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भारतीय संविधान के 75 वर्ष पूर्ण : संवैधानिक न्याय और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मुद्दा

Lokesh Pal January 25, 2025 05:30 339 0

संदर्भ:

भारतीय संविधान के 75 वर्ष पूरे होने के अवसर पर, भारत को न्यायिक विचार के मूल घटक के रूप में, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार पर गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है।

संवैधानिक नैतिकता के रूप में असहमति:

  • ऐतिहासिक मामला (Landmark Case): सर्वोच्च न्यायालय ने पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) मामले में ए.के. गोपालन बनाम मद्रास राज्य (1950) से न्यायमूर्ति एस. फजल अली की असहमतिपूर्ण राय को सर्वसम्मति से बहाल कर दिया।
    • इस असहमति (Dissent) ने ए.के. गोपालन के राजनीतिक असहमति (Political Dissent) के अधिकार को बरकरार रखा, तथा सरकार द्वारा निवारक निरोध के प्रयोग को चुनौती दी गई।
  • कमियों की पहचान (Recognition of Flaws): ए.के. गोपालन की निवारक नजरबंदी और वर्ष 1950 में सर्वोच्च न्यायालय के बहुमत से लिए गये निर्णय को संवैधानिक नैतिकता के मद्देनजर न्यायिक भूल/गलती (Judicial Wrong) घोषित किया।
    • यह स्वीकृति ऐतिहासिक न्यायिक त्रुटियों को सुधारने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण कदम था।

त्रुटिपूर्ण बहुमत के निर्णय (Flawed Majority Judgments):

  • वर्ष 1950 के बहुमत के मतों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया गया था, तथा संविधान द्वारा परिकल्पित स्वतंत्रता की केन्द्रीयता (Centrality Of Liberty ) को बनाए रखने में उनकी विफलता के लिए आलोचना की गई थी।
  • मौलिक अधिकार और नैतिकता (Fundamental Rights and Ethics): मौलिक अधिकारों की व्याख्या की तकनीकी बातों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण करने के नैतिक दायित्व से अलग नहीं किया जा सकता है।
    • व्यक्तिगत स्वतंत्रता संविधान के न्याय, सम्मान और स्वतंत्रता के मूल्यों का मूलभूत आधार है।

अनुच्छेद 21 का महत्त्व:

  • जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार (Right to Life and Personal Liberty): अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है, जो व्यक्ति की गरिमा को एक पोषित मानव मूल्य के रूप में सुनिश्चित करता है। यह प्रत्येक मनुष्य के पूर्ण विकास और वृद्धि को बढ़ावा देता है।
    • पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ (2017) मामला : इस मामले में न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन ने मानव गरिमा के लिए अनुच्छेद 21 की केंद्रीयता पर बल दिया (संबंधित मामले का पैराग्राफ 42)।
  • डॉ. बी.आर. अंबेडकर का दृष्टिकोण (Vision of Dr. B.R. Ambedkar): संविधान को समकालीन चुनौतियों का समाधान करने के लिए अनुकूलनीय और मजबूत बने रहना चाहिए, साथ ही इसका व्यावहारिक अनुप्रयोग भी सुनिश्चित करना चाहिए।
    • आधुनिक जटिलताओं से निपटने के लिए संवैधानिक मूल्यों की प्रगतिशील  व्याख्या अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
  • मार्गदर्शक ढांँचा (Guiding Framework:): भारतीय संविधान की प्रस्तावना एक नैतिक दिशा-निर्देश के रूप में कार्य करती है, जो एकता और अखंडता को बनाए रखने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करती है।
    • यह न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर बल देती है, जो खंडित राजनीतिक आख्यानों, जैसे ‘टुकड़े-टुकड़े’ प्रवचनों के प्रतिउत्तर में महत्त्वपूर्ण  हैं।

निवारक निरोध और मनमाने ढंग से गिरफ्तारी से संबंधित मुद्दें:

