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विश्व जनसंख्या दिवस 2024

Lokesh Pal July 15, 2024 04:53 173 0

संदर्भ

11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जाता है, इस लेख में पिछले दशकों में भारत की जनसांख्यिकीय यात्रा का विश्लेषण किया गया है।

  • यह वार्षिक आयोजन वैश्विक जनसंख्या वृद्धि के खिलाफ विभिन्न मुद्दों को संदर्भित  करता है और भावी पीढ़ियों के लिए एक टिकाऊ विश्व बनाने का प्रस्ताव करता है।

विश्व जनसंख्या दिवस के बारे में

  • यह दिवस जनसंख्या संबंधी मुद्दों की तात्कालिकता और महत्त्व पर जोर देने के लिए प्रतिवर्ष मनाया जाता है।
  • स्थापना: संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (United Nations Development Programme- UNDP) की स्थापना वर्ष 1989 में हुई थी, जिस दिन एक प्रसिद्ध जनसांख्यिकीविद् डॉ. के. सी. जकारिया ने ‘विश्व जनसंख्या दिवस’ की अवधारणा प्रस्तावित की थी।
  • उत्पत्ति: ‘पाँच अरब का दिन’ (11 जुलाई, 1987), जब विश्व की जनसंख्या पाँच अरब (1987 में) तक पहुँच गई थी तथा  गरीबी, स्वास्थ्य और लैंगिक असमानता जैसी चुनौतियाँ दुनिया भर में, विशेष रूप से विकासशील देशों में व्याप्त थीं।
  • विश्व जनसंख्या दिवस 2024 की थीम: ‘किसी को पीछे न छोड़ें, सभी की गिनती करना’ (Leave no one behind, Count Everyone)
    • यह थीम मुद्दों को समझने, समाधान तैयार करने और प्रगति को गति देने के लिए डेटा संग्रह में निवेश के महत्त्व पर प्रकाश डालती है।
    • यह थीम प्रत्येक वर्ष बदलती रहती है और UNDP द्वारा संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (United Nations Population Fund- UNFPA) के समन्वय में तय की जाती है।
  • यह दिन जनसंख्या के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करता है और अधिक जनसंख्या के नकारात्मक प्रभाव के बारे में जागरूकता फैलाता है।
    • जनसंख्या वृद्धि के कारण कई सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौतियाँ उत्पन्न होती हैं, पर्यावरण का क्षरण होता है और संसाधनों पर दबाव पड़ता है। महत्त्वपूर्ण मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ाना, चर्चा को बढ़ावा देना और समाधान खोजना महत्त्वपूर्ण है।

जनसंख्या के बारे में कुछ महत्त्वपूर्ण तथ्य

  • विश्व की जनसंख्या बीसवीं सदी के मध्य की तुलना में तीन गुना अधिक है।
  • विश्व जनसंख्या संभावना रिपोर्ट: वैश्विक जनसंख्या वर्ष 2024 में 8.2 बिलियन से बढ़कर 2080 के दशक के मध्य में लगभग 10.3 बिलियन तक पहुँचने का अनुमान है।
    • अगले 30 वर्षों में विश्व की जनसंख्या 2 बिलियन तथा वर्ष 2050 में 9.7 बिलियन तक पहुँचने की उम्मीद है।
  • सर्वाधिक जनसंख्या वाले देश: दो सबसे अधिक जनसंख्या वाले देश भारत और चीन हैं; दोनों की जनसंख्या 1 अरब से अधिक है, जो विश्व की लगभग 18% जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करती है।

भारत की जनसंख्या गतिशीलता का विश्लेषण

तीन घटक, अर्थात् प्रजनन क्षमता, मृत्यु दर और प्रवासन, भारत के जनसांख्यिकीय परिदृश्य को आकार देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

  • संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष (United Nations Population Fund- UNFPA) की रिपोर्ट: अप्रैल 2023 में भारत 1.4 अरब से अधिक नागरिकों के साथ चीन को पीछे छोड़कर दुनिया का सबसे अधिक आबादी वाला देश बन गया।
    • भारत की 68% जनसंख्या 15-64 वर्ष आयु वर्ग की है तथा 26% जनसंख्या 10-24 वर्ष आयु वर्ग की है, जिससे भारत विश्व के सबसे युवा देशों में से एक बन गया है।
    • वृद्ध आबादी का प्रतिशत वर्ष 1991 में 6.8% से बढ़कर वर्ष 2016 में 9.2% हो गया है।
  • जनसंख्या वृद्धि की धीमी दर के कारक: धन और शिक्षा में वृद्धि के अलावा, गर्भनिरोधक तरीकों का बढ़ता उपयोग, गर्भधारण में अंतर, स्वास्थ्य देखभाल तक पहुँच और परिवार नियोजन को प्रोत्साहन।
  • प्रजनन दर में गिरावट: भारत सरकार द्वारा वार्षिक रूप से आयोजित नमूना पंजीकरण प्रणाली सर्वेक्षण के अनुसार, वर्ष 2011 से 2020 तक जन्म दर में लगातार गिरावट आई है।
    • राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (National Family Health Survey- NFHS)-5 के अनुसार, भारत की कुल प्रजनन दर (Total Fertility Rate- TFR) वर्ष 1992 और 2021 के बीच 3.4 से घटकर 2.0 हो गई है, जो 2.1 के प्रतिस्थापन स्तर से नीचे आ गई है।
      • इसका अर्थ है प्रजनन क्षमता के प्रतिस्थापन स्तर से नीचे, या वह दर जिस पर एक पीढ़ी स्वयं को प्रतिस्थापित करती है।
    • हालाँकि, देश में लोगों की संख्या अगले कुछ दशकों तक बढ़ती रहने की उम्मीद है, जो वर्ष 2064 तक 1.7 बिलियन के अपने शिखर पर पहुँच जाएगी।

  • मृत्यु दर में कमी: भारत में मृत्यु दर में भी उल्लेखनीय कमी आई है।
    • समय के साथ भारतीयों की औसत जीवन प्रत्याशा भी बढ़ी है। इसके साथ, भारत उम्रदराज आबादी की ओर जनसांख्यिकीय बदलाव का अनुभव कर रहा है। 
    • मातृ मृत्यु दर (Maternal Mortality Rate- MMR): यह वर्ष 2000 में 384.4 से घटकर वर्ष 2020 में 102.7 हो गई। 
    • पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर: वर्ष 2000 के बाद इसमें काफी कमी आई। 
    • शिशु मृत्यु दर: यह वर्ष 2000 में प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 66.7 मृत्यु से घटकर वर्ष 2021 में प्रति 1,000 जीवित जन्म पर 25.5 मृत्यु हो गई है। 
    • वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार, 60 वर्ष और उससे अधिक आयु के व्यक्ति कुल जनसंख्या का 8.6% थे। वर्ष 2050 तक यह आँकड़ा बढ़कर 19.5% होने का अनुमान है।
  • प्रवासन और शहरीकरण: कामकाजी उम्र की आबादी के ग्रामीण से शहरी प्रवास के कारण शहरी क्षेत्रों में श्रम शक्ति में वृद्धि हुई है।
  • अन्य घटक: प्रजनन क्षमता, मृत्यु दर और प्रवासन के अलावा, निम्नलिखित कारक भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं:-
    • सार्वजनिक नीति: जैसे परिवार नीति, आप्रवासन नीति, स्वास्थ्य नीति, शिक्षा नीति आदि का भारत की जनसांख्यिकी पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है।
    • पर्यावरणीय कारक: पर्यावरणीय कारक और जनसांख्यिकी एक दूसरे को प्रभावित करते हैं।

ये बदलती गतिशीलता क्या दर्शाती है?

भारत की जनसंख्या गतिशीलता उसके ‘विकास’ परिदृश्य से जुड़ी हुई है।

  • प्रजनन दर में कमी: यह छोटे परिवार मानदंडों की ओर एक संक्रमण का प्रतीक है।
    • इससे आश्रित जनसंख्या का अनुपात कम हो सकता है और भारत रोजगार सृजन करके अपने युवा कार्यबल की क्षमता का दोहन कर सकता है।
  • मृत्यु दर में कमी और जीवन प्रत्याशा में वृद्धि: ये एक मजबूत स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली और बढ़े हुए जीवन स्तर का प्रतिबिंब हैं।
    • हालाँकि, जनसंख्या वृद्धावस्था के मुद्दे पर दीर्घकालिक योजना की आवश्यकता है:- वृद्धावस्था देखभाल पर ध्यान केंद्रित करना और सामाजिक सुरक्षा लाभ प्रदान करना।
  • तीव्र गति से ग्रामीण क्षेत्रों से शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन: यह मौजूदा शहरी बुनियादी ढाँचे के लिए खतरा उत्पन्न कर रहा है।
  • अन्य: लैंगिक समानता को भी महत्त्वपूर्ण स्थान मिला है। श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी, जो कि कम होती जा रही है, वे मूक मुद्दे हैं, जो वर्ष 2030 तक भारत के मार्ग को अवरुद्ध कर सकते हैं।

