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अधिकरण सुधार अधिनियम

Lokesh Pal November 24, 2025 02:17 4 0

संदर्भ 

सर्वोच्च न्यायालय ने अधिकरण सुधार अधिनियम, 2021 की प्रमुख धाराओं को रद्द कर दिया, जिनका उद्देश्य अधिकरणों की नियुक्ति तथा कार्यप्रणाली का केंद्रीकरण था।

महत्त्वपूर्ण तथ्य 

  • न्यायालय ने केंद्र सरकार को चार माह के भीतर राष्ट्रीय अधिकरण आयोग स्थापित करने का निर्देश दिया है।

अधिकरण क्या हैं?

  • अधिकरण विशिष्ट क्षेत्राधिकार वाले अर्द्ध-न्यायिक निकाय होते हैं, जिन्हें कराधान, बौद्धिक संपदा, पर्यावरण तथा प्रशासनिक सेवा-विवाद जैसे क्षेत्रों में विवादों के त्वरित तथा विशेषज्ञ निस्तारण हेतु बनाया जाता है।
  • अधिकरणों की आवश्यकता
    • नियमित न्यायालयों का कार्यभार कम करना।
    • जटिल तकनीकी विषयों के लिए विषय-विशेषज्ञता उपलब्ध कराना।
    • पारंपरिक न्यायालयों की तुलना में त्वरित निर्णय सुनिश्चित करना।

  • संवैधानिक आधार: अधिकरणों की स्थापना —
    • अनुच्छेद 323 (A): प्रशासनिक अधिकरण
    • अनुच्छेद 323 (B): कराधान, भूमि सुधार, श्रम, औद्योगिक विवाद आदि विषयों से संबंधित अधिकरण।
    • उच्चतम न्यायालय (वर्ष 2010): न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 323 (B)  में सूचीबद्ध विषय निरपेक्ष नहीं हैं, विधानमंडल सातवीं अनुसूची के अंतर्गत अपनी विधायी क्षमता के अनुरूप किसी भी विषय पर अधिकरण बना सकता है।
  • अधिकार-क्षेत्र और अपील
    • प्रत्येक अधिकरण का अधिकार-क्षेत्र उसके विशिष्ट विषय तक सीमित होता है।
    • अपील: सामान्यतः अपीलें उच्च न्यायालयों के समक्ष दायर की जाती हैं, जब तक कि किसी विधि में सीधे सर्वोच्च न्यायालय में अपील का प्रावधान न हो।

अधिकरण सुधार अधिनियम, 2021 

  • यह अधिनियम संसद द्वारा 13 अगस्त, 2021 को पारित किया गया तथा 4 अप्रैल, 2021 से पूर्वव्यापी प्रभाव से लागू हुआ।
  • मुख्य विशेषताएँ
    • अधिकरणों का विलयन/निर्वहण: अधिनियम अनुसूचियों में उल्लिखित बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड, विमानपत्तन अपीलीय अधिकरण आदि जैसे अधिकरणों को समाप्त या विलय कर उनकी शक्तियाँ उच्च न्यायालयों अथवा अन्य अपीलीय प्राधिकरणों को हस्तांतरित करता है।
    • सेवा-शर्तें: अधिनियम विभिन्न अधिकरणों के अध्यक्षों और सदस्यों के लिए सेवा-शर्तें, नियुक्ति-प्रक्रिया, कार्यकाल, वेतन और भत्तों में एकरूपता स्थापित करता है।
  • नियुक्ति तथा सेवा-शर्तें
    • इस अधिनियम में चयन-सह-अनुसंधान समिति का गठन अनिवार्य किया गया है, जिसका अध्यक्ष भारत के प्रधान न्यायाधीश (या उनके द्वारा नामित सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश) होंगे तथा केंद्र सरकार के दो सचिव और अन्य नामित सदस्य इसमें शामिल होंगे।
    • अध्यक्ष एवं सदस्य के लिए न्यूनतम आयु 50 वर्ष तथा कार्यकाल चार वर्ष निर्धारित किया गया।

अधिकरण सुधार अधिनियम पर न्यायालय की टिप्पणियाँ

  • संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन: न्यायालय के अनुसार, यह अधिनियम न्यायिक स्वतंत्रता और शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांतों को क्षति पहुँचाता है, क्योंकि यह नियुक्ति और कार्यकाल पर कार्यपालिका का अत्यधिक प्रभुत्व स्थापित करता है।
  • अध्यादेश प्रावधानों की पुनरावृत्ति: पीठ के अनुसार, वर्ष 2021 का यह अधिनियम वस्तुतः उस अधिकरण सुधार अध्यादेश, 2021 की ही पुनरावृत्ति है, जिसे पूर्व में रद्द किया जा चुका था और न्यायालय द्वारा इंगित दोषों का इसमें प्रभावी निराकरण नहीं हुआ।।
  • न्यायिक स्वतंत्रता का महत्त्व: न्यायालय ने रेखांकित किया कि न्यायिक स्वतंत्रता संविधान का मूल ढाँचा है तथा न्यायपालिका और विधि के शासन के प्रभावी संचालन के लिए अनिवार्य है।
  • संसद न्यायालय के निर्णय को निष्प्रभावी नहीं कर सकती: एक बार किसी प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर दिया जाए, तो संसद उसे पुनः स्वरूप देकर लागू नहीं कर सकती।
  • संवैधानिक सर्वोच्चता: न्यायालय ने कहा कि संविधान की सर्वोच्चता के अंतर्गत संसद और कार्यपालिका को न्यायालय के निर्णयों का पालन करना अनिवार्य है।

