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भारत में डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा

Lokesh Pal July 16, 2025 02:45 8 0

संदर्भ

हाल ही में बिहार के पूर्णिया जिले में जादू-टोने (Witchcraft) के आरोप में एक परिवार के पाँच सदस्यों को जिंदा जला दिया गया।

  • उल्लेखनीय है कि वर्ष 2025 में, भारत स्वतंत्रता के 78 वर्ष पश्चात् और विश्व स्तर पर ‘चौथे सबसे अधिक समानता वाले देश’ के रूप में स्थान पाने के बाद भी डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर वीभत्स, लैंगिक हिंसा के मामले सामने आ रहे हैं।

डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा के बारे में

  • डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा एक सदियों पुरानी परंपरा है, जिसे ग्रामीण भारत में लोगों के अंधविश्वासों से प्रेरित माना जाता है। जिस महिला पर जादू-टोना करने का आरोप लगता है, उसे पूरे समुदाय द्वारा कड़ी सजा दी जाती है और उसे ‘डायन, ‘दैनी’, ‘चुड़ैल’ आदि कहकर पुकारा जाता है।
  • अंधविश्वास और सामाजिक नियंत्रण की ऐतिहासिक जड़ें: डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा की उत्पत्ति अंधविश्वासों और प्रतिगामी रीति-रिवाजों से हुई है, जिसका प्रयोग प्रायः उन व्यक्तियों ‘विशेषकर महिलाओं’ को लक्षित करने के साधन के रूप में किया जाता था, जिन्हें बीमारी या प्राकृतिक आपदाओं का कारण बनने के लिए डायन करार दिया जाता था।
    • यह सामाजिक बहिष्कार और पितृसत्तात्मक नियंत्रण का एक रूप था।
  • आधुनिक युग में इस प्रथा का जारी रहना: कानूनी और वैज्ञानिक प्रगति के बावजूद, भारत के कुछ हिस्सों सहित दुनिया के कई क्षेत्रों में डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा वर्तमान में भी जारी है, जहाँ इसे प्रायः परंपरा या प्रथागत विश्वास के संदर्भ में जारी रखा जाता है।
    • यह तर्कहीनता एवं सामाजिक जड़ता की गहरी जड़ें दर्शाता है।
  • हिंसा और उत्पीड़न की लैंगिक प्रकृति: डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा की प्रथाओं में महिलाओं को असमान रूप से निशाना बनाया जाता है। उन्हें बदनाम किया जाता है, प्रताड़ित किया जाता है, उनका यौन उत्पीड़न किया जाता है, बहिष्कृत किया जाता है या यहाँ तक कि मार भी दिया जाता है, जिससे पता चलता है कि कैसे ऐसे आरोप उत्पीड़न के लैंगिक हथियार के रूप में कार्य करते हैं, जो प्रायः स्त्री-द्वेष, जातिगत पूर्वाग्रह और आर्थिक स्थिति को लेकर ईर्ष्या में निहित होते हैं।
  • पीड़ितों का बहिष्कार और सार्वजनिक ध्यान: डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा का प्रतिकार नहीं किया जाता है, जब तक कि वह मौत में परिणत न हो जाए; पीड़ित जीवन भर उपेक्षा एवं आघात का सामना करती हैं।

जादू टोने (Witchcraft) के बारे में 

  • जादू-टोना अलौकिक शक्तियों या अनुष्ठानों में विश्वास को दर्शाता है, जो जीवन की परिस्थितियों को प्रभावित करते हैं।
  • परंपरा और रहस्यवाद में निहित, यह विभिन्न संस्कृतियों में भिन्न होता है, लेकिन प्रायः बीमारी, दुर्भाग्य या मृत्यु के बारे में गहरी चिंताओं को दर्शाता है।
  • महिलाओं (विशेषकर जो गरीब, विधवा या मुखर हैं) को प्रायः डायन करार दिया जाता है। यह बदनामी पितृसत्तात्मक नियंत्रण के एक उपकरण के रूप में कार्य करती है, जिससे सामाजिक बहिष्कार, हिंसा और बिना सुबूत के दंड संभव हो जाता है।

