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पृथ्वी के वायुमंडल का गर्म होना (warming of the earth’s atmosphere)

Samsul Ansari January 24, 2024 06:00 185 0

संदर्भ 

नासा के अनुसार, वर्ष 1880 के बाद से पृथ्वी का औसत वैश्विक तापमान कम-से-कम 1.1 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया है।

संबंधित तथ्य 

  • वर्ष 2023 सबसे गर्म वर्ष के रूप में: यूरोप की कॉपरनिकस क्लाइमेट चेंज सर्विस (C3S) के अनुसार, वर्ष 1850 में रिकॉर्ड शुरू होने के बाद से वर्ष 2023 सबसे गर्म वर्ष था, जिसने वर्ष 2016 के पिछले रिकॉर्ड को तोड़ दिया है।
  • 174 साल के अवलोकन रिकॉर्ड में वर्ष ‘2023’ सबसे गर्म वर्ष साबित हो सकता है और संभवतः 1,25,000 वर्षों में सबसे गर्म वर्ष भी हो सकता है।

बढ़ते तापमान का कारक

  • प्राकृतिक कारक
    • सौर ऊर्जा: यह समय के साथ बदलता रहती है तथा जलवायु को प्रभावित करती है।
    • महासागरीय परिसंचरण: विश्वभर में समुद्री धाराओं द्वारा ऊष्मा का परिसंचरण होता है। उदाहरण के लिए, लगभग 12,000 साल पहले, अटलांटिक महासागरीय परिसंचरण में बड़े बदलावों ने उत्तरी गोलार्द्ध को ठंडे क्षेत्र में बदल दिया था।
    • ज्वालामुखी गतिविधियाँ: ज्वालामुखी विस्फोटों से वायुमंडल में गैसें एवं धूल अधिक मात्रा में निकलती हैं, जो सूर्य की किरणों को वापस परावर्तित कर देती हैं और परिणामस्वरूप पृथ्वी अल्पकालिक रूप से ठंडी हो जाती है। इसके विपरीत भी हो सकता है।
      • उदाहरण के लिए 56 मिलियन वर्ष पहले ज्वालामुखी विस्फोट के कारण ग्लोबल वार्मिंग का एक नाटकीय दौर शुरू हुआ था, जिसमें बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) का उत्सर्जन हुआ था, जिससे वैश्विक तापमान पाँच डिग्री सेल्सियस तक बढ़ गया था।
  • महाद्वीपीय विस्थापन सिद्धांत: इस सिद्धांत के अनुसार, मौजूदा सभी महाद्वीप अतीत में एक बड़े भूखंड (पैंजिया) से जुड़े हुए थे और उनके चारों ओर एक विशाल महासागर (पैंथालसा) मौजूद था। लगभग 200 मिलियन वर्ष पहले पैंजिया विभाजित होना शुरू हुआ और क्रमशः उत्तरी एवं दक्षिणी घटकों का निर्माण करते हुए लारेशिया तथा गोंडवानालैंड के रूप में दो बड़े महाद्वीपीय भूभागों में टूट गया। इसके बाद लारेशिया और गोंडवानालैंड विभिन्न छोटे महाद्वीपों में टूटते रहे जो क्रम आज भी जारी है।
  • मानवजनित कारक: इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की मार्च 2023 सिंथेसिस रिपोर्ट के अनुसार, मुख्य रूप से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के माध्यम से मानवीय गतिविधियाँ, स्पष्ट रूप से ग्लोबल वार्मिंग का कारण बनी हैं।
  • इन उत्सर्जन के मुख्य चालक ऊर्जा उपयोग, भूमि उपयोग और वस्तुओं की खपत और उत्पादन हैं।
    • जीवाश्म ईंधन का दहन और औद्योगिक प्रक्रियाओं ने 1970 के बाद से सभी प्रकार के उत्सर्जन में 78% योगदान दिया।
    • इसके लिए अर्थव्यवस्था के क्षेत्रों में विद्युत उत्पादन, कृषि, वानिकी तथा भूमि उपयोग, उद्योग (21%), परिवहन आदि शामिल हैं।
    • ग्रीनहाउस गैस (GHG) उत्सर्जन में वृद्धि: IPCC की छठी आकलन रिपोर्ट (AR6) के अनुसार, वर्ष 2019 में वैश्विक निवल मानवजनित GHG उत्सर्जन 59 गीगाटन कार्बन डाइऑक्साइड समकक्ष (GtCO2e) था, जो वर्ष 1990 की तुलना में 54 प्रतिशत अधिक है।

