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कच्चातिवु, पाक जलडमरूमध्य विवादों पर आगे की राह

Lokesh Pal September 15, 2025 02:25 58 0

संदर्भ

भारत और श्रीलंका के मध्य पाक जलडमरूमध्य में मत्स्यपालन और कच्चातिवु द्वीप की संप्रभुता को लेकर लंबे समय से विवाद चल रहा है, जिसे यदि विवेकपूर्ण तरीके से निपटाया जाए तो यह संघर्ष के बजाय क्षेत्रीय सहयोग का प्रतीक बन सकता है।

कच्चातिवु की भौगोलिक विशेषताएँ

  • स्थान: पाक जलडमरूमध्य में 285 एकड़ का एक निर्जन द्वीप, भारत और श्रीलंका के मध्य रणनीतिक रूप से अवस्थित है।
  • निकटता: भारतीय तट (रामेश्वरम) से 33 किमी., जाफना (श्रीलंका) से 62 किमी. और डेल्फ्ट द्वीप (श्रीलंका) से 24 किमी. दूर।
  • आकार: लंबाई 1.6 किमी. और सबसे चौड़े बिंदु पर 300 मीटर।
  • आवास: पेयजल का कोई स्रोत नहीं; स्थायी निवास के लिए अनुपयुक्त।
  • धार्मिक संबंध: यहाँ सेंट एंथोनी चर्च (20वीं शताब्दी के प्रारंभ में) अवस्थित है, जहाँ एक वार्षिक उत्सव आयोजित होता है, जिसमें भारत और श्रीलंका दोनों के श्रद्धालु शामिल होते हैं।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

  • भू-वैज्ञानिक उत्पत्ति: 14वीं शताब्दी में एक ज्वालामुखी विस्फोट से निर्मित हुआ था।
  • प्रारंभिक नियंत्रण: प्रारंभ में जाफना साम्राज्य (श्रीलंका) के अधीन; बाद में रामनाद जमींदारी (तमिलनाडु क्षेत्र) के अधीन था।
  • औपनिवेशिक विवाद: ब्रिटिश भारत और ब्रिटिश सीलोन, दोनों ने वर्ष 1921 में मत्स्यन क्षेत्र की सीमाएँ तय करने के लिए इस द्वीप पर दावा किया। एक सर्वेक्षण में इसे सीलोन के अधिकार क्षेत्र में दर्शाया गया, किंतु रामनाद पर नियंत्रण का आधार प्रस्तुत करते हुए भारत ने अपने दावे बनाए रखे। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भी यह विवाद वर्ष 1974 तक बना रहा।
  • वर्ष 1974 का समझौता (इंदिरा गांधी-सिरिमावो भंडारनायके): कच्चातिवु को श्रीलंका का हिस्सा माना गया।
  • वर्ष 1976 का समझौता: मन्नार की खाड़ी और बंगाल की खाड़ी में विशिष्ट आर्थिक क्षेत्र (EEZ) स्थापित किए गए। दोनों पक्ष एक-दूसरे के जलक्षेत्र में मत्स्यन न करने पर सहमत हुए।

भारत-श्रीलंका समुद्री सीमा समझौता, 1974: प्रमुख प्रावधान

  • अनुच्छेद-4 – संप्रभुता: प्रत्येक देश अपनी सीमा के अपने-अपने हिस्से में आने वाले जल, द्वीपों, महाद्वीपीय शेल्फ और उप-भूमि पर संप्रभुता, अनन्य अधिकार क्षेत्र और नियंत्रण का प्रयोग करेगा।
  • अनुच्छेद-5 – कच्चातिवु तक पहुँच: हालाँकि कच्चातिवु द्वीप पर संप्रभुता श्रीलंका को प्राप्त थी, फिर भी भारतीय मछुआरों और तीर्थयात्रियों को वार्षिक सेंट एंथोनी उत्सव जैसे आयोजनों के लिए बिना यात्रा दस्तावेजों या वीजा के वहाँ जाने का अधिकार प्राप्त था।
  • अनुच्छेद-6 – पारंपरिक अधिकार: दोनों देशों के जहाजों को एक-दूसरे के जलक्षेत्र में पारंपरिक अधिकार प्राप्त होंगे।
  • अनुच्छेद-7 – साझा संसाधन दोहन: यदि कोई भू-वैज्ञानिक संसाधन भंडार (पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, खनिज) सीमा पार विस्तृत है, तो दोनों देश संयुक्त दोहन और आय के बँटवारे के संबंध में सहमति बनाएँगे।

