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जलवायु संकट हेतु जलवायु वित्त पोषण : प्रमुख सुधारात्मक उपाय

Lokesh Pal December 04, 2024 05:45 44 0

संदर्भ: 

हाल ही में, बाकू में आयोजित COP29 सम्मेलन का समापन इस निष्कर्ष के साथ हुआ कि वर्ष  2035 तक प्रतिवर्ष 300 बिलियन डॉलर का जलवायु वित्त पोषण सुनिश्चित किया जाएगा। हालांकि यह लक्ष्य विकासशील देशों के लिए अपर्याप्त है, जो वैश्विक जलवायु वार्ता में जारी गतिरोध को उजागर करता है।

वैश्विक जलवायु वार्ता संबंधी  चुनौतियाँ:

  • अपर्याप्त जलवायु वित्त: विकसित देशों द्वारा 2035 तक प्रतिवर्ष 300 बिलियन डॉलर का लक्ष्य रखा गया है, जो विकासशील देशों की वित्तीय आवश्यकताओं के लिए पर्याप्त नहीं है, जिससे विवाद का एक महत्वपूर्ण बिन्दु उत्पन्न हो गया है।
  • जीवाश्म ईंधन पर निरंतर निर्भरता: विकसित देशों की जीवाश्म ईंधन पर निरंतर निर्भरता, सार्थक उत्सर्जन में कमी लाने और शुद्ध-शून्य लक्ष्यों की ओर संक्रमण में बाधा डालती है।
  • जीवाश्म ईंधन लॉबी का प्रभाव: तेल और गैस उद्योगों की शक्तिशाली लॉबी, मजबूत जलवायु नीतियों में विलंब करती है, तथा आवश्यक वैश्विक उत्सर्जन कटौती में बाधा डालती है।
  • राजनीतिक प्रतिक्रिया: जलवायु परिवर्तन पर संदेह करने वाले राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का पुनः निर्वाचित होना अंतर्राष्ट्रीय जलवायु सहयोग को कमजोर करेगा, तथा तत्काल सुधारों में व्यवधान उत्पन्न करेगा।
  • जलवायु परिवर्तन के विभिन्न प्रभाव: विकासशील देशों को अधिक गंभीर जलवायु प्रभावों का सामना करना पड़ता है, फिर भी विकसित देश अपनी वित्तीय और शमन प्रतिबद्धताओं को पूरा करने में विफल रहते हैं, जिसके कारण गतिरोध उत्पन्न होता है।
  • उत्सर्जन में कमी लाने की धीमी प्रगति: वैश्विक रूपरेखाओं के बावजूद, उत्सर्जन में कमी लाने की प्रक्रिया धीमी रही है, तथा 1.5°C की सीमा जल्द ही पार हो सकती है, जिससे इसकी तात्कालिकता और बढ़ जाती है।  

पिछली वैश्विक जलवायु वार्ता की उपलब्धियाँ:

  • मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल (1989): हानिकारक रसायनों को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करके ओजोन परत को सफलतापूर्वक संरक्षित किया गया।
  • क्योटो प्रोटोकॉल (2005): ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने के लिए पहला वैश्विक समझौता किया गया।
  • पेरिस समझौता (2015): वैश्विक तापमान वृद्धि को 2°C तक सीमित करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया, जिसे हर पांच वर्ष में संशोधित किया जाएगा।
  • ग्लासगो जलवायु समझौता (2021): हानि और क्षति कोष की शुरुआत की गई तथा शुद्ध-शून्य नीतियों को औपचारिक रूप दिया गया। 

प्रमुख सुधारात्मक उपाय :

  • जलवायु वित्त में वृद्धि: विकसित देशों को विकासशील देशों में जलवायु कार्रवाई का समर्थन करने के लिए अपनी वित्तीय प्रतिबद्धताओं को पूरा करना होगा तथा उससे भी अधिक करना होगा, जिससे शमन और अनुकूलन प्रयासों के लिए अधिक मजबूत वित्त पोषण सुनिश्चित हो सके।
  • मजबूत जलवायु नीतियां लागू करना : अंतर्राष्ट्रीय जलवायु नीतियों को मजबूत बनाना, यह सुनिश्चित करना कि वे जीवाश्म ईंधन उद्योग की पैरवी से प्रभावित या कमजोर न हों, और जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए जवाबदेही लागू करना।
  • राजनीतिक इच्छाशक्ति और वैश्विक सहयोग: राजनीतिक नेताओं को अल्पकालिक लाभ की तुलना में दीर्घकालिक जलवायु कार्रवाई को प्राथमिकता देनी चाहिए, जिससे जलवायु संकट के लिए एकीकृत, वैश्विक प्रतिक्रिया को बढ़ावा मिल सके।
  • विकासशील देशों के लिए समर्थन: प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, क्षमता निर्माण और वित्तीय संसाधनों पर ध्यान केंद्रित करते हुए जलवायु प्रभावों के प्रति लचीलापन स्थापित करने के लिए विकासशील देशों के लिए समर्थन बढ़ाना।
  • उत्सर्जन में कटौती की तत्काल आवश्यकता: 1.5°C के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए त्वरित कार्रवाई की आवश्यकता है, साथ ही विनाशकारी जलवायु प्रभावों से बचने के लिए वैश्विक उत्सर्जन में तत्काल और भारी कटौती के लिए मजबूत प्रतिबद्धता की आवश्यकता है।
  • स्थानीय और राष्ट्रीय कार्रवाई: जबकि वैश्विक समझौते महत्वपूर्ण हैं, राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय प्रयासों पर अधिक ध्यान दिया जाना चाहिए, ताकि स्थानीय समुदायों को जमीनी स्तर पर जलवायु कार्रवाई करने के लिए सशक्त बनाया जा सके।

