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भारत में अस्पृश्यता की शुरुआत

Lokesh Pal December 13, 2024 05:15 37 0

संदर्भ

अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (एससी और एसटी) के भीतर उप-वर्गीकरण पर सुप्रीम कोर्ट के हालिया फैसले ने इस विषय को फिर से चर्चा के केंद्र में ला दिया है कि क्या अनुसूचित जाति (एससी) एक समान समूह बनाते हैं, और क्या अस्पृश्यता अभी भी उन्हें इस श्रेणी में शामिल करने का प्राथमिक कारण है।

  • ध्यातव्य है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 के अंतर्गत अस्पृश्यता को अपराध की श्रेणी में शामिल किया गया है, किन्तु फिर भी अस्पृश्यता का यह मामला समकालीन समाज में विभिन्न रूपों में प्रकट होता रहता है।

अस्पृश्यता की उत्पत्ति और अम्बेडकर के विचार 

  • दो प्रमुख सिद्धांतों को वरीयता: भारत में अस्पृश्यता की जड़ों को समझाने के लिए दो प्रमुख सिद्धांतों को वरीयता क्रम में रखा गया है। हालाँकि अंबेडकर ने अस्पृश्यता के संदर्भ में दिए गए दोनों ही सिद्धांतों को खारिज कर दिया। ये दोनों सिद्धांत इस प्रकार हैं- 
  • नस्लीयता का सिद्धांत: नस्लीय सिद्धांत के अनुसार, अस्पृश्य लोग एक अलग ही नस्ल से थे, जो सामान्यतः आर्यों और द्रविड़ों से अलग थे, और इसी वजह से उनका सामाजिक स्तर पर बहिष्कार किया गया।
    • अंबेडकर ने अपने मानव जाति विज्ञान (Ethnological) संबंधी शोध के माध्यम से यह निष्कर्ष निकाला कि अस्पृश्य लोगों में भी बाकियों के समान ही शारीरिक लक्षण विद्यमान थे, और इस आधार पर अम्बेडकर ने अस्पृश्यों के एक अलग नस्ल की धारणा को खारिज कर दिया।
  • व्यवसाय का सिद्धांत: व्यावसाय के सिद्धांत से इस बात की पुष्टि होती है कि अस्पृश्यता कुछ “अस्वच्छ” कार्यों और सामाजिक स्तर पर माने जाने वाले अस्पृश्य कार्यों से जुड़े व्यक्तियों से संबंधित है, जैसे- शवों को संभालना या चमड़े का काम करना।
    • अम्बेडकर ने व्यवसाय के सिद्धांत के संदर्भ में यह तर्क दिया कि ये कार्य ऐतिहासिक रूप से विभिन्न सामाजिक वर्गों द्वारा किए जाते थे, इस प्रकार उन्होंने इस विचार को खारिज कर दिया कि केवल व्यवसाय ही अस्पृश्यता की उत्पत्ति की व्याख्या कर सकता है।

अस्पृश्यता के विषय में अम्बेडकर के तर्क 

अम्बेडकर ने अस्पृश्यता के उदय को चौथी शताब्दी से जोड़कर व्याख्यायित करने का प्रयास किया।  उनके अनुसार यह उस दौर की बात है जबकि ब्राह्मणों ने बौद्ध धर्म से अपना दर्जा पुनः प्राप्त करने का प्रयास किया था।

  • ब्राह्मण-बौद्ध संघर्ष: अपनी पुस्तक “द अनटचेबल्स (1948)” में अंबेडकर ने इस बात को व्याख्यायित किया है कि अस्पृश्यता की स्थिति तब पैदा हुई जबकि ब्राह्मणों ने गोमांस खाना बंद कर दिया और वे शाकाहारी बन गए। भारत में उन्होंने इस बदलाव को ब्राह्मणों और बौद्धों के बीच प्रतिस्पर्धा से जोड़ा।
    • शाकाहार का प्रभाव : बौद्ध धर्म ने अहिंसा को बढ़ावा दिया और पशु बलि को अस्वीकार कर दिया, जिसने मवेशियों पर निर्भर किसानों को वरीयता क्रम में ला दिया। अपने प्रभाव को पुनः प्राप्त करने के लिए, ब्राह्मणों ने शाकाहार को अपनाया।
  • सामाजिक अलगाव: “विखंडित समाज” ब्राह्मणों की गोमांस छोड़ने की प्रथा का पालन नहीं कर सकते थे क्योंकि वे मृत गायों को खाने और संभालने सहित मैला ढोने पर निर्भर थे।
    • समय के साथ, इन समुदायों को सामाजिक रूप से अलग-थलग कर दिया गया और उन्हें अस्पृश्य के रूप में माना गया।
  • अस्पृश्यता एक स्थायी विरासत एवं प्रणालीगत व्यवस्था : अन्य संस्कृतियों के विपरीत, जहाँ अशुद्धता या प्रदूषण अस्थायी और अनुष्ठानिक है, भारत में अस्पृश्यता एक स्थायी, वंशानुगत और प्रणालीगत स्थिति है।
    • अस्पृश्यों को न केवल सामाजिक रूप से अलग-थलग किया गया था, बल्कि उन्हें गाँव की सीमाओं के बाहर रहने के लिए मजबूर किया जाता था, जो अन्य संस्कृतियों में देखी जाने वाली अशुद्धता की अधिक सामान्य अवधारणाओं के विपरीत था।

