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संविधान का मूल संरचना का सिद्धांत और संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा

Lokesh Pal July 04, 2025 05:00 45 0

संदर्भ:

वर्ष 1975 का आपातकाल भारतीय लोकतंत्र में एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था, जो उसके 50 वर्ष पश्चात भी हमें लोकतांत्रिक संस्थाओं की कमज़ोरी और संविधान के मूलभूत ढाँचे को बनाए रखने की आवश्यकता की याद दिलाता है।

मूल संरचना सिद्धांत

  • मूल संरचना सिद्धांत भारत के संवैधानिक अधिकारों की एक मौलिक सुरक्षा है, जो यह सुनिश्चित करता है कि संविधान के मूल अथवा आधारभूत सिद्धांत तब भी अनुल्लंघनीय बने रहें, जब संसद दस्तावेज़ में संशोधन करने की अपनी शक्ति का प्रयोग करती है।
  • यह महज एक कानूनी अवधारणा नहीं है, यह संविधान में निहित मौलिक अधिकारों की रक्षा की पहली और अंतिम पंक्ति है।
  • यह मनमाने संवैधानिक संशोधनों के विरुद्ध अंतिम सुरक्षा के रूप में कार्य करता है।

स्वतंत्रता के बाद का संघर्ष

  • संविधान में किए गए प्रारंभिक संशोधन, जैसे- जमींदारी प्रथा का उन्मूलन, संपत्ति के मौलिक अधिकार से टकराते थे, जिसे उस समय संविधान के अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 31 के तहत संरक्षित किया गया था।
  • इन सुधार कानूनों को प्रायः मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने के कारण न्यायालय द्वारा रद्द कर दिया गया।

प्रथम संविधान संशोधन, 1951

  • इन न्यायिक चुनौतियों से निपटने के लिए संसद ने 1951 में पहला संशोधन प्रस्तुत किया।
  • इस संशोधन द्वारा अनुच्छेद 31A और 31B तथा नौवीं अनुसूची को जोड़ा गया, जिसका उद्देश्य कुछ कानूनों को न्यायिक समीक्षा से बचाना था।

शंकरी प्रसाद मामला, 1951

  • प्रथम संशोधन का परीक्षण सर्वप्रथम शंकरी प्रसाद बनाम भारत संघ वाद, 1951 मामले में किया गया था
  • सर्वोच्च न्यायालय ने माना, कि संसद मौलिक अधिकारों सहित संविधान के किसी भी भाग में संशोधन कर सकती है
  • सरकार को संवैधानिक संशोधनों के माध्यम से मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की अनुमति दी गई।

गोलकनाथ मामला, 1967

  • गोलकनाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) मामले में संसद की संशोधन शक्ति का प्रश्न पुनः सामने आया।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की, कि मौलिक अधिकार सर्वोच्चऔर अपरिवर्तनीयहैं, अर्थात वे संसद की संशोधन शक्ति से परे हैं।
  • न्यायिक दृष्टिकोण में इस परिवर्तन से न्यायपालिका और विधायिका के मध्य व्यापक तनाव उत्पन्न हो गया

24वाँ संविधान संशोधन, 1971

  • पाँचवे लोकसभा चुनाव में भारी जीत के बाद संसद ने 24वाँ संविधान संशोधन पारित करके गोलकनाथ मामले के निर्णय पर त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त की।
  • इस संशोधन में स्पष्ट रूप से कहा गया था, कि संसद संविधान के किसी भी प्रावधान में संशोधन कर सकती है, तथा राष्ट्रपति को किसी भी संवैधानिक संशोधन विधेयक को स्वीकृति देने का अधिकार है।

