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संसद द्वारा तीन नए आपराधिक कानून विधेयक पारित (Three new criminal law bills passed by Parliament)

Samsul Ansari December 30, 2023 04:08 270 0

संदर्भ

हाल ही में राष्ट्रपति ने संसद द्वारा पारित 3 नए आपराधिक कानून विधेयकों को मंजूरी दे दी है।

संबंधित तथ्य

  • ध्यातव्य है कि केंद्र सरकार द्वारा देश में औपनिवेशिक शासन के दौरान लागू किये गए आपराधिक कानूनों-भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 को प्रतिस्थापित करने  के लिए, भारतीय न्याय संहिता, भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम को अधिनियमित किया गया है।
    • इन कानूनों का उद्देश्य विभिन्न अपराधों और दंडों की स्पष्ट परिभाषा का प्रावधान करके आपराधिक न्याय प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन करना है।
  • आपराधिक कानून और दंड प्रक्रिया भारतीय संविधान की समवर्ती सूची के अंतर्गत आते हैं।
  • इन विधेयकों को सबसे पहले संसद के मानसून सत्र के दौरान अगस्त 2024 में पेश किया गया था, जिसके बाद उन्हें 31 सदस्यीय संसदीय स्थायी समिति के पास भेजा गया था।
  • गृह मामलों की स्थायी समिति द्वारा कई सिफारिशें करने के बाद, सरकार ने विधेयकों को वापस ले लिया और 12 दिसंबर को लोकसभा में उनका संशोधित संस्करण पेश किया था।

भारत में आपराधिक न्याय प्रणाली का इतिहास

  • ब्रिटिश शासन और संहिताकरण: ब्रिटिश शासन के दौरान आपराधिक कानूनों को संहिताबद्ध किया गया था, और यह ढाँचा काफी हद तक आज भी बना हुआ है।
  • लॉर्ड थॉमस बेबिंगटन मैकाले ने ब्रिटिश शासन के दौरान भारत के आपराधिक कानूनों को आकार दिया।
    • उन्हें अक्सर भारत में आपराधिक कानूनों के संहिताकरण का मुख्य वास्तुकार माना जाता है।

आपराधिक कानून सुधार समिति

  • भारत के गृह मंत्रालय ने 4 मई, 2020 को भारत की कानूनी प्रणाली की नींव रखने वाले तीन प्रमुख आपराधिक कानूनों की समीक्षा करने और सुधारों की सिफारिश करने के लिए एक समिति गठित की थी।
    • अध्यक्ष: प्रो. (डॉ.) रणबीर सिंह, पूर्व कुलपति, राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय (National Law University-NLU), दिल्ली।
    • समिति का कार्यक्षेत्र: भारतीय दंड संहिता (IPC), दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) और भारतीय साक्ष्य अधिनियम में बदलावों का आकलन करना और सुझाव देना।

विधेयक की आवश्यकता

  • औपनिवेशिक विरासत: प्रस्तावित तीन विधेयक जटिल और अप्रचलित दंड प्रक्रिया को आधुनिक बनाने और सुव्यवस्थित करने का प्रयास करते हैं।
    • ये परिवर्तन अपराध, समाज और प्रौद्योगिकी के बदलते स्वरूप को दर्शाएँगे, साथ ही साथ कानूनों को भारत की भावना और लोकाचार के करीब लाएँगे।
  • धारा 124 ए औपनिवेशिक विरासत का अवशेष है, जो लोकतंत्र में अनुपयुक्त है क्योंकि यह संवैधानिक रूप से गारंटीकृत वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के वैध प्रयोग पर प्रतिबंध लगाती है। 
  • राजद्रोह कानून का दुरुपयोग: भारतीय दंड संहिता के तहत राजद्रोह (धारा 124 A) का दुरुपयोग राजनीतिक असंतोष को दबाने के लिए किया जाता है।
    • राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau-NCRB) द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार, वर्ष 2014 से 2016 के बीच, ‘राज्य के खिलाफ अपराध’ (Offences against the State’) शीर्षक के तहत राजद्रोह के लिए कुल 179 गिरफ्तारियाँ की गई हैं।
  • लंबित मामले और न्याय में विलंब: IPC, CrPC और भारतीय साक्ष्य अधिनियम की मौजूदा जटिल प्रक्रियाओं ने अदालतों में लंबित मामलों और न्याय वितरण में देरी में योगदान दिया है।
    • 31 दिसंबर, 2022 तक जिला और अधीनस्थ न्यायालयों में लंबित मामलों की कुल संख्या 4.32 करोड़ से अधिक आँकी गई थी।
    • दोषसिद्धि दर कम: प्रचलित कानूनी ढाँचे के परिणामस्वरूप दोषसिद्धि की दर कम रही है, जो आपराधिक कार्यवाही की प्रभावशीलता को बढ़ाने के लिए सुधारों की आवश्यकता को उजागर करती है।
    • वर्ष 2022 की NCRB रिपोर्ट के अनुसार, अखिल भारतीय आधार पर, IPC अपराधों के लिए कुल दोष सिद्धि दर 57% थी।
    • अत्यधिक भीड़भाड़ वाली जेलें और विचाराधीन कैदी: वर्तमान व्यवस्था के कारण जेलें अपनी क्षमता से अधिक भर गई है और बड़ी संख्या में विचाराधीन कैदी अपनी सुनवाई का इंतजार कर रहे हैं।
    • NCRB द्वारा जारी वर्ष 2019 के जेल आँकड़ों की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत की विभिन्न जेलों में 4,78,600 कैदी बंद थे, जबकि उनकी कुल क्षमता 4,03,700 कैदियों की थी।
    • आपराधिक न्याय प्रणाली का आधुनिकीकरण और उदारीकरण: नागरिकों को अपराध की घटना के स्थान की परवाह किए बिना, किसी भी पुलिस स्टेशन पर पुलिस शिकायत दर्ज करने में सक्षम करके, नागरिकों को सशक्त बनाया जा सकता है।
    • यह नागरिकों के मौलिक अधिकारों की प्रभावी ढंग से रक्षा करेगा, जिसमें जीवन, स्वतंत्रता, गरिमा, गोपनीयता और निष्पक्ष सुनवाई के अधिकार शामिल हैं।
  • प्रतिशोधात्मक से सुधारात्मक न्याय: औपनिवेशिक न्याय प्रणाली केवल अपराधियों को दंडित करने पर ही केंद्रित थी, यह अपराधियों के पुनर्वास के उपाय करने और पीड़ितों की सुरक्षा के लिए उपायों को लागू करने में असफल रहा।

