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विश्व मैंग्रोव दिवस: भारत में उनका संरक्षण

Lokesh Pal July 31, 2024 05:55 95 0

संदर्भ

वर्ष 2015 में संयुक्त राष्ट्र शैक्षिक, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक संगठन (United Nations Educational, Scientific, and Cultural Organization- UNESCO) द्वारा घोषित किया गया कि 26 जुलाई को ‘मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय दिवस’ ( International Day for Conservation of Mangrove Ecosystems) के रूप में मनाया जाएगा।  

  • यह दिन मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए मनाया जाता है, क्योंकि यह एक ‘अद्वितीय, विशेष और संवेदनशील पारिस्थितिकी तंत्र’ है तथा इसके स्थायी प्रबंधन, संरक्षण और उपयोग के लिए समाधानों को बढ़ावा देता है। 

मैंग्रोव (Mangroves) के बारे में

  • स्थान: मैंग्रोव उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं, अर्थात् 25° उत्तर और 25° दक्षिण अक्षांश के बीच पाए जाते हैं। 
  • महत्व: मैंग्रोव को अक्सर ‘तट का प्रहरी’ (Sentinels of the Coast) कहा जाता है, क्योंकि इनमें तटरेखाओं की रक्षा करने, तूफानों और चक्रवातों के प्रभावों को कम करने, मछली पालन को समर्थन करने, कार्बन एवं पोषक तत्त्वों को सुरक्षित रखने, जीन पूल प्रदान करने और कई अन्य लाभ प्रदान करने की क्षमता होती है। 

  • अनुकूलन: मैंग्रोव में तटीय पर्यावरण की चरम स्थितियों में जीवित रहने के लिए विशेष अनुकूलन क्षमता होती है। 
  • उनमें जलभराव वाली और ऑक्सीजन रहित मिट्टी में पनपने की क्षमता होती है तथा अनुकूलन के साथ खारे जल के प्रति सहिष्णु होते हैं। 
    • अवस्तंभ जड़ें (Stilt Roots) 
    • न्यूमेटोफोरस (Pneumatophores) 
    • लवण उत्सर्जक ग्रंथियाँ (Salt Excretory Glands) 
    • जड़ों को छोड़कर लवण (Salt Excluding Roots) 
    • सजीव प्रजक बीज (Viviparous Seeds)
  • विश्व में मैंग्रोव के 24-29 परिवार समूह एवं लगभग 70 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। 
  • वैश्विक रैंकिंग: इंडोनेशिया में मैंग्रोव वन का सबसे बड़ा क्षेत्र (जो कुल वैश्विक भाग का 20% है) है, इसके बाद ब्राजील, ऑस्ट्रेलिया, मैक्सिको और नाइजीरिया का स्थान आता है, जिनमें कुल मिलाकर दुनिया के लगभग आधे मैंग्रोव पाए जाते हैं।

भारत में मैंग्रोव संरक्षण

  • संख्या में वृद्धि: भारतीय वन सर्वेक्षण (Forest Survey of India) द्वारा प्रकाशित द्विवार्षिक आकलन के अनुसार, देश में मैंग्रोव का विस्तार वर्ष 1987 में 4,046 वर्ग किमी. से बढ़कर वर्ष 2019 में 4,992 वर्ग किमी. हो गया है। 
  • भारत में कुल मैंग्रोव क्षेत्र: केंद्रीय पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (Ministry of Environment, Forests, and Climate Change- MoEF&CC) की वार्षिक रिपोर्ट, 2020-21 के अनुसार, वर्ष 2021 तक, भारत भर में 38 मैंग्रोव क्षेत्रों/स्थलों का दस्तावेजीकरण किया गया है। 
    • महाराष्ट्र: भारत में यह राज्य मैंग्रोव स्थलों की सबसे अधिक संख्या वाला राज्य है, जहाँ 10 स्थल हैं, तथा ओडिशा में 7 स्थल हैं। 
    • महाराष्ट्र जैसे राज्यों ने इन पारिस्थितिकी प्रणालियों के संरक्षण और प्रबंधन पर लगातार ध्यान केंद्रित करने के लिए एक अलग ‘मैंग्रोव सेल’ की स्थापना की है।   
  • वैश्विक संख्या में कमी (Global Number Decreasing): ग्लोबल मैंग्रोव एलायंस, जो मैंग्रोव आवरण पर सुसंगत वैश्विक डेटासेट का संकलन करता है, ने अनुमान लगाया है कि दुनिया भर में, वर्ष 1996 के बाद से, मैंग्रोव आवरण में 3.4 प्रतिशत की शुद्ध वैश्विक हानि हुई है तथा वैश्विक स्तर पर हानि की दर, लाभ की दर से दोगुनी है। 