भारत में जनसांख्यिकीय लाभांश के साथ अवसर (Opportunities with Demographic Dividend in India)

  • जनसांख्यिकीय लाभांश किसी अर्थव्यवस्था में होने वाली वृद्धि को संदर्भित करता है, जो किसी देश की जनसंख्या की आयु संरचना में परिवर्तन का परिणाम है। यह आमतौर पर जन्म दर और मृत्यु दर में गिरावट के कारण होता है, जिसके कारण आश्रित समूहों (बच्चे और बुजुर्ग) की तुलना में जनसंख्या का बड़ा हिस्सा कार्यशील आयु वर्ग (15-64 वर्ष) में होता है।
  • श्रम भागीदारी में वृद्धि: तेजी से बढ़ती युवा आबादी के परिणामस्वरूप श्रम आपूर्ति में वृद्धि होती है, क्योंकि अधिक लोग कार्य करने की आयु तक पहुँचते हैं।
  • अधिक आर्थिक विकास: जनसांख्यिकीय लाभांश ने ऐतिहासिक रूप से उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में समग्र विकास में 15% तक का योगदान दिया है।
  • उच्च पूँजी निर्माण: आश्रितों की संख्या में कमी के साथ बचत का पैटर्न बढ़ता है, जिससे राष्ट्रीय बचत दर बढ़ती है, विकासशील देशों में पूँजी का स्टॉक बढ़ता है और निवेश के माध्यम से बढ़ी हुई पूँजी निर्माण का अवसर मिलता है।
  • बुनियादी ढाँचे के विकास में वृद्धि: संभावित जनसांख्यिकीय लाभांश, सरकार को बच्चों पर खर्च करने से संसाधनों को भौतिक और मानव बुनियादी ढाँचे में निवेश करने में सक्षम बनाता है।
  • महिला श्रम भागीदारी में वृद्धि: प्रजनन दर में कमी के परिणामस्वरूप स्वस्थ महिलाएँ और कम आर्थिक दबाव होते हैं और कार्यबल में अधिक महिलाओं को शामिल करने तथा मानव पूँजी को बढ़ाने का अवसर मिलता है।
  • नवाचार और उद्यमिता: युवा आबादी नवाचार और उद्यमिता को बढ़ा सकती है, स्वास्थ्य सेवा, शिक्षा, कृषि और वित्तीय सेवाओं जैसे विभिन्न क्षेत्रों में अधिक स्टार्टअप और यूनिकॉर्न उभर सकते हैं।
  • अनुकूल जलवायु कार्रवाई और स्थिरता: एक युवा और शिक्षित आबादी जलवायु कार्रवाई को प्राथमिकता देकर तथा पर्यावरण के अनुकूल प्रथाओं को अपनाकर सतत् विकास को आगे बढ़ा सकती है।
  • अधिक वैश्विक प्रभाव: भारत की बढ़ती आबादी, दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र और प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में इसकी स्थिति के साथ, इसे वैश्विक विनिर्माण केंद्र, स्टार्टअप कैपिटल और कुशल जनशक्ति का निर्यातक बनने में मदद कर सकती है।

उच्च जनसंख्या से संबंधित चिंताएँ

उच्च जनसंख्या से जुड़ी निम्नलिखित चुनौतियों पर विचार करने और उनसे निपटने की आवश्यकता है।