भारतीय न्याय संहिता की मुख्य विशेषताएँ:

  • शारीरिक अपराध: भारतीय न्याय संहिता (BNS) ने भारतीय दंड संहिता (IPC) के उन प्रावधानों को बरकरार रखा है जो हत्या, आत्महत्या के लिए उकसाना, हमला और गंभीर चोट पहुँचाने जैसे कृत्यों को अपराध मानते हैं।
    • इसमें संगठित अपराध, आतंकवाद और कुछ आधारों पर किसी समूह द्वारा हत्या या गंभीर चोट जैसे नए अपराध जोड़े गए हैं।

भारतीय दंड संहिता, 1860 [The Indian Penal Code (IPC), 1860]: इसके अंतर्गत निम्नलिखित अपराध शामिल हैं:

  1. मानव शरीर को प्रभावित करने वाले अपराध: जैसे- हमला और हत्या
  2. संपत्ति को प्रभावित करने वाले अपराध: जैसे- जबरन वसूली और चोरी
  3. सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित करने वाले अपराध: जैसे- गैर-कानूनी सभा और दंगा
  4. सार्वजनिक स्वास्थ्य, सुरक्षा, शालीनता, नैतिकता और धर्म को प्रभावित करने वाले अपराध
  5. मानहानि
  6. राज्य के विरुद्ध अपराध

  • महिलाओं के खिलाफ यौन अपराध: यह सामूहिक बलात्कार के मामले में पीड़िता को बालिग के रूप में वर्गीकृत करने की सीमा को 16 से बढ़ाकर 18 वर्ष कर देता है।
    • यह किसी महिला के साथ धोखे से या झूठे वादे करके यौन संबंध बनाने को भी एक दंडनीय अपराध मानता है।
  • राजद्रोह हटाया गया : BNS में से राजद्रोह के अपराध को हटा दिया गया है। इसके बजाय यह निम्नलिखित को दंडित करता है:
  • अलगाव, सशस्त्र विद्रोह, या विध्वंसक गतिविधियों को उत्तेजित करना या उत्तेजित करने का प्रयास करना,
  • अलगाववादी गतिविधियों की भावनाओं को प्रोत्साहित करना, या
  • भारत की संप्रभुता या एकता और अखंडता को खतरे में डालना।
    • इन अपराधों में शब्दों या संकेतों का आदान-प्रदान, इलेक्ट्रॉनिक संचार या वित्तीय साधनों का उपयोग शामिल हो सकता है।
  • आतंकवाद: BNS की धारा 113 ने गैर-कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) अधिनियम, 1967 [Unlawful Activities (Prevention) Act-UAPA] की धारा 15 के तहत मौजूदा परिभाषा को अपनाने के लिए आतंकवाद के अपराध की परिभाषा को संशोधित किया।
    • आतंकवाद में वह कार्य शामिल है जिसका उद्देश्य है:
    • देश की एकता, अखंडता, सुरक्षा या आर्थिक सुरक्षा को खतरा हो, या
    • भारत के लोगों या लोगों के किसी भी वर्ग में आतंक पैदा करना हो।
    • आतंकवाद का प्रयास करने या उसका निष्पादन करने के लिए सजा में शामिल हैं:
    • यदि इसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है तो मृत्यु या आजीवन कारावास और जुर्माना
  • पाँच वर्ष से लेकर आजीवन कारावास और जुर्माना।
    • BNS तथा UAPA के अंतर्गत आतंकवादी कार्य में अंतर: UAPA के तहत आतंकवादी कृत्यों में केवल उच्च गुणवत्ता वाले नकली भारतीय कागजी मुद्रा, सिक्के या किसी अन्य सामग्री का उत्पादन या तस्करी या संचालन शामिल है।
    • BNS किसी भी जाली भारतीय कागजी मुद्रा, सिक्का या किसी अन्य सामग्री के संबंध में समान गतिविधियों को शामिल करने के लिए इस परिभाषा को व्यापक बनाता है।
    • आतंकवादियों को प्रशिक्षित करना: आतंकवादी कृत्यों में शामिल होने के लिए व्यक्तियों को भर्ती करने और प्रशिक्षण देने को अपराध के रूप में पेश किया गया है, जो यूएपीए की धारा 18A  और 18B  से मिलता जुलता है।
  • संगठित अपराध: इसमें अपहरण, जबरन वसूली, कॉन्ट्रैक्ट हत्या, जमीन पर कब्जा, वित्तीय घोटाले और साइबर अपराध जैसे अपराध शामिल हैं, जो एक संगठित गिरोह द्वारा किए जाते हैं।