महत्त्व

  • आपदा न्यूनीकरण: मैंग्रोव कवरेज एक प्राकृतिक अवरोध के रूप में कार्य करता है, जो समुद्री लहरों या ज्वार भाटा अथवा सुनामी के प्रभाव को कम करता है और तटीय क्षेत्रों में कटाव को कम करने में सहायक होता है। 
    • यह अवसादन को स्थिर करता है और तटीय बाढ़ की तीव्रता को कम करता है, इस प्रकार प्राकृतिक आपदाओं के विरुद्ध एक मूल्यवान सुरक्षा ढाँचा प्रदान करता है। 
    • एक हालिया अध्ययन में अनुमान लगाया गया है कि भारत की मैंग्रोव प्रणालियाँ प्रतिवर्ष 7.8 बिलियन डॉलर से अधिक का बाढ़ सुरक्षा लाभ प्रदान करती हैं। 
    • उदाहरण: वर्ष 2020 में सुपरसाइक्लोन अम्फान (Amphan) के दौरान, सुंदरबन मैंग्रोव ने जैव-ढाल के रूप में कार्य करके और तटबंधों की रक्षा करके लाखों लोगों के जीवन एवं आजीविका की रक्षा करने में बड़ी भूमिका निभाई। 
    • समुद्री तूफानों, सुनामी और चक्रवातों से निपटने में मैंग्रोव ‘बेहतर पुनर्निर्माण’ (Build Back Better) रणनीति का एक अनिवार्य हिस्सा हैं। 
  • पारिस्थितिकी तंत्र सेवाएँ: मैंग्रोव विविध प्रकार की वनस्पतियों और जानवरों की प्रजातियों तथा समुद्री जीवों के लिए महत्त्वपूर्ण आवास उपलब्ध कराते हैं, जिनमें वाणिज्यिक रूप से बहुमूल्य मछली प्रजातियाँ भी शामिल हैं। 
    • सुंदरबन में दुनिया का सबसे बड़ा मैंग्रोव वन है और यह बंगाल टाइगर और गंगा नदी डॉल्फिन जैसी लुप्तप्राय प्रजातियों का निवास स्थल है। 
  • प्राकृतिक फिल्टर के रूप में: मैंग्रोव वन जल की गुणवत्ता में सुधार करते हैं तथा तलछट, प्रदूषकों और अतिरिक्त पोषक तत्त्वों को रोककर प्राकृतिक फिल्टर के रूप में कार्य करते हैं। 
    • वे तटीय समुदायों के कल्याण और समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य में प्रमुख भूमिका निभाते हैं।  
  • कार्बन पृथक्करण (Carbon Sequestration): मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र वायुमंडल से बड़ी मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) को अवशोषित कर सकते हैं और इसे अपने बायोमास और तलछट में संगृहीत कर सकते हैं, इस प्रक्रिया को पृथक्करण के रूप में जाना जाता है। 
    • वैश्विक स्तर पर, अनुमान है कि वे 22.86 मीट्रिक गीगाटन CO2 संगृहीत करते हैं, जो जीवाश्म ईंधन, भूमि-उपयोग और उद्योग से होने वाले वार्षिक CO2 उत्सर्जन का लगभग आधा है। 
    • इस दबे हुए कार्बन को ‘ब्लू कार्बन’ (Blue Carbon) के नाम से जाना जाता है, क्योंकि यह मैंग्रोव वनों, समुद्री घास की क्यारियों और लवणीय दलदलों जैसे तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों में जल के नीचे जमा रहता है। 
  • आजीविका: मैंग्रोव भारत में 9,00,000 मछुआरा परिवारों की आजीविका में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। 
    • वे मत्स्यपालन को बढ़ावा देते हैं तथा स्थानीय लोगों को भोजन एवं आय उपलब्ध कराते हैं। 
    • भारत की लगभग 60% तटीय समुद्री मछली प्रजातियाँ मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर हैं। 
    • मैंग्रोव वन नदियों के मुहाने को पोषित करने तथा प्रकृति आधारित अर्थव्यवस्थाओं को समर्थन देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। 
  • पर्यटन एवं मनोरंजन: मैंग्रोव पारिस्थितिकी पर्यटन, पक्षी-दर्शन (Birding), क्याकिंग (Kayaking) और अन्य प्रकृति आधारित गतिविधियों के लिए अवसर प्रदान करते हैं, जो स्थानीय समुदायों के सतत् आर्थिक विकास में सहायक हो सकते हैं। 

मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र के समक्ष चुनौतियाँ

  • मैंग्रोव पर दबाव: ‘स्पेस एप्लीकेशन सेंटर’ द्वारा फरवरी 2022 में प्रकाशित राष्ट्रीय दशकीय आर्द्रभूमि परिवर्तन एटलस (National Decadal Wetland Change Atlas) की रिपोर्ट बताती है कि वर्ष 2006 और 2018 के बीच प्राकृतिक तटीय आर्द्रभूमि 3.69 मिलियन हेक्टेयर से घटकर 3.62 मिलियन हेक्टेयर हो गई। 
  • अंतरज्वारीय मिट्टी के मैदानों का आर्द्रभूमि में रूपांतरण: अंतरज्वारीय मिट्टी के मैदानों में 116,897 हेक्टेयर की भारी कमी आई है तथा लवणीय दलदलों में 5,647 हेक्टेयर की कमी आई है। 
    • इस प्रकार, पंकयुक्त भूमि पर मैंग्रोव वृक्षारोपण एक प्रकार की आर्द्रभूमि को दूसरे प्रकार की आर्द्रभूमि में परिवर्तित करने के बराबर है तथा मैंग्रोव क्षेत्र में वृद्धि, पंकयुक्त भूमि द्वारा प्रदान किए जाने वाले महत्त्वपूर्ण कार्यों की हानि के कारण होती है। 

अंतरज्वारीय समतल (Intertidal flats)

  • अंतरज्वारीय समतल: रेत, चट्टान या पंक से निर्मित तथा ज्वारीय जल से आच्छादित तटीय क्षेत्र, पक्षियों, विशेषकर प्रवासी समुद्री पक्षियों और अनेक अन्य प्रजातियों के लिए महत्त्वपूर्ण आवास हैं। 
    • ये समतल मिट्टी में भारी मात्रा में कार्बन को भी अवशोषित करती हैं। 
  • खतरे: ये एक महत्त्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्र हैं, जो तटीय विकास, प्रमुख नदियों से तलछट के कम प्रवाह, जलमग्न नदी डेल्टा, तटीय अपरदन में वृद्धि और समुद्र-स्तर में वृद्धि के कारण भारी दबाव में हैं। 
    • ऐसा अनुमान है कि विश्वभर में वर्ष 1984-2016 के दौरान अंतरज्वारीय समतलों का छठा भाग नष्ट हो गया। 

 

