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सिनेमा घरों में हिंसा: अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सामाजिक जिम्मेदारी के बीच संतुलन

Lokesh Pal March 21, 2025 03:13 34 0

संदर्भ

केरल उच्च न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि मीडिया में हिंसक सामग्री के प्रतिकूल प्रभाव हो सकते हैं, लेकिन इस संबंध में की गई किसी भी कार्रवाई में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का सम्मान किया जाना चाहिए।

भारत में मीडिया तथा संबंधित सामग्री पर मौजूदा विनियम

  • मध्यस्थ दिशा-निर्देश और डिजिटल मीडिया आचार संहिता (आईटी नियम, 2021): डिजिटल प्लेटफॉर्म के लिए स्व-नियमन और सामग्री वर्गीकरण को अनिवार्य बनाता है।
  • महिलाओं का अभद्र चित्रण अधिनियम, 1986: मीडिया में महिलाओं के अश्लील या अपमानजनक चित्रण को प्रतिबंधित करता है।
  • भारतीय न्याय संहिता (BNS), 2023: डिजिटल और दृश्य मीडिया में अश्लील सामग्री के खिलाफ प्रावधान शामिल हैं।
  • यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (POCSO) अधिनियम: बच्चों को हानिकारक या अनुचित सामग्री के संपर्क में आने से बचाता है।
  • सूचना प्रौद्योगिकी (IT) अधिनियम, 2000: ऑनलाइन अश्लील या पोर्नोग्राफिक सामग्री के प्रकाशन और वितरण को नियंत्रित करता है।
  • आईटी नियम 2021 का अनुपालन: सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय (I&B) ने सोशल मीडिया और OTT प्लेटफॉर्म को IT नियम 2021 के तहत आचार संहिता का पालन करने का निर्देश दिया है।
  • A-रेटिंग वाली सामग्री तक पहुँच पर नियंत्रण: प्लेटफॉर्म को बच्चों को अनुचित सामग्री तक पहुँचने से रोकने के लिए आयु-प्रतिबंध तंत्र लागू करना चाहिए।
  • कुछ सामग्री का निषेध: OTT प्लेटफॉर्म को यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि निषिद्ध सामग्री प्रसारित न हो। उन्हें बेहतर सामग्री विनियमन के लिए आयु-आधारित वर्गीकरण करना चाहिए।

पृष्ठभूमि

  • यह निर्णय के. हेमा समिति की रिपोर्ट से संबंधित याचिकाओं पर विचार के दौरान आया, जिसमें फिल्म उद्योग में महिलाओं की कार्य स्थितियों की जाँच की गई थी।
    • जब केरल महिला आयोग ने फिल्मों में हिंसा के बढ़ते चित्रण पर चिंता जताई तो आयोग ने मौखिक रूप से राज्य के हस्तक्षेप की सीमा पर सवाल उठाया।

सिनेमाघरों  में हिंसा

  • सिनेमा में हिंसा कई उद्देश्यों को पूरा करती है, दर्शकों को आकर्षित करने से लेकर वास्तविक दुनिया के संघर्षों को दर्शाने तक।
  • यह अक्सर एक्शन और थ्रिलर शैलियों में एक मुख्य घटक होता है, जिसका उपयोग कहानी के प्रभाव और चरित्र विकास के लिए किया जाता है।