भारत का दृष्टिकोण और उठाए गए कदम:

भारत स्थिति की गंभीरता को समझता है तथा इससे निपटने के लिए उसने कई कदम उठाए हैं:

  • भारत का एनडीसी: भारत ने पेरिस समझौते के तहत अपने राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) के हिस्से के रूप में अपने उत्सर्जन की तीव्रता (जीडीपी की प्रति इकाई CO2) को कम करने के लिए प्रतिबद्धता जताई है, जो वैश्विक जलवायु लक्ष्यों के साथ संरेखित है और साथ ही विकास के अपने प्रक्षेपवक्र को जारी रखता है।
  • ऊर्जा संक्रमण पर फोकस: हरित ऊर्जा पर फोकस में सौर और पवन ऊर्जा के लिए बड़े पैमाने पर परियोजनाएं शामिल हैं, साथ ही ऊर्जा उत्पादन को विकेन्द्रित करने और स्वच्छ ऊर्जा तक पहुंच में सुधार करने के प्रयास भी शामिल हैं।
  • आत्मनिर्भरता: विकसित देशों से जलवायु वित्तपोषण बढ़ाने की वकालत करते हुए भारत यह मानता है कि अंतर्राष्ट्रीय समर्थन सीमित हो सकता है। 
    • इसलिए, भारत आत्मनिर्भरता पर केंद्रित है और उसने अपने जलवायु एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए कई राष्ट्रीय कार्यक्रम प्रारंभ किए हैं।
  • सह-लाभ दृष्टिकोण: भारत की सह-लाभ रणनीति जलवायु परिवर्तन को संबोधित करने के साथ-साथ ऊर्जा गरीबी जैसे सामाजिक मुद्दों से भी निपटती है। 
    • प्रधानमंत्री सूर्य घर मुफ्त बिजली योजना जैसे कार्यक्रम, जो छतों पर सौर ऊर्जा स्थापित करने के लिए सब्सिडी देते हैं, इस दृष्टिकोण के उदाहरण हैं, जो उत्सर्जन को कम करते हुए ऊर्जा तक पहुंच स्थापित करने में सुधार करने में मदद करते हैं।
  • फेम (FAME): हाइब्रिड और इलेक्ट्रिक वाहनों को अपनाना और विनिर्माण (FAME) योजना भारत में एक नीति थी जिसका उद्देश्य इलेक्ट्रिक और हाइब्रिड वाहनों के उपयोग को बढ़ावा देना था।
  • स्वच्छ परिवहन को बढ़ावा देना: पीएम ई-ड्राइव पहल के माध्यम से , भारत शून्य-उत्सर्जन वाहनों को अपनाने में तेजी ला रहा है, जिसमें इलेक्ट्रिक दोपहिया, तिपहिया और ट्रक शामिल हैं। इस योजना के माध्यम से सरकार सब्सिडी प्रदान कर रही है और आवश्यक बुनियादी ढांचे का निर्माण कर रहा है।
  • ऊर्जा दक्षता और उत्सर्जन में कमी: भारत की प्रदर्शन, उपलब्धि और व्यापार (पीएटी) योजना, जो अब भारतीय कार्बन बाजार के रूप में विकसित हो रही है , उद्योगों में ऊर्जा दक्षता में सुधार और उत्सर्जन में कमी को प्रोत्साहित करती है, जिससे राष्ट्रीय जलवायु लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद मिल सकती है।
  • लाइफ़स्टाइल फॉर एनवायरनमेंट (लाइफ़स्टाइल फॉर एनवायरनमेंट) पहल : यह पहल मुख्यतया टिकाऊ उपभोग को बढ़ावा देती है और व्यक्तियों और समुदायों को भारत के व्यापक जलवायु लक्ष्यों के साथ संरेखित करते हुए अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए प्रोत्साहित करती है।
  • राज्य स्तरीय अनुकूलन योजनाएँ: जलवायु परिवर्तन पर भारत की राज्य कार्य योजनाएँ क्षेत्र-विशिष्ट कमजोरियों को लक्षित करती हैं, तथा जलवायु प्रभावों के प्रति लचीलापन बनाने के लिए कृषि, जल संसाधन, आपदा जोखिम न्यूनीकरण और वानिकी पर ध्यान केंद्रित करती हैं।

