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सर्वोच्च न्यायालय में महिला न्यायाधीश

Lokesh Pal September 05, 2025 03:01 32 0

संदर्भ

अगस्त 2025 में न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया के सेवानिवृत्त होने पर सर्वोच्च न्यायालय में दो रिक्तियाँ तो उत्पन्न हुईं, परंतु किसी महिला की नियुक्ति न होने से यह स्पष्ट है कि न्यायपालिका अब भी गंभीर लैंगिक असंतुलन से जूझ रही है। वर्तमान में केवल न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ही महिला न्यायाधीश के रूप में कार्यरत हैं।

न्यायपालिका में महिलाओं से संबंधित आँकड़े

  • ऐतिहासिक प्रतिनिधित्व: वर्ष 2025 तक, भारत के सर्वोच्च न्यायालय में केवल 11 महिलाएँ न्यायाधीश के रूप में कार्यरत थीं, जो कुल न्यायाधीशों की संख्या का लगभग 4% है।
  • भावी नेतृत्व: न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना, जो वर्ष 2027 में भारत की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश होंगी, न्यायिक नेतृत्व में अधिक लैंगिक प्रतिनिधित्व की दिशा में एक ऐतिहासिक कदम है।
  • वर्तमान असंतुलन: वर्तमान में सर्वोच्च न्यायालय में कुल 34 न्यायाधीशों में से केवल एक महिला न्यायाधीश हैं, जो न्यायिक नियुक्तियों में लैंगिक असंतुलन को दर्शाता है।
  • उच्च न्यायालयों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व: उच्च न्यायालयों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व 11% है एवं अब तक केवल दो महिलाएँ ही किसी उच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के पद पर आसीन हुई हैं।
  • महत्त्वपूर्ण नियुक्ति: वर्ष 2021 में, सर्वोच्च न्यायालय में एक साथ तीन महिला न्यायाधीशों की नियुक्ति की गई, जो न्यायिक इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण क्षण था, लेकिन कुल मिलाकर प्रतिनिधित्व कम बना हुआ है।

न्यायपालिका में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व के कारण

  • ऐतिहासिक एवं सामाजिक बाधाएँ: कानूनी पेशे से पितृसत्तात्मक समाज के बहिष्कार का एक लंबा इतिहास रहा है।
    • जटिल न्यायिक मामलों के प्रबंधन में सक्षमता के संबंध में लैंगिक रूढ़िवादिता।
    • देखभाल करने वाली भूमिकाओं के बारे में सामाजिक अपेक्षाएँ महिलाओं की न्यायपालिका में भागीदारी को सीमित करती हैं।
  • शैक्षिक और कॅरियर पथ की बाधाएँ: गुणवत्तापूर्ण कानूनी शिक्षा तक सीमित पहुँच, विशेष रूप से वंचित समूहों के लिए।
    • आदर्शों और मार्गदर्शन की कमी महिलाओं को न्यायिक कॅरियर से हतोत्साहित करती है।
  • पेशेवर और कार्यस्थल चुनौतियाँ: पुरुष-प्रधान समाज महिलाओं की इस पेशे में उन्नति में बाधा उत्पन्न करते हैं।
    • मातृत्व अवकाश, बच्चों की देखभाल और लचीली कार्य नीतियों जैसे सहायक बुनियादी ढाँचे का अभाव है।
  • संस्थागत एवं संरचनात्मक पूर्वाग्रह: कॉलेजियम प्रणाली में अक्सर पारदर्शिता और लैंगिक संवेदनशीलता का अभाव होता है।
    • नेतृत्व की भूमिकाओं में प्रणालीगत बाधाएँ विद्यमान है, जिससे बहुत कम महिलाएँ न्यायाधीश बन पाती हैं।
  • प्रतिधारण और उन्नति संबंधी मुद्दे: न्यायपालिका में प्रवेश के बावजूद महिलाओं को भेदभाव एवं कॅरियर में प्रगति की कमी का सामना करना पड़ता है।