भारत में डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा की स्थिति

  • 12 प्रभावित राज्य: असम, बिहार, छत्तीसगढ़, गुजरात, हरियाणा, झारखंड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल।
  • अप्रैल-जुलाई 2025: बिहार, झारखंड और मध्य प्रदेश से हिंसक मामले सामने आए।
  • NCRB (2000-2016): जादू-टोने से संबंधित 2,500 से अधिक हत्याएँ, जिनमें अधिकतर महिलाएँ थीं।
  • NCRB 2022: जादू-टोने संबंधित हिंसा में 1,184 लोग मारे गए। (2012-2022)
  • NCRB भारत में अपराध रिपोर्ट: एक ही वर्ष में 85 मौतें (वर्ष 2022)
  • ‘निरंतर’ (Nirantar) ट्रस्ट द्वारा वर्ष 2023-24 का सर्वेक्षण: 48% आरोप ससुराल वालों की ओर से आते हैं और 42% मामले महिलाओं की आय में वृद्धि से संबंधित होते हैं।
    • अकेले बिहार में ही 75,000 महिलाएँ डायन कहलाए जाने के खतरे में रहती हैं, जो कि प्रत्येक गाँव में दो या उससे अधिक हैं।
  • रिपोर्टिंग में कमी: केवल 31% महिलाएँ हिंसा की रिपोर्ट दर्ज कराती हैं; उनमें से 62% को कोई समाधान नहीं मिलता, और 85% ग्राम प्रधान डायन-विरोधी कानूनों से अनभिज्ञ हैं।
    • डर, शर्म या पुलिस की उदासीनता के कारण कई मामले दर्ज नहीं हो पाते हैं।

ओझाओं (Exorcists) के बारे में

  • भारतीय इतिहास में एक पारंपरिक आरोग्य-चिकित्सक या ओझा को संदर्भित करता है, जिन्हें प्रायः ग्रामीण विभिन्न बीमारियों के निदान और उपचार के लिए बुलाते हैं।
  • ये चिकित्सक मंत्रोच्चार करते हैं और उपचार बताते हैं, तथा जादू-टोने से उत्पन्न मानी जाने वाली चोटों या बीमारियों जैसे मुद्दों के समाधान में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
  • यद्यपि वे व्यक्तियों को प्रभावित करने वाली बीमारियों का उपचार करने का प्रयास करते हैं, लेकिन उनकी सफलता की गारंटी नहीं होती है।
  • यह शब्द कई प्रकार की उपचार पद्धतियों को समाहित करता है, जिनमें भूत-प्रेत भगाना और जादू-टोने के प्रभावों का प्रतिकार करना शामिल है।

मूल कारण

  • अंधविश्वास एक आवरण के रूप में: अंधविश्वास डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा के लिए एक सुविधाजनक आवरण के रूप में कार्य करता है, व्यक्तिगत प्रतिशोध, लैंगिक पूर्वाग्रह और जाति-आधारित उत्पीड़न को छुपाता है। यह अज्ञानता, भय और कमजोर प्रशासन का लाभ उठाता है, जिससे अपराधी सांस्कृतिक विश्वास की आड़ में हिंसा को उचित ठहराते हैं।
  • ओझा और आस्था-आचार्य: मध्य प्रदेश, बिहार, झारखंड और ओडिशा में ओझा स्वयंभू चिकित्सक की तरह होते हैं, जो अनुष्ठानिक प्रसाद और शुल्क के बदले ‘चुड़ैलों की पहचान’ करके समुदायों का शोषण करते हैं।
    • एक बार किसी पर सामाजिक कलंक लगा दिया जाए तो प्रायः सार्वजनिक रूप से उसे बदनाम किया जाता है, हिंसा होती है या उसकी हत्या कर दी जाती है।
  • लैंगिक और जाति-आधारित निशाना: बुजुर्ग, अविवाहित, मुखर या भू-स्वामी महिलाओं के नियंत्रण का विरोध करने या अधिकारों का दावा करने के लिए आरोप लगाए जाते हैं।
  • दलित एवं आदिवासी: अधिकतर पीड़ित हाशिए पर स्थित समुदायों से संबंधित हैं।
  • गरीबी एवं निरक्षरता: प्रभावित क्षेत्र गंभीर अभाव, कम साक्षरता और सार्वजनिक सेवाओं के अभाव से पीड़ित हैं।
    • स्वास्थ्य सेवा पर होने वाला भारी खर्च ओझाओं पर निर्भरता बढ़ाता है।
  • कोई आर्थिक विकल्प नहीं: रोजगार एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अभाव समुदायों को दुर्भाग्य के लिए विश्वास-आधारित स्पष्टीकरणों के प्रति संवेदनशील बना देता है।

डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा से उत्पन्न नैतिक चिंताएँ

  • संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन: डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा अनुच्छेद-21 (जीवन का अधिकार), अनुच्छेद-14 (समानता) और अनुच्छेद-15 (भेदभाव न करना) का उल्लंघन करता है।
    • आरोप अनौपचारिक ग्राम सभाओं या सामुदायिक भीड़ द्वारा लगाए जाते हैं, न कि न्यायालयों द्वारा, जिससे निष्पक्ष सुनवाई, साक्ष्य या किसी अन्य विकल्प से इनकार किया जाता है।
    • संवैधानिक नैतिकता तब पराजित हो जाती है, जब ‘न्याय’ कानून से नहीं, बल्कि अंधविश्वास से दिया जाता है।
    • इस तरह के डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा संबंधी कृत्य विभिन्न अंतरराष्ट्रीय कानूनों के कई प्रावधानों का भी उल्लंघन करते हैं, जिन पर भारत हस्ताक्षरकर्ता है, जैसे ‘मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा, 1948’, ‘नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतरराष्ट्रीय वाचा, 1966’, और ‘महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव के उन्मूलन पर अभिसमय, 1979’।
  • नैतिक सार्वभौमिकता बनाम नैतिक सापेक्षवाद: प्रायः रीति-रिवाजों का प्रयोग डायन संबंधी आरोप को उचित ठहराने के लिए किया जाता है लेकिन नैतिक मानदंड सांस्कृतिक रूप से अनिवार्य नहीं होने चाहिए।
  • सार्वभौमिक नैतिकता: कोई भी परंपरा यातना, दुष्कर्म या हत्या को उचित नहीं ठहरा सकती है।
  • अमानवीयकरण और प्रणालीगत हिंसा: जादू टोने के आरोप में महिलाओं को अत्यधिक सार्वजनिक अपमान का सामना करना पड़ता है, उनका सिर मुंडवा दिया जाता है, उन्हें निर्वस्त्र करके घुमाया जाता है, पीटा जाता है और प्रायः उनकी हत्या कर दी जाती है।
    • यह हत्या से कहीं आगे की बात है; यह सामाजिक पतन है, क्योंकि कई पीड़ित शर्म और सामाजिक भय से खामोश, अकेलेपन में जीते हैं।
    • कांट के नैतिक सिद्धांत: किसी भी व्यक्ति को साध्य प्राप्ति का साधन नहीं माना जाना चाहिए। किसी महिला का डायन होने के रूप में दावा करना मानवीय गरिमा को बिना शर्त बनाए रखने के नैतिक कर्तव्य का उल्लंघन है।
  • लिंग-आधारित हिंसा और पितृसत्तात्मक प्रतिशोध: डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा से होने वाली लगभग 98% मौतें महिलाओं से संबंधित होती हैं। आरोपी आमतौर पर 46-66 वर्ष की आयु के होते हैं, और 97% पिछड़ी जातियों से संबंधित होते हैं।