  • यूनाइटेड नेशन्स कन्वेन्शन ऑन द लॉ ऑफ द सी (United Nations Convention on the Law of the Sea- UNCLOS) की रूपरेखा: भारत और श्रीलंका के मध्य वर्ष 1974 और वर्ष 1976 के समझौते UNCLOS के अनुसार समुद्री सीमा का सीमांकन करते हैं।
  • समान दूरी का सिद्धांत (Equidistance principle): समुद्री सीमाएँ सामान्यतः समान दूरी के सिद्धांत द्वारा निर्धारित की जाती हैं, जिसके तहत दोनों देशों के तटों से समान दूरी पर एक मध्य रेखा खींची जाती है।
  • समायोजित समान दूरी रेखा (Adjusted Equidistant Line): वर्ष 1974 के समझौते में, एक कठोर मध्य रेखा के बजाय, एक समायोजित समान दूरी रेखा खींची गई थी, जिसमें एक पक्ष को दूसरे पक्ष के लाभ के लिए कुछ समुद्री क्षेत्र प्रदान किए गए थे।
    • इस समायोजन के तहत, कच्चातिवु द्वीप अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा (International Maritime Boundary Line- IMBL) के श्रीलंकाई हिस्से में आ गया।
    • बाद में दोनों देशों ने UNCLOS के तहत समझौतों को अधिसूचित किया।

समस्या के कारण

कानूनी स्पष्टता के बावजूद, व्यावहारिक चुनौतियाँ जारी हैं:

  • मत्स्यपालन पर निर्भरता: भारतीय सीमा में घटते मत्स्य भंडार का सामना कर रहे तमिलनाडु के मछुआरे श्रीलंकाई जलक्षेत्र में प्रवेश करते हैं।
  • बॉटम ट्रॉलिंग: भारतीय मशीनीकृत ट्रॉलरों की विनाशकारी गतिविधियाँ समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुँचाती हैं और श्रीलंकाई तमिल मछुआरों को प्रभावित करती हैं।
  • गृहयुद्ध के बाद की कार्रवाई: वर्ष 2009 के पश्चात् श्रीलंकाई नौसेना की गश्त में वृद्धि के कारण भारतीय मछुआरों की गिरफ्तारी एवं मौतों की घटनाएँ सामान्य हो गईं, जिससे तमिलनाडु में तीव्र घरेलू राजनीतिक आक्रोश उत्पन्न हुआ।
  • गिरफ़्तारियों में तेजी: वर्ष 2024 में, श्रीलंकाई नौसेना ने 528 भारतीय मछुआरों को गिरफ्तार किया, जो पिछले वर्षों की तुलना में उल्लेखनीय वृद्धि दर्शाता है।
    • समुद्र में मौतें: विदेश मंत्रालय के अनुसार, वर्ष 2021 में श्रीलंकाई जलक्षेत्र में 5 भारतीय मछुआरे और वर्ष 2024 में 2 मछुआरे मारे गए।
  • घरेलू दबाव: तमिलनाडु राज्य विधानसभा और विभिन्न दलों के नेताओं ने बार-बार कच्चातिवु द्वीप को वापस लाने की माँग की है और सर्वोच्च न्यायालय में याचिकाएँ दायर की हैं।

बॉटम ट्रॉलिंग समस्या (Bottom Trawling Problem)