  • प्रतिकूल आर्थिक परिणाम: व्यापक गरीबी, बढ़ती असमानता और व्यापक बेरोजगारी एवं अल्परोजगार।
    • असमानता का प्रचलन: ऑक्सफैम के अनुसार, भारत की शीर्ष 10% आबादी के पास राष्ट्रीय संपत्ति का 77% हिस्सा है। यदि विकास सबसे गरीब लोगों तक नहीं पहुँचता है, तो ‘सतत् विकास’ कभी भी अपने वास्तविक अर्थों में हासिल नहीं किया जा सकता है।
    • बेरोजगारी वृद्धि: NSSO आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण वर्ष 2017-18 के अनुसार, 15-59 वर्ष आयु वर्ग के लिए भारत की श्रम बल भागीदारी दर लगभग 53% है।
      • इसका अर्थ यह है कि कार्यशील आयु वाली लगभग आधी जनसंख्या बेरोजगार है।
    • अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में वृद्धि: अनौपचारिक अर्थव्यवस्था में श्रमिकों को कम वेतन मिलता है तथा वे सामाजिक सुरक्षा लाभों से वंचित रहते हैं।
  • नकारात्मक सामाजिक परिणाम
    • श्रम बल में महिलाओं की कम भागीदारी: विश्व बैंक के आँकड़ों से पता चलता है कि भारत में महिला श्रम भागीदारी वर्ष 2005 में 32% से गिरकर 2021 में 19% हो गई है।
      • आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (2022-23): महिला भागीदारी केवल 37.0% के आसपास है। 
    • गर्भनिरोधक का कम इस्तेमाल: लगभग आधे भारतीय अभी भी गर्भनिरोधक के आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल नहीं करते हैं। गर्भनिरोधक के इस्तेमाल का बोझ महिलाओं पर असमान रूप से पड़ता है, जबकि कंडोम का इस्तेमाल अस्वीकार्य रूप से 10% से भी कम है।
  • स्वास्थ्य संबंधी खतरा: कुपोषण और कई बीमारियाँ निम्न जीवन स्तर के कारण होती हैं।
    • ग्लोबल हंगर इंडेक्स (2023): 125 देशों में भारत की रैंक 111वीं थी। 
    • पोषण के संदर्भ में, पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों में बौनापन, दुबलापन और कम वजन तथा महिलाओं में एनीमिया गंभीर चुनौतियाँ उत्पन्न करता है। 
    • भारत की महामारी विज्ञान प्रक्षेपवक्र से पता चलता है कि देश पर संचारी और गैर-संचारी रोगों (Non-Communicable diseases- NCD) का दोहरा बोझ है। 
    • कुपोषण के वैश्विक बोझ में भारत का योगदान एक-तिहाई है।
      • यद्यपि भारत सरकार ने वर्ष 2018 में प्रधानमंत्री समग्र पोषण योजना (Prime Minister’s Overarching Scheme for Holistic Nourishment- POSHAN) अभियान शुरू किया, फिर भी वर्ष 2030 तक ‘जीरो हंगर’ करने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए प्रभावी क्रियान्वयन की आवश्यकता होगी।
  • अप्रभावी मानव पूँजी का निर्माण और विकास: यह भारत के स्नातकों और स्नातकोत्तरों के बीच कम रोजगार क्षमता में परिलक्षित होता है।
    • एसोचैम (ASSOCHAM) के अनुसार, केवल 20-30% इंजीनियरों को उनके कौशल के अनुकूल नौकरी मिलती है।
    • UNDP के मानव विकास सूचकांक में भारत 189 देशों में से 134वें स्थान पर है।
  • पहचान की हानि: नृजातीय अल्पसंख्यकों और प्रवासियों की पहचान की हानि का भय भी अधिक जनसंख्या के कारण उत्पन्न हो सकता है।
    • इससे सांप्रदायिकता को बढ़ावा मिल सकता है तथा धर्म एवं मूल स्थान के आधार पर सामाजिक ढाँचे में अंतर उत्पन्न हो सकता है।
  • शासन और पर्यावरण संबंधी चुनौती: जीवन प्रत्याशा में वृद्धि और इसके परिणामस्वरूप वृद्ध जनसंख्या में वृद्धि के कारण, स्वास्थ्य देखभाल और सामाजिक सुरक्षा की लागत में वृद्धि हुई है।
    • अधिक जनसंख्या और उसके परिणामस्वरूप पर्यावरण को होने वाले नुकसान के कारण संक्रामक बीमारियाँ विकसित होती हैं तथा आसानी से फैलती हैं। उदाहरण: कोविड-19।
  • प्रजनन क्षमता में क्षेत्रीय भिन्नताएँ: जनसंख्या बहुल राज्य उत्तर प्रदेश और बिहार में प्रजनन दर बहुत अधिक है, जो क्रमशः 2.4 और 3 है।

संभावित जनसांख्यिकीय लाभांश के लिए सरकारी योजनाएँ

सरकार पहुँच से संबंधित बाधाओं, गर्भनिरोधक विधियों के बारे में गलत धारणाओं, जागरूकता की कमी, भौगोलिक और आर्थिक चुनौतियों तथा प्रतिबंधात्मक सामाजिक एवं सांस्कृतिक मानदंडों पर नियंत्रण पाने के लिए प्रतिबद्ध है।