    • महिलाओं को किसी रहस्यमय कारण से नहीं, बल्कि प्रायः इसलिए निशाना बनाया जाता है क्योंकि वे विधवा या भूमिहीन हैं, शराब की बिक्री का विरोध करती हैं, विरासत का दावा करती हैं, स्वतंत्र रूप से कमाई करती हैं आदि।
    • 42% मामले महिलाओं की आय या नेतृत्व की भूमिकाओं में वृद्धि से जुड़े हैं, जो पुरुष-प्रधान पदानुक्रम को खतरे में डालते हैं।
    • नारीवादी नैतिकता: डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा महिलाओं की स्वायत्तता पर नियंत्रण को दर्शाता है, उन लोगों को दंडित करना, जो अपनी स्वायत्तता का दावा करते हैं या पारंपरिक लैंगिक मानदंडों को चुनौती देते हैं।
  • जाति, वर्ग और शिक्षा-आधारित भेदभाव: उच्च जाति की महिलाओं पर शायद ही कभी आरोप लगाए जाते हैं, जिससे जाति, लैंगिक और आर्थिक उत्पीड़न की अंतर्विरोधी प्रकृति उजागर होती है।
    • इस बुराई का सामना करने वालों में शामिल हैं:- 
      • 73% महिलाएँ कभी स्कूल नहीं गईं। 
      • 66% के पास स्थिर आय का अभाव था। 
      • 97% दलित, आर्थिक रूप से पिछड़े वर्ग (EBC) या अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) से थे।
    • सामाजिक न्याय की नैतिकता: निष्पक्षता सभी के लिए समान सुरक्षा की माँग करती है। हाशिए पर रहने वाली महिलाओं के लिए निवारण का अभाव वितरणात्मक और प्रक्रियात्मक न्याय में नैतिक पतन को दर्शाता है।
  • संस्थाओं की नैतिक उदासीनता: बिहार सर्वेक्षण के अनुसार, केवल 31% पीड़ितों ने अपने साथ हुए दुर्व्यवहार की सूचना दी, 62% को कोई समाधान नहीं मिला और 85% ग्राम प्रधान वर्ष 1999 के निवारण अधिनियम से अनभिज्ञ थे।
    • सद्गुण नैतिकता: समुदायों में करुणा, साहस और न्याय जैसे गुणों का अभाव है। इसके बजाय, निष्क्रियता और मौन समर्थन व्याप्त है और यह प्रवृत्ति केवल आम लोगों तक सीमित नहीं, बल्कि कई बार कानून लागू करने वाले प्रशासनिक तंत्र में भी दिखाई देती है।
  • राज्य की विफलता और कानूनी खामियाँ: बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में राज्य कानूनों के बावजूद प्रवर्तन असंगत है, पुलिस को प्रायः संबंधित कानूनों की जानकारी नहीं होती है और कोई समान केंद्रीय कानून मौजूद नहीं है।
    • सामाजिक अनुबंध सिद्धांत: राज्य अपने अनुबंध के वादे को पूरा करने में विफल रहा है, कानून के प्रति निष्ठा के बदले में अपने सबसे कमजोर लोगों की रक्षा करना।

