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भारत में संवैधानिक नैतिकता और उसके सैद्धांतिक आधार

Lokesh Pal October 27, 2025 05:00 18 0

सन्दर्भ:

नैतिकता और विधि के मध्य संबंधों ने दार्शनिकों तथा न्यायविदों को लंबे समय से आकर्षित किया है। यह चर्चा भारत के संवैधानिक विमर्श में “संवैधानिक नैतिकता” की अवधारणा के माध्यम से पुनः विकसित हुई है, जो नैतिक शासन को संवैधानिक सिद्धांतों के साथ संतुलित करती है।

नैतिकता और विधि संबंधी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:

  • पारंपरिक दृष्टिकोण: प्राचीन समाजों में कानून और नैतिकता धर्म की अवधारणा के अंतर्गत जुड़े हुए थे, जिसमें विधिक, नैतिक और आचार संहिताएँ सम्मिलित थी।
  • पश्चिमी विचार: हार्ट-डेवलिन चर्चा (1960 के दशक) ने प्रश्न उठाया, कि क्या विधि द्वारा नैतिकता को लागू किया जाना चाहिए।
  • न्यायिक समर्थन: शॉ बनाम डीपीपी (1962) में हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने माना, कि विधि का उद्देश्य सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिक कल्याण दोनों को संरक्षित करना है
  • भारतीय मान्यता: पी. रथिनम बनाम भारत संघ (1994) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार किया, कि कानून निष्पक्षता और न्याय के नैतिक सिद्धांतों पर आधारित है
    • इससे पता चलता है, कि कानून और नैतिकता परस्पर प्रभाव डालने वाली शक्तियाँ हैं कानून नैतिकता का नेतृत्व (जैसे- अस्पृश्यता का उन्मूलन) और कभी-कभी उसका अनुसरण करता है (जैसे- लैंगिक समानता)।

भारत में संवैधानिक नैतिकता का परिचय:

  • संवैधानिक नैतिकता शब्द की उत्पत्ति: ग्रीस के इतिहास (1846) में जॉर्ज ग्रोटे द्वारा गठित – जिसे “संवैधानिक रूपों के लिए उच्च श्रद्धा” और वैध प्राधिकार के प्रति सम्मान के रूप में परिभाषित किया गया है
  • अम्बेडकर का दृष्टिकोण: संविधान सभा में डॉ. बी.आर. अम्बेडकर ने जॉर्ज ग्रोट की अवधारणा से प्रेरणा लेते हुए इस बात पर बल दिया, कि “संवैधानिक नैतिकता एक स्वाभाविक भावना नहीं है, इसे विकसित किया जाना चाहिए।”
    • उन्होंने बताया, कि भारतीय लोकतंत्र अलोकतांत्रिक धरती पर केवल एक ऊपरी आवरण है तथा उन्होंने संस्थाओं और नागरिकों के मध्य लोकतांत्रिक मूल्यों और संवैधानिक अनुशासन को पोषित करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला।
  • उद्देश्य: संवैधानिक नैतिकता संवैधानिक कर्ताओं के मध्य अनुशासन सुनिश्चित करती है और मनमानी शक्ति पर नियंत्रण रखती है

वैचारिक अर्थ और सैद्धांतिक आधार:

  • ए.वी. डाइसी की विशिष्टता: संवैधानिक कानून में न्यायालयों द्वारा समर्थित विधिक रूप से लागू करने योग्य नियम शामिल होते हैं, जबकि संवैधानिक नैतिकता में संवैधानिक पदाधिकारियों का मार्गदर्शन करने वाली परंपराएँ, आदतें और नैतिक प्रथाएँ शामिल होती हैं, लेकिन उनमें विधिक प्रवर्तनीयता का अभाव होता है
  • नैतिकता का उल्लंघन: संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन करने पर कानूनी दंड नहीं दिया जा सकता है, लेकिन यह राजनीतिक और नैतिक रूप से निंदनीय है, जैसा कि स्थापित संवैधानिक परंपराओं की अनदेखी के मामलों में देखा गया है।
  • न्यायिक व्याख्या (एस.पी. गुप्ता मामला): न्यायमूर्ति वेंकटरमैया ने कहा, कि संवैधानिक परंपराओं का उल्लंघन संवैधानिक नैतिकता का गंभीर उल्लंघन है, जिसके परिणामस्वरूप न्यायिक दंड की बजाय राजनीतिक परिणाम सामने आते हैं

भारत में संवैधानिक नैतिकता का न्यायिक विकास:

  • सबरीमाला मामला (2018): तत्कालीन CJI दीपक मिश्रा ने कहा, कि अनुच्छेद 25 के तहत “सार्वजनिक नैतिकता” को संवैधानिक नैतिकता के साथ संरेखित किया जाना चाहिए
    • इस विचार को लैंगिक समानता और मूल अधिकारों तक विस्तारित किया गया, लेकिन बाद में इस मुद्दे को पुनर्विचार के लिए 9 न्यायाधीशों की पीठ को भेज दिया गया।
  • मनोज नरूला बनाम भारत संघ वाद (2014): न्यायालय ने अनुच्छेद 75 और मंत्रियों के विरुद्ध आपराधिक आरोपों पर चर्चा की।
    • यह माना गया, कि संवैधानिक नैतिकता का अर्थ संवैधानिक मानदंडों के अनुसार कार्य करना है न कि मनमाने ढंग से।
    • फिर भी, न्यायालय ने अयोग्यता संबंधी कानून लागू करने से रोक दिया तथा इसे संसद के विवेक पर छोड़ दिया, जो कानूनी बाध्यता नहीं बल्कि नैतिक अपेक्षा को दर्शाता है
  • राज्य (राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली) बनाम भारत संघ वाद (2018): न्यायालय ने माना, कि संवैधानिक नैतिकता पाठ का पालन करने से कहीं अधिक है – इसमें सहकारी संघवादउदार मूल्य और संवैधानिक अंगों के मध्य सम्मानजनक निर्णय लेना शामिल है।
  • न्यायमूर्ति के.एस. पुट्टस्वामी बनाम भारत संघ वाद (2017): दोहराया गया, कि राज्य की कार्रवाइयाँ विधि के शासन के अनुरूप होनी चाहिए
    • सरकार को न्यायिक सीमाओं के भीतर कार्य करना चाहिए – संवैधानिक नैतिकता को बनाए रखने से जवाबदेही सुनिश्चित होती है।

विधिक और राजनीतिक आयाम:

  • न्यायसंगतता: संवैधानिक नैतिकता का उल्लंघन न्यायालयों में कार्रवाई योग्य नहीं हो सकता है, लेकिन इससे राजनीतिक या सार्वजनिक जवाबदेही उत्पन्न हो सकती है
  • जवाबदेही तंत्र: संसदीय जाँच, चुनावी परिणाम और जनमत एवं मीडिया निरीक्षण।
  • न्यायिक सावधानी: न्यायालय सीमाओं को पहचानते हैं – नैतिकता का प्रत्येक उल्लंघन विधिक उल्लंघन के बराबर नहीं होता है।

व्यापक महत्त्व और समकालीन प्रासंगिकता:

  • लोकतंत्र का नैतिक दिशा-निर्देश: संवैधानिक नैतिकता निर्वाचित और गैर-निर्वाचित प्राधिकारियों द्वारा सत्ता के प्रयोग का मार्गदर्शन करती है।
  • विधि के शासन को बनाए रखना: बहुसंख्यकवादमनमानी और अधिकारों के क्षरण को रोकता है।
  • नागरिकों का उत्तरदायित्व: संवैधानिक सम्मान की सामूहिक संस्कृति शिक्षा, नागरिक जागरूकता और नेतृत्व नैतिकता के माध्यम से विकसित होनी चाहिए।

आगे की राह

  • संवैधानिक मूल्यों का संवर्द्धन: नागरिकों और अधिकारियों के बीच संवैधानिक शिक्षा को बढ़ावा देना।
  • संस्थागत जवाबदेही: पारदर्शिता और नैतिक शासन के माध्यम से परंपराओं को मजबूत करना।
  • न्यायिक संयम और मार्गदर्शन: न्यायालयों को विधिक मानदंडों को लागू करने और उदाहरणों के माध्यम से संवैधानिक नैतिकता को प्रोत्साहित करने के मध्य संतुलन बनाना चाहिए।
  • अम्बेडकर का दृष्टिकोण: संवैधानिक नैतिकता संविधान की ‘आत्मा’ है – भारतीय लोकतंत्र को जीवंत, समावेशी और न्यायपूर्ण बनाए रखने के लिए इसे निरंतर पोषित किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष

संवैधानिक नैतिकता संवैधानिक सीमाओं के भीतर नैतिक शासन को स्थापित करती है तथा जवाबदेह, न्यायसंगत और समावेशी लोकतंत्र सुनिश्चित करती है। यह राजनीतिक हितों पर संवैधानिक सर्वोच्चता की रक्षा करती है, जो डॉ. बी.आर. अंबेडकर द्वारा परिकल्पित संविधान की आत्मा को प्रतिबिंबित करती है

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: डॉ. बी.आर. अंबेडकर के अनुसार, “संवैधानिक नैतिकता कोई स्वाभाविक भावना नहीं है, इसे विकसित करना होगा।” इस कथन के संदर्भ में, ‘संवैधानिक नैतिकता’ में क्या निहित है, इसका आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए और समकालीन भारत में इसके विकास में विद्यमान चुनौतियों पर चर्चा कीजिए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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