    • संगठित अपराध का प्रयास करना या संगठित अपराध करना दंडनीय होगा:
    • यदि इसके परिणामस्वरूप किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है, तो मृत्यु या आजीवन कारावास और 10 लाख रुपये का जुर्माना, या
    • पाँच वर्ष से लेकर आजीवन कारावास और कम-से-कम पाँच लाख रुपये का जुर्माना।
  • मॉब लिंचिंग: जाति, धर्म, लिंग, भाषा या व्यक्तिगत विश्वास के आधार पर पाँच या अधिक लोगों द्वारा की गई हत्या या गंभीर चोट को अपराध के रूप में शामिल किया गया है।
    • ऐसी हत्या के लिए आजीवन कारावास या मृत्युदंड का प्रावधान है।
    • कर्तव्यों के आधिकारिक निर्वहन को प्रभावित करने वाली आत्महत्याओं का अपराधीकरण: लोक सेवक को अपने आधिकारिक कर्तव्य निर्वहन से रोकने के इरादे से आत्महत्या का प्रयास अपराध बना दिया गया है।
    • इसके लिए अधिकतम एक वर्ष का कारावास और सामुदायिक सेवा का प्रावधान है। यह प्रावधान विरोध प्रदर्शनों के दौरान आत्मदाह और भूख हड़ताल को रोकने के लिए लागू किया जा सकता है।
    • फर्जी भाषणया फेक स्पीच: भारतीय दंड संहिता (IPC) में “घृणास्पद भाषण” के प्रावधान को संबोधित करने के लिए धारा 153B शामिल है। यह धारा समुदायों के बीच “विद्वेष या शत्रुता की भावना या घृणा अथवा दुर्भावना” पैदा करने को अपराध बनाती है।
    • BNS ने झूठी और भ्रामक जानकारी के प्रकाशन को अपराध घोषित करने के लिए एक नया प्रावधान पेश किया है।
    • सर्वोच्च न्यायालय के फैसले: BNS, सर्वोच्च न्यायालय के कुछ फैसलों के अनुरूप है।
    • इसमें व्यभिचार को अपराध की सूची से हटाना और हत्या या हत्या के प्रयास के लिए आजीवन कारावास को मृत्युदंड के अतिरिक्त सजा के रूप में शामिल करना शामिल है।
    • अदालती कार्यवाही का अनधिकृत प्रकाशन: धारा 73 में बलात्कार या यौन उत्पीड़न के मामलों में अदालती कार्यवाही से संबंधित ‘किसी भी मामले’ को बिना अनुमति के छापने या प्रकाशित करने पर दो वर्ष की जेल  और जुर्माने का प्रावधान है। 
    • उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों पर रिपोर्ट इस प्रावधान के अंतर्गत अपराध नहीं मानी जाएगी।
    • मानसिक विकार  के स्थान पर अस्वस्थ दिमाग (मन की अस्वस्थता) का प्रयोग: यह अधिकांश प्रावधानों में ‘मानसिक बीमारी’ शब्द को ‘मन की अस्वस्थता’ से बदल देता है क्योंकि ‘मानसिक बीमारी’ शब्द बहुत व्यापक है और इसमें मनोदशा में बदलाव और स्वैच्छिक नशा भी शामिल हो सकता है। .
    • धारा 367 (मुकदमा चलाने की क्षमता) में मानसिक अस्वस्थता के साथ ‘बौद्धिक अक्षमता’ शब्द भी जोड़ा गया है।
    • छोटे संगठित अपराध को पुनर्परिभाषित किया गया: संशोधित विधेयक में छोटे संगठित अपराध की एक सटीक परिभाषा शामिल है।
    • इसके अंतर्गत चोरी में छल से चोरी, वाहन, आवास या व्यावसायिक परिसर से चोरी, कार्गो चोरी, पॉकेटमारी, कार्ड स्किमिंग के माध्यम से चोरी, दुकान से चोरी और स्वचालित टेलर मशीन (ATM) की चोरी शामिल होगी।
    • सामुदायिक सेवा: इसमें सामुदायिक सेवा को सजा के रूप में जोड़ा गया है। यह इस सजा को निम्नलिखित अपराधों तक विस्तारित करता है:
  • 5,000 रुपये से कम मूल्य की संपत्ति की चोरी,
  • एक लोक सेवक को रोकने के इरादे से आत्महत्या करने का प्रयास, और
  • नशे में सार्वजनिक स्थान पर उपस्थित होना और परेशानी पैदा करना