मूल नैतिक मूल्यों को कमजोर करना

गरिमा पीड़ितों को निर्वस्त्र किया जाता है, शर्मिंदा किया जाता है और सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जाता है।
न्याय पीड़ितों को कोई न्याय नहीं मिलता है, अपराधी निडर होकर उनका शोषण करते हैं।
समानता केवल गरीब, निम्न जाति की महिलाओं को ही निशाना बनाया जाता है, कभी भी उच्च जाति या कुलीन वर्ग की महिलाओं को नहीं बनाया जाता है।
सहानुभूति समुदाय, पंचायतें और यहाँ तक कि परिवार भी प्रायः इसमें शामिल या मौन समर्थन करते हैं।
जवाबदेही कानूनी मशीनरी और अधिकारी कानून लागू करने या सुरक्षा प्रदान करने में विफल रहते हैं।

विभिन्न सरकारी पहल

  • राज्य-विशिष्ट विधान
    • बिहार (डायन प्रथा निवारण अधिनियम, 1999)
      • बिहार वर्ष 1999 में इस मामले पर कानून लाने वाला पहला राज्य बना।
    • झारखंड (डायन प्रथा निवारण अधिनियम, 2001)
    • छत्तीसगढ़ (जादू-टोना प्रथा निवारण अधिनियम, 2005)
    • ओडिशा (डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा निवारण अधिनियम, 2013)
    • असम [असम डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा (निषेध, रोकथाम और संरक्षण) अधिनियम, 2018]
  • भारतीय न्याय संहिता (BNS) में प्रावधान: भारतीय न्याय संहिता, 2023, जिसने भारतीय दंड संहिता का स्थान लिया है, में ऐसे प्रावधान शामिल हैं, जिनका उपयोग डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा के अपराधियों पर मुकदमा चलाने के लिए किया जा सकता है। भारतीय न्याय संहिता (BNS) के अंतर्गत प्रासंगिक प्रमुख धाराएँ इस प्रकार हैं:-
    • हत्या: BNS धारा 103 (IPC धारा 302 के अनुरूप)
    • हत्या का प्रयास: BNS धारा 109 (IPC धारा 307 के अनुरूप)
    • स्वेच्छा से चोट पहुँचाना: BNS धारा 115 (IPC धारा 323 के अनुरूप)
    • महिला की गरिमा को ठेस पहुँचाने के उद्देश्य से उस पर हमला या आपराधिक बल का प्रयोग: BNS धारा 74 (IPC धारा 354 के अनुरूप)
    • मानहानि: BNS धारा 356 (IPC धारा 500 के अनुरूप)।
    • हत्या के रूप में भीड़ द्वारा पीट-पीटकर हत्या
      • BNS धारा 103(2): जब पाँच या अधिक व्यक्ति जाति, लिंग, आस्था या अन्य भेदभावपूर्ण कारकों के आधार पर हत्या करने के लिए मिलकर कार्य करते हैं, तो प्रत्येक सदस्य को मृत्युदंड, आजीवन कारावास और जुर्माने का सामना करना पड़ता है। यह प्रावधान सीधे तौर पर डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा करने वाली भीड़ पर लागू होता है।
    • भीड़ द्वारा गंभीर चोट पहुँचाना-BNS की धारा 117(4): यदि पाँच या अधिक लोगों की भीड़ समान भेदभावपूर्ण आधार पर गंभीर चोट पहुँचाती है, तो सभी को 7 वर्ष तक का कारावास और जुर्माने की सजा हो सकती है। यह हत्या से इतर सामूहिक हिंसा को मान्यता देता है और दंडित करता है।
  • सरकारी योजनाएँ और पहल: कुछ राज्यों ने विशिष्ट प्रोजेक्ट शुरू किए हैं, जैसे झारखंड में ‘प्रोजेक्ट गरिमा’ और ‘प्रोजेक्ट सुरक्षा’ (झालसा द्वारा शुरू की गई), जो डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा के उन्मूलन, पीड़ितों को कानूनी सहायता, परामर्श और पुनर्वास प्रदान करने पर केंद्रित हैं।
    • असम ने भी डायन हत्या से निपटने के लिए एक राज्य नीति अधिसूचित की है।

प्रोजेक्ट सुरक्षा (Project Suraksha)

  • यह प्रोजेक्ट कानूनी, चिकित्सा और शैक्षिक सहायता को मिलाकर डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा से निपटने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाता है।
  • इसका लक्ष्य उन अंधविश्वासों को समाप्त करना है, जो डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा को बढ़ावा देते हैं और पीड़ितों को अपना जीवन पुनः स्थापित करने और न्याय पाने के लिए आवश्यक संसाधन प्रदान करना है।

प्रोजेक्ट गरिमा (Project Garima)

