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वन अधिनियम, 1980

Lokesh Pal November 10, 2025 04:45 15 0

संदर्भ 

केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय के अंतर्गत गठित वन सलाहकार समिति (Forest Advisory Committee – FAC) ने वन (संरक्षण एवं संवर्द्धन) अधिनियम, 1980 के उल्लंघनों के लिए
एक समान दंड ढाँचा तैयार करने की सिफारिश की है।

पृष्ठभूमि और समयरेखा 

  • वर्ष 2017: सर्वोच्च न्यायालय ने वन भूमि उल्लंघनों के संदर्भ में दंडात्मक शुद्ध वर्तमान मूल्य (NPV) की अवधारणा शुरू करने का निर्देश दिया।
  • वर्ष 2018: वन सलाहकार समिति (FAC) ने पाया कि समान उल्लंघनों पर राज्यों द्वारा अलग-अलग दंड आरोपित किए जा रहे हैं, क्योंकि कोई एकरूप दिशा-निर्देश नहीं थे।
  • वर्ष 2023: वन अधिनियम नियम, 2023 अधिसूचित किए गए ताकि अनुमोदन, निगरानी और दंड तंत्र को सुव्यवस्थित किया जा सके।
  • वर्ष 2025: एक केंद्रीय समिति ने वन अधिनियम, 1980 के तहत सभी उल्लंघनों के लिए एक समान दंड तंत्र अपनाने की सिफारिश की।

वन अधिनियम, 1980 क्या है?

  • वन अधिनियम, 1980 (पूर्व में वन संरक्षण अधिनियम, 1980) का उद्देश्य वन भूमि को विभिन्न उद्देश्यों जैसे- अवसंरचना, खनन, औद्योगिक परियोजनाओं आदि के लिए उपयोग को नियंत्रित करना है।
  • इसमें यह अनिवार्य किया गया है कि वन क्षेत्रों के किसी भी आरक्षण-मुक्ति, पट्टे पर देने या अन्य उपयोग से पूर्व केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति ली जाए।
  • इसके कार्यान्वयन के लिए वन अधिनियम नियम, 2023 लागू किए गए हैं, जो अनुमोदन, निगरानी और दंड की प्रक्रिया को व्यवस्थित करते हैं।
  • उल्लंघन: इस कानून के तहत, जब केंद्र की पूर्व स्वीकृति के बिना वन भूमि को “आरक्षण-मुक्त, वन रहित उपयोग, पट्टे या स्पष्ट कटाई” के लिए अनुमति दी जाती है, तो इसका उल्लंघन माना जाता है।

वन अधिनियम, 1980 के कार्यान्वयन से संबंधित समस्याएँ

  • दंड में असंगति: एकरूप दिशा-निर्देश न होने से राज्यों द्वारा समान उल्लंघनों पर अलग-अलग स्तर के दंड लगाए जाते थे।
  • प्रवर्तन में समानता की कमी: कई मामलों में बिना स्वीकृति वन भूमि हस्तांतरण नहीं की जाती थी या पर्याप्त दंड नहीं दिया जाता था।
  • पुरानी प्रथाओं का असंगत उपयोग: पहले लागू दंडात्मक क्षतिपूरक वनीकरण को  मौद्रिक दंड शुरू होने के बाद असंगत रूप से लागू किया गया।
  • दंडात्मक उपायों का दोहराव: दंडात्मक क्षतिपूरक वनीकरण और दंडात्मक NPV दोनों के समानांतर रूप से लागू होने से प्रवर्तन में भ्रम तथा असमानता उत्पन्न हुई।
  • रिपोर्टिंग में विलंब: स्पष्ट रिपोर्टिंग तंत्र न होने से राज्यों और मंत्रालय के क्षेत्रीय कार्यालयों के बीच संचार में विलंब हुआ।

आगे की राह 

  • FAC की सिफारिशें: वन सलाहकार समिति ने दंडात्मक उपायों को तर्कसंगत, आनुपातिक और एकीकृत बनाने की सिफारिश की है, ताकि पूरे देश में एकरूप प्रवर्तन सुनिश्चित किया जा सके।
  • दंडात्मक क्षतिपूरक वनीकरण: समिति ने सुझाव दिया कि जिस क्षेत्र में उल्लंघन हुआ है, उसके बराबर क्षेत्र में दंडात्मक वनीकरण किया जाए, साथ ही अन्य दंडात्मक प्रावधान भी लागू किए जाएँ।
  • संस्थागत समीक्षा तंत्र: सर्वोच्च न्यायालय के वर्ष 2017 के निर्देशों के आधार पर दंडात्मक कार्रवाई और रिपोर्टिंग प्रारूपों पर एक समान दिशा-निर्देश तैयार करने के लिए मंत्रालय के अधिकारियों की एक समिति गठित की गई थी।

सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश (वर्ष 2017) 

मई 2017 के अपने आदेश में (पुणे में अवैध भूमि परिवर्तन से जुड़े एक मामले से उत्पन्न), सर्वोच्च न्यायालय ने वन (संरक्षण) अधिनियम, 1980 (वन अधिनियम, 1980) के सख्त कार्यान्वयन के लिए महत्त्वपूर्ण, राष्ट्रव्यापी निर्देश जारी किए।

  • राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के मुख्य सचिवों/प्रशासकों को आदेश दिया गया कि  आरक्षित वन भूमि के अवैध आवंटन की जाँच के लिए विशेष जांच दल (SIT) गठित करें।
  • सभी राज्य सरकारों को निर्देश दिया गया कि अतिक्रमित वन भूमि को पुनः प्राप्त कर वन विभाग को सौंपा जाए।
  • यह पूरा प्रक्रिया एक वर्ष के भीतर पूरी की जानी चाहिए।
  • स्थानांतरित भूमि का उपयोग केवल वनीकरण, पुनर्स्थापन और संरक्षण के लिए किया जाएगा  किसी भी प्रकार के व्यावसायिक उपयोग पर प्रतिबंध रहेगा।
  • जहाँ भूमि पुनः प्राप्त करना संभव नहीं है, वहाँ पूर्ण भूमि मूल्य वसूल कर उसे वन विकास कार्यों में लगाया जाए।
  • अवैध आवंटनों में शामिल अधिकारियों और राजनीतिक व्यक्तियों की जवाबदेही तय की जाए।

इन निर्देशों ने सार्वजनिक ट्रस्ट सिद्धांत को सुदृढ़ किया तथा वन भूमि को पर्यावरण संरक्षण और लोक कल्याण के लिए महत्त्वपूर्ण राष्ट्रीय संपत्ति माना, जो टी.एन. गोदावर्मन बनाम भारत संघ मामले के समान है।

निष्कर्ष 

वन सलाहकार समिति (FAC) की ये सिफारिशें वन अधिनियम, 1980 के समान, पारदर्शी और अनुपातिक प्रवर्तन को सुनिश्चित करने के उद्देश्य से हैं, जिससे भारत में वन शासन और पर्यावरणीय जवाबदेही को सुदृढ़ किया जा सके।

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