विकासशील देश होने के बावजूद, भारत अपने जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने की दिशा में प्रगति कर रहा है, जो उत्सर्जन में कमी और सामाजिक-आर्थिक विकास अर्थात दोनों क्षेत्रों में प्रतिबद्धता को प्रदर्शित करता है। यह व्यापक दृष्टिकोण वैश्विक जलवायु चुनौतियों का सामना करने में भारत के लचीलेपन को दर्शाता है।

भारत के लिए आगे की राह:

  • सतत शमन प्रयास: उत्सर्जन की तीव्रता को कम करना तथा स्वच्छ ऊर्जा की ओर संक्रमण जारी रखना चाहिए।
  • सचेत उपभोग: स्थायी जीवन शैली के लिए मिशन लाइफ के साथ व्यक्तिगत और सामाजिक प्रथाओं को संरेखित करने की आवश्यकता है।
  • लचीला बुनियादी ढांचा और समुदाय: अनुकूल बुनियादी ढांचे और आपदा जोखिम प्रबंधन में निवेश करने की आवश्यकता है।
  • ताप कार्य योजनाएँ: लक्षित रणनीतियों के साथ अत्यधिक ताप चुनौतियों का समाधान करना चाहिए ।

कान्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (COP) की वर्तमान प्रासंगिकता:

वैश्विक जड़ता के बावजूद, सी.ओ.पी. कई कारणों से अत्यधिक प्रासंगिक बना हुआ है:

  • संवाद के लिए वैश्विक मंच: सी.ओ.पी. राष्ट्रों को जलवायु परिवर्तन पर चर्चा करने और प्रगति को साझा करने के लिए एक अद्वितीय स्थान प्रदान करता है। 
  • प्रगति की निगरानी और जवाबदेही: सी.ओ.पी. राष्ट्रों के जलवायु वादों पर एक महत्वपूर्ण जाँच व निगरानी तंत्र के रूप में कार्य करता है। 
    • यद्यपि वास्तविक प्रगति धीमी हो सकती है, लेकिन नियमित समीक्षा प्रक्रिया देशों को अपनी प्रतिबद्धताओं को अद्यतन करने तथा जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए एक-दूसरे को जवाबदेह बनाने के लिए प्रोत्साहित करती है।

  • जलवायु वित्त की वकालत: विकासशील देश अधिक मजबूत वित्तीय सहायता के लिए दबाव बना रहे हैं, तथा सी.ओ.पी. बैठकें विकसित देशों पर उनके जलवायु वित्त प्रतिज्ञाओं को पूरा करने के लिए दबाव डालने के लिए आवश्यक हैं, जो उनके सम्मुख एक प्रमुख मुद्दा बना हुआ है।
  • जन जागरूकता: सी.ओ.पी. में प्रस्तुत वैज्ञानिक रिपोर्टों के माध्यम से जलवायु परिवर्तन की तात्कालिकता पर जोर दिया जाता है, जिससे जन जागरूकता और राजनीतिक दबाव बढ़ता है। वैश्विक जड़ता के बावजूद, ये बैठकें तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता पर प्रकाश डालती हैं।
  • गठबंधन और साझेदारी का निर्माण: सी.ओ.पी. सरकारों, व्यवसायों और नागरिक समाज के बीच सहयोग को बढ़ावा देता है। 
  • वैश्विक मानदंडों को आकार देना: सी.ओ.पी. वैश्विक जलवायु मानदंडों को आकार देने तथा राष्ट्रीय स्तर पर नीतियों और विनियमों को प्रभावित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। 
    • यद्यपि वैश्विक समझौतों में समय लग सकता है, किन्तु सी.ओ.पी. प्रक्रिया वैश्विक विमर्श को मजबूत जलवायु प्रतिबद्धताओं की ओर धीरे-धीरे मोड़ रही है।

निष्कर्ष:

जलवायु संकट से प्रभावी ढंग से निपटने और टिकाऊ समाधान सुनिश्चित करने के लिए, मजबूत घरेलू नीतियां और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग महत्वपूर्ण हैं। अतः कुल मिलाकर वैश्विक पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने के लिए सभी स्तरों पर सहयोगात्मक प्रयास महत्वपूर्ण हैं।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: जलवायु परिवर्तन से निपटने में भारत के सह-लाभ दृष्टिकोण का मूल्यांकन करें, जो विकास लक्ष्यों को पर्यावरणीय उद्देश्यों के साथ जोड़ता है। इन प्राथमिकताओं को संतुलित करने में यह रणनीति कितनी प्रभावी है?

(10 अंक , 150 शब्द)

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