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केंद्र काल्पनिक हैं राज्य वास्तविक संस्थाएँ हैं

Lokesh Pal June 08, 2024 05:00 140 0

सन्दर्भ:

वर्ष 2024 के आम चुनाव के नतीजों ने सभी को चौंका दिया है। इस चुनाव परिणाम को देखते हुए इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि देश अब अधिक लोकतंत्रीकरण की ओर आगे बढ़ रहा है, जिसमें क्षेत्रीय दलों का प्रदर्शन अच्छा रहा है।

प्रारंभिक परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: संघवाद तथा भारत में कर निर्धारण आदि। 

मुख्य परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: केंद्र-राज्य संबंधों से जुड़ी प्रमुख चुनौतियाँ तथा भारत में संघवाद से जुड़ी चिंताएँ आदि।

राज्य ही वास्तविक संस्थाएँ हैं:

  • ये पार्टियाँ संसद में सत्ता पक्ष के साथ-साथ विपक्ष की ओर भी स्थान साझा करेंगी।
  • इससे संघवाद को मजबूत करने में मदद मिलेगी, जो भारत जैसे विविधतापूर्ण राष्ट्र के लिए अत्यंत महत्त्वपूर्ण कारक है।
  • आम चुनाव के प्रचार-प्रसार के दौरान केन्द्र-राज्य संबंध विवादास्पद हो गये थे।
  • विपक्ष शासित राज्य केंद्र द्वारा सौतेले व्यवहार की शिकायत कर रहे हैं। दिल्ली तथा अन्य राज्यों की राजधानियों में विरोध प्रदर्शन किए गए।
  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस बात का जिक्र किया है कि ‘केन्द्र के विरुद्ध अनेक राज्य उसके पास आने को बाध्य हैं।’
  • केरल ने संसाधनों के अपर्याप्त हस्तांतरण की शिकायत दर्ज की है, कर्नाटक ने सूखा राहत के बारे में और पश्चिम बंगाल ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGS) के लिए धन की कमी की शिकायत दर्ज की है।
  • वर्ष 2017 में शुरू किया गया वस्तु एवं सेवा कर (GST) इसका एक प्रमुख उदाहरण है, जब कुछ राज्यों को इस पर संदेह था, लेकिन वे अंततः इसको लागू किए जाने को लेकर सहमत हो गए। 
  • राज्यों के मध्य विविधता – असम गुजरात से अलग है और हिमाचल प्रदेश तमिलनाडु से बहुत अलग है। ऐसे विविध राज्यों की प्रगति के लिए एक समान दृष्टिकोण रखना अनुकूल नहीं हो सकता है।
  • इन राज्यों को अपने मुद्दों को अपने तरीके से प्रबंधित करने के लिए अधिक स्वायत्तता की आवश्यकता होती है। यह लोकतंत्र और संघवाद दोनों के लिए एक आवश्यक पक्ष है।
  • इसलिए, एक प्रभावशाली केंद्र द्वारा अपनी इच्छा को राज्यों पर थोपना, जिसके कारण केंद्र-राज्य संबंधों में कमी आती है, भारत के लिए शुभ संकेत नहीं मन जा सकता है।

वित्तपोषण और संघर्ष का मुद्दा:

  • राज्यों को तीन तरह के मुद्दों का सामना करना पड़ता है। इनमें से कुछ को प्रत्येक राज्य दूसरे राज्यों को प्रभावित किए बिना निपटा सकता है, जैसे- शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक सेवा से संबंधित मुद्दे। लेकिन बुनियादी ढाँचे और जल बंटवारे के लिए राज्यों को एक सामान मत वाले समझौते पर आना आवश्यक हो जाता है।
  • मुद्रा और रक्षा जैसे मुद्दों के लिए एक साझा दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है। 
  • अंतिम दो प्रकार के मुद्दों के लिए समन्वय और इष्टतमता लाने के लिए केंद्र के रूप में एक उच्च प्राधिकारी की आवश्यकता होती है।
  • लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए व्यय का वित्तपोषण करना पड़ता है, और इसके परिणामस्वरूप संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। 
    • राजस्व करों को गैर-कर स्रोतों और उधार के माध्यम से जुटाया जाना चाहिए।
  • केंद्र को केंद्रीय रूप से कर एकत्र करने के क्षेत्र में दक्षता के कारण संसाधन जुटाने में प्रमुख भूमिका सौपी गई है।
  • प्रमुख करों में व्यक्तिगत आयकर (PIT), निगम कर, सीमा शुल्क और उत्पाद शुल्क को केंद्र द्वारा एकत्र किए जाते हैं।
  • जीएसटी को केन्द्र और राज्य दोनों द्वारा एकत्रित किया और साझा किया जाता है।
  • इसलिए, केंद्र अधिकांश संसाधनों को नियंत्रित करता है, और उन्हें राज्यों को हस्तांतरित करता है ताकि वे अपनी जिम्मेदारियों को पूरा कर सकें।
  • केंद्र से राज्यों को धन का हस्तांतरण और प्रत्येक राज्य का हिस्सा तय करने के लिए एक वित्त आयोग का गठन किया जाता है।
  • केंद्र सरकार एक आयोग का गठन करती है और इसके कार्य-क्षेत्र भी तय करती है। 
  • इससे केंद्र के पक्ष में पूर्वाग्रह पैदा होता है और केंद्र तथा राज्यों के मध्य टकराव की स्थिति पैदा होती है।
  • इसके अलावा, आयोगों में यह अंतर्निहित पूर्वाग्रह रहा है कि राज्य वित्तीय रूप से जिम्मेवार नहीं हैं।
  • यह केंद्र के पूर्वाग्रह को दर्शाता है – कि राज्य वह नहीं कर रहे हैं जो उन्हें करना चाहिए तथा वे केंद्र से अनुचित माँग कर रहे हैं।