प्रमुख चुनौतियाँ:

  • आपराधिक जिम्मेदारी की उम्र: IPC के तहत, सात वर्ष से कम उम्र के बच्चे द्वारा किया गया कोई भी अपराध, अपराध नहीं माना जाता है। यदि यह पाया जाता है कि बच्चा अपने आचरण की प्रकृति और परिणामों को समझने की क्षमता नहीं रखता है, तो आपराधिक जिम्मेदारी की आयु बढ़कर 12 वर्ष हो जाती है।
    • BNS ने इन प्रावधानों को बरकरार रखा है। यह उम्र अन्य देशों में आपराधिक जिम्मेदारी की उम्र से कम है।
    • उदाहरण के लिए, जर्मनी में आपराधिक जिम्मेदारी की उम्र 14 वर्ष है, जबकि इंग्लैंड और वेल्स में यह 10 वर्ष है।
    • वर्ष 2007 में, संयुक्त राष्ट्र की एक समिति ने सिफारिश की कि राज्यों को आपराधिक जिम्मेदारी की आयु 12 वर्ष से अधिक निर्धारित करनी चाहिए।
  • राजद्रोह के पहलुओं का संरक्षण: नया प्रावधान राजद्रोह के अपराध के कुछ पहलुओं को बरकरार रखता है और भारत की एकता तथा अखंडता को खतरे में डालने वाले कृत्यों की श्रेणी को व्यापक बनाता है।
    • ‘विध्वंसक गतिविधियों’ (Subversive activities) जैसे शब्द को भी परिभाषित नहीं किया गया हैं और यह स्पष्ट नहीं की कौन-सी गतिविधियाँ इस योग्यता को पूरा करेंगी।
    • केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य,1962 मामले में संविधान पीठ के फैसले में, सर्वोच्च न्यायालय ने राजद्रोह के आवेदन को सार्वजनिक अव्यवस्था पैदा करने या हिंसा भड़काने के इरादे या प्रवृत्ति के साथ किए गए कृत्यों तक सीमित कर दिया था।
  • एकांत कारावास(Solitary Confinement): एकांत कारावास पर प्रावधान न्यायालय के फैसलों और विशेषज्ञ सिफारिशों के अनुरूप नहीं हैं, यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन कर सकता है।
    • उन्नी कृष्णन और अन्य बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि एकांत कारावास के खिलाफ अधिकार, अनुच्छेद-21 के तहत संरक्षित है।
  • सामुदायिक सेवा का दायरा: यह परिभाषित नहीं करता है कि सामुदायिक सेवा में क्या शामिल होगा और इसे कैसे प्रशासित किया जाएगा
    • गृह मामलों की स्थायी समिति (2023) ने ‘सामुदायिक सेवा’ की अवधि और प्रकृति को परिभाषित करने की सिफारिश की है।
  • महिलाओं के खिलाफ अपराध: BNS ने बलात्कार से संबंधित IPC के प्रावधानों को बरकरार रखा है। इसमें महिलाओं के खिलाफ अपराधों में सुधार पर न्यायमूर्ति वर्मा समिति (2013) और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई कई सिफारिशों को संबोधित नहीं किया गया है।
    • उदाहरण के लिए: IPC की धारा 375 के अनुसार, गैर-सहमति से होने वाले यौन प्रकृति के किसी भीगतिविधि को बलात्कार की परिभाषा में शामिल किया जाना चाहिए।
  • वैवाहिक बलात्कार के अपवाद को हटा दिया जाना चाहिए क्योंकि वैवाहिक बलात्कार को BNS के तहत अपराध नहीं बनाया गया है।

दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (The Code of Criminal Procedure- CrPC):

  • CrPC सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने, अपराधों को रोकने और आपराधिक जाँच करने की पुलिस की शक्तियों को विनियमित करती है।
  • इन शक्तियों में गिरफ्तारी, हिरासत, तलाशी, जब्ती और बल का उपयोग शामिल है।
  • हालाँकि व्यक्तियों के विरुद्ध  पुलिस की इन शक्तियों का दुरुपयोग रोकने के लिए कुछ प्रतिबंध भी हैं, जिससे  पुलिस द्वारा बल के अत्यधिक प्रयोग, अवैध हिरासत, हिरासत में यातना आदि को रोका जा सके।

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता अधिनियम, 2023 (Bharatiya Nagarik Suraksha Sanhita-BNSS) 

  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 ( Code of Criminal Procedure- CrPC) को प्रतिस्थापित करने के लिए 11 अगस्त, 2023 को लोकसभा में BNSS को पेश किया गया था।
  • समिति की कुछ सिफारिशों को शामिल करते हुए भारतीय नागरिक सुरक्षा (द्वितीय) संहिता, 2023 (BNSS) 12 दिसंबर, 2023 को पेश की गई थी।

