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क्या केवल उत्पादकता ही तीव्र विकास की कुंजी हो सकती है?

Lokesh Pal September 18, 2025 05:00 42 0

संदर्भ:

भारत की विकास गाथा अक्सर यह मानकर चलती है कि उत्पादन में वृद्धि से स्वतः ही रोज़गार सृजित होंगे। लेकिन, पूंजी-केंद्रित तकनीकों का बढ़ता इस्तेमाल, मांग में कमी और मजदूरी का घटता अंश इस विकास मॉडल की स्थिरता को चुनौती देते हैं।

आउटपुट-रोजगार संबंध:

  • वियुग्मन प्रवृत्ति: उत्पादन वृद्धि हमेशा रोजगार वृद्धि में परिवर्तित नहीं होती है।
  • पूँजी-गहन प्रौद्योगिकी: उत्पादन बढ़ाती है लेकिन अक्सर श्रम को बाहर कर देती है, जिससे बड़े पैमाने पर श्रम की मांग में कमी आती है।
  • श्रम इनपुट में वृद्धि: यदि रोजगार कम वेतन वाली हैं और अतिरेक बना रहता है तो उत्पादन में वृद्धि नहीं हो सकती है।

मांग-पक्ष की गतिशीलता:

  • प्रभावी मांग महत्वपूर्ण: रोजगार और मजदूरी विस्तार सतत विकास को बढ़ावा देते हैं
  • असमानता जोखिम: कुछ ही हाथों में केंद्रित उत्पादकता लाभ असमानता को बढ़ावा देते है और समग्र मांग को कम करता है
  • अल्पकालिक लाभ, दीर्घकालिक हानि: पूंजी-संचालित उत्पादन विस्तार व्यापक- आधारित मांग के बिना स्थायी नहीं है

स्थिरता और अनुभवजन्य निष्कर्ष:

  • वेक्टर ऑटो-रिग्रेशन (VAR) मॉडल साक्ष्य: वेक्टर ऑटो-रिग्रेशन मॉडल का उपयोग करके अनुभवजन्य विश्लेषण से पता चलता है कि मूल्य आघातों के बाद रोजगार और उत्पादन वृद्धि में स्थिरता के लिए दीर्घकालिक क्षितिज की आवश्यकता होती है।
  • धीमा समायोजन: यद्यपि उत्पादक अल्पावधि में उत्पादन बढ़ा सकते हैं, परन्तु दीर्घावधि में रोजगार और उत्पादन में स्थिरता सीमित रहती है।
  • मूल्य-रोजगार संबंध: रोजगार वृद्धि, मूल्य भिन्नता का 26 से 34% हिस्सा होती है, जबकि मूल्य परिवर्तन रोजगार वृद्धि में बहुत कम भिन्नता दर्शाते हैं।
  • रोजगार की प्रमुख भूमिका: रोजगार वृद्धि, उत्पादन वृद्धि की तुलना में उत्पादन भिन्नता को अधिक मजबूती से प्रभावित करती है, जो मांग संबंध को रेखांकित करती है

नीतिगत निहितार्थ:

  • रोजगार में कमी से उत्पादन में कमी आती है: मांग में कमी प्रमुख संचरण चैनल बन जाती है।
  • वेतन और रोजगार में वृद्धि: केवल श्रम लागत में कटौती ही नहीं, बल्कि सतत विकास के लिए भी आवश्यक है।
  • मूल्य प्रोत्साहन सीमित: मुद्रास्फीति संबंधी प्रोत्साहन केवल अल्पावधि में ही कार्य करते हैं; रोजगार और मांग विस्तार जैसे गैर-मूल्य कारक अधिक मायने रखते हैं।

उत्पादकता लाभ की सीमाएँ:

  • विकृत लाभ: कुशल श्रमिकों और उद्यमियों को लाभ पहुंचाते हैं, न कि बड़े पैमाने पर कार्यबल को।
  • असंवहनीय विकास: मांग में मंदी, बढ़ती असमानता, तथा संसाधनों के असंतुलित आवंटन से भुगतान संतुलन (BOP) पर दबाव का जोखिम बढ़ता है

आगे की राह:

  • विकास मॉडलों को पुनर्संतुलित करना: भारत को धीरे-धीरे पूंजी-प्रधान, श्रम-बचत दृष्टिकोण से रोजगार-उन्मुख रणनीतियों की ओर स्थानांतरित होना चाहिए जो व्यापक स्तर पर आजीविका के अवसर सृजित करते हैं।
  • मांग-पक्ष की नींव को मजबूत करना: सतत आर्थिक विकास के लिए रोजगार और वेतन वृद्धि रणनीतियाँ आवश्यक हैं, जिससे व्यापक क्रय शक्ति और मजबूत घरेलू मांग सुनिश्चित हो सके।
  • स्थायित्व को पुनः परिभाषित करना: सतत विकास केवल उत्पादन विस्तार पर निर्भर रहने के बजाय, रोजगार, बढ़ती आय और प्रभावी मांग के एकीकरण पर निर्भर करता है।

निष्कर्ष:

रोज़गार सृजन और वेतन वृद्धि के बिना आर्थिक विकास स्वाभाविक रूप से अस्थिर है। भारत के दीर्घकालिक विकास के लिए श्रम-प्रधान, माँग-आधारित रणनीतियों की ओर पुनर्संतुलन की आवश्यकता है, जिससे उत्पादकता और समावेशिता दोनों सुनिश्चित हों सके।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: तीव्र आर्थिक विकास के लिए केवल उत्पादकता पर ध्यान केंद्रित करने से संभावित रूप से बेरोज़गारी और बढ़ती असमानता पैदा होने का विरोधाभास उत्पन्न होता है, जिससे दीर्घकाल में विकास स्थायी नहीं रह पाता। इस कथन का समालोचनात्मक परीक्षण कीजिए। उत्पादकता वृद्धि और समावेशी एवं सतत रोज़गार सृजन के बीच संतुलन बनाने के लिए भारत को कौन से नीतिगत उपाय अपनाने चाहिए?

(15 अंक, 250 शब्द)

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