न्यायपालिका में अधिक महिलाओं की उपस्थिति का महत्त्व

  • कानूनी निर्णय लेने में विविध दृष्टिकोण: महिला न्यायाधीश महत्त्वपूर्ण लैंगिक-संवेदनशील दृष्टिकोण प्रस्तुत करती हैं, विशेष रूप से पारिवारिक कानून, घरेलू हिंसा और यौन उत्पीड़न से संबंधित मामलों में, जहाँ उनके व्यक्तिगत अनुभव बहुमूल्य अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।
  • न्यायिक प्रणाली में लैंगिक समानता को बढ़ावा देना: न्यायपालिका में अधिक महिलाओं की उपस्थिति न्यायिक प्रणाली की लोकतांत्रिक प्रकृति को मजबूत करती है, जिससे कानूनी मामलों में समान प्रतिनिधित्व और निष्पक्ष निर्णय लेने की प्रक्रिया सुनिश्चित होती है।
  • भावी पीढ़ियों के लिए आदर्श: महिला न्यायाधीश विधिक क्षेत्र में प्रवेश करने की इच्छुक युवा महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत के रूप में कार्य करती हैं, पारंपरिक रूढ़ियों को समाप्त कर इस पेशे में लैंगिक समानता को प्रोत्साहित करती हैं।
  • न्यायपालिका में जनता का विश्वास बढ़ता है: जब न्यायपालिका में महिलाओं का बेहतर प्रतिनिधित्व होता है, तो न्यायिक प्रणाली में जनता का विश्वास बढ़ता है, क्योंकि यह एक अधिक निष्पक्ष और समावेशी प्रणाली को दर्शाती है जो व्यापक रूप से समाज का प्रतिनिधित्व करती है।
  • लोकतंत्र और न्याय को मजबूत बनाना: न्यायपालिका में समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करके, महिलाएँ न्याय को अधिक सुलभ बनाने में योगदान देती हैं और यह सुनिश्चित करती हैं कि न्यायिक प्रणाली लैंगिक भेदभाव के बिना सभी नागरिकों के सर्वोत्तम हित में संचालित हो।

PWOnlyIAS विशेष

भारतीय न्यायपालिका में महिलाओं को बढ़ावा देने के लिए संवैधानिक प्रावधान

  • अनुच्छेद-14 – विधि के समक्ष समता: संविधान विधि के समक्ष समता और विधियों के समान संरक्षण की गारंटी देता है। यह सुनिश्चित करता है कि पुरुषों की तरह महिलाओं को भी लैंगिक आधार पर भेदभाव के बिना न्यायिक पदों तक पहुँचने का अधिकार है।
  • अनुच्छेद-15 – भेदभाव का निषेध: अनुच्छेद-15(1) धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर भेदभाव का निषेध करता है। इसमें लैंगिक समानता का प्रावधान शामिल है, जो न्यायपालिका में महिलाओं की भागीदारी के अधिकार का समर्थन करता है।
  • अनुच्छेद-39(A) – समान न्याय और निःशुल्क कानूनी सहायता: यह प्रावधान राज्य को समान न्याय और निःशुल्क कानूनी सहायता सुनिश्चित करने का निर्देश देता है। इसका उद्देश्य न्याय प्राप्त करने में लैंगिक असमानताओं को कम करना है, जो अप्रत्यक्ष रूप से कानूनी और न्यायिक प्रक्रियाओं में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ावा देता है।
  • अनुच्छेद-46 – पिछड़े वर्गों के कल्याण को बढ़ावा देना: राज्य को महिलाओं, विशेषकर पिछड़े वर्गों की महिलाओं के कल्याण को बढ़ावा देने का निर्देश दिया गया है, ताकि वे न्यायपालिका में अपनी सहभागिता दर्ज कर सके।
  • अनुच्छेद-51A(E) – मौलिक कर्तव्य: प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है, कि वह सभी लोगों के मध्य, सद्भाव और समान भाईचारे की भावना को बढ़ावा दे। यह प्रावधान न्यायपालिका सहित सभी क्षेत्रों में लैंगिक पूर्वाग्रह को समाप्त करने का आह्वान करता है।
  • अनुच्छेद-32- संवैधानिक उपचारों का अधिकार: महिलाएँ, लैंगिक भेदभाव को दूर करने और न्यायपालिका में प्रतिनिधित्व सहित महिला अधिकारों से संबंधित मुद्दों के निवारण हेतु अनुच्छेद-32 का प्रयोग कर सकती हैं।
  • राज्य के नीति निदेशक तत्त्व (DPSP): अनुच्छेद-39A: यह सुनिश्चित करता है कि राज्य न्यायिक प्रणाली में पुरुषों और महिलाओं दोनों को समान अवसर प्रदान करे और लैंगिक रूप से संवेदनशील कानूनों को बढ़ावा दे।