  • मिशन परिवार विकास: इसका उद्देश्य कुछ उच्च प्रजनन क्षमता वाले जिलों में गर्भनिरोधक और परिवार नियोजन सेवाओं तक पहुँच बढ़ाना है।
  • राष्ट्रीय परिवार नियोजन क्षतिपूर्ति योजना: यह नसबंदी के बाद मृत्यु, जटिलता और विफलता के मामले में अपने ग्राहकों का बीमा करती है। इसके अतिरिक्त, आयुष्मान आरोग्य मंदिरों के माध्यम से परिवार नियोजन सेवाओं को अंतिम छोर तक पहुँचाया जा रहा है।
    • वर्ष 2012 में, प्रजनन, मातृ, नवजात, बाल और किशोर स्वास्थ्य (Reproductive, Maternal, Newborn, Child, and Adolescent Health- RMNCH+A) दृष्टिकोण को परिवार नियोजन, 2020 और अब परिवार नियोजन, 2030 के माध्यम से परिवार नियोजन पर जोर देने के साथ-साथ प्रस्तुत किया गया था।
  • महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा): यह वर्ष 2006 में प्रभाव में आया और इसने ग्रामीण गरीबी को संबोधित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।
  • वर्ष 2005 की जननी सुरक्षा योजना: यह गर्भवती महिलाओं को नकद लाभ प्रदान करती है, इससे न केवल संस्थागत प्रसव में वृद्धि हुई बल्कि गरीब परिवारों को भारी स्वास्थ्य व्यय से भी बचाया गया।
  • राष्ट्रीय कौशल विकास निगम (National Skill Development Corporation- NSDC): इसका लक्ष्य वर्ष 2022 तक भारत में 500 मिलियन लोगों को कौशल प्रदान करना/कौशल बढ़ाना था।
  • अन्य: सरकार ने आयुष्मान भारत और एकीकृत बाल विकास (Integrated Child Development- ICDS) कार्यक्रमों जैसी कई सफल योजनाएँ प्रदान की हैं।
    • जैसा कि संयुक्त राष्ट्र अंतरराष्ट्रीय जनसंख्या विकास सम्मेलन (International Conference on Population Development- ICPD) में समर्थन किया गया है, भारत ने न केवल ICPD एजेंडे को नेतृत्व प्रदान किया है, बल्कि बेहतर परिवार नियोजन सेवाओं और स्वास्थ्य परिणामों, विशेष रूप से मातृ स्वास्थ्य तथा बाल स्वास्थ्य में सुधार के माध्यम से प्रगति भी प्रदर्शित की है।

आगे की राह

भारत को आय असमानता को दूर करने, भारत के युवाओं के लिए रोजगार के अवसर उत्पन्न करके अपने जनसांख्यिकीय लाभांश का दोहन करने और बदलती स्वास्थ्य आवश्यकताओं को संबोधित करने की आवश्यकता है। भारत को सतत् विकास लक्ष्य हासिल करने के लिए, नीतियों को बनाते समय बदलती जनसंख्या गतिशीलता को स्वीकार करना होगा।