  • यह प्रोजेक्ट डायन प्रथा का शिकार बनी महिलाओं की गरिमा को लौटने, उन्हें कानूनी सहायता, न्याय और पुनर्वास सेवाओं तक पहुँचने में सहायता करने के लिए तैयार किया गया है।
  • इसका उद्देश्य महिलाओं के अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाना और उन्हें ऐसी प्रथाओं के विरुद्ध लड़ने के लिए सशक्त बनाना है।

प्रोजेक्ट प्रहरी (असम)

  • यह एक सामुदायिक-पुलिस पहल है, जो डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा से निपटने तथा पुलिस और जनजातीय समुदायों के बीच विश्वास बनाने पर केंद्रित है।

संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद का प्रस्ताव (UN Human Rights Council Resolution)

  • जुलाई 2021 में, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद ने जादू-टोना और अनुष्ठानिक हमलों (HPAWR) के आरोपों से जुड़ी हानिकारक प्रथाओं के उन्मूलन पर एक प्रस्ताव पारित किया।
  • वर्ष 1953 से, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) भारत में अपराध संबंधी आँकड़ों का एक मानक स्रोत रहा है। इसमें ‘हत्या के कारणों’ से संबंधित एक श्रेणी है जिसमें जादू-टोने का भी उल्लेख है।

डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा से निपटने के लिए कुछ प्रासंगिक वैश्विक प्रथाएँ

  • पापुआ न्यू गिनी (2013): औपनिवेशिक काल के जादू-टोना अधिनियम को निरस्त कर दिया, जो जादू-टोने में विश्वास को आंशिक कानूनी बचाव के रूप में अनुमति देता था। इसने कानूनी खामियों को दूर किया और जादू-टोने से संबंधित हिंसा के लिए कठोर दंड का प्रावधान किया।
  • घाना (2023): नागरिक समाज के दबाव में, जादू-टोने के आरोपों को विशेष रूप से आपराधिक बनाने वाला एक कानून पारित किया। यह सामान्य आपराधिक कानूनों से परे, कानूनी व्यवस्था को समस्या की जड़ तक पहुँचने का अधिकार देता है।
  • घाना का डायन शिविर सुधार: ‘डायन शिविरों’ से पुनर्एकीकरण-केंद्रित मॉडलों की ओर संक्रमण, जिसमें सामाजिक समर्थन, सामुदायिक मेल-मिलाप और आर्थिक सशक्तीकरण शामिल है।

चुनौतियाँ

  • केंद्रीय कानून का अभाव: एक समान राष्ट्रीय कानून का अभाव विभिन्न राज्यों में इस मुद्दे को संबोधित करने में विसंगतियाँ उत्पन्न करता है। पूर्व में प्रस्तुत विधेयक (जैसे- डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा से निवारण विधेयक, 2016) समाप्त हो चुके हैं।
  • अप्रभावी कार्यान्वयन: राज्यों में कानूनों के बावजूद, कानून प्रवर्तन एजेंसियों में जागरूकता की कमी, घटिया जाँच और कम दोषसिद्धि दर के कारण उनका प्रवर्तन असंगत बना हुआ है।
    • उदाहरण: यद्यपि ओडिशा डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा निवारण अधिनियम राज्य में डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा की समस्या से निपटने के लिए लागू किया गया था, फिर भी इसमें इस व्यापक समस्या को रोकने के लिए पर्याप्त शक्ति का अभाव है।
  • सामाजिक स्वीकृति और उपेक्षा: कई समुदाय अभी भी डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा को स्वीकार करते हैं और पीड़ितों को प्रायः आजीवन बहिष्कार का सामना करना पड़ता है, जिससे उनके लिए मामले की रिपोर्ट करना या पुनर्वास की माँग करना मुश्किल हो जाता है।
  • आँकड़ों में अंतराल: NCRB के आँकड़े प्रायः डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा से होने वाली मौतों को सामान्य हत्या के अंतर्गत वर्गीकृत करते हैं, जिससे विशिष्ट रुझानों पर नजर रखना और हस्तक्षेपों की प्रभावशीलता का मूल्यांकन करना चुनौतीपूर्ण हो जाता है।

