जानकारी’ के रूप में रोके रखने से भ्रष्टाचार और कुप्रशासन छिप जाता है। भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलता है और जाँच प्रक्रिया में  कमी आती है।
संवैधानिक स्थिति अनुच्छेद-19(1)(a) (वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता) के भाग के रूप में मान्यता प्राप्त। केवल अनुच्छेद-19(2) (संप्रभुता, सुरक्षा, शालीनता, नैतिकता) के अंतर्गत प्रतिबंध। DPDP के माध्यम से व्यापक, अपरिभाषित प्रतिबंध RTI सुरक्षा को दरकिनार कर देते हैं। पारदर्शिता की संवैधानिक गारंटी का उल्लंघन होने का खतरा है।

RTI अधिनियम के कार्यान्वयन में चुनौतियाँ और बाधाएँ

  • नौकरशाही आधारित प्रतिरोध: सार्वजनिक सूचना अधिकारी प्रायः पोल खुलने, भ्रष्टाचार या जागरूकता की कमी के डर से सूचना देने में देरी करते हैं या उसे अस्वीकार कर देते हैं।
  • कर्मचारियों की कमी और देरी: सूचना आयोगों को लंबित कार्यों और कर्मचारियों की कमी का सामना करना पड़ता है।
  • विधायी संशोधनों के माध्यम से अधिनियम को कमजोर करना: RTI (संशोधन) अधिनियम, 2019 और DPDP अधिनियम, 2023 सूचना आयोगों की स्वायत्तता को कम करते हैं और छूटों का विस्तार करते हैं।
  • छूटों का विस्तार: रॉ, IB, CERT-In जैसी एजेंसियाँ ​​और आधिकारिक गोपनीयता अधिनियम के तहत सीमाएँ सूचना तक पहुँच को प्रतिबंधित करती हैं।
  • RTI कार्यकर्ताओं को धमकियाँ: कार्यकर्ताओं को प्रायः उत्पीड़न और धमकी का सामना करना पड़ता है।
  • विषम लैंगिक प्रतिनिधित्व: वर्ष 2005 से अब तक केवल 9% आयुक्त महिलाएँ रही हैं।
  • दंड का डर (DPDP): यदि PIO गलत जानकारी का खुलासा करते हैं, तो उन पर भारी जुर्माना (₹250 करोड़ तक) लग सकता है, जिससे वे सूचना देने से इनकार कर देते हैं।
  • जनता और मीडिया की उदासीनता: पूर्व के RTI संशोधनों के विपरीत, DPDP में बदलावों को “डेटा सुरक्षा” के रूप में प्रस्तुत किए जाने के कारण सीमित ध्यान मिला है।

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RTI अधिनियम की धारा 8(1)(j): मूल उद्देश्य, DPDP संशोधन और पारदर्शिता पर प्रभाव

  • धारा 8(1)(j) और इसका मूल उद्देश्य: इस अधिनियम में राष्ट्रीय सुरक्षा, संप्रभुता और गोपनीयता की रक्षा के लिए सीमित छूट शामिल थीं। धारा 8(1)(j) विशेष रूप से व्यक्तिगत जानकारी से संबंधित थी।
    • मूल प्रावधान: व्यक्तिगत जानकारी देने से इनकार केवल तभी किया जा सकता था, जब उसका सार्वजनिक गतिविधि से कोई संबंध न हो या वह निजता का अनुचित उल्लंघन हो, जब तक कि व्यापक जनहित न हो।
    • प्रावधान: जो जानकारी संसद या राज्य विधानमंडलों को देने से इनकार नहीं की जा सकती, उसे नागरिकों को देने से इनकार नहीं किया जा सकता। यह प्रावधान पारदर्शिता और निजता के मध्य संतुलन बनाने के लिए जन सूचना अधिकारियों (PIOs) को मार्गदर्शन प्रदान करता है।
    • निजता संबंधी विचार: सूचना पर प्रतिबंध अनुच्छेद 19(2) के अनुरूप होने चाहिए, जहाँ केवल शालीनता या नैतिकता ही सूचना रोकने का वैध आधार बन सकते हैं।
  • ‘व्यक्तिगत जानकारी’ की अस्पष्टता
    • DPDP संशोधन: डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण (DPDP) अधिनियम, 2023 ने धारा 8(1)(j) को संशोधित कर केवल छह शब्द में व्याख्या कर दी गई: ‘Information which relates to Personal Information’ (व्यक्तिगत जानकारी से संबंधित सूचना)”
    • व्याख्या का मुद्दा
      • प्राकृतिक व्यक्ति व्याख्या: ‘व्यक्ति’ को व्यक्तियों तक सीमित करता है।
      • DPDP परिभाषा: ‘व्यक्ति’ का विस्तार करते हुए इसमें हिंदू अविभाजित परिवार, फर्म, कंपनियाँ, संघ और राज्य शामिल हैं।
    • निहितार्थ: यदि DPDP की व्यापक परिभाषा को अपनाया जाता है, तो लगभग सभी सरकारी सूचनाओं को अस्वीकार किया जा सकता है, जिससे RTI, सूचना न देने के अधिकार (RDI) में परिवर्तित हो जाएगा।
    • PIOs आशंका: सख्त जुर्माने (₹250 करोड़ तक) जानकारी के प्रकटीकरण को हतोत्साहित करते हैं।
  • पारदर्शिता और जवाबदेही पर प्रभाव
    • सार्वजनिक निगरानी का अभाव: भ्रष्टाचार के विरुद्ध नागरिक सबसे आवश्यक निगरानीकर्ता हैं। सूचना देने से इनकार करने से निगरानी कमजोर होती है, विशेषतः जहाँ भ्रष्टाचार-विरोधी निकायों को सीमित सफलता मिली हो।
    • आवश्यक जानकारी देने से इनकार: यहाँ तक कि संशोधित मार्कशीट, पेंशन सूची या आधिकारिक आदेश जैसे सामान्य दस्तावेजों को भी व्यक्तिगत जानकारी के रूप में छिपाया जा सकता है। उदाहरणों में, राजस्थान के पेंशन डेटा को फर्जी लाभार्थियों को रोकने के लिए प्रयोग किया जा रहा है।
    • भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना: फर्जी कर्मचारियों या भ्रष्टाचार के आरोपों का विवरण छिपाकर, यह संशोधन कदाचार को निरंतर जारी रखने में सक्षम बनाता है।
    • जनहित खंड की सीमित उपयोगिता: धारा 8(2) व्यापक जनहित में प्रकटीकरण की अनुमति देती है, लेकिन इसका व्यावहारिक अनुप्रयोग दुर्लभ और कठिन है, जिससे इस खंड पर निर्भरता अत्यधिक सीमा तक अप्रभावी हो जाती है।