सिनेमाई हिंसा का सामाजिक प्रभाव

  • असंवेदनशीलता: बार-बार संपर्क में आने से वास्तविक जीवन की हिंसा के प्रति संवेदनशीलता कम हो सकती है।
  • हिंसा की नकल: कुछ व्यक्ति, विशेष रूप से बच्चे और किशोर, फिल्मों में दर्शाई गई हिंसक गतिविधियों की नकल कर सकते हैं, जिससे वास्तविक दुनिया में आक्रामकता उत्पन्न हो सकती है।
    • उदाहरण: कथित तौर पर ‘मनी हाइस्ट सीरीज’ ने इसी तरह से वास्तविक जीवन में बैंक डकैती के प्रयासों को प्रेरित किया।
  • हानिकारक रूढ़ियों का सुदृढ़ीकरण: विशिष्ट समूहों से जुड़ी हिंसा पूर्वाग्रहों को बढ़ावा दे सकती है।
  • हिंसा का सामान्यीकरण: सिनेमा में हिंसा का ग्लैमराइजेशन सार्वजनिक धारणा को आकार दे सकता है, जिससे हिंसक व्यवहार के प्रति अधिक सहिष्णुता उत्पन्न हो सकती है।
  • लैंगिक हिंसा: कुछ फिल्में महिलाओं के खिलाफ हिंसा को इस तरह से दर्शाती हैं, जो स्त्री-द्वेष और विषाक्त पुरुषत्व को बढ़ावा देती हैं।
  • डर एवं चिंता: फिल्मों, OTT (ओवर-द-टॉप) शो में ग्राफिक द्वारा दर्शायी गई हिंसा विशेष तौर पर बच्चों एवं भावनात्मक संवेदनशीलता वाले व्यक्तियों में डर, चिंता या आघात उत्पन्न कर सकती है।
    • उदाहरण: द कॉन्ज्यूरिंग जैसी डरावनी फिल्में विशेषतौर पर बच्चों में लंबे समय तक डर और मनोवैज्ञानिक संकट उत्पन्न कर सकती हैं।

सिनेमाई हिंसा के चित्रण में शामिल नैतिक आयाम

  • अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम रचनात्मकता का दमन: भारतीय संविधान का अनुच्छेद-19(1)(a) वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की गारंटी देता है और उचित प्रतिबंध (अनुच्छेद-19(2)) सार्वजनिक व्यवस्था एवं नैतिकता जैसे आधारों पर सीमाएँ तय करता है।
    • फिल्म निर्माताओं का तर्क है कि हिंसा एक वैध कलात्मक उपकरण है, जो यथार्थवाद, कहानी कहने के लिए आवश्यक है और हिंसक सामग्री को प्रतिबंधित करने से रचनात्मकता का दमन हो सकता है।
  • गैर-हानिकारकता का सिद्धांत बनाम फिल्म निर्माताओं की स्वायत्तता: फिल्म निर्माताओं को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके काम से समाज को नुकसान न पहुँचे, साथ ही उन्हें रचनात्मक अभिव्यक्ति के हिस्से के रूप में हिंसा को दर्शाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए।
  • नुकसान बनाम अपराध: चर्चा में वास्तविक नुकसान (हिंसा भड़काना) और व्यक्तिपरक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के बीच अंतर किया जाना चाहिए।
  • फिल्म निर्माताओं की सामाजिक जिम्मेदारी बनाम रचनात्मकता: नैतिक कहानी कहने के लिए प्रासंगिक संवेदनशीलता, अनावश्यक हिंसा से बचना, उसके प्रभाव को स्वीकार करना और विविध दृष्टिकोण सुनिश्चित करना आवश्यक है। हालाँकि, सामाजिक जिम्मेदारी के नाम पर प्रतिबंध रचनात्मक अखंडता को कमजोर करने का जोखिम उठाते हैं।

फिल्म सेंसरशिप और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर मुख्य निर्णय

  • के.ए. अब्बास बनाम भारत संघ (वर्ष 1971): भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सिनेमा को कलात्मक अभिव्यक्ति के एक महत्त्वपूर्ण माध्यम के रूप में मान्यता दी है। इसने पूर्व-सेंसरशिप को बरकरार रखा, लेकिन कहा कि प्रतिबंध उचित होने चाहिए।
  • बॉबी आर्ट इंटरनेशनल बनाम ओम पाल सिंह हून (वर्ष 1996): सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि फिल्म में सामाजिक बुराइयों का यथार्थवादी चित्रण इसके संदेश के लिए आवश्यक था और इसे केवल इसलिए सेंसर नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि यह सही नहीं है।
  • प्रकाश झा प्रोडक्शंस बनाम भारत संघ (वर्ष 2011): सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि राज्य सरकारें केवल प्रत्याशित विरोध के आधार पर किसी फिल्म पर प्रतिबंध नहीं लगा सकतीं, क्योंकि इससे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा।
  • जस्टिस फॉर राइट्स फाउंडेशन बनाम भारत संघ (वर्ष 2018): दिल्ली उच्च न्यायालय ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि दर्शकों के पास ऐसी सामग्री देखने या न देखने का विकल्प है, जबकि सिनेमा में ऐसा नहीं होता है, जहाँ प्रदर्शन अधिक सार्वजनिक होता है।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सेंसरशिप के बीच संतुलन बनाने की चुनौतियाँ