  • विनाशकारी मत्स्यन प्रथा: भारतीय मशीनीकृत ट्रॉलर बॉटम ट्रॉलिंग करते हैं, जिसमें समुद्र तल की ड्रिलिंग शामिल है और इससे समुद्री जैव विविधता को गंभीर नुकसान पहुँचता है।
  • ऐतिहासिक प्रोत्साहन: समुद्री खाद्य निर्यात को बढ़ावा देने के लिए, नॉर्वे की सहायता से, 1950 और 1970 के दशकों के मध्य भारत में इस पद्धति को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित किया गया था।
  • संसाधनों का ह्रास: भारतीय पक्ष में समुद्री संसाधनों के अत्यधिक दोहन ने मछुआरों को बेहतर मत्स्यन की तलाश में श्रीलंकाई जलक्षेत्र में जाने के लिए मजबूर किया है।
  • नियामक उपाय: श्रीलंका ने वर्ष 2017 में बॉटम ट्रॉलिंग पर प्रतिबंध लगा दिया था। भारत ने भी वर्ष 2016 में इस प्रथा को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने पर सहमति व्यक्त की थी, लेकिन इसका प्रवर्तन कमजोर और असंगत रहा है।

बॉटम ट्रॉलिंग क्या है?

‘बॉटम ट्रॉलिंग’ एक मत्स्यन प्रक्रिया है, जिसमें बड़े, मशीनी ट्रॉलर रोलर्स भारी जालों को समुद्र तल पर खींचते हैं। ये जाल अपने मार्ग में आने वाली हर वस्तु को, जिसमें मछलियाँ और अन्य समुद्री जीव शामिल हैं, खींच लेते हैं।

बॉटम ट्रॉलिंग का प्रभाव

  • समुद्री जैव विविधता का ह्रास: यह प्रथा लक्षित और गैर-लक्षित दोनों प्रकार की प्रजातियों का अंधाधुंध शिकार करती है, जिससे अत्यधिक मत्स्यन और प्रवाल भित्तियों तथा समुद्री घास की परतों जैसे संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्रों का विनाश होता है।
  • आवास विनाश: समुद्र तल पर निरंतर मत्स्यन से प्रजनन स्थल और नितलीय आवासों को नुकसान पहुँचता है, जिससे दीर्घकालिक मत्स्य उत्पादकता को खतरा होता है।
  • आजीविका संबंधी चिंताएँ: समुद्री संसाधनों के ह्रास से पारंपरिक मछुआरों के लिए मत्स्य भंडार कम हो जाता है, जिससे संघर्ष बढ़ जाते हैं, विशेषकर भारत-श्रीलंका पाक खाड़ी क्षेत्र जैसे संवेदनशील क्षेत्रों में।
  • कार्बन पृथक्करण: अवसादों के निष्कर्षण से संगृहीत कार्बन उत्सर्जित होता है, जिससे समुद्री प्रदूषण बढ़ता है और समुद्री जलवायु लचीलापन कमजोर होता है।

PW OnlyIAS विशेष

इंटरनेशनल लॉज ऑन फ्रीडम ऑफ फिशिंग (International Laws on Freedom of Fishing)

  • उच्च सागर स्वतंत्रता: अनुच्छेद-87 सभी राज्यों को राष्ट्रीय अधिकार क्षेत्र से परे, ‘हाई सी’ में मत्स्यन की स्वतंत्रता प्रदान करता है; जिसका प्रयोग अन्य राज्यों के हितों और अंतरराष्ट्रीय कानून का उचित ध्यान रखते हुए किया जाएगा।
  • संरक्षण कर्तव्य: ‘हाई सी’ में जीवित संसाधनों के संरक्षण और प्रबंधन में राज्यों को सहयोग करना होगा; राज्यों को अत्यधिक मत्स्यन, अतिदोहन को रोकने और स्थिरता सुनिश्चित करने के उपाय अपनाने होंगे।

यूनाइटेड नेशन्स फिश स्टॉक्स एग्रीमेंट(1995)

  • यह UNCLOS को पूरक बनाते हुए, स्ट्रैडलिंग और अत्यधिक मत्स्य भंडार के संरक्षण और सतत् उपयोग के लिए एक रूपरेखा प्रदान करता है।