  • अधिकारों का हनन (Erosion of Rights): निवारक निरोध और मनमानी गिरफ्तारी, साथ ही आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत निष्पक्ष सुनवाई से इनकार ने असहमति जाहिर करने वालों के लिए ‘रिचुअल्स ऑफ हूमिलिएशन’ (Rituals Of Humiliation) को संस्थागत बना दिया है।
    • ये कार्य न्याय और स्वतंत्रता के संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन करते हैं तथा कर्तव्यनिष्ठ प्रतिरोधियों पर गंभीर प्रतिबंध आरोपित करते हैं।
  • ए.के. गोपालन का संघर्ष (A.K. Gopalan’s Struggle): ए.के. गोपालन ने स्वतंत्रता प्राप्ति के तुरंत बाद निवारक निरोध कानूनों के तहत हिरासत में लिए जाने पर संवैधानिक विरोधाभासों को चुनौती दी।
    • न्यायिक हस्तक्षेप के बावजूद, उन्हें बार-बार गिरफ्तारियों के साथ ही दीर्घकालिक कारावास का सामना करना पड़ा, जो कानूनी प्रावधानों के दुरुपयोग को दर्शाता है।
  • समकालीन विरोध/असंतुष्टि Contemporary Dissenters): नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (CAA) का विरोध करने वाले उमर खालिद, शरजील इमाम और गुलफिशा फातिमा जैसे असंतुष्ट लोगों को निम्नलिखित समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है:
    • UAPA जैसे आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत कठोर कारावास की सजा आदि।
    • पक्षपातपूर्ण जेल प्रणाली के माध्यम से तोड़फोड़, बेदखली और मुख्य धारा से दूर रखना।
    • उनकी स्थिति असहमति को दबाने के लिए कानूनी साधनों के दुरुपयोग को प्रतिबिम्बित करती है, जो गोपालन जैसे व्यक्तियों द्वारा अतीत में झेले गए अन्याय की याद दिलाती है।
  • वर्ष 2017 के बाद व्यापक उपयोग (Widespread Use Post-2017): वर्ष 2017 के बाद संवैधानिक न्यायालयों के समर्थन से, बिना जमानत के निवारक निरोध और लंबे समय तक हिरासत में रखना एक कानूनी प्रचलन बन गया है।
    • अनेक राज्य और केंद्रीय कानून न्यूनतम विनियमन के साथ नजरबंदी और हिरासत की अनुमति देते हैं, जिसके कारण इनका व्यापक दुरुपयोग होता है।
  • न्याय में विलंब (Delays in Justice): वर्तमान समय में, हिरासत की प्रक्रिया ही प्रभावी रूप से सजा बन गई है, क्योंकि व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर निर्णय विलंबित, अस्पष्ट और अप्राप्य रहते हैं।
    • कानूनी सुरक्षा उपायों को प्रायः नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिससे एक ऐसी प्रणाली विकसित होती है, जो जवाबदेही की अपेक्षा नियंत्रण को प्राथमिकता देती है।
  • सीएए विरोधी युवाओं की असंतुष्टि (Anti-CAA Dissenters): नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (CAA) 2019 का विरोध करने वाले युवा असंतुष्ट हैं, जिनमें उमर खालिद और अन्य शामिल हैं तथा आतंकवाद विरोधी कानूनों में फसें हुए हैं।
    • उन्हें पारदर्शिता के अभाव के साथ अनिश्चितकालीन नजरबंदी का सामना करना पड़ता है, जो असहमति के व्यवस्थित दमन को दर्शाता है।
  • असहमति का अपराधीकरण (Criminalisation of Dissent): हाँलाकि कुछ न्यायिक निर्णय (जैसे, पुट्टस्वामी 2017) असहमति को एक संवैधानिक नैतिकता के रूप में मान्यता देते हैं, असहमति को UAPA जैसे कड़े कानूनों के तहत अपराध माना जाता है।
    • यह विरोधाभास संविधान के 75वें वर्ष में चिंतन की आवश्यकता को उजागर करता है, तथा संवैधानिक आदर्शों और सतही वास्तविकता के बीच अंतर पर बल देता है।

