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भारत भर में व्यापक वर्षा

Lokesh Pal July 18, 2024 04:51 134 0

संदर्भ

इस मौसम में पहली बार दक्षिण-पश्चिम मानसून भारत के विशाल क्षेत्र में सक्रिय हो गया है।

वर्षण के आँकड़े और वितरण

  • कुल वर्षा में वृद्धि
    • मौसम विभाग के आँकड़ों के अनुसार, अखिल भारतीय स्तर पर वर्षा 9 जुलाई को 242 मिमी. से बढ़कर 17 जुलाई को 305.8 मिमी. हो गई। वर्तमान वर्षा इस मौसम के लिए सामान्य स्तर का 97% है।

अधिक वर्षा वाले क्षेत्र 

कोंकण और गोवा, मध्य महाराष्ट्र के घाट क्षेत्र, तटीय कर्नाटक, केरल, उत्तराखंड

  • पश्चिमी उत्तर प्रदेश, गुजरात और पश्चिम बंगाल

कम वर्षा वाले क्षेत्र  

कुछ राज्यों में कम वर्षा हुई है, जिनमें ओडिशा, हरियाणा, चंडीगढ़, हिमाचल प्रदेश, झारखंड, केरल, नागालैंड, मणिपुर और मिजोरम शामिल हैं।

अधिक वर्षा के कारण    

वर्षा की मात्रा को प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित करने वाले दो मुख्य कारक हैं:

  • तीव्र पश्चिमी पवनें: अरब सागर से महत्त्वपूर्ण नमी प्राप्त कर प्रवाहित होने वाली ये हवाएँ, वर्षा उत्पन्न करने वाली जल वाष्प का निरंतर स्रोत प्रदान करती हैं।
  • मानसून गर्त की दक्षिण दिशा में स्थिति: यह कम दाबयुक्त क्षेत्र, जो आमतौर पर पाकिस्तान और बंगाल की खाड़ी के बीच होता है, वर्तमान में दक्षिण दिशा में स्थित है। यह दक्षिणी स्थिति मध्य, पूर्वी और प्रायद्वीपीय भारत में अधिक वर्षा की अनुमति देती है।
  • अतिरिक्त मौसम प्रणालियाँ: उपरोक्त के अलावा, अन्य मौसम प्रणालियों ने भी व्यापक वर्षा में भूमिका निभाई है:
    • अपतटीय गर्त: भारत के पश्चिमी तट पर एक कम दाबयुक्त गर्त एक सप्ताह से अधिक समय से निर्मित है, जिससे दक्षिण गुजरात और उत्तरी केरल के बीच वर्षा में वृद्धि हुई है।
    • पवन अपरूपण क्षेत्र: मध्य भारत (अक्षांश 20° उत्तरी अक्षांश) पर अलग-अलग गति और दिशाओं वाली वायु गतिविधियों ने वर्षा वृद्धि में योगदान दिया है।
    • निम्न दाब प्रणाली: ओडिशा के पास बंगाल की खाड़ी के ऊपर विकसित एक निम्न दाब प्रणाली अंतर्देशीय क्षेत्र में चली गई है, जिससे छत्तीसगढ़, विदर्भ और मध्य प्रदेश में वर्षा हुई है।

मानसून

  • मानसून एक मौसमी पवन है, जो दिशा परिवर्तित करती है और भारी वर्षा लाती है।
    • यह उत्तरी और दक्षिणी गोलार्द्ध के बीच अंतर-उष्णकटिबंधीय अभिसरण क्षेत्र (ITCZ) की गति के कारण होता है।

  • भारत में मानसूनी जलवायु
    • भारत की जलवायु को ‘मानसून’ प्रकार के रूप में वर्गीकृत किया गया है। 
    • एशिया में, यह जलवायु प्रकार मुख्य रूप से दक्षिणी और दक्षिण-पूर्वी क्षेत्रों में पाया जाता है। 
    • मौसमी विभाजन: भारत में चार मौसमी विभाजन हैं, जिनमें से दो मानसून मौसम हैं:
      • दक्षिण-पश्चिम मानसून ऋतु:
        • जून और सितंबर के बीच होता है। 
        • दक्षिण-पश्चिम मानसून से होने वाली मौसमी वर्षा इसकी विशेषता है।
      • मानसून का निवर्तन
        • अक्टूबर और नवंबर के दौरान होता है।
        • मानसून के निवर्तन के लिए जाना जाता है।

जलवायु परिवर्तन का भारतीय मानसून पर प्रभाव

जलवायु परिवर्तन भारत के मानसून मौसम के संवेदनशील संतुलन को बिगाड़ रहा है, जिसके कारण कई चिंताजनक प्रवृत्तियाँ सामने आ रही हैं:

  • मानसून का आगमन और विलंब
    • देरी से शुरू होना: ग्लोबल वार्मिंग के कारण मानसून सामान्य से देरी से आ रहा है। इससे रोपण कार्यक्रम और कृषि योजना बाधित हो रही है।
    • चक्रवात और आर्कटिक वार्मिंग: आर्कटिक क्षेत्र में चक्रवात और वार्मिंग जैसे कारक मानसून की वर्षा के देरी से आने में योगदान दे रहे हैं।
  • वर्षा का बदलता पैटर्न
    • कुल वर्षा में कमी: पिछले 70 वर्षों में, मानसून की कुल वर्षा में गिरावट का रुझान रहा है। ऐसा संभवतः भूमि और महासागरों के गर्म होने की गति में अंतर के कारण है। 
    • असमान वितरण: जलवायु परिवर्तन मानसून की वर्षा को और अधिक अनियमित बना रहा है। कुछ क्षेत्रों में भारी वर्षा होती है, जबकि अन्य क्षेत्रों में सूखे का सामना करना पड़ता है।
  • चरम मौसम में वृद्धि
    • भारी वर्षा और चक्रवात: मानसून के मौसम में भारी वर्षा और चक्रवात जैसी चरम मौसमी घटनाएँ अधिक बार और तीव्र रूप से देखने को मिलती हैं। इन घटनाओं से अत्यधिक नुकसान और जान-माल का नुकसान हो सकता है।
  • महासागरों के तापमान में वृद्धि
    • तापमान प्रवणता में व्यवधान: हिंद महासागर के तापमान में वृद्धि हो रही है, जिससे स्थल और समुद्र के बीच तापमान का अंतर प्रभावित होता है। यह तापांतर मानसूनी पवनों के संचालन हेतु महत्त्वपूर्ण है।
  • विलंब के परिणाम
    • मानसून के देरी से आने से कृषि कार्य बाधित होते हैं, क्योंकि किसान फसल बोने के लिए पूर्वानुमानित वर्षा पैटर्न पर निर्भर रहते हैं। 
    • मानसून की वर्षा के लंबे समय तक न आने से फसल चक्र पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है, जिससे संभावित रूप से फसल खराब होने की संभावना बढ़ जाती है।

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