  • परिवर्तित तटरेखा (Altered Coastline)
    • मीठे जल के प्रवाह में कमी: अक्सर तट पर मीठे जल के प्रवाह में कमी के कारण तटरेखा पर मीठे जल और तलछट की आपूर्ति बाधित हो जाती है, जिससे उच्च लवणता तथा कम तलछट की स्थिति उत्पन्न हो जाती है, जिसे मैंग्रोव सहन नहीं कर सकते। 
    • जलवायु परिवर्तन: यह हमारे समुद्र तट को मौलिक रूप से बदल रहा है, समुद्र का स्तर बढ़ रहा है, समुद्र की सतह का तापमान बढ़ रहा है और तटीय तूफानों की आवृत्ति एवं गंभीरता बढ़ रही है। 
  • वैश्विक तापन (ग्लोबल वार्मिंग): वैश्विक तापमान में 2 डिग्री सेंटीग्रेड की वृद्धि से मैंग्रोव की वृद्धि और उत्पादकता बढ़ सकती है। 
    • फिर भी, चक्रवाती गतिविधियों में वृद्धि, समुद्र स्तर में वृद्धि और ग्रीष्मकालीन वर्षा में कमी के कारण इन पारिस्थितिकी तंत्रों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। 
  • आवास स्थान का अभाव: बदलती जलवायु में मैंग्रोव की जीवित रहने की क्षमता आवास स्थान (समुद्र तल में परिवर्तन और तलछट के संचय के कारण ऊर्ध्वाधर एवं पार्श्व समायोजन के लिए मैंग्रोव एवं अन्य तटीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के लिए उपलब्ध स्थान) की उपलब्धता से भी जुड़ी हुई है। 
    • उदाहरण: आवास स्थान की कमी कई शहरों के लिए एक गंभीर बाधा हो सकती है, जहाँ मैंग्रोव क्षेत्र के किनारे सघन निर्माण कार्य हो रहा है, जैसे कि मुंबई में ठाणे क्रीक के मैंग्रोव। 
  • अतीत, भविष्य का खराब पूर्वानुमान बन गया है: तटीय क्षेत्रों के लिए अधिकांश प्रबंधन योजनाएँ एक खराब पूर्वानुमान बनकर रह गई हैं। 
    • अतीत में पारिस्थितिकी तंत्र की स्थितियाँ जैसे कि 1960 या 1970 के दशक में प्रबंधन लक्ष्य और परिणाम निर्धारण को निर्देशित करती हैं। हालाँकि, बदलती जलवायु में अतीत भविष्य का खराब पूर्वानुमान बन जाता है। 
  • घटती विविधता: IUCN की रेड लिस्ट के अनुसार, विश्व की 70 मैंग्रोव प्रजातियों में से 11 (16 प्रतिशत) विलुप्त होने के कगार पर हैं। 
    • इनमें से दो प्रजातियाँ अर्थात् सोनेरटिया ग्रिफिथी (Sonneratia Griffithii) (गंभीर रूप से संकटग्रस्त) और हेरिटिएरा फोमेस (Heritiera Fomes) (संकटग्रस्त), भारत में पाई जाती हैं। 
  • तेल प्रदूषण: तेल रिसाव से मैंग्रोव पर विषाक्त प्रभाव पड़ता है। 
    • फैला हुआ तेल से मैंग्रोव की भूमिगत जड़ों तक ऑक्सीजन का आदान प्रदान बाधित हो जाता है, जिससे ये वृक्ष नष्ट हो जाते हैं। 
  • शहरीकरण (Urbanization): मानव जनसंख्या में वृद्धि के मद्देनजर बुनियादी ढाँचे और आवास योजनाएँ मैंग्रोव क्षेत्र को नष्ट कर रही हैं, क्योंकि शहरी परियोजनाओं के लिए जगह बनाने के लिए मैंग्रोव क्षेत्र का अतिक्रमण किया जा रहा है और भूमि को साफ किया जा रहा है। 