  • महिलाओं का सशक्तीकरण: अधिक लैंगिक समानता वाले समाजों में प्रजनन दर कम होती है और जनसांख्यिकीय संकेतक बेहतर होते हैं।
    • NFHS-5 के अनुसार, जो लड़कियाँ शिक्षा एवं कॅरियर पर अधिक ध्यान देती हैं वे बच्चों की संख्या सीमित रखती हैं।
    • जैसे-जैसे महिलाएँ अधिक सशक्त होती जाती हैं, उन्हें समाज के सदस्यों के रूप में बेहतर महत्त्व दिया जाता है। हरियाणा में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ अभियान की सफलता इसका उदाहरण है।
  • क्षमता विकास: भारत की कुल जनसंख्या का दो-तिहाई हिस्सा 15 से 64 वर्ष की आयु के बीच है।
    • शिक्षा, कौशल विकास और अवसर उत्पन्न करना, विशेष रूप से वंचित वर्गों के युवाओं और महिलाओं के लिए, अगले 20 वर्षों में जनसांख्यिकीय लाभांश का लाभ उठाने के लिए देश की कुंजी होगी।
  • मानव पूँजी का निर्माण: मानव पूँजी के निर्माण के लिए स्वास्थ्य सेवा, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा, नौकरियों और कौशल में निवेश करने की आवश्यकता है, जिससे आर्थिक विकास को बढ़ावा मिलेगा, अत्यधिक गरीबी समाप्त होगी और अधिक समावेशी समाज का निर्माण होगा।
  • स्वास्थ्य और पोषण में सुधार: स्वास्थ्य सेवा बुनियादी ढाँचे में सुधार से युवा श्रम शक्ति के लिए अधिक उत्पादक दिन सुनिश्चित होंगे, जिससे अर्थव्यवस्था की उत्पादकता बढ़ेगी।
    • NCD, जिस पर अधिक खर्च होता है, कुछ परिवारों के लिए आर्थिक रूप से संकटकारी होता है। इन परिवारों को अत्यधिक गरीबी में जाने से बचाने के लिए भारत को एक मजबूत सुरक्षा जाल की आवश्यकता होती है। 
    • स्वास्थ्य संबंधी कार्यक्रमों को प्रभावी करके पोषण परिदृश्य को ठीक किया जाना चाहिए। इसके लिए स्वास्थ्य और पोषण क्षेत्रों के लिए बजटीय आवंटन में वृद्धि की आवश्यकता होगी।
  • अधिक रोजगार सृजन: कार्यबल में युवा लोगों की वृद्धि को शामिल करने के लिए राष्ट्र को प्रति वर्ष दस मिलियन रोजगार सृजन की आवश्यकता है।
    • व्यवसायों के हितों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है और उद्यमशीलता से बड़ी श्रम शक्ति को रोजगार प्रदान करने के लिए रोजगार सृजन में मदद मिलेगी।
  • दक्षिणी राज्यों की सफलता का अनुकरण: पाँच दक्षिणी राज्यों में प्रजनन दर में कमी सफल रही, जो कि पारंपरिक धारणा को चुनौती देती है कि जनसंख्या स्थिरीकरण के लिए साक्षरता, शिक्षा और विकास आवश्यक हैं।
    • दक्षिणी सरकारों ने परिवारों को केवल दो बच्चे पैदा करने और उसके बाद नसबंदी करवाने के लिए सक्रिय रूप से प्रोत्साहित किया।
    • पुरुष नसबंदी, जो महिला नसबंदी से कहीं अधिक सुरक्षित है, को राष्ट्रीय और राज्य नीतियों द्वारा बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
  • परिवार नियोजन व्यय में वृद्धि: यदि परिवार नियोजन नीतियों को सक्रिय रूप से प्राथमिकता दी जाए तो भारत का प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद वर्ष 2031 तक अतिरिक्त 13% बढ़ सकता है।
    • इससे 2.9 मिलियन शिशु मृत्यु और 1.2 मिलियन मातृ मृत्यु को रोका जा सकता है तथा परिवारों को प्रसव तथा बच्चे के अस्पताल में भर्ती होने पर होने वाले 77,600 करोड़ रुपये (20%) के स्वास्थ्य व्यय से बचाया जा सकता है।
  • सतत् विकास लक्ष्यों (Sustainable Development Goals- SDG) की प्राप्ति पर ध्यान केंद्रित करना: जैसे-जैसे भारत वर्ष 2030 की तरफ बढ़ आ रहा है, सतत् विकास लक्ष्यों में भारत की प्रगति को विशेष रूप से इसकी जनसंख्या गतिशीलता के प्रकाश में समझा जाना चाहिए।
    • सरल शब्दों में ‘विकास’ का मतलब है सभी के लिए भोजन, आश्रय और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी जरूरतें सुनिश्चित करना। ‘गरीबी उन्मूलन, भूखमरी से मुक्ति और अच्छा स्वास्थ्य’ तीन सबसे महत्त्वपूर्ण सतत् विकास लक्ष्य हैं, जो ‘विकास’ का मूल आधार हैं।
  • अन्य: गरीबी रेखा से नीचे रहने वाली आबादी का अनुपात वर्ष 1990 और 2019 के बीच 48% से घटकर 10% हो गया।

निष्कर्ष

भारत के जनसांख्यिकीय लाभांश को सतत् विकास, शहरीकरण और प्रवास की जटिलताओं से निपटना होगा। इन कारकों को नीतियों में एकीकृत करना सुनिश्चित करता है कि जनसांख्यिकीय वृद्धि एक सतत् भविष्य और समावेशी समृद्धि में तब्दील हो। सफल हस्तक्षेपों को विशिष्ट रणनीतियों के साथ-साथ एकीकृत किया जाना चाहिए।

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