ग्रीनहाउस गैसों (GHG) के बारे में

  • ग्रीनहाउस गैसें पृथ्वी के वायुमंडल में मौजूद वे गैसें हैं, जो ऊष्मा को रोकती हैं। वे सूर्य के प्रकाश को वायुमंडल से गुजरने देती हैं लेकिन ऊष्मा को बाहर निकलने से रोकती हैं।
  • मूलतः GHG एक कंबल की तरह काम करती हैं, जो पृथ्वी को ढक हुए हैं तथा पृथ्वी को अंतरिक्ष की ठंड से बचाती है।
  • गर्म तापमान बनाए रखने की इस प्रक्रिया को ‘ग्रीनहाउस प्रभाव’ (Greenhouse Effect) कहा जाता है।
  • प्रमुख GHG: जलवाष्प, कार्बन डाइऑक्साइड, मेथेन, ओजोन और नाइट्रस ऑक्साइड।
  • मानवजनित GHG
  • क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC): एयर कंडीशनर, फ्रीजर और रेफ्रिजरेटर में रेफ्रिजरेंट के रूप में व्यापक रूप से उपयोग किया जाने वाला यह रसायन ओजोन परत को नुकसान पहुँचाता है और वास्तव में शक्तिशाली GHG के रूप में कार्य करता है।
    • कार्बन डाइऑक्साइड की तुलना में, CFC 10,000 गुना से अधिक गर्मी पैदा कर सकता है।
  • हाइड्रोफ्लोरोकार्बन (HFC): यह CFC का प्रतिस्थापन है, ओजोन परत को नुकसान नहीं पहुँचाते हैं लेकिन शक्तिशाली GHG के रूप में कार्य करते हैं।

पृथ्वी के तापमान की 1.5 डिग्री सेल्सियस सीमा

  • पेरिस समझौता 2015: वर्ष 2015 में पेरिस समझौते पर 195 देशों ने हस्ताक्षर किए थे, जिसमें सदी के अंत तक पृथ्वी के तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे सीमित करने का वादा किया गया था।
  • वर्ष 2015 के पेरिस समझौते का उद्देश्य: पृथ्वी को जलवायु संकट से निपटने के लिए वर्ष 2100 तक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना।
    • पूर्व-औद्योगिक स्तर: पेरिस समझौते में इन स्तरों को निर्दिष्ट नहीं किया गया है, लेकिन वैज्ञानिक आमतौर पर वर्ष 1850 से 1900 तक के वर्षों को आधार रेखा मानते हैं। 

  • 1.5 डिग्री सेल्सियस क्यों?
    • यहाँ तक कि पूर्व-औद्योगिक औसत से 1.5 डिग्री सेल्सियस ऊपर की ग्लोबल वार्मिंग भी कुछ क्षेत्रों और कमजोर पारिस्थितिकी तंत्रों के लिए उच्च जोखिम पैदा करेगी, इसलिए, 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को ‘रक्षा रेखा’ (Defence Line) के रूप में निर्धारित करने का निर्णय लिया गया।
    • जब इस निर्धारित सीमा का उल्लंघन होता है?
      • IPCC के अनुसार, इस सीमा के उल्लंघन से भारी वर्षा वाले कई क्षेत्रों में सूखे की आवृत्ति, तीव्रता में वृद्धि होगी।
      • इसके अलावा उच्च वैश्विक तापमान महासागरों को गर्म कर देगा, जिसके परिणामस्वरूप समुद्री तूफान, वनाग्नि, समुद्री बर्फ तेजी से पिघलेगी और समुद्री जल स्तर में वृद्धि होगी।
    • विश्व इस निर्धारित सीमा को तोड़ने के कितने करीब है?
      • विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) की वैश्विक जलवायु रिपोर्ट, 2023 के अनुसार, 66% संभावना थी कि वर्ष 2023 तथा 2027 के बीच कम-से-कम एक वर्ष 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगा।
  • क्या विश्व ने पहले ही 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा पार कर दी है?
  • C3S के अनुसार, वर्ष 2023 में लगभग 50% दिन पूर्व-औद्योगिक स्तरों की तुलना में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्म थे और नवंबर (2023) माह के दो दिन, पहली बार, 2 डिग्री सेल्सियस से अधिक गर्म थे।
  • हालाँकि, इसका मतलब यह नहीं है कि पृथ्वी ने 1.5 डिग्री और 2 डिग्री सेल्सियस की सीमा का उल्लंघन किया है क्योंकि ये सीमाएँ औसतन 20-30 वर्षों की अवधि में दीर्घकालिक वार्मिंग को संदर्भित करती हैं।