मुख्य विशेषताएँ: CrPC  भारत में आपराधिक न्याय के प्रक्रियात्मक पहलुओं को विनियमित करती है। BNSS में CrPC के अधिकांश प्रावधानों को बरकरार रखा गया है।

  • अपराधों का पृथक्करणCrPC अपराधों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत करती है: संज्ञेय (Cognisable) और गैर-संज्ञेय (Non-Cognisable)
    • संज्ञेय अपराध वे होते हैं जिनमें पुलिस आरोपी को बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है और जाँच शुरू कर सकती है।
    • गैर-संज्ञेय अपराधों में गिरफ्तारी के लिए वारंट की आवश्यकता होती है और कुछ मामलों में, पीड़ित या तीसरे पक्ष की शिकायत की आवश्यकता होती है।
  • अपराधों की प्रकृति: CrPC यातायात उल्लंघन से लेकर हत्या तक विभिन्न प्रकार के आपराधिक अपराधों (Criminal Offences) से निपटती है।
    • यह जमानती और गैर-जमानती अपराधों के बीच अंतर करता है और उन अपराधों को निर्दिष्ट करता है जिनके लिए आरोपी को पुलिस हिरासत से जमानत का अधिकार है।

प्रस्तावित प्रमुख परिवर्तनों में शामिल हैं

  • विचाराधीन कैदियों की हिरासत: CrPC के अनुसार, यदि किसी आरोपी ने कारावास की अधिकतम अवधि का आधा हिस्सा हिरासत में बिताया है, तो उसे व्यक्तिगत बॉण्ड (Personal Bond) पर रिहा किया जाना चाहिए। हालाँकि यह मृत्युदंड वाले अपराधों पर लागू नहीं होता है।
  • BNSS2 में कहा गया है कि यह प्रावधान निम्नलिखित अपराधों पर भी लागू नहीं होगा:
      • आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध, और 
      • ऐसे व्यक्ति जिनके विरुद्ध एक से अधिक अपराधों में कार्यवाही लंबित है।
  • मेडिकल जाँच: CrPC बलात्कार के मामलों सहित कुछ मामलों में आरोपी की मेडिकल जाँच की अनुमति देता है। ऐसी जाँच कम-से-कम एक सब इंस्पेक्टर स्तर के पुलिस अधिकारी के अनुरोध पर एक पंजीकृत चिकित्सक द्वारा की जाती है।
    • BNSS  प्रावधान करता है कि कोई भी पुलिस अधिकारी ऐसी जाँच का अनुरोध कर सकता है।
  • फोरेंसिक जाँच (Forensic Investigation): BNSS  कम-से-कम सात वर्ष की कैद की सजा वाले अपराधों के लिए फोरेंसिक जाँच को अनिवार्य करता है।
    • ऐसे मामलों में, फोरेंसिक विशेषज्ञ फोरेंसिक साक्ष्य इकट्ठा करने के लिए अपराध स्थलों का दौरा करेंगे और प्रक्रिया को मोबाइल फोन या किसी अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरण के माध्यम से रिकॉर्ड करेंगे।
    • यदि किसी राज्य के पास फोरेंसिक सुविधा नहीं है, तो वह दूसरे राज्य की सुविधाओं का उपयोग कर सकता है।
  • हस्ताक्षर और उँगलियों के निशान (Signatures and finger impressions):  CrPC एक मजिस्ट्रेट को किसी भी व्यक्ति को नमूना हस्ताक्षर या लिखावट (Handwriting) का नमूना  प्रदान करने का आदेश देने का अधिकार देता है।
    • BNSS ने उँगलियों के निशान और आवाज के नमूनों को शामिल करने के लिए इसका विस्तार किया है। यह इन नमूनों को किसी ऐसे व्यक्ति से एकत्र करने की अनुमति देता है जिसे गिरफ्तार नहीं किया गया है।
  • प्रक्रियाओं के लिए समय सीमा: BNSS विभिन्न प्रक्रियाओं के लिए समय सीमा निर्धारित करता है।
    • उदाहरण के लिए, इसमें बलात्कार पीड़ितों की जाँच करने वाले चिकित्सकों को सात दिनों के भीतर जाँच अधिकारी को अपनी रिपोर्ट सौंपने की आवश्यकता होती है।
  • निवारक हिरासत (Preventive Detention): पहले के विधेयक में अस्पष्टता के कारण निवारक हिरासत को तब तक जारी रखने की अनुमति दी गई थी जब तक कि व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के सामने पेश नहीं किया जाता।
    • संशोधित विधेयक में एक सख्त समय सीमा पेश की गई है अर्थात् हिरासत में लिए गए व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाना चाहिए या छोटे मामलों में रिहा किया जाना चाहिए।