कच्चातिवु पर तमिलनाडु की स्थिति

  • प्रारंभिक विरोध: तत्कालीन सरकार के इस कदम का विरोध राज्य विधानसभा की अवहेलना और रामनाद जमींदारी पर ऐतिहासिक नियंत्रण की अनदेखी के कारण हुआ।।
  • वर्ष 1991 का प्रस्ताव: तमिलनाडु विधानसभा ने भारत के श्रीलंका में असफल हस्तक्षेप के बाद कच्चातिवु को पुनः प्राप्त करने और मछुआरों के अधिकारों की बहाली की माँग की।
  • कानूनी मुकदमेबाजी
    • वर्ष 2008: जे. जयललिता ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की, जिसमें तर्क दिया गया कि क्षेत्र सौंपने के लिए संविधान संशोधन की आवश्यकता है।
    • वर्ष 2011: मुख्यमंत्री के रूप में, उन्होंने राज्य विधानसभा में एक नया प्रस्ताव पारित किया और मछुआरों की बढ़ती गिरफ्तारियों का हवाला देते हुए फिर से सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया।

कच्चातिवु पर भारत सरकार का रुख

  • विवादित क्षेत्र: केंद्र सरकार ने तर्क दिया कि कच्चातिवु हमेशा से ही विवादित रहा है; इसलिए, न तो कोई भारतीय क्षेत्र सौंपा गया और न ही संप्रभुता का त्याग किया गया।
    • वर्ष 1974 और वर्ष 1976 के समझौतों के तहत, कच्चातिवु को अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा के श्रीलंकाई हिस्से में रखा गया था।
  • राज्यसभा में वर्ष 2022 का वक्तव्य: पुनः दोहराया गया कि कच्चातिवु अंतरराष्ट्रीय समुद्री सीमा रेखा के श्रीलंकाई हिस्से में स्थित है, इसलिए इस द्वीप को पुनः प्राप्त करना ‘असंभव’ है और यह मामला अभी भी सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन है।

कच्चातिवु का महत्त्व

  • भू-राजनीतिक आयाम
    • पाक जलडमरूमध्य एक रणनीतिक बिंदु है, जो बंगाल की खाड़ी को हिंद महासागर से जोड़ता है।
    • यह मुद्दा भारत की ‘नेबरहुड फर्स्ट’ नीति और श्रीलंका में चीनी प्रभाव का मुकाबला करने की क्षमता का आकलन करता है।
  • आर्थिक आयाम
    • मछलियों, झींगों और जलीय संसाधनों से समृद्ध यह क्षेत्र तमिलनाडु के हजारों मछुआरा परिवारों का भरण-पोषण करता है।
    • अत्यधिक मत्स्यन और विनाशकारी प्रक्रियाओं के कारण ‘ब्लू इकोनॉमी’ की परिकल्पना और दीर्घकालिक स्थिरता को खतरा है।
  • सुरक्षा आयाम
    • अवैध पारगमन से समुद्री सुरक्षा जटिल हो जाती है, जिससे तस्करी, समुद्री डकैती और घुसपैठ का खतरा बढ़ जाता है।
    • भारत को मछुआरों के अधिकारों को व्यापक तटीय सुरक्षा आवश्यकताओं के साथ संतुलित करना होगा।
  • कानूनी आयाम
    • वर्ष 1974 और वर्ष 1976 के समझौते अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत बाध्यकारी संधियाँ हैं और UNCLOS ढाँचे में पंजीकृत हैं।
    • किसी भी एकतरफा वापसी से भारत की संधि की विश्वसनीयता कम हो जाएगी, जिसका प्रभाव भविष्य की समुद्री वार्ताओं पर पड़ेगा।
  • मानवीय और राजनीतिक आयाम
    • मछुआरों की गिरफ्तारी और हिरासत में हिंसा मानवाधिकारों के प्रति चिंताएँ उत्पन्न करती है।
    • यह विवाद तमिलनाडु में राजनीतिक रूप से संवेदनशील है, जहाँ आजीविका, सांस्कृतिक संबंध और पहचान के मुद्दे एक साथ जुड़े हुए हैं।

असली मुद्दा: मत्स्य प्रबंधन, संप्रभुता नहीं

  • कच्चातिवु की संप्रभुता का मामला तो सुलझा लिया गया है, लेकिन मत्स्यपालन प्रशासन का मामला अभी भी अनसुलझा है।
  • यह विवाद असंवहनीय प्रथाओं, वैकल्पिक आजीविका के अभाव और अपर्याप्त द्विपक्षीय सहयोग तंत्रों में निहित है।