भारतीय न्यायपालिका में महिलाओं को बढ़ावा देने के लिए सतत् विकास लक्ष्य प्रावधान

  • सतत् विकास लक्ष्य 5 – लैंगिक समानता: सतत् विकास लक्ष्य 5 एक वैश्विक लक्ष्य है, जो लैंगिक समानता प्राप्त करने और सभी महिलाओं व लड़कियों को सशक्त बनाने पर केंद्रित है। यह लक्ष्य न्यायपालिका सहित निर्णय लेने वाले पदों पर महिलाओं के प्रतिनिधित्व को प्रत्यक्ष रूप से बढ़ावा देता है और महिलाओं के विरुद्ध सभी प्रकार के भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास करता है।
  • सतत् विकास लक्ष्य 10 – असमानता में कमी: सतत् विकास लक्ष्य 10 का उद्देश्य देश के भीतर असमानता को कम करना है, जिसमें न्यायपालिका सहित सभी सार्वजनिक संस्थानों में लैंगिक असमानता को दूर करना भी शामिल है।
  • सतत् विकास लक्ष्य 16 – शांति, न्याय और सुदृढ़ संस्थान: सतत् विकास लक्ष्य 16 शांति को बढ़ावा देने और सभी के लिए न्याय सुनिश्चित करने पर केंद्रित है। विशेष रूप से, सतत् विकास लक्ष्य 16.7 उत्तरदायी, समावेशी, सहभागी और प्रतिनिधि निर्णय लेने की वकालत करता है, जिसमें न्यायपालिका में महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाना और न्याय प्रणाली में लैंगिक समानता सुनिश्चित करना शामिल है।

महिलाओं के न्यायिक प्रतिनिधित्व में बाधा उत्पन्न करने वाली प्रमुख चुनौतियाँ

  • संरचनात्मक और सांस्कृतिक बाधाएँ: न्यायपालिका में गहराई तक व्याप्त पितृसत्तात्मक संरचनाएँ प्रायः ऐसा लैंगिक रूप से प्रतिकूल कार्य वातावरण निर्मित करती हैं, जो महिलाओं की सीमित भागीदारी एवं उनके न्यूनतम प्रतिनिधित्व को लगातार बनाए रखता है।
  • कार्य-जीवन संतुलन संबंधी  मुद्दे: न्यायिक कर्तव्यों की उच्च-दबावपूर्ण एवं समय-साध्य माँगें, महिलाओं के लिए, प्रायः पारिवारिक दायित्वों से टकराव उत्पन्न करती हैं, जिसके परिणामस्वरूप नौकरी का त्याग अथवा कॅरियर प्रगति में रूकावट देखने को मिलती है।
  • पद पर बने रहने और पदोन्नति में बाधाएँ: न्यायपालिका में भेदभावपूर्ण प्रथाओं और पदोन्नति एवं कॅरियर विकास के समान अवसरों की कमी के कारण कई महिलाएँ नौकरी छोड़ देती हैं या आगे बढ़ने में असफल हो जाती हैं।
  • मेंटरशिप और नेटवर्किंग का अभाव: महिलाओं को मेंटरशिप और नेटवर्किंग के अवसरों तक पहुँच का अभाव है, जो न्यायपालिका में कॅरियर की उन्नति के लिए महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि आमतौर पर उनकी संख्या उनके पुरुष समकक्षों से कम होती है।
  • यौन उत्पीड़न और पूर्वाग्रह: महिला न्यायाधीशों को प्रायः न्यायपालिका में यौन उत्पीड़न, पूर्वाग्रह और भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जिससे एक प्रतिकूल कार्य वातावरण उत्पन्न होता है, जो कई महिलाओं को अपने कॅरियर में आगे बढ़ने से रोकता है।

न्यायपालिका में महिलाओं को बढ़ावा देने के लिए भारत की पहल और कार्यवाहियाँ

  • लैंगिक-संवेदनशील न्यायिक सुधार: भारत ने न्यायिक प्रणाली में महिलाओं की आवश्यकताओं और अधिकारों को संबोधित करते हुए, एक अधिक लैंगिक-संवेदनशील कानूनी ढाँचा बनाने के उद्देश्य से सुधार लागू किए हैं।
  • अनुसंधान और समर्थन पहल: संगठनों ने उच्च न्यायपालिका में लैंगिक अंतर को दूर करने के लिए पहल शुरू की है, जिसका ध्यान महिलाओं के समान और समावेशी प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने पर केंद्रित है।
  • लैंगिक संवेदीकरण कार्यक्रम: न्यायिक निकायों ने न्यायाधीशों और कानूनी विशेषज्ञों को शामिल करते हुए, लैंगिक संवेदीकरण और महिलाओं के विरुद्ध हिंसा के उन्मूलन पर केंद्रित जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए हैं।
  • अधिक महिला न्यायाधीशों को शामिल करने के लिए सुझावात्मक उपाय: मुख्य न्यायाधीश N.V. रमन्ना के अनुसार, न्यायपालिका में लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए कई प्रमुख उपाय किए जा सकते हैं:
    • 50% प्रतिनिधित्व: संरचनात्मक असंतुलन को दूर करने और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने के लिए कम-से-कम आधे न्यायिक पद महिलाओं के लिए आरक्षित हों, यह सुनिश्चित करना।
    • विधिक शिक्षा में लैंगिक विविधीकरण: विधिक विद्यालयों में समावेशी नीतियों को बढ़ावा देना ताकि अधिक महिलाओं को विधि व्यवसाय में प्रवेश के लिए प्रोत्साहित किया जा सके और भावी न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जा सके।
    • विधि पाठ्यक्रमों में आरक्षण: भावी न्यायाधीशों में महिलाओं की संख्या बढ़ने के लिए विधि पाठ्यक्रम प्रदान करने वाले महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में महिला उम्मीदवारों के लिए आरक्षित सीटें निर्धारित करना।