आगे की राह

  • छूटों को स्पष्ट करना: मनमाने ढंग से इनकार को रोकने और जनहित परीक्षण को मजबूत करने के लिए व्यक्तिगत जानकारी को पुनर्परिभाषित करना।
  • सक्रिय प्रकटीकरण को बढ़ावा देना: धारा 4 के पूर्ण कार्यान्वयन को अनिवार्य करना, जिससे RTI अनुरोधों पर निर्भरता कम हो।
  • नागरिक जागरूकता और लामबंदी: RTI के सक्रिय उपयोग को प्रोत्साहित करने और लोकतांत्रिक पारदर्शिता की रक्षा के लिए, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों में, जन अभियान चलाना।
  • रिक्तियों को भरना और लंबित मामलों को कम करना: समय पर नियुक्तियाँ और सुव्यवस्थित केस प्रबंधन दक्षता में सुधार कर सकते हैं।
  • सक्रिय प्रकटीकरण को मजबूत करना: अधिकारियों को महत्त्वपूर्ण शासन संबंधी जानकारी का सक्रिय रूप से खुलासा करना चाहिए।
  • नौकरशाही प्रतिरोध से बचना: अनिवार्य प्रशिक्षण और इनकार करने पर कठोर दंड के द्वारा अनुपालन में सुधार कर सकते हैं।
  • कार्यकर्ताओं की सुरक्षा सुनिश्चित करना: व्हिसलब्लोअर संरक्षण अधिनियम का पूर्ण कार्यान्वयन आवश्यक है।
  • RTI की मूल भावना को पुनर्स्थापित करना: संशोधनों में ‘व्यक्तिगत जानकारी’ को स्पष्ट किया जाना चाहिए, RTI को DPDP के साथ सुसंगत बनाया जाना चाहिए और जनहित खंड को मजबूत किया जाना चाहिए।
  • राजनीतिक और नागरिक सहभागिता: मीडिया, नागरिक समाज और नागरिकों को राजनीतिक दलों पर RTI की रक्षा करने और इसे RDI द्वारा प्रतिस्थापित होने से रोकने के लिए दबाव डालना चाहिए।

निष्कर्ष

सूचना का अधिकार (RTI) लोकतांत्रिक जवाबदेही और शासन में पारदर्शिता सुनिश्चित करने का एक सशक्त माध्यम है। इसकी प्रभावशीलता को पुनः बहाल करने के लिए, भारत को पारदर्शिता के प्रति अपनी प्रतिबद्धता को सुदृढ़ करना होगा, RTI कार्यकर्ताओं की सुरक्षा सुनिश्चित करनी होगी और RTI प्रावधानों का उचित कार्यान्वयन सुनिश्चित करना होगा। जैसा कि डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने कहा था, ‘लोकतंत्र केवल एक अधिकार नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी है।’ इस जिम्मेदारी को पूरा करने और एक पारदर्शी, जवाबदेह सरकार सुनिश्चित करने के लिए RTI आवश्यक है।

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