महत्वपूर्ण मुद्दे

  • पुलिस हिरासत (Police Custody) की प्रक्रिया में बदलाव: संविधान और CrPC  गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट अदालत तक की यात्रा के लिए आवश्यक समय को छोड़कर 24 घंटे से अधिक पुलिस हिरासत में रखने पर रोक लगाता है।
  • यदि जाँच 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं हो पाती है तो मजिस्ट्रेट को इसे 15 दिन तक बढ़ाने का अधिकार है।
    • BNSS 15 दिनों तक की पुलिस हिरासत की अनुमति देता है, जिसे न्यायिक हिरासत की 60 या 90 दिनों की अवधि के शुरुआती 40 या 60 दिनों के दौरान अलग-अलग हिस्सों में अधिकृत किया जा सकता है। 
      • ऐसे में यदि  पुलिस ने अधिकृत 15 दिन की पुलिस हिरासत की  अवधि को समाप्त नहीं किया है तो न्यायिक हिरासत की पूरी अवधि के लिए जमानत से इनकार किया जा सकता है।
    • इस प्रकार, यह सामान्य आपराधिक कानून के तहत पुलिस हिरासत की अधिकतम सीमा को 15 दिनों से बढ़ाकर 60 दिन या 90 दिन (अपराध की प्रकृति के आधार पर) कर देता है, जिससे पुलिस की ज्यादतियों का जोखिम बढ़ जाता है और नागरिक स्वतंत्रता प्रभावित होती है।
    • स्थायी समिति (2023) ने इस खंड की व्याख्या को स्पष्ट करने की सिफारिश की।
  • हथकड़ी का उपयोग करने की शक्ति: BNSS बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराधों में गिरफ्तारी के दौरान हथकड़ी के उपयोग का प्रावधान करता है।
    • हथकड़ी का उपयोग करने की पुलिस की शक्ति को गिरफ्तारी के समय से परे विस्तारित किया गया है और इसमें अदालत के समक्ष पेशी के चरण को भी शामिल किया गया है।
  • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि हथकड़ी का इस्तेमाल अमानवीय, अनुचित, मनमाना होने के साथ-साथ  अनुच्छेद-21 के प्रावधानों के विपरीत है।
  • अभियुक्त के अधिकार: CrPC के अनुसार, यदि किसी विचाराधीन कैदी ने किसी अपराध के लिए अधिकतम कारावास की आधी सजा काट ली है, तो उसे व्यक्तिगत बॉण्ड (personal bond) के आधार पर रिहा किया जाना चाहिए। यह प्रावधान मौत की सजा वाले अपराधों पर लागू नहीं होता है।
    • BNSS ने इस प्रावधान को बरकरार रखा है और कहा है कि पहली बार के अपराधियों को अधिकतम सजा का एक-तिहाई पूरा करने के बाद जमानत मिल सकती है।
      • हालाँकि, इसमें यह भी कहा गया है कि यह प्रावधान इन पर लागू नहीं होगा:
      • आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध, और 
    • जहाँ एक से अधिक अपराध या कई मामलों में जाँच, पूछताछ या मुकदमा लंबित हो।
    • उदाहरण के लिए, लापरवाही और खतरनाक तरीके से वाहन चलाना मोटर वाहन अधिनियम, 1988 और IPC के तहत दंडनीय अपराध है। आरोप-पत्र (Chargesheet) दाखिल होने पर, एक से अधिक अपराधों के आधार पर विचाराधीन कैदी जमानत के लिए अयोग्य हो सकते हैं।

प्ली बारगेनिंग बचाव (Defense) और अभियोजन (Prosecution) पक्ष के बीच एक समझौता है, जहाँ अभियुक्त (Accused) कम अपराध या सजा के लिए दोष स्वीकारता है।

  • प्ली बारगेनिंग  का दायरा सीमित हो सकता है: प्ली बारगेनिंग को वर्ष 2005 में CrPC में जोड़ा गया था। मृत्युदंड, आजीवन कारावास या सात वर्ष से अधिक कारावास की सजा वाले अपराधों के लिए इसकी अनुमति नहीं है। BNSS इस प्रावधान को बरकरार रखता है।
    • यह भारत में ‘प्ली बारगेनिंग’ (Plea Bargaining) को ‘सेंटेंस बारगेनिंग’ (Sentence Bargaining) तक सीमित कर देता है, यानी आरोपी द्वारा दोष स्वीकार करने की याचिका (Guilty Plea) के बदले में कम (Lighter) सजा की संभावना।
  • संपत्ति की कुर्की पर सुरक्षा उपाय: CrPC पुलिस को संपत्ति जब्त करने की अनुमति देता है। यह केवल चल संपत्तियों पर लागू है। 
    • BNSS2 इसे अचल संपत्तियों तक भी विस्तारित करता है।
    • अपराध की आय से जुड़ी संपत्ति कुर्क करने की शक्ति धन शोधन निवारण अधिनियम में प्रदान नहीं की गई है।
  • मौजूदा कानूनों के साथ ओवरलैप: वर्षों से, आपराधिक प्रक्रिया के विभिन्न पहलुओं को विनियमित करने के लिए विशेष कानून बनाए गए हैं। हालाँकि, BNSS  ने कुछ प्रक्रियाओं को बरकरार रखा है।
    • CrPC के तहत, एक मजिस्ट्रेट किसी व्यक्ति को अपने पिता या माता (जो खुद का भरण-पोषण नहीं कर सकते) के भरण-पोषण के लिए मासिक भत्ता देने के लिए पर्याप्त साधन रखने का आदेश दे सकता है।
    • BNSS ने माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों के भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम, 2007 प्रावधानों की नकल करते हुए इस प्रावधान को बरकरार रखा है।
  • पुलिस को अतिरिक्त शक्तियाँ: यह पुलिस को बिना किसी न्यायिक निगरानी या सुरक्षा उपायों के गिरफ्तार करने, तलाशी लेने, जब्त करने और हिरासत में लेने की व्यापक शक्तियाँ देता है।

आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 यह पुलिस अधिकारियों या जेल अधिकारियों को दोषियों अथवा किसी अपराध के लिए गिरफ्तार किए गए लोगों से कुछ पहचान योग्य जानकारी (जैसे उँगलियों के निशान, जैविक नमूने) एकत्र करने की अनुमति देता है।

  • आपराधिक पहचान के लिए डेटा संग्रह: आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 अपराधियों और अभियुक्तों के डेटा संग्रह की अनुमति देता है, हालाँकि BNSS में डेटा संग्रह प्रावधानों को बनाए रखने और उन पर विस्तार करने की आवश्यकता स्पष्ट नहीं है।
  • आपराधिक प्रक्रिया (पहचान) अधिनियम, 2022 की संवैधानिक वैधता दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष विचाराधीन है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 2023 के बारे में

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (Indian Evidence Act- IEA)

  • यह भारतीय न्यायालयों में साक्ष्य की स्वीकार्यता को विनियमित करता है।
  • यह सभी सिविल और आपराधिक कार्यवाहियों पर लागू होता है।
  • पिछले कुछ वर्षों में, IEA को कुछ आपराधिक सुधारों और तकनीकी प्रगति के साथ संरेखित करने के लिए संशोधित किया गया है।
  • वर्ष 2000 में, द्वितीयक साक्ष्य के रूप में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की स्वीकार्यता प्रदान करने के लिए IEA में संशोधन किया गया था।

  • भारतीय साक्ष्य (दूसरा) विधेयक, 2023 पिछले विधेयक को वापस लेने के बाद 12 दिसंबर, 2023 को पेश किया गया था।
  • इसमें गृह मामलों की स्थायी समिति द्वारा दिए गए अधिकांश सुझावों को शामिल किया गया है।

मुख्य विशेषताएँ: भारतीय साक्ष्य (द्वितीय) अधिनियम, 2023 [Bharatiya Sakshya (Second) Act- BSB] IEA के अधिकांश प्रावधानों को बरकरार रखता है। 

  • स्वीकार्य साक्ष्य: कानूनी कार्यवाही में शामिल पक्ष केवल स्वीकार्य साक्ष्य प्रस्तुत कर सकते हैं। स्वीकार्य साक्ष्य को या तो ‘फैक्ट्स इन इश्यू ‘ या ‘प्रासंगिक तथ्य (Relevant facts)‘ के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है।

IEA दो प्रकार के साक्ष्य दस्तावेजी और मौखिक साक्ष्य प्रदान करता है।

  • फैक्ट्स इन इश्यू (Facts in Issue) उन सभी तथ्यों को संदर्भित करते हैं, जो किसी कानूनी प्रक्रिया में दावा या इनकार किए जाने वाले किसी अधिकार, दायित्व या अक्षमता की मौजूदगी, प्रकृति या परिमाण की स्थिति की निर्धारण करते हैं।
  • प्रासंगिक तथ्य वे तथ्य हैं, जो किसी दिए गए मामले से संगत  है।