केशवानंद भारती मामला, 1973

  • इस मामले में, केरल भूमि सुधार अधिनियम को चुनौती देते समय मौलिक अधिकारों में संशोधन करने की संसद की शक्ति का मूलभूत प्रश्न पुनः उठा।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने गोलकनाथ मामले में दिए गए निर्णय को परिवर्तित करते हुए एक सूक्ष्म निर्णय सुनाया।
  • इसने संविधान के किसी भी भाग को संशोधित करने की संसद की शक्ति की पुष्टि की, लेकिन महत्त्वपूर्ण रूप से, इसने मूल संरचना सिद्धांत को प्रस्तुत किया।
  • इस सिद्धांत में यह प्रावधान था, कि संसद संविधान के “मूल ढाँचे” या आधारभूत संरचना को परिवर्तित नहीं कर सकती।
  • यह संसद के संशोधन प्राधिकार पर अंतर्निहित सीमाएँ लगाकर संवैधानिक अधिकारों की रक्षा करने में एक महत्त्वपूर्ण क्षण था।
  • मूल संरचना सिद्धांत ने संवैधानिक लचीलेपन को मूल सिद्धांतों के संरक्षण के साथ संतुलित किया।

मूल संरचना के घटक (न्यायपालिका द्वारा विकसित)

यद्यपि विस्तृत रूप से परिभाषित नहीं किया गया है, फिर भी मूल संरचना के भाग के रूप में निम्नलिखित को व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है:

  • संविधान की सर्वोच्चता;
  • शक्तियों का पृथक्करण;
  • न्यायिक स्वतंत्रता;
  • एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष और संघीय गणराज्य;
  • राष्ट्र की एकता और अखंडता;
  • विधि का शासन;
  • स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव;
  • कल्याणकारी राज्य सिद्धांत (सामाजिक और आर्थिक न्याय)।

मिनर्वा मिल्स मामला, 1980

  • मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) मामले में पहली बार सर्वोच्च न्यायालय ने मूल संरचना सिद्धांत को सीधे लागू किया और सिद्धांत का उल्लंघन करने के कारण संविधान संशोधन को असंवैधानिक करार दिया
  • इसने पुष्टि की, कि मौलिक अधिकारों और न्यायिक समीक्षा को कमजोर करने वाले संशोधन असंवैधानिक हैं।

आपातकाल के दौरान सिद्धांत की भूमिका (1975-1977)

  • इस सिद्धांत का परीक्षण, विशेष रूप से आपातकाल (1975-1977) के दौरान किया गया, जब नागरिक स्वतंत्रता निलंबित कर दी गई और असहमति को दबा दिया गया था।
  • मूल संरचना सिद्धांत एक आवश्यक सुरक्षा उपाय सिद्ध हुआ, जिसने यह सुनिश्चित किया कि अधिकारों को सीमित करने के प्रयासों के बावजूद, आपातकाल समाप्त होने पर संविधान के मूल सिद्धांत बने रहे।

मूल संरचना सिद्धांत की निरंतर प्रासंगिकता

  • यह विधायी अतिक्रमण को रोकता है और सुनिश्चित करता है, कि संसद प्रमुख संवैधानिक विशेषताओं को नष्ट न कर सके
  • यह निम्नलिखित की रक्षा करता है: न्यायिक समीक्षा, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र, मौलिक अधिकार।
  • यह सुनिश्चित करता है, कि भारत का शासन संवैधानिक, जवाबदेह और नागरिक-केंद्रित बना रहे।

निष्कर्ष

मूल संरचना सिद्धांत सिर्फ़ न्यायिक नवाचार नहीं है, यह एक जीवंत संवैधानिक तंत्र है, जो यह सुनिश्चित करता है कि भारत का लोकतंत्र और नागरिकों के अधिकार बदलते राजनीतिक परिदृश्य के बावजूद सुरक्षित बने रहें। बिना जाँच और संतुलन के स्वतंत्रता और लोकतंत्र सिर्फ़ एक और शब्द हैं।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

मूल संरचना सिद्धांत बहुसंख्यकवादी प्रभुत्व के खिलाफ एक सुरक्षा कवच के रूप में कार्य करता है। समकालीन भारतीय लोकतंत्र में इसकी प्रासंगिकता की आलोचनात्मक जाँच कीजिए। (15 अंक, 250 शब्द)

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