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विजयनगर कालीन स्वर्ण मुद्राएँ

Lokesh Pal November 07, 2025 02:45 13 0

संदर्भ

तमिलनाडु के तिरुवन्नामलाई जिले के कोविलूर ग्राम स्थित उत्तर चोल कालीन शिव मंदिर के पुनरुद्धार कार्य के दौरान विजयनगर कालीन लगभग 100 से अधिक स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त हुई हैं।

खोज का विवरण

  • स्वर्ण मुद्राओं की विशेषताएँ 
    • औसत आकार: लगभग 5 मिलीमीटर व्यास।
    • आकृति: गोलाकार (संगम कालीन चतुर्भुज आकार के सिक्कों से भिन्न)।
    • प्रतीक: कुछ सिक्कों पर वराह का प्रतीक अंकित है, जो विजयनगर साम्राज्य का राजचिह्न था और भगवान विष्णु के वराह अवतार का प्रतीक माना जाता है।
  • अनुमानित काल: ये सिक्के संभवतः विजयनगर काल (14वीं–16वीं शताब्दी ईसवी) से संबंधित हैं, जब कृष्णदेवराय और उनके उत्तराधिकारियों ने मंदिर स्थापत्य का पुनरुत्थान किया तथा मंदिरों को स्वर्ण एवं मूल्यवान वस्तुओं से संपन्न किया।
  • मुद्राओं के निक्षेपण का उद्देश्य :  पुरातत्त्वविदों के अनुसार, सिक्कों को मंदिर के गर्भगृह के नीचे दो प्रमुख कारणों से रखा जाता था —
    • धार्मिक अर्पण: देवताओं को समृद्धि और क्षेत्रीय सुरक्षा की कामना से स्वर्ण मुद्राएँ अर्पित की जाती थीं।
    • आर्थिक उपयोग: धातु की मुद्राएँ (विशेषकर ताँबे और चाँदी की) स्थायी होने और गलन-प्रतिरोधकता के कारण लेन-देन हेतु भी प्रयुक्त होती थीं।

विजयनगर साम्राज्य के बारे में

  • स्थापना
    • विजयनगर साम्राज्य की स्थापना वर्ष 1336 ईसवी में तुंगभद्रा नदी (वर्तमान हंपी, कर्नाटक) के तट पर हरिहर प्रथम और बुक्का राय प्रथम द्वारा संत विद्यारणय के मार्गदर्शन में की गई।
    • इस साम्राज्य की राजधानी विजयनगर (“विजय का नगर”) मध्यकालीन भारत का सबसे समृद्ध और सुदृढ़ नगर बना।
  • प्रमुख वंश 
    • संगम वंश (1336–1485 ईसवी): संस्थापक हरिहर और बुक्का।
    • सलुव वंश (1485–1505 ईसवी): संक्रमण काल।
    • तुलुव वंश (1505–1570 ईसवी): उत्कर्ष काल — विशेषकर कृष्णदेवराय के शासन में।
    • अराविडू वंश (1570–1646 ईसवी): अंतिम चरण, पतन तक।

विजयनगर साम्राज्य की मुद्राओं की प्रमुख विशेषताएँ

  • धात्विक संरचना 
    • विजयनगर साम्राज्य ने स्वर्ण, रजत और ताम्र मुद्राएँ जारी कीं, जो इसकी आर्थिक शक्ति और व्यापक व्यापारिक नेटवर्क को दर्शाती हैं।

    • स्वर्ण ‘पगोडा’ (वराह) उच्चतम मूल्यवर्ग की मुद्रा थी, जबकि स्वर्ण फणम, रजत तारा और ताम्र कासु का उपयोग दैनिक लेन-देन में किया जाता था।
    • प्रारंभिक सिक्के क्षेत्र-विशिष्ट थे, जैसे– बारकुर गड्याना और भटकल गड्याना
    • हरिहर प्रथम और बुक्का ने स्वर्ण फणम और रजत तारा का प्रचलन किया, जिससे बाद में जारी होने वाले सिक्कों के लिए एक मानक तय हुआ।
  • धार्मिक और सांस्कृतिक प्रतीक
    • सिक्कों पर हिंदू देवी-देवताओं और पवित्र प्रतीकों का अंकन साम्राज्य की धार्मिक भक्ति और सांस्कृतिक भावना को दर्शाता है।
    • हरिहर द्वितीय ने स्वर्ण पगोडाओं पर ब्रह्मा, विष्णु और शिव की आकृतियाँ अंकित कराईं।
    • कृष्णदेवराय के सिक्कों पर प्रसिद्ध बालकृष्ण (शिशु अवस्था में भगवान कृष्ण) का चित्र अंकित था।
    • अच्युत राय ने गंडा बरुंडा (द्विमुखी गरुड़) को अंकित किया, जो शाही शक्ति का प्रतीक था।
    • अरविदु वंश के तिरुमल राय ने राम, लक्ष्मण और सीता की आकृतियाँ अंकित कीं, जो वैष्णव प्रभाव को दर्शाती हैं।
  • लेख और भाषा 
    •  सिक्कों पर शासकों के नाम और उपाधियाँ अंकित रहती थीं।
    • प्रमुख लिपियाँ: कन्नड़, तेलुगु, तमिल और नागरी, जो साम्राज्य की भाषायी विविधता को दर्शाती हैं।
      • उदाहरण: ‘श्री कृष्णदेवराय’ अंकित सिक्के नागरी और कन्नड़ दोनों लिपियों में मिलते हैं।
  • प्रतीकवाद 
    • विष्णु के अवतार वराह को राजवंश के प्रतीक के रूप में प्रयोग किया जाता था।
    • देवताओं, हाथी, घोड़े और पौराणिक प्रतीकों का उपयोग धर्म और दैवी राजसत्ता की अवधारणा को सुदृढ़ करता था।
    • गंडा बरुंडा (द्विमुखी गरुड़): शक्ति, सुरक्षा और शाही संप्रभुता का प्रतीक था।
  • आर्थिक भूमिका
    • स्वर्ण पगोडा और रजत तारा दक्षिण भारत तथा हिंद महासागर के व्यापार मार्गों में व्यापक रूप से प्रचलित थीं, विशेषकर दक्षिण-पूर्व एशिया के साथ व्यापार में।
    • मानकीकृत भार और मूल्य प्रणाली ने वाणिज्यिक स्थिरता और विश्वसनीयता सुनिश्चित की। 
    • ताम्र मुद्राएँ स्थानीय बाजारों में दैनिक लेन-देन हेतु उपयोगी थीं।
    • ये मुद्राएँ विजयनगर राज्य की मौद्रिक एकरूपता और प्रशासनिक दक्षता को प्रतिबिंबित करती हैं।

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