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भारत में उपभोग अर्थव्यवस्था तथा राजनीतिक अर्थशास्त्र

Lokesh Pal March 17, 2025 05:30 64 0

संदर्भ:

जहाँ एक तरफ भारत की जनसंख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है, तो वहीं मूलभूत आवश्यकताओं से इतर उपभोग में वृद्धि न के बराबर है। ऐसे में भारत की उपभोग अर्थव्यवस्था संबंधी चिंताएँ उत्पन्न होती हैं।

उपभोग अर्थव्यवस्था

  • विकास: प्राचीन काल से ही प्रभुत्व और समृद्धि मानव अस्तित्व का हिस्सा रहे हैं, जैसा कि 1,50,000 वर्ष पूर्व के मनके के आभूषणों में देखा जा सकता है।
  • भारत की स्थिति: वर्तमान में लगभग 90% भारतीयों के पास विवेकानुसार व्यय करने की शक्ति नहीं है, वे बुनियादी आवश्यकताओं पर ही अपना जीवनयापन कर रहे हैं। भारत 1970 के दशक के समाजवाद की ओर लौटता दिख रहा है, जहाँ इंदिरा गांधी के प्रशासन में आडंबरपूर्ण जीवन-शैली को हतोत्साहित किया गया था।
  • आय असमानता: भारत की लगभग80 करोड़ जनसंख्या में से केवल 13.14 करोड़ लोग “उपभोक्ता वर्ग” से संबंधित हैं, जो बुनियादी दाल-रोटी से परे बेहतर जीवन स्तर का आनंद ले रहे हैं।
  • 1990-2000 के दशक की आर्थिक उछाल: नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के नेतृत्व में उदारीकरण ने एक तीव्र गति से बढ़ता मध्यम वर्ग बनाया।
    • वैश्विक ब्रांड, मॉल, भोजन, यात्रा और विलासिता के सामान विकसित हुए, जो 1990 के दशक से पूर्व के दौर से बिलकुल भिन्न था। बढ़ती आय ने आर्थिक विकास को बढ़ावा दिया, जिससे लाखों लोग करोड़पति बने।
  • घटती समृद्धि: रिकॉर्ड-उच्च प्रयोज्य आय (दिसंबर 2023 में ₹29.7 ट्रिलियन) के बावजूद, मुद्रास्फीति ने क्रय शक्ति को कम कर दिया है। 1950 के ₹100 आज के ₹10,226 के बराबर है, जो वास्तविक मूल्य में भारी कमी को दर्शाता है।
    • नीतिगत विफलताओं और त्रुटिपूर्ण आर्थिक रणनीतियों ने उपभोक्ता व्यय और समृद्धि को कम कर दिया है।
  • अंतर: भारत का घरेलू उपभोग व्यय संयुक्त राज्य अमेरिका की तुलना में कम है, लेकिन चीन की तुलना में अधिक है।
    • 2023 तक, घरेलू उपभोग भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग34% था, जो 2022 में 60.94% से कम है।
    • इसके विपरीत, संयुक्त राज्य अमेरिका का घरेलू उपभोग व्यय 2024 की चौथी तिमाही में उसके सकल घरेलू उत्पाद का लगभग18% था।

आगे की राह

  • उपभोक्ता विश्वास: वर्तमान विकास ने भले ही देश को एकजुट किया हो, लेकिन अत्यधिक धन की बचत मनोबल को कमजोर करती है। जीवन केवल जीवित रहने के बारे में नहीं है, छोटे-छोटे उपभोग भी आवश्यक हैं। आर्थिक नीतियों को लोगों को सशक्त बनाना चाहिए, न कि व्यय को प्रतिबंधित करना चाहिए।
  • रिटेल थेरेपी: उपभोक्ता खर्च अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देता है और राष्ट्रीय भावना को ऊपर उठाता है। अत्यधिक विनियमन और व्यय, आर्थिक गतिविधियों को हतोत्साहित करते हैं। जब परिस्थिति नकारात्मक हो जाती है, तो लोगों को वित्तीय लचीलेपन की आवश्यकता होती है, न कि मितव्ययिता की।
  • राजकोषीय उत्तरदायित्व और विकास का संतुलन: सुशासन को समृद्धि को बाधित किए बिना वित्तीय अनुशासन सुनिश्चित करना चाहिए
  • रोज़गार सृजन: मुख्य उद्देश्य रोज़गार सृजन, सामर्थ्य और क्रय शक्ति विस्तार होना चाहिए।
  • विकास: आर्थिक नीतियों का लक्ष्य विकास होना चाहिए, न कि केवल लागत में कटौती के उपाय।

निष्कर्ष

भारत को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और आर्थिक प्रगति के बीच संतुलन बनाना होगा, जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि भारतीय आबादी केवल जीवित ही नहीं रहें, बल्कि समृद्ध भी हों।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

विवेकाधीन व्यय आर्थिक विकास और सामाजिक कल्याण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भारत में उपभोक्ता व्यय, आर्थिक नीतियों और समग्र आर्थिक समृद्धि के बीच संबंधों की जाँच कीजिए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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