वैश्विक सर्वोत्तम प्रथाएँ और पहल

  • UNODC की न्याय में महिलाएँ पहल: मार्च 2024 में प्रारंभ की गई यह पहल भ्रष्टाचार-विरोधी कानून प्रवर्तन और न्यायपालिका में महिलाओं के लिए मार्गदर्शन, व्यावहारिक नेतृत्व और वैश्विक नेटवर्किंग के अवसर प्रदान करती है।
  • अंतरराष्ट्रीय महिला न्यायाधीश संघ (International Association of Women Judges- IAWJ): वर्ष 1991 में स्थापित, IAWJ न्यायपालिका में महिलाओं की उपस्थिति बढ़ाने, लैंगिक पूर्वाग्रह को कम करने और अंतरराष्ट्रीय न्यायालयों में महिलाओं के मुद्दों को आगे बढ़ाने के लिए कार्य करता है।
  • एशिया प्रशांत महिला, कानून और विकास मंच (Asia Pacific Forum on Women, Law and Development- APWLD): वर्ष 1986 में स्थापित, APWLD एशिया-प्रशांत क्षेत्र में महिला सशक्तीकरण और लैंगिक न्याय को बढ़ावा देता है, नीति-निर्माण और कानूनी चर्चाओं में महिलाओं की भागीदारी की वकालत करता है।
  • ‘ही फॉर शी’ अभियान (HeForShe Campaign): वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र महिला द्वारा शुरू किए गए इस वैश्विक एकजुटता आंदोलन का उद्देश्य कानूनी पेशे सहित लैंगिक समानता को बढ़ावा देने में पुरुषों को शामिल करना है।
  • न्यायपालिका में लैंगिक विविधता पहल: UNDP और राष्ट्रमंडल सचिवालय द्वारा शुरू की गई इस पहल का उद्देश्य न्यायपालिका में लैंगिक विविधता पर ध्यान केंद्रित करते हुए कानूनी पेशे में महिलाओं की पूर्ण और प्रभावी भागीदारी का निर्माण करना है।

आगे की राह

  • लैंगिक-तटस्थ नीतियाँ: न्यायपालिका को मातृत्व अवकाश, बच्चों की देखभाल और लचीले वर्क-आवर सहित सभी स्तरों पर महिलाओं की भागीदारी का समर्थन करने के लिए लैंगिक रूप से तटस्थ नीतियाँ अपनानी चाहिए।
  • नेतृत्व के लिए समान अवसरों को बढ़ावा देना: कॉलेजियम को न्यायिक नियुक्तियों में लैंगिक विविधता को सक्रिय रूप से प्राथमिकता देकर यह सुनिश्चित करना चाहिए कि न्यायपालिका में महिलाओं को नेतृत्व के अवसर और कॅरियर में उन्नति प्राप्त हो।
  • मेंटरशिप कार्यक्रम और सहायता नेटवर्क: महिलाओं के लिए मेंटरशिप कार्यक्रम और सहायता नेटवर्क स्थापित करने से उन्हें कॅरियर संबंधी बाधाओं को दूर करने और अपने न्यायिक कॅरियर में सफल होने के लिए आवश्यक उपाय मिल सकते हैं।
  • कॉलेजियम प्रणाली में सुधार: कॉलेजियम प्रणाली में सुधार करके इसे और अधिक पारदर्शी, लैंगिक-संवेदनशील तथा जवाबदेह बनाया जाना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि महिलाओं को उच्च न्यायिक पदों पर नियुक्त होने का उचित अवसर मिले।
  • सुरक्षित और समावेशी कार्य वातावरण का निर्माण: न्यायपालिका को उत्पीड़न-विरोधी नीतियाँ, पदोन्नति के समान अवसर और लैंगिक-संवेदनशील कार्यस्थल स्थापित करने चाहिए, जो महिलाओं को पेशे में बनाए रखेंगे और उनके कॅरियर के विकास में सहायता करेंगे।

निष्कर्ष

एक वास्तविक समावेशी न्यायपालिका के निर्माण के लिए, भारत को न्याय, समानता और निष्पक्षता के संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखते हुए, महिलाओं का समान प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना होगा। महिलाओं की सक्रिय भागीदारी को प्रोत्साहित करने वाले वातावरण को बढ़ावा देकर, न्यायपालिका एक अधिक लोकतांत्रिक संस्था बन सकती है, जो भारतीय संविधान में निहित समानता और सामाजिक न्याय के सिद्धांतों का पालन करते हुए, सभी नागरिकों की प्रभावी ढंग से सेवा करती है।

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