आगे की राह

  • सतत् मत्स्य प्रबंधन (Sustainable Fisheries Management)
    • विनाशकारी प्रथाओं पर प्रतिबंध लगाना: बॉटम ट्रॉलिंग को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने की भारत की प्रतिबद्धता को सख्ती से लागू करना।
    • विकल्प प्रस्तुत करना: ट्रॉल से टूना में रूपांतरण, गहरे समुद्र में मत्स्यन और सतत् उपकरणों को बढ़ावा देना।
  • द्विपक्षीय सहयोग
    • समय/कोटा साझाकरण मॉडल: बाल्टिक सागर मत्स्यपालन अभिसमय से प्रेरित होकर, पाक की खाड़ी में मत्स्यन के लिए चक्रीय समय निर्धारित करना।
    • संयुक्त अनुसंधान केंद्र: वैज्ञानिक सहयोग बढ़ाने के लिए कच्चातिवु में एक समुद्री निगरानी केंद्र स्थापित करना।
    • संस्थागत संवाद: मत्स्यपालन पर भारत-श्रीलंका संयुक्त कार्य समूह को सुदृढ़ बनाना।
  • आर्थिक एवं आजीविका उपाय
    • गहरे समुद्र में मत्स्यन का परिवर्तन: मछुआरों को तटीय जल से आगे बढ़ने के लिए सब्सिडी, ऋण और प्रशिक्षण प्रदान करना।
    • संयुक्त उद्यम: भारत-श्रीलंकाई तमिल मत्स्यन वाली सहकारी समितियों को प्रोत्साहित करना।
    • ब्लू इकोनॉमी पर ध्यान: मछुआरों के कल्याण को भारत के ब्लू इकोनॉमी@2030 रोडमैप से जोड़ना।
  • राजनयिक पहल
    • सहयोगात्मक समुद्री प्रशासन के लिए नेबरहुड फर्स्ट और सागर (क्षेत्र में सभी के लिए सुरक्षा और विकास) का लाभ उठाना।
    • यह सुनिश्चित करना कि यह मुद्दा श्रीलंका के साथ व्यापक आर्थिक और सुरक्षा सहयोग (ऊर्जा, बंदरगाह, व्यापार) को बाधित न करे।
  • संघीय सहयोग
    • तमिलनाडु सरकार को वार्ता में शामिल करना, सहकारी संघवाद सुनिश्चित करना और केंद्र-राज्य संघर्ष को कम करना।

सहयोग के मॉडल

  • बाल्टिक सागर मत्स्यपालन अभिसमय (Baltic Sea Fisheries Convention): समान कोटा-साझाकरण।
  • नॉर्वे-रूस मत्स्यपालन संधि (Norway–Russia Fisheries Treaty): अतिव्यापी संसाधनों का संयुक्त प्रबंधन; बैरेंट्स सागर में साझा मत्स्य भंडार का प्रबंधन।
  • भारत-बांग्लादेश (वर्ष 2015 भूमि सीमा समझौता): यह भारत की घरेलू चिंताओं को संतुलित करते हुए विवादों को शांतिपूर्ण ढंग से निपटाने की क्षमता को दर्शाता है।

निष्कर्ष

कच्चातिवु संप्रभुता का मुद्दा सुलझ गया है, लेकिन पारिस्थितिकी, आर्थिक और राजनीतिक दबावों के कारण मत्स्यपालन विवाद अभी भी जारी है। पुरानी संधियों पर पुनः चर्चा से भारत की अंतरराष्ट्रीय विश्वसनीयता को नुकसान पहुँचेगा, लेकिन मछुआरों के संकट को नजरअंदाज करने से घरेलू अस्थिरता का खतरा पैदा हो सकता है। इसका समाधान स्थायी मत्स्यपालन प्रथाओं, सहकारी तंत्रों और आजीविका विविधीकरण में निहित है।

यदि व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाया जाए तो पाक जलडमरूमध्य विभाजन रेखा सहयोग का सेतु बन सकता है, जिससे भारत–श्रीलंका संबंध सुदृढ़ होंगे और क्षेत्रीय सागर तथा ब्लू इकोनॉमी की दृष्टि मजबूत होगी।

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