“विखंडित समाज या व्यक्ति” और उनका हाशिए पर चले जाना

  • “विखंडित समाज या व्यक्ति” : ये ऐसे समुदाय या ऐसे व्यक्ति और आदिवासी समूह थे, जो स्थायी समुदायों के साथ संघर्षरत थे और गांवों से बाहर निवास करते थे।
  • उनका हाशिए पर होना अस्पृश्यता के कारण नहीं था, बल्कि उनके अलग-अलग जनजातियों से सम्बद्ध होने के कारण था, जिन्हें धीरे-धीरे जाति व्यवस्था द्वारा अलग-थलग कर दिया गया था।  

स्वतंत्र भारत में सामाजिक न्याय

जैसे-जैसे भारत स्वतंत्रता की ओर आगे बढ़ा, अंबेडकर ने दलित वर्गों के हितों की रक्षा सुनिश्चित करने के लिए अनेक शर्तें निर्धारित की: 

  • समान नागरिकता और मौलिक अधिकार: अंबेडकर ने इस बात पर बल दिया कि अस्पृश्यता का उन्मूलन (अनुच्छेद 17) और सभी नागरिकों के लिए समान अधिकारों की गारंटी सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लिए मौलिक थे।
  • अधिकारों के उल्लंघन के लिए दंड: अधिकारों का व्यावहारिक परिपालन सुनिश्चित करने के लिए, अंबेडकर ने हाशिए के समूहों के अधिकारों का उल्लंघन करने वालों के लिए कानूनी दंड की वकालत की।
  • भेदभाव के खिलाफ संरक्षण: अंबेडकर ने भविष्य में दलित वर्गों के अधिकारों की रक्षा के लिए भेदभाव के खिलाफ विधायी और कार्यकारी सुरक्षा का आह्वान किया।
  • विधानमंडलों और सार्वजनिक सेवाओं में प्रतिनिधित्व: अंबेडकर ने विधानमंडलों और सार्वजनिक सेवाओं में हाशिए के वर्गों के पर्याप्त प्रतिनिधित्व की आवश्यकता पर जोर दिया ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि बहुमत के शासन में उनके हितों की अनदेखी न की जा सके।
  • कल्याण के लिए विशेष तंत्र: अंबेडकर ने हाशिए के समुदायों के कल्याण के लिए समर्पित विभागों और तंत्रों की स्थापना की मांग की, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि निर्णय लेने की प्रक्रियाओं में इस पीड़ित समाज का प्रतिनिधित्व व संबंधित मुद्दों को रेखांकित किया जा सके।

जाति व्यवस्था का उन्मूलन (1936)

यह मूलतः जात-पात तोड़क मंडल के लिए लिखा गया भाषण था, जिसे अंबेडकर के विचारों की विवादास्पद प्रकृति के कारण उनके भाषण के सम्बोधन को रद्द कर दिए जाने के बाद स्वयं प्रकाशित किया गया था।

  • अव्यवस्थित करने वाली शक्ति: इस कार्य में, अंबेडकर ने तर्क दिया कि जाति एक अव्यवस्थित करने वाली शक्ति है जो सामूहिक व सामाजिक जीवन की संभावना को कमज़ोर करती है।
  • मन की स्थिति, भौतिक बाधा नहीं: अंबेडकर ने कहा कि जाति केवल एक सामाजिक या भौतिक विभाजन नहीं बल्कि एक मानसिक स्थिति है। यह एक ऐसी विश्वास प्रणाली है जो सामाजिक असमानता को मजबूत करती है।
  • धार्मिक ग्रंथों को अस्वीकार करने का आह्वान: अंबेडकर ने तर्क दिया कि केवल अंतर्जातीय विवाह या अंतर्जातीय भोजन को बढ़ावा देने से जाति समाप्त नहीं होगी जब तक कि इसकी पवित्रता में विश्वास को नष्ट नहीं किया जाता। ऐसा करने के लिए, अंबेडकर ने “शास्त्रों की पवित्रता में विश्वास को नष्ट करने” का आग्रह किया, जो वर्ण और जाति व्यवस्था को वैध बनाता है।
    • विशेष रूप से, अंबेडकर “नियमों के धर्म” की निंदा करते हैं न कि “सिद्धांतों के धर्म” की, अर्थात उन्होंने स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के सिद्धांत का समर्थन किया।
  • जाति और राष्ट्रीय पहचान: अंबेडकर का मानना ​​था कि सच्ची राष्ट्रीय एकता जाति की नींव पर नहीं बनाई जा सकती।
    • उनके लिए, जाति का उन्मूलन राजनीतिक स्वशासन (स्वराज) प्राप्त करने से अधिक महत्वपूर्ण था, क्योंकि एकजुट, जातिविहीन समाज भारत के एक मजबूत और एकजुट राष्ट्र बनने के लिए महत्वपूर्ण था।

निष्कर्ष :

 चूंकि वर्तमान भारत जातिगत भेदभाव के मुद्दों और अधिक समावेशी समाज की मांग से जूझ रहा है, इसलिए अंबेडकर के कार्यों पर पुनर्विचार करना महत्वपूर्ण है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सभी नागरिकों के लिए सामाजिक न्याय और समानता का संवैधानिक आदर्श साकार हो, चाहे उनकी जाति या पृष्ठभूमि कुछ भी हो।

मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न 

प्रश्न: अम्बेडकर का अस्पृश्यता का विश्लेषण सामाजिक भेदभाव से आगे बढ़कर आर्थिक, धार्मिक और राजनीतिक आयामों को भी समाहित करता है। इसके उन्मूलन के लिए उनका दृष्टिकोण न केवल संवैधानिक था बल्कि परिवर्तनकारी भी था। भारत में समकालीन जाति आधारित चुनौतियों से निपटने के लिए उनकी अंतर्दृष्टि किस प्रकार प्रासंगिक बनी हुई है, इसका आलोचनात्मक परीक्षण करें? 

(15 अंक, 250 शब्द)

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