  • स्वीकार्य सीमाएँ निर्धारित करना: आक्रामक या हानिकारक सामग्री की व्यक्तिपरक प्रकृति सार्वभौमिक रूप से स्वीकार्य सीमाएँ निर्धारित करना कठिन बनाती है। एक समूह के लिए जो आपत्तिजनक है, उसे दूसरे द्वारा कलात्मक अभिव्यक्ति माना जा सकता है।
  • नैतिक पुलिसिंग का जोखिम: अत्यधिक सेंसरशिप से नैतिक पुलिसिंग हो सकती है।
  • अस्पष्टता: संविधान का अनुच्छेद-19(2) ‘उचित प्रतिबंध’ की अनुमति देता है, लेकिन ‘उचित’ की व्याख्या अलग-अलग होती है, जिससे असंगत सेंसरशिप निर्णय होते हैं।
  • निहित उद्देश्य: सरकारें या राजनीतिक समूह असहमतिपूर्ण आवाजों को दबाने या विशिष्ट आख्यानों को बढ़ावा देने के लिए सेंसरशिप का उपयोग एक उपकरण के रूप में कर सकते हैं।
  • रचनात्मकता में प्रतिबंध: कानूनी परेशानी या प्रतिक्रिया का डर प्रायः फिल्म निर्माताओं और लेखकों को सेल्फ-सेंसर करने के लिए मजबूर करता है, जिससे रचनात्मक स्वतंत्रता सीमित हो जाती है। यह आलोचना और प्रतिबिंब के माध्यम के रूप में कार्य करने की सिनेमा की क्षमता को प्रभावित करता है।
  • वैश्वीकरण: OTT प्लेटफॉर्म और ऑनलाइन कंटेंट के साथ, स्थानीय सेंसरशिप कानूनों को लागू करना कठिन हो जाता है। दर्शक वैश्विक स्तर पर कंटेंट के बिना सेंसर किए गए संस्करणों तक पहुँच सकते हैं, जिससे सख्त विनियमन कम प्रभावी हो जाता है।

आगे की राह 

  • आनुपातिकता का सिद्धांत: सिनेमा में हिंसा पर प्रतिबंध उचित होने चाहिए और एक वैध उद्देश्य की पूर्ति करनी चाहिए, जैसे कि नाबालिगों की सुरक्षा करना या घृणा फैलाने वाले भाषणों को रोकना, न कि पूरी तरह से सेंसरशिप करना।
    • यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि रचनात्मक अभिव्यक्ति में राज्य का हस्तक्षेप न्यूनतम हो और केवल तभी किया जाए जब नुकसान को रोकने के लिए बिल्कुल आवश्यक हो।
  • जिम्मेदार रचनात्मकता: फिल्म निर्माताओं और दर्शकों के बीच नैतिक निर्णय लेने को प्रोत्साहित करना।
  • समावेशिता को बढ़ावा देना: सुनिश्चित करना कि लैंगिक आधारित हिंसा जैसे प्रणालीगत मुद्दों को संबोधित करने के लिए महिलाओं और हाशिए के समूहों सहित विविध अभिव्यक्तियों का प्रतिनिधित्व इन चर्चाओं में किया जाए।
  • सार्वजनिक अभियानों का लाभ उठाना: मीडिया में हिंसा के प्रभावों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए सोशल मीडिया, स्कूलों और सामुदायिक कार्यक्रमों का उपयोग करना।
  • संवैधानिक नैतिकता को बनाए रखना: वाक् एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की रक्षा करते हुए कानूनी ढाँचों को विकसित होते सामाजिक मूल्यों के साथ संरेखित करना।
  • आयु आधारित रेटिंग प्रणाली: वर्गीकरण (जैसे- PG, R, A-रेटेड) बच्चों को हानिकारक सामग्री से बचाने में मदद करते हैं, जबकि वयस्क दर्शकों को भी पहुँच प्रदान करते हैं।

निष्कर्ष

नैतिक कथानक को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, सेंसरशिप के जरिए लागू नहीं किया जाना चाहिए। सार्वजनिक तथा संवैधानिक नैतिकता को विनियमों का मार्गदर्शन करना चाहिए, लेकिन कलात्मक अभिव्यक्ति को निर्देशित नहीं करना चाहिए।

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