ए.के. गोपालन का कारावास और कानूनी संघर्ष:

  • विस्तृत संस्मरण (Detailed Memoi): वर्ष 1973 के ए.के. गोपालन  के संस्मरण, इन द कॉज ऑफ द पीपल: रिमिनिसेंस में, ए.के. गोपालन ने अपने कारावास और अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित करने के लिए लड़ी गई कई कानूनी लड़ाइयों का वर्णन किया है।
    • उन्होंने ब्रिटिश और भारतीय दोनों अदालतों में याचिकाएंँ दायर की, लेकिन न्याय पाने के उनके प्रयास असफल रहे।
  • राष्ट्रीय ध्वज फहराना (Hoisting the National Flag): 15 अगस्त, 1947 को गोपालन ने जेल में एक छोटे से जुलूस का नेतृत्व करके और राष्ट्रीय ध्वज फहराकर भारत की स्वतंत्रता का जश्न मनाया।
    • इस अवज्ञाकारी कृत्य के कारण उन्हें धारा 124 A (राजद्रोह) के तहत गिरफ्तार कर लिया गया, तथा उन पर सम्राट के विरुद्ध शत्रुता भड़काने का आरोप लगाया गया, जो इस संदर्भ में एक उल्लेखनीय उदाहरण है।
  • गिरफ्तारी और पुनः गिरफ्तारी का क्रम (Cycle of Arrests and Re-Arrests): गोपालन को लगातार कारावास का सामना करना पड़ा, अदालत के आदेश से रिहा होने के बाद जेल के गेट पर उन्हें पुनः गिरफ्तार कर लिया जाता था। लगातार कानूनी याचिकाओं के बावजूद उन्हें चार वर्ष  (वर्ष 1947 से वर्ष 1951 तक ) तक हिरासत में रखा गया।
  • न्यायिक आदेशों की अनदेखी (Ignoring Judicial orders): एक मामले में, जब अदालत ने उन्हें रिहा करने का आदेश दिया और पुलिस को स्पष्ट निर्देश दिया कि उन्हें दोबारा गिरफ्तार न किया जाए, तो पुलिस ने इस निषेधाज्ञा का उल्लंघन किया।

गिरफ्तारियों के हालिया मामलें:

  • चार वर्ष की हिरासत (Four Years of Custody): गोपालन की तरह, उमर खालिद, शरजील इमाम और गुलफिशा फातिमा जैसे नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (CAA) विरोधी प्रदर्शनकारियों ने राज्य की अन्यायपूर्ण कार्रवाइयों को चुनौती देते हुए लगभग चार वर्ष हिरासत में बिताए।
  • न्यायिक तत्परता का अभाव (Lack of Judicial Urgency ): गोपालन के समय के विपरीत, वर्तमान अदालतें UAPA जैसे आतंकवाद विरोधी कानूनों के तहत बंदियों की दुर्दशा को संबोधित करने में कम तत्पर दिखाई देती हैं।
  • भीमा कोरेगांँव और दिल्ली दंगा से संबंधित मामले (Bhima Koregaon and Delhi Riots Cases): हाल के समय में भीमा कोरेगांँव मामला (2018) में हुई 16 गिरफ्तारियांँ और दिल्ली दंगों (2020) में हुई 19 गिरफ्तारियांँ बुद्धिजीवियों, कलाकारों, कार्यकर्ताओं और सामुदायिक नेताओं को निशाना बनाए जाने को चिन्हित करती हैं।
    • इन दोनों ही मामलों में से अधिकांश बंदी मुस्लिम हैं, जिससे प्रणालीगत भेदभाव के बारे में चिंता उत्पन्न होती है।

औपनिवेशिक कानूनों की विरासत:

  • औपनिवेशिक कानूनों की निरंतरता बनाए रखना (Upholding Colonial Laws): के.जी. कन्नबीरन ने गोपालन निर्णय को प्रथम “भारत निर्मित विदेशी निर्णय” (Indian-Made Foreign Judgment) बताया, क्योंकि इसमें स्वतंत्रता के बाद के भारत में औपनिवेशिक युग के कानूनों को बनाए रखा गया था।
    • 75 वर्षों के बाद भी, राजद्रोह और निवारक निरोध जैसे कानून, कानूनी प्रक्रिया में अंतर्निहित हैं, जो स्वतंत्रता और न्याय के संवैधानिक आदर्शों को क्षीण बना रहे हैं।
  • निवारक निरोध अधिनियम, 1950 (Preventive Detention Act, 1950): इस अधिनियम को  स्वतंत्रता के बाद लागू किया गया था। यह कानून सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मध्य निरंतर तनाव को दर्शाता है, जो प्रायः व्यवस्था स्थापित करने की आड़ में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को प्रतिबंधित करता है।

आगे की राह:

  • संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखना (Upholding Constitutional Values ): पुट्टास्वामी निर्णय (2017) ने गरिमा और असहमति को मूल संवैधानिक मूल्यों के रूप में महत्त्व दिया। इसके तहत न्यायालयों को अब यह तय करना होगा कि इन आदर्शों को कायम रखना है या स्वतंत्रता को सीमित करने वाले कानूनों और प्रथाओं को अनुमति देना जारी रखना है।
  • रचनात्मक संविधानवाद (Creative Constitutionalism): प्रोफेसर उपेंद्र बक्शी की “रचनात्मक संविधानवाद” की अवधारणा व्यक्तिगत स्वतंत्रता और न्याय की रक्षा हेतु न्यायिक नवाचार की मांग करती है।
    • हालांकि ऐसे हस्तक्षेप आवश्यक हैं, ताकि भविष्य की पीढ़ियांँ वर्तमान को संविधान की नैतिक भावना को बनाए रखने के क्रम में एक और विफलता के रूप में न देखें।
  • न्यायिक जवाबदेही की आवश्यकता (Need For Judicial Accountability): भीमा कोरेगांव मामला (2018), दिल्ली दंगे (2020) और नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (CAA) 2019 विरोधी प्रदर्शनकारियों की हिरासत जैसे मामले न्यायिक जवाबदेही की तत्काल आवश्यकता पर बल देते हैं।
    • अतः कार्रवाई करने में विफल होने से अन्याय के बने रहने तथा सविधान में वर्णित सभी के लिए न्याय, स्वतंत्रता और प्रतिष्ठा की गारंटी के कमजोर होने का खतरा है।

निष्कर्ष:

संविधान के सिद्धांतों को जीवित बनाए रखने के लिए, यह सुनिश्चित करना आवश्यक है कि वर्तमान समय में हमारे कार्य संविधान की नैतिक भावना को बनाए रखें, न कि इसके अंतर्गत निहित न्यायिक विचारों के विरुद्ध कार्य कर इसकी प्रासंगिकता को प्रभावित करें। संविधान के मूल सिद्धांतों के साथ तारतम्यता स्थापित करने के प्रयासों में विफल होने पर सभी के लिए स्वतंत्रता, सम्मान और न्याय के प्रति इसकी दृष्टि को अस्वीकार करने का जोखिम उत्पन्न हो सकता है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

प्रश्न. “संविधान की नैतिक भावना को बनाए रखने में न्यायपालिका की भूमिका महत्त्वपूर्ण है।” इस कथन का विश्लेषण कीजिए, साथ ही यह स्पष्ट कीजिए कि भारत में जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को मजबूत करने के लिए अनुच्छेद 21 की न्यायिक व्याख्याएँ किस प्रकार विकसित हुई हैं।

(10 अंक, 150 शब्द)

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