आगे की राह

  • मैंग्रोव पुनर्स्थापन के लिए व्यापक दृष्टिकोण की आवश्यकता है: इसमें तट पर पर्याप्त मात्रा में मीठे जल और तलछट का प्रवाह सुनिश्चित करना, प्रदूषण को रोकना तथा बुनियादी ढाँचे के विकास को विनियमित करना शामिल होना चाहिए। 
    • मैंग्रोव केवल लवण सहन करने वाले वृक्षों के उपवन नहीं हैं, बल्कि वे अन्य तटीय पारिस्थितिकी प्रणालियों जैसे पंक, लैगून, मुहाना, लवणीय दलदल और कई अन्य के साथ जुड़े हुए हैं। 
    • संपूर्ण तटीय पारिस्थितिकी तंत्र की विविधता और लचीलेपन तथा तटीय समुदायों के जीवन एवं आजीविका को बनाए रखना अधिक सार्थक परिणाम है।   
  • समायोजन बफर: तटीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के आसपास नव विकसित क्षेत्रों के लिए तटीय संकुचन को रोकने के लिए समायोजन बफर की आवश्यकता हो सकती है। 
  • दूरदर्शी प्रबंधन: प्रबंधन को जलवायु मॉडलिंग में हुई प्रभावी प्रगति से अवगत होकर भविष्य के परिदृश्यों पर ध्यान देना चाहिए तथा प्रबंधन योजनाओं को क्रियान्वित करते समय उपयुक्त शमन और अनुकूलन विकल्पों को एकीकृत करना चाहिए। 
  • आवश्यक अनुकूलन और शमन विकल्प शामिल करना: मैंग्रोव और तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों के प्रबंधन में जलवायु जोखिमों को ध्यान में रखना चाहिए और आवश्यक अनुकूलन एवं शमन विकल्प शामिल करने चाहिए। 
    • उपलब्ध जलवायु मॉडलों को छोटा करने तथा उनकी व्याख्या ऐसे पैमाने पर करने की आवश्यकता होगी, जिससे मैंग्रोव तथा तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों को प्रभावित करने वाली जल विज्ञान संबंधी तथा पारिस्थितिकी प्रक्रियाओं को समझा जा सके। 
  • मैंग्रोव पुनरुद्धार के टूलकिट का विस्तार किया जाना चाहिए: इसमें न केवल वन संवर्द्धन संबंधी उपाय शामिल होने चाहिए, बल्कि जल विज्ञान और तलछट व्यवस्थाओं की पुनरुद्धार और मिश्रित ग्रे-ग्रीन समाधान भी शामिल होने चाहिए। 
  • जल संसाधन, आपदा जोखिम न्यूनीकरण, मत्स्यपालन, पर्यटन और अन्य के लिए क्षेत्रीय योजनाओं में मैंग्रोव और तटीय पारिस्थितिकी तंत्र की पारिस्थितिकी और जल विज्ञान संबंधी आवश्यकताओं को ध्यान में रखा जाना चाहिए। 
  • समावेशी ‘समाज के सभी लोगों’ (All of Society) के दृष्टिकोण को अपनाना: तटीय पारिस्थितिकी तंत्र के विभिन्न मूल्यों का मूल्यांकन किया जाना चाहिए और तटीय लचीलापन बनाने की दिशा में सभी स्तरों पर सामाजिक व्यवहार परिवर्तन का आधार बनना चाहिए। समावेशी ‘समाज के सभी लोगों’ के दृष्टिकोण को अपनाना इस दृष्टिकोण का मूल होना चाहिए। 

निष्कर्ष

भारत का वर्ष 2030 तक पाँच ट्रिलियन की अर्थव्यवस्था बनने का सपना 10 कारकों पर निर्भर है, जिनमें से एक ब्लू इकॉनमी है अर्थात् तट एवं महासागरों द्वारा पोषित अर्थव्यवस्था। यह सुनिश्चित करना कि तट के हमारे प्रहरी संरक्षित हैं और प्रभावी ढंग से प्रबंधित किए जाते हैं, इस लक्ष्य के लिए महत्त्वपूर्ण है। और इसके लिए यह आवश्यक होगा कि मैंग्रोव संरक्षण प्रयासों में प्रमुख नीति और कार्यक्रम संबंधी बदलाव शामिल हों।

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