30 मार्च, 1924 को शुरू हुए वायकोम सत्याग्रह (Vaikom Satyagraha) के 100 वर्ष पूरे हो चुके हैं।
संबंधित तथ्य
वायकोम में अहिंसक विरोध: त्रावणकोर रियासत में स्थित एक मंदिर शहर, वायकोम, 30 मार्च, 1924 को एक अहिंसक विरोध की शुरुआत का गवाह बना।
इसने मंदिर प्रवेश आंदोलनों की शुरुआत को चिह्नित किया, जो बाद में पूरे देश में गूँजा।
सामाजिक सुधारों पर जोर: बढ़ते राष्ट्रवादी आंदोलन के बीच, सत्याग्रह ने त्रावणकोर में विरोध करने के गांधीवादी तरीकों के माध्यम से सामाजिक सुधार पर जोर दिया।
सत्याग्रह की पृष्ठभूमि
रियासती त्रावणकोर में सामंती और सैन्यवादी शासन व्यवस्था: त्रावणकोर की रियासत में सामंती, सैन्यवादी क्रूर व्यवस्था थी।
जाति व्यवस्था: जाति व्यवस्था का विचार न केवल स्पर्श के आधार पर बल्कि दृष्टि के आधार पर भी काम करता था, यानी निचली जातियों को किसी भी ‘शुद्ध’ स्थान, जैसे मंदिर और उनके आसपास की सड़कों पर प्रवेश वर्जित था।
सामाजिक और राजनीतिक प्रगति: 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अत्यधिक सामाजिक और राजनीतिक प्रगति देखी गई, जिससे महत्त्वपूर्ण सामाजिक परिवर्तन हुए।
ईसाई मिशनरी प्रभाव: ईसाई मिशनरियों ने निचली जातियों के बड़े हिस्से को सफलतापूर्वक धर्मांतरित किया, जिससे उन्हें जाति आधारित उत्पीड़न की बाधाओं से बचने का अवसर मिला।
महाराजा अयिल्यम थिरुनल राम वर्मा (Maharaja Ayilyam Thirunal Rama Varma) के द्वारा प्रगतिशील सुधार: उनके शासन काल के दौरान, कई प्रगतिशील सुधार लागू किए गए, जिसमें सार्वभौमिक मुफ्त प्राथमिक शिक्षा की शुरुआत भी शामिल थी, जो निचली जातियों के व्यक्तियों तक विस्तारित थी।
20वीं सदी की शुरुआत तक, जाति हिंदुओं, ईसाइयों और यहाँ तक कि गैर-सवर्ण हिंदुओं, विशेष रूप से एझावा समुदाय के बीच एक उल्लेखनीय शिक्षित अभिजात वर्ग उभरना शुरू हो गया था।
एझावा समुदाय की शैक्षिक और संगठनात्मक उन्नति: धर्म और परंपरा के लगातार प्रभाव के बावजूद, निचली जातियों को होने वाली गंभीर सामग्री और बौद्धिक हानियों को कम किया गया।
इतिहासकार मैरी एलिजाबेथ किंग की पुस्तक “गांधीवादी अहिंसक संघर्ष और दक्षिण भारत में अस्पृश्यता” के अनुसार, एझावा त्रावणकोर में सबसे शिक्षित और संगठित अछूत समुदाय के रूप में उभरे।
ऊँची जातियों के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण: हालाँकि, सरकारी नौकरियाँ ऊँची जातियों के लिए आरक्षित रहीं।
संख्यात्मक रूप से अल्पसंख्यक होने के बावजूद, वर्ष 1918 तक राज्य के राजस्व विभाग में 4,000 पदों में से 3,800 पदों पर हिंदू जाति का कब्जा था। इससे संकेत मिलता है कि अकेले शिक्षा सामाजिक-आर्थिक उन्नति के मार्ग के रूप में काम नहीं करती है।
आनुष्ठानिक भेदभाव: एक छोटे एझावा अभिजात वर्ग के उद्भव के बावजूद, आनुष्ठानिक भेदभाव के उदाहरणों ने उनकी सामग्री और शैक्षिक प्रगति को प्रभावित किया।
आंदोलन की शुरुआत: मंदिर में प्रवेश का मुद्दा सबसे पहले एझावा नेता टी. के. माधवन ने वर्ष 1917 में अपने अखबार देशाभिमानी (Deshabhimani) के संपादकीय में उठाया था।