न्यायालय द्वारा रद्द की गई धाराएँ

पक्ष वर्ष 2021 के अधिनियम में प्रावधान सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय (वर्ष 2025)
सदस्यों का कार्यकाल अध्यक्ष व सदस्यों के लिए चार वर्ष का स्थिर कार्यकाल। चार वर्ष का कार्यकाल असंवैधानिक, न्यूनतम पाँच वर्ष का कार्यकाल पूर्व निर्णयों के अनुरूप जारी रहे।
न्यूनतम आयु अधिकरण सदस्य-नियुक्ति के लिए न्यूनतम आयु 50 वर्ष। 50 वर्ष की न्यूनतम आयु असंवैधानिक, केवल आयु-आधार पर योग्य अधिवक्ताओं को वंचित नहीं किया जा सकता।
नियुक्ति में कार्यपालिका का नियंत्रण नियुक्ति व सेवा-शर्तों में केंद्र सरकार की भूमिका बढ़ाई गई। चयन समितियों में न्यायिक प्रधानता संवैधानिक रूप से अनिवार्य, अधिकरण स्वतंत्र रहें।
सेवा-शर्तें निर्धारित करने की शक्ति वेतन, भत्तों व सेवा-शर्तों के नियम बनाने का अधिकार केंद्र सरकार को। कार्यपालिका का अत्यधिक विवेकाधिकार स्वतंत्रता को कमजोर करता है, शक्तियों के पृथक्करण का उल्लंघन।
अधिकरणों की स्वतंत्रता प्रशासनिक मंत्रालयों का प्रभाव जारी। अधिकरण मंत्रालयों से स्वतंत्र हों, तभी वे न्यायालयों के प्रभावी विकल्प बन सकते हैं।
पूर्व में रद्द प्रावधानों की पुनरावृत्ति अध्यादेश के रद्द प्रावधानों का पुनः समावेश। इसे ‘‘अवैध विधायी अतिक्रमण’’ व संवैधानिक सर्वोच्चता का उल्लंघन घोषित किया।

अधिनियम को रद्द करने का औचित्य

  • न्यायिक पुनरावलोकन और शक्तियों का पृथक्करण: पीठ ने कहा कि ये सिद्धांत अमूर्त नहीं बल्कि संविधान की मूल ढाँचा के स्तंभ हैं, जिनसे शासन की शक्तियों का संतुलित वितरण सुनिश्चित होता है।
  • न्यायिक स्वतंत्रता: न्यायिक पुनरावलोकन से जुड़ी होने के कारण न्यायिक स्वतंत्रता आवश्यक है, जिससे समस्त राज्य-क्रियाएँ संविधान के अनुरूप रहें।
  • न्यूनतम आयु और अल्प कार्यकाल के दुष्परिणाम
    • 50 वर्ष की आयु-सीमा युवा अधिवक्ताओं को बाहर कर विविधता को हानि पहुँचाती है।
    • चार वर्ष का कार्यकाल स्वतंत्रता को प्रभावित करता है, क्योंकि पुनर्नियुक्ति के लिए कार्यपालिका पर निर्भरता बढ़ती है।
  • अधिकरण स्वतंत्रता में कार्यपालिका का हस्तक्षेप: चयन-सह-अनुसंधान समिति में कार्यपालिका अधिकारियों की भूमिका निष्पक्षता को प्रभावित कर सकती है, क्योंकि अनेक विवादों में कार्यपालिका स्वयं पक्षकार होती है।
  • संवैधानिक सुरक्षा-उपबंध: न्यायालय ने केंद्र सरकार को स्मरण कराया कि कार्यकाल, चयन-प्रक्रिया और अधिकरणों की स्वतंत्रता से संबद्ध प्रावधान अनुच्छेद 323 (A) और 323 (B) के अंतर्गत अनिवार्य संवैधानिक आवश्यकताएँ हैं।

जारी निर्देश

  • आयोग की आवश्यकता: न्यायालय ने राष्ट्रीय अधिकरण आयोग की स्थापना को “मूलभूत संरचनात्मक सुरक्षा-उपबंध” बताया, जिससे अधिकरणों की स्वतंत्रता, पारदर्शिता और एकरूपता सुनिश्चित होगी।
  • समय सीमा: केंद्र सरकार को चार माह के भीतर आयोग स्थापित करने का निर्देश दिया गया, जो पूरे देश के अधिकरणों की नियुक्ति, कार्यप्रणाली और प्रशासन की देख-रेख करेगा।

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