  • एक सिद्ध (Proved) तथ्य: एक तथ्य को तब सिद्ध माना जाता है, जब प्रस्तुत साक्ष्यों के आधार पर न्यायालय इसे मानता है कि यह:
  • मौजूद है (Exist), या 
  • इसके अस्तित्व की इतनी संभावना है कि एक विवेकशील व्यक्ति को ऐसे कार्य करना चाहिए जैसे कि यह संबंधित मामले की परिस्थितियों में ‘मौजूद’ या ‘उपलब्ध’  हो।
  • साक्ष्य के रूप में इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड की स्वीकार्यता: IEA इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को द्वितीयक साक्ष्य के रूप में स्वीकार करने की अनुमति देता है और ऐसे साक्ष्य को स्वीकार करने की प्रक्रिया निर्दिष्ट करता है।
    • BSB ने यह स्पष्ट करने के लिए इसमें संशोधन किया है कि उचित हिरासत से उत्पादित इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को प्राथमिक साक्ष्य माना जाएगा, जब तक कि विवादित न हो। 
  • पुलिस को दिया गया कबूलनामा (Police confessions): किसी पुलिस अधिकारी के सामने किया गया कोई भी कबूलनामा अस्वीकार्य है। पुलिस हिरासत में की गई स्वीकारोक्ति भी अस्वीकार्य है, जब तक कि यह किसी मजिस्ट्रेट द्वारा दर्ज न की जाए।
    • हालाँकि, यदि हिरासत में किसी आरोपी से प्राप्त जानकारी के परिणामस्वरूप कोई तथ्य खोजा जाता या प्राप्त होता है, तो उस जानकारी को स्वीकार किया जा सकता है यदि वह स्पष्ट रूप से खोजे गए तथ्य से संबंधित हो।
  • दस्तावेजी (Documentary) साक्ष्य: IEA के तहत, एक दस्तावेज में लेख, मानचित्र और किसी व्यक्ति की छवि की नकल (Caricatures) शामिल होती हैं।
    • BSB  का कहना है कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड को भी दस्तावेज माना जाएगा।
  • मौखिक साक्ष्य: IEA के तहत, मौखिक साक्ष्य में जाँच के तहत तथ्य के संबंध में गवाहों द्वारा न्यायालय के समक्ष दिए गए बयान शामिल हैं।
    • BSB  मौखिक साक्ष्य को इलेक्ट्रॉनिक रूप से देने की अनुमति देता है।
  • द्वितीयक साक्ष्य: BSB निम्नलिखित को शामिल करने के लिए द्वितीयक साक्ष्य का विस्तार करता है: (i) मौखिक और लिखित स्वीकारोक्ति और (ii) उस व्यक्ति की गवाही जिसने दस्तावेज की जाँच की है तथा दस्तावेजों की जाँच करने में कुशल है।
  • संयुक्त परीक्षण (Joint trials): एक संयुक्त परीक्षण से तात्पर्य एक ही अपराध के लिए एक से अधिक व्यक्तियों के मुकदमे से है।
    • BSB  इस प्रावधान में एक स्पष्टीकरण जोड़ता है। इसमें कहा गया है कि कई व्यक्तियों का मुकदमा, जहाँ एक आरोपी फरार हो गया है या गिरफ्तारी वारंट का जवाब नहीं दिया है, उसे संयुक्त मुकदमा माना जाएगा।

महत्त्वपूर्ण मुद्दे

  • इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड से छेड़छाड़: वर्ष 2014 में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि इलेक्ट्रॉनिक रिकॉर्ड से छेड़छाड़ और उनमें बदलाव की संभावनाएँ रहती हैं।
    • गृह मामलों की स्थायी समिति (वर्ष 2023) ने इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल रिकॉर्ड में छेड़छाड़ की संभावनाओं को देखते हुए इसकी प्रामाणिकता और अखंडता की सुरक्षा के महत्त्व को रेखांकित किया।
  • पुलिस हिरासत में खोजे गए तथ्यों को चुनौतियाँ: IEA के अनुसार, पुलिस हिरासत में किसी आरोपी व्यक्ति से प्राप्त जानकारी को सुबूत के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है यदि यह सीधे तौर पर खोजे गए तथ्य से संबंधित है, यह प्रावधान BSB में बरकरार रखा गया है।
    • विधि आयोग (2003) ने सिफारिश की कि पुलिस हिरासत में धमकी, जबरदस्ती, हिंसा या यातना का उपयोग करके पाए गए तथ्य को साबित नहीं किया जा सकता।
  • तथ्य की स्वीकार्यता: BSB, IEA के प्रावधान को बरकरार रखता है कि पुलिस हिरासत में किसी आरोपी से प्राप्त जानकारी स्वीकार्य है, यदि यह खोजे गए तथ्य से संबंधित है। जबकि यही जानकारी यदि पुलिस हिरासत के बाहर किसी आरोपी से प्राप्त हुई है तो यह स्वीकार्य नहीं होगी।
    • विधि आयोग (2003) ने यह सुनिश्चित करने के लिए प्रावधान को फिर से तैयार करने का सुझाव दिया था कि तथ्यों से संबंधित जानकारी प्रासंगिक होनी चाहिए, चाहे बयान पुलिस हिरासत में या बाहर दिया गया हो ।
    • उदाहरण के लिए, मलिमथ समिति (Malimath Committee): पुलिस अधिकारियों के समक्ष स्वीकारोक्ति पर धाराएँ निरस्त करने का सुझाव (IEA. S.25-29)।

निष्कर्ष

  • संशोधित आपराधिक कानून विधेयक आतंकवाद, भीड़ हिंसा (Mob Violence), देश की सुरक्षा और संप्रभुता के खिलाफ अपराध तथा विभिन्न अन्य अपराधों के लिए दंड को बढ़ाते हुए विशिष्ट अपराधों को पुनः परिभाषित करता है।
  • हालाँकि, आपराधिक न्याय प्रणाली में आमूल-चूल परिवर्तन का वास्तविक प्रभाव पूरी तरह से महसूस नहीं किया जा सकता है, क्योंकि स्थायी परिवर्तन प्राप्त करने के लिए न केवल विधायी संशोधन की आवश्यकता होती है, बल्कि अधिक न्यायपूर्ण एवं प्रभावी प्रणाली के लक्ष्य के साथ संस्थागत संस्कृतियों तथा प्रथाओं का व्यापक पुनर्मूल्यांकन भी होना चाहिए।

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