लक्ष्मी साहू (Laxmi Sahu)

  • छत्तीसगढ़ में डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा की शिकार एक पीड़िता ने व्यक्तिगत आघात को जमीनी स्तर पर सक्रियता में बदल दिया।
  • डायन करार दिए जाने और सामाजिक रूप से बहिष्कृत किए जाने के बावजूद, उन्होंने हिंसा से बदला लेने के बजाय महिलाओं को अंधविश्वास के विरुद्ध शिक्षित और संगठित करने का निर्णय किया।
  • उनके साहस ने सामुदायिक जागरूकता को प्रेरित किया और गहरी जड़ें जमाए बैठी मान्यताओं को चुनौती दी।

आशा की भूमिका 

  • डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा से शिकार महिलाओं को बचाना और उनका पुनर्वास करना।
  • ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में कानूनी जागरूकता अभियान संचालित करना।
  • न्याय और चिकित्सा सहायता सुनिश्चित करने के लिए पुलिस और स्वास्थ्य कर्मियों के साथ सहयोग करना।
  • मूलभूत स्तर पर वैज्ञानिक सोच और लैंगिक संवेदनशीलता को बढ़ावा देना।

आगे की राह

  • कानूनी और संरचनात्मक सुधार: डायन संबंधी प्रत्यारोप और डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा के विरुद्ध केंद्रीय कानून बनाना।
    • भारतीय न्याय संहिता के अंतर्गत सामाजिक-सांस्कृतिक आयामों को शामिल करना।
    • त्वरित न्यायालय और उत्तरजीवी पुनर्वास योजनाएँ स्थापित करना।
  • जमीनी स्तर पर सशक्तीकरण: महिला समूहों और सामुदायिक निगरानी समूहों को बढ़ावा देना।
    • लक्ष्मी साहू जैसी कार्यकर्ताओं और ‘एसोसिएशन फॉर सोशल एंड ह्यूमन अवेयरनेस’ (आशा) जैसे संगठनों के कार्यों को मान्यता देना और उन्हें वित्तपोषित करना।
  • शिक्षा, जागरूकता और वैज्ञानिक दृष्टिकोण: तर्कसंगतता और वैज्ञानिक व्याख्या को बढ़ावा देने के लिए अनुच्छेद-51A(h) के तहत अभियानों का विस्तार करना।
    • स्कूल और पंचायत प्रशिक्षण में अंधविश्वास-जागरूकता और लैंगिक संवेदनशीलता को शामिल करना।
  • जाति और लैंगिक समावेशन: सकारात्मक समर्थन के लिए दलित और आदिवासी महिलाओं को लक्षित करना और उन्हें आजीविका, शिक्षा, आवास और कानूनी सहायता प्रदान करना।
    • पुलिस, पंचायतों और सामुदायिक नेताओं के बीच डायन-विरोधी कानूनों के बारे में अनिवार्य जागरूकता लागू करना।
  • स्वास्थ्य और कल्याण सेवाएँ: ओझाओं पर निर्भरता कम करने के लिए ग्रामीण सार्वजनिक स्वास्थ्य और मानसिक स्वास्थ्य सेवा में निवेश करना।
    • बहिष्कृत लोगों को उत्तरजीवी परामर्श, आर्थिक सहायता और पुनर्वास सहायता प्रदान करना।

निष्कर्ष

भारत में डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा केवल अंधविश्वास नहीं है, यह लैंगिक शक्ति, आर्थिक असमानता और नैतिक विफलता का प्रतिबिंब है। डायन के रूप में घोषित महिलाओं पर हिंसा को समाप्त करने के लिए कानूनों से अधिक जागरूकता की आवश्यकता है, इसके लिए नैतिक शासन, सामाजिक साहस और समावेशी न्याय की आवश्यकता है। जब तक गरिमा, सहानुभूति और समता को बरकरार नहीं रखा जाता, तब तक भारत की सबसे कमजोर महिलाओं के लिए समानता का दावा अधूरा रहेगा।

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