संदर्भ: उषा मेहता की जीवनी पर आधारित फिल्म “ऐ वतन मेरे वतन” हाल ही में रिलीज की गई थी।
प्रारंभिक परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: भारत छोड़ो आंदोलन (QIM) और कांग्रेस रेडियो के बारे में ।
मुख्य परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में नेताओं की भूमिका।
भारत छोड़ो आंदोलन की पृष्ठभूमि: करो या मरो
लॉन्च किया गया: 8 अगस्त, 1942।
‘करो या मरो’ का नारा:महात्मा गांधी द्वारा बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान (Bombay’s Gowalia Tank maidan) में दिया गया था ।
संघर्ष का तरीका: बड़े पैमाने पर सविनय अवज्ञा और ब्रिटिश शासन के अंत के लिए बड़े पैमाने पर सार्वजनिक प्रदर्शन, सार्वजनिक तोड़फोड़ किए गए, और यहाँ तक कि कुछ क्षेत्रों में समानांतर सरकारों की स्थापना भी की गई थी ।
ब्रिटिश प्रतिक्रिया: द्वितीय विश्व युद्ध के कारण अंग्रेज पहले ही तनाव में थे।
उन्होंने जवाब में कई प्रदर्शनकारियों को गिरफ्तार कर लिया।
गांधी, जवाहरलाल नेहरू और वल्लभ भाई पटेल सहित कांग्रेस के वरिष्ठ नेतृत्व को 9 अगस्त को ही जेल में डाल दिया गया और पार्टी पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
परिणाम: युवा नेताओं की एक नई पीढ़ी ने नेतृत्व किया और औपनिवेशिक अधिकारियों के क्रूर दमन के बीच भी क्यूआईएम को कायम रखा।
उषा मेहता के बारे में:
उषा मेहता बम्बई में कानून की छात्रा थीं।
22 साल की उम्र में वह गांधीजी से प्रेरित हुईं और स्वतंत्रता संग्राम में योगदान देने के लिए भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल हो गईं।
नियोजित संघर्ष का तरीका:
उन्हें सार्वजनिक प्रदर्शनों का नेतृत्व करना पसंद नहीं था।
माध्यम के रूप में रेडियो: दुनिया के अन्य देशों में क्रांतियों के इतिहास के अध्ययन के आधार पर उन्होंने भारत में एक रेडियो स्टेशन स्थापित करने का सुझाव दिया।
उन्होंने कांग्रेस रेडियो की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जो एक भूमिगत रेडियो स्टेशन था जो 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान संचालित किया गया था।
भूमिगत स्टेशन की स्थापना:
आवश्यकता: 1939 के युद्ध के दौरान, अंग्रेजों ने पूरे साम्राज्य में सभी शौकिया रेडियो लाइसेंसों को निलंबित कर दिया था।
ऑपरेटरों को सभी उपकरण अधिकारियों को सौंपने थे, ऐसा करने में विफल रहने वालों के लिए कड़ी सजा का प्रावधान था।
स्वतंत्रता का संदेश फैलाने के लिए: भारत छोड़ो आंदोलन के हिस्से के रूप में लॉन्च किया गया, कांग्रेस रेडियो भारत में स्थापित सबसे शुरुआती रेडियो नेटवर्क में से एक था।
इसका उपयोग गांधीजी ने स्वतंत्रता का संदेश फैलाने के लिए किया था।
आयोजक: उषा मेहता, बाबूभाई खाकर, विट्ठलभाई झावेरी और चंद्रकांत झावेरी कांग्रेस रेडियो के आयोजन में प्रमुख व्यक्ति थे।
चुनौतियाँ:
उद्यम के लिए धन की आवश्यकता।
तकनीकी विशेषज्ञता और उपकरण प्राप्त करना: रेडियो प्रसारण अभी भी अपनी प्रारंभिक अवस्था में था, और भारत में बहुत कम लोग थे जो उपकरण चला सकते थे। जिनमें भारतीय अभी भी कम थे।
नरीमन प्रिंटर का योगदान: नरीमन प्रिंटर के पास युद्ध से पहले शौकिया ट्रांसमिटिंग लाइसेंस था। उपरोक्त प्रतिबंध के बावजूद वह अपने ट्रांसमीटर के विभिन्न हिस्सों पर कब्ज़ा बनाए रखने में कामयाब रहा।
वह एक कार्यशील रेडियो ट्रांसमीटर स्थापित करने में सक्षम था।
3 सितंबर के कांग्रेस के दैनिक बुलेटिन में कहा गया कि कांग्रेस रेडियो रात 8.45 बजे प्रसारित होगा।
उस दिन उषा मेहता पहली बार लाइव आई थीं ।
कांग्रेस रेडियो का महत्व:
भारतीयों के लिए सबसे पसंदीदा समाचार स्रोत बन गया: चूँकि भारतीयों को औपनिवेशिक सेंसर द्वारा राष्ट्रीय आंदोलन और युद्ध के बारे में जानकारी देने से इनकार कर दिया गया था।
उदाहरण-चटगाँव बम हमला, जमशेदपुर हमला, बलिया में समानांतर सरकार की स्थापना, अष्टी और चिमूर में अत्याचार आदि।
तत्कालीन परिस्थितियों के चलते समाचार पत्रों में इन विषयों को छापने का किसी को साहस नहीं था।
प्रसारित राजनीतिक भाषण: छात्रों, श्रमिकों और किसानों के समूहों को सीधे संबोधित करना।
जनता तक पहुँच: प्रसारण अंग्रेजी और हिंदुस्तानी दोनों भाषाओं में किया गया।
भारतीय लोगों को निर्देश: स्वतंत्रता की लड़ाई में भारतीय लोगों को कुछ निर्देश दिये गए थे।
रेडियो का अंत:
अंग्रेजों द्वारा पता लगाने से बचने के प्रयास: हर कुछ दिनों में ट्रांसमिशन का स्थान बदल देना ताकि अंग्रेज उस तक न पहुँच सकें।
अंतिम प्रसारण: नरीमन प्रिंटर के पकड़े जाने के बाद आखिरकार ऑपरेशन का भंडाफोड़ हो गया, जिसने छूट के बदले में 12 नवंबर को कांग्रेस रेडियो के अंतिम प्रसारण के स्थान का खुलासा किया।
मुकदमे की कार्यवाही: कांग्रेस रेडियो मामले में पाँच आरोपियों क्रमशः मेहता, बाबूभाई खाकर, विट्ठलभाई झावेरी, चंद्रकांत झावेरी और नानक गेनचंद मोटवानी (जिन्होंने टीम को उपकरणों के महत्वपूर्ण टुकड़े बेचे) पर मुकदमे चलाए गए।
बरी:विट्ठलभाई और मोटवानी को बरी कर दिया गया था ।
सज़ाएँ:उषा मेहता, बाबूभाई और चंद्रकांत को कठोर सज़ा का प्रावधान।
जेल से रिहा: उषा मेहता को मार्च 1946 में पुणे की यरवदा जेल से रिहा कर दिया गया और राष्ट्रवादी मीडिया में उन्हें “रेडियो-बेन” के रूप में सम्मानित किया गया।
जीवन के बाद के वर्ष: उनके खराब स्वास्थ्य ने उन्हें स्वतंत्र भारत में सक्रिय राजनीति से दूर रखा, लेकिन वह अंत तक एक कट्टर गांधीवादी बनी रहीं।
मान्यता: केंद्र सरकार ने उन्हें 1998 में भारत के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान, पद्म विभूषण से सम्मानित किया।
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