पृथ्वी के बढ़ते तापमान से संबंधित चुनौतियाँ

  • पिघलती समुद्री बर्फ: जुलाई 2022 में मासिक औसत अंटार्कटिक समुद्री बर्फ का विस्तार 15.3 मिलियन वर्ग किमी. तक पहुँच गया और यह वर्ष 1991-2020 के औसत से 7 प्रतिशत कम था।
    • समुद्री बर्फ में परिवर्तन वैश्विक जलवायु पैटर्न और पारिस्थितिकी तंत्र को बाधित कर सकता है, मौसम प्रणालियों को प्रभावित कर सकता है तथा संभावित रूप से अधिक चरम मौसम की घटनाओं को जन्म दे सकता है।
    • उदाहरण के लिए यह आर्कटिक पारिस्थितिकी तंत्र को खतरे में डालता है, जिससे आवास एवं भोजन स्रोतों के लिए बर्फ पर निर्भर ध्रुवीय भालू, सील एवं अन्य प्रजातियाँ भी प्रभावित होती हैं।
  • ग्लेशियरों का लुप्त होना: तीसरे ध्रुव (मध्य एशिया में हिमालय-हिंदू कुश पर्वत शृंखला और तिब्बती पठार को घेरने वाला क्षेत्र) में पिछले 50 वर्षों में 509 से अधिक छोटे ग्लेशियर लुप्त  हो गए और यहाँ तक कि सबसे बड़े ग्लेशियर भी तेजी से सिकुड़ रहे हैं।
    • पिघलते ग्लेशियर समुद्र के स्तर को बढ़ाने में योगदान करते हैं, जिससे तटीय समुदायों और निचले इलाकों के समक्ष खतरा उत्पन्न होता है।
    • इससे बाढ़ में बढ़ोत्तरी हो सकती है और आबादी का विस्थापन हो सकता है। जैसे-जैसे ग्लेशियर कम होते जाएँगे, निचले इलाकों में रहने वाले समुदायों के लिए जल की आपूर्ति बाधित हो सकती है, जिससे कृषि और पेयजल सुविधा प्रभावित होंगी।
  • समुद्र स्तर में त्वरित वृद्धि: प्रत्येक वर्ष समुद्र जल स्तर 0.13 इंच बढ़ जाता है और समुद्र के स्तर में वृद्धि भी तीव्र हो रही है और वर्ष 2050 तक इसके एक फुट तक बढ़ने का अनुमान है। 
    • इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (IPCC) की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2100 तक महासागरों का तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ने के साथ समुद्री जल स्तर 10 से 30 इंच तक बढ़ सकता है। 
    • उच्च समुद्र जल स्तर तटीय क्षरण में योगदान देता है, बुनियादी ढाँचे, घरों एवं पारिस्थितिकी तंत्र को भी खतरे में डालता है।
    • संवेदनशील तटीय क्षेत्रों में बाढ़ और तूफान का खतरा बढ़ गया है। वे समुद्री जैव विविधता को उच्च अक्षांशों की ओर स्थानांतरित कर रहे हैं और प्रवाल विरंजन का भी कारण बन रहे हैं।
    • उदाहरण के लिए, चार अलग-अलग प्रजातियाँ [अटलांटिक रॉक क्रैब (क्रस्टेशियन), अटलांटिक कॉड (मछली), शार्प थूथन सीब्रीम (मछली) और कॉमन ईलपाउट (मछली)] वर्ष 2100 तक उच्च अक्षांशों की ओर स्थानांतरित हो सकती हैं।
  • बढ़ती चरम मौसमी घटनाएँ (EWE): EWE ने सभी महाद्वीपों को गंभीर क्षति पहुँचाई, खाद्य असुरक्षा जनसंख्या विस्थापन को बढ़ाया और कमजोर लोगों पर प्रभाव डाला।
    • उदाहरण के लिए मार्च से मई 2022 तक भारत और पाकिस्तान में तीव्र हीट वेव की शुरुआत (30 गुना अधिक होने की संभावना) और अगस्त में पाकिस्तान में बाढ़ (वर्षा की तीव्रता में 50 प्रतिशत की वृद्धि)।
  • व्यापक वनाग्नि: गर्म तापमान शुष्क स्थिति उत्पन्न करता है, जिससे वनाग्नि की आवृत्ति और तीव्रता बढ़ जाती है। इससे पारिस्थितिकी तंत्र, जैव विविधता और मानव समुदायों के लिए खतरा पैदा हो गया है।
    • उदाहरण के लिए वर्ष 2019 और 2020 में ऑस्ट्रेलिया में विनाशकारी वनाग्नि से लगभग तीन अरब जानवर मारे गए या विस्थापित हुए।
  • दीर्घकालिक एवं अधिक तीव्र हीट वेव: लंबे समय तक और तीव्र हीट वेव गर्मी से संबंधित बीमारियों तथा मौतों (विशेषकर संवेदनशील आबादी के लिए) का कारण बन सकती हैं। अत्यधिक गर्मी फसल की पैदावार और कृषि उत्पादकता पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है, जिससे खाद्य असुरक्षा हो सकती है। पशुधन पर हीट वेव का प्रभाव भी एक चिंता का विषय है।