गांधी जी के असहयोग आंदोलन की सफलता से प्रेरित होकर, वर्ष 1920 तक, उन्होंने अधिक प्रत्यक्ष तरीकों की सिफारिश करना शुरू कर दिया।
उच्च जाति के प्रतिरोध के बीच प्रगति और सुधार में बाधाएँ: पूरे त्रावणकोर में उच्च-जाति के प्रतिरोध आंदोलनों ने प्रगति में बाधा डाली।
इसके अलावा, महाराजा, जातिवादी हिंदू समुदाय के विरोध से आशंकित होकर, सुधारों को लागू करने से बचते रहे।
गांधी जी का समर्थन: माधवन ने वर्ष 1921 में गांधी जी से मुलाकात की और मंदिरों में प्रवेश के लिए एक जन आंदोलन के लिए उनका समर्थन हासिल किया।
काकीनाडा में कांग्रेस के वर्ष 1923 के सत्र में, केरल प्रांतीय कांग्रेस समिति द्वारा अस्पृश्यता विरोधी एक प्रस्ताव पारित किया गया था।
इसके बाद एक व्यापक सार्वजनिक संदेश अभियान और हिंदू मंदिरों तथा सभी सार्वजनिक सड़कों को गैर-सवर्णों के लिए खोलने के लिए एक आंदोलन चलाया गया।
अपने प्रतिष्ठित शिव मंदिर वाले वायकोम को पहले सत्याग्रह के लिए स्थान के रूप में चुना गया था।
30 मार्च केरल के कोट्टायम के एक शहर वायकोम (Vaikom) के संबंध में एक महत्त्वपूर्ण दिन था। यह तारीख वर्ष 1924 में शुरू किए गए वायकोम मंदिर सड़क प्रवेश आंदोलन के शताब्दी वर्ष की शुरुआत और भारत में मंदिर प्रवेश आंदोलनों के इतिहास में एक मील का पत्थर भी है।
यह अहिंसक आंदोलन पिछड़े समुदायों को लेकर वायकोम में महादेव मंदिर के आसपास की सड़कों के उपयोग पर लगाए गए प्रतिबंध को समाप्त करने के लिए शुरू किया गया था। यह आंदोलन वर्ष 1936 में केरल के मंदिर प्रवेश उद्घोषणा की पहली प्रस्तावना थी।
इस आंदोलन को महात्मा गांधी की सलाह पर केरल में टी. के. माधवन, के.पी. केशव मेनन और जॉर्ज जोसेफ जैसे नेताओं द्वारा शुरू किया गया था।
वर्ष 1924 और 1925 के बीच तमिलनाडु कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष पेरियार ई.वी. रामासामी (Periyar E.V. Ramasamy) एवं अन्य लोगों द्वारा आंदोलन को जीवंत रखा गया और सफलतापूर्वक संचालित किया गया।
वायकोम सत्याग्रह में पेरियार की भूमिका
केरल कांग्रेस द्वारा समर्थित, अस्पृश्यता के खिलाफ समिति ने 30 मार्च, 1924 को विरोध शुरू किया। डेढ़ वर्ष से अधिक समय तक विरोध जारी रहा, जिससे कई सत्याग्रहियों को जेल हुई।
सरकार ने 9 अप्रैल के बाद अचानक इन गिरफ्तारियों पर रोक लगा दी, किंतु पुलिस ने विरोध करने वाले नेताओं को गिरफ्तार किया, जिन्होंने वायकोम में डेरा डाला था। जिससे एक खालीपन उत्पन्न हो गया क्योंकि विरोध का नेतृत्व करने वाला कोई नेता नहीं था।
परिणामतः नीलकंदन नामपुथिरी और जॉर्ज जोसेफ जैसे नेताओं ने पेरियार से विरोध का नेतृत्व करने का अनुरोध किया।
पेरियार ने अपनी पत्नी के साथ इस आंदोलन में भाग लिया और दो बार गिरफ्तार हुए। बाद में उन्हें वायकोम वीरार (वायकोम के नायक) के रूप में जाना जाने लगा। उस समय वायकोम त्रावणकोर रियासत का एक हिस्सा था।
आंदोलन में विभिन्न वर्गों की भूमिका
इस अहिंसक आंदोलन ने व्यापक ध्यान आकर्षित किया, पंजाब के अकालियों (सिखों) ने प्रदर्शनकारियों के लिए एक सामुदायिक रसोई (लंगर) खोलकर समर्थन दिया। हालाँकि, इसे जल्द ही महात्मा गांधी, जो आंदोलन को ‘हिंदुओं से संबंधित मामला’ बनाना चाहते थे, के एक निर्देश के बाद बंद कर दिया गया था।