अंतर्राज्यीय विवाद और केंद्र-राज्य संबंध:

  • राज्यों की स्थिति एक समान नहीं हो सकती क्योंकि वे विकास के विभिन्न चरणों में हैं तथा उनके संसाधनों की स्थिति भी बहुत भिन्न है।
  • अमीर राज्यों के पास ज़्यादा संसाधन हैं जबकि गरीब राज्यों को तेज़ी से विकास करने और साथ ही साथ आगे बढ़ने के लिए ज़्यादा संसाधनों की आवश्यकता होती है। इसलिए, वित्त आयोग को गरीब राज्यों को आनुपातिक रूप से ज़्यादा धन देना चाहिए।
  • दुर्भाग्यवश, अब तक 15 वित्त आयोगों के प्रयासों के बावजूद यह अंतर अभी भी बहुत बड़ा है।
  • अमीर राज्य, जो ज़्यादा योगदान करते हैं और अनुपातिक रूप से कम पाते हैं, इस बात से अपनी नाराजगी जाहिर करते रहे हैं। 
    • अमीर राज्य ये भूल जाते हैं कि गरीब राज्य उन्हें बाज़ार मुहैया कराते हैं, जिससे वे तेज़ी से विकास कर पाते हैं।
  • गरीब राज्य भी अपनी बचत का एक बड़ा हिस्सा खो देते हैं जो अमीर राज्यों को मिल जाता है, जिससे उनका विकास तेजी से होता है।
  • सामान्य स्थिति में यह देखा गया है कि चूँकि मुंबई नगर निगम आयकर में सबसे बड़ा योगदान देता है, इसलिए इसे कर में अधिक हिस्सेदारी मिलनी चाहिए। 
    • लेकिन ये इस बात को भूल जाते हैं कि ऐसा सिर्फ इसलिए है क्योंकि मुंबई एक वित्तीय राजधानी के रूप में है; जिसकी वजह से बड़ी कंपनियाँ यहीं स्थित हैं और मुंबई को अपना कर चुकाती हैं।
  • अधिक राजस्व का योगदान लेखांकन की दृष्टि से होता है, न कि इसलिए कि उत्पादन मुम्बई में हो रहा है।
  • केंद्र द्वारा राज्यों को दो तरीकों से संसाधन आवंटित किए जाते हैं-
    • पहला, वित्त आयोग के निर्णय के कारण। 
    • दूसरा, केंद्र काल्पनिक है, जबकि राज्य वास्तविक हैं।
  • इस प्रकार, केंद्र द्वारा किया जाने वाला सारा व्यय किसी न किसी राज्य में होता है। 
  • प्रत्येक राज्य में खर्च की गई राशि का भी हस्तांतरण होता है। यह विवाद का एक और स्रोत बन जाता है।
  • व्यय से राज्य में रोजगार और समृद्धि बढ़ती है। व्यय के अनुपात में लाभ प्राप्त होता है। परिणामस्वरूप, प्रत्येक राज्य अपने क्षेत्र में अधिक व्यय चाहता है।
  • केंद्र सरकार योजनाओं और परियोजनाओं के आवंटन में राजनीति कर सकती है। उदाहरण के लिए, उस पर गुजरात और उत्तर प्रदेश को लाभ पहुँचाने का आरोप है।
  • अधिक संसाधन प्राप्त करने के लिए राज्यों को केंद्र के निर्देशों का पालन करना होगा।
  • यह इस बात की स्वीकृति है कि विपक्ष शासित राज्यों को नुकसान होगा। इससे राज्यों की स्वायत्तता कमज़ोर होती है और संघवाद भी कमज़ोर होता है।

निष्कर्ष:

निष्कर्षतः एकीकृत राष्ट्रीय ढाँचे के भीतर राज्य की स्वायत्तता का सम्मान करने वाला एक संतुलित दृष्टिकोण संघवाद को मजबूत करने और पूरे भारत में समान विकास सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है।

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