आगे की राह

  • नेट-जीरो लक्ष्य सुनिश्चित करना: सबसे अधिक प्रदूषक फैलाने वाले देशों/संघ (चीन, संयुक्त राज्य अमेरिका, भारत और यूरोपीय संघ) सहित 140 से अधिक देशों ने नेट-जीरो लक्ष्य निर्धारित किया है, जो लगभग 88% वैश्विक उत्सर्जन को कवर करता है।
    • नेट-जीरो के लक्ष्य तक पहुँचने के लिए सभी सरकारों को अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (Nationally Determined Contributions- NDCs) को महत्त्वपूर्ण रूप से मजबूत करने और उत्सर्जन को कम करने की दिशा में साहसिक, तत्काल कदम उठाने की आवश्यकता है।
  • अंतरराष्ट्रीय पहल: 90 से अधिक देशों ने नेट-जीरो उत्सर्जन लक्ष्य निर्धारित किए हैं और इन जलवायु परिवर्तन लक्ष्यों को पूरा करने के लिए समर्थन और सुनिश्चित करने हेतु एक तंत्र की आवश्यकता है।
    • उदाहरण के लिए OECD इंटरनेशनल प्रोग्राम फॉर एक्शन ऑन क्लाइमेट (IPAC) 2050 तक नेट-जीरो GHG उत्सर्जन और अधिक लचीली अर्थव्यवस्था की दिशा में देश की प्रगति का समर्थन करता है।
  • जलवायु शमन और अनुकूलन: जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम गंभीर बनाने के लिए वायुमंडल में GHG के उत्सर्जन को कम करना।
  • UNEP द्वारा जारी उत्सर्जन अंतराल रिपोर्ट 2022 के अनुसार, 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को हासिल करने के लिए वर्ष 2030 तक उत्सर्जन में 45 प्रतिशत की गिरावट होनी चाहिए। शेष वायुमंडलीय कार्बन बजट को समाप्त होने से बचाने के लिए वर्ष 2030 के बाद उत्सर्जन में तेजी से गिरावट जारी रहनी चाहिए।
  • टिकाऊ कृषि: कृषि पर जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने और खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए, जलवायु-लचीली फसल किस्मों की खेती, टिकाऊ कृषि पद्धतियों आदि को विकसित करना तथा बढ़ावा देना आवश्यक है।

  • उदाहरण के लिए भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (ICAR) के अनुसार, इस सदी के अंत तक हिमालय क्षेत्र में उगाई जाने वाली फसलें गंभीर रूप से प्रभावित होंगी। इस प्रकार, उत्तराखंड में किसान पारंपरिक कृषि पद्धतियों पर पुनर्विचार कर रहे हैं और नई फसलों तथा प्रजातियों के साथ प्रयोग कर रहे हैं एवं पशुपालन, मुर्गीपालन व मछली पालन की ओर बढ़ रहे हैं।
  • जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए उभरती प्रौद्योगिकी: ये प्रौद्योगिकियाँ ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने और पृथ्वी को होने वाले नुकसान को कम करने के लिए नवीन समाधान प्रदान करके जलवायु परिवर्तन को कम करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
  • उदाहरण के लिए सौर जियोइंजीनियरिंग का उपयोग करना, जो GHG में वृद्धि के वार्मिंग प्रभावों को हल करने में सहायक हो सकती हैं।

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