इस आंदोलन को उच्च जातियों का समर्थन भी हासिल था।
तमिलों ने इस आंदोलन में भाग लेकर सभी समुदायों के लिए मंदिर में प्रवेश के पक्ष में केरलवासियों की मदद की।
तमिलनाडु ने वायकोम सत्याग्रह में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो ‘अछूतों’ द्वारा संघर्ष का प्रतीक था।
महिलाओं की भूमिका: महिलाओं की भागीदारी, विशेष रूप से पेरियार की पत्नी नागम्मई और बहन कन्नम्माल सहित सत्याग्रही नेताओं के परिवारों की महिलाओं ने लड़ाई में अभूतपूर्व भूमिका निभाने के लिए महिलाओं को सशक्त बनाया।
पेरियार बनाम गाँधी
वायकोम सत्याग्रह ने गांधी और पेरियार के बीच मतभेदों को उजागर कर दिया।
हालाँकि गांधी ने इस आंदोलन को ‘हिंदू सुधारवादी आंदोलन’ के रूप में देखा, जबकि पेरियार ने इसे जाति आधारित अत्याचारों के खिलाफ लड़ाई के रूप में संदर्भित किया।
पेरियार इस आंदोलन से प्राप्त आंशिक सफलता से खुश नहीं थे और अंततः उन्होंने कुछ महीने बाद कांग्रेस छोड़ दी। गांधी से असहमति के कारण जॉर्ज जोसेफ ने भी कांग्रेस छोड़ दी।
समाप्ति
30 मार्च, 1924 को शुरू हुआ यह महत्त्वपूर्ण मंदिर सड़क प्रवेश आंदोलन 23 नवंबर, 1925 को समाप्त हुआ।
उल्लेखनीय है कि वायकोम सिर्फ एक शहर का नाम नहीं है, यह सामाजिक न्याय का प्रतीक है और जातिगत बाधाओं के उन्मूलन का प्रतीक है।
‘आत्म-सम्मान आंदोलन’ (Self-Respect Movement)
इसकी शुरुआत वर्ष 1925 में एस. रामनाथन ने की थी, जिन्होंने ई.वी. रामासामी को ब्राह्मणवाद के खिलाफ तमिलनाडु में आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए आमंत्रित किया था।
एस. रामनाथन अपने कॉलेज के वर्षों के दौरान भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के लिए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए।
वर्ष 1922 में, जब कांग्रेस के कुछ सदस्यों ने चुनाव लड़ने का फैसला किया, तो उन्होंने स्वराज पार्टी का गठन किया। राजगोपालाचारी के नेतृत्व में मद्रास में कुछ ब्राह्मणों ने इस कदम का स्वागत किया, लेकिन पेरियार ई.वी. रामासामी और रामनाथन के नेतृत्व में गैर-ब्राह्मणों के एक समूह ने इसका विरोध किया।
वर्ष 1925 की स्वराज पार्टी की बैठक में, एस. रामनाथन ने गैर-ब्राह्मणों हेतु आनुपातिक प्रतिनिधित्व के लिए पेरियार की ओर से एक प्रस्ताव प्रस्तावित किया किंतु यह विफल रहा।
प्रस्ताव की विफलता के बाद, रामनाथन ने गैर-ब्राह्मणों के हितों की रक्षा के लिए आत्म-सम्मान आंदोलन की शुरुआत की।
उद्देश्य: यह एक गतिशील सामाजिक आंदोलन था, जिसका उद्देश्य समकालीन हिंदू सामाजिक व्यवस्था को बदलना और जाति, धर्म और ईश्वर के बिना एक नए तर्कसंगत समाज का निर्माण करना था।
पेरियार को वायकोम नायक क्यों कहा जाता है?
वर्ष 1924 के वायकोम सत्याग्रह के परिणामस्वरूप त्रावणकोर सरकार ने दलितों को मंदिर में प्रवेश करने की अनुमति दी, इसलिए पेरियार को ‘वायकोम नायक’ की उपाधि दी गई।
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