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भारत के संवैधानिक विमर्श में नारीवादी विचारधारा

Lokesh Pal November 26, 2024 05:30 13 0

संदर्भ: 

भारत के संविधान निर्माताओं से जुड़ी कहानी अक्सर “संस्थापक पिताओं” (“founding fathers”)  पर केंद्रित होती है, जो “संस्थापक माताओं” (“founding fathers”) संविधान सभा की प्रतिष्ठित महिलाओं द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका को दबा देती है।

पितृसत्तात्मक आख्यान (“founding fathers”)

  • लिंग पूर्वाग्रह को बनाए रखना: “संस्थापक पिता” शब्द अपने आप में एक गहरी पितृसत्तात्मक धारणा या पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण को दर्शाता है। 
    • संविधान सभा में महिलाओं के महत्वपूर्ण योगदान, जिन्होंने अपने पुरुष समकक्षों के साथ मिलकर संविधान का सह-लेखन किया था, को काफी हद तक दरकिनार कर दिया गया है।
  • अच्युत चेतन के अनुसार : अच्युत चेतन ने अपनी रचना फाउंडिंग मदर्स ऑफ द इंडियन रिपब्लिक: जेंडर पॉलिटिक्स ऑफ द फ्रेमिंग ऑफ द कॉन्स्टिट्यूशन (2022) में कहा है कि संविधान केवल महिलाओं की सहमति से ही नहीं बल्कि उनकी इच्छा से भी बना है। 
    • अच्युत चेतन का तर्क : संविधान का प्रत्येक अनुच्छेद भारतीय नारीवाद के इतिहास में एक महत्वपूर्ण प्रतिच्छेदन बिंदु का प्रतिनिधित्व करता है, जिसे संस्थापक माताओं की इच्छा और असहमति द्वारा आकार दिया गया है।
  • क्रिस्टीन कीटिंग के अनुसार : क्रिस्टीन कीटिंग ने फ़्रेमिंग द पोस्टकोलोनियल सेक्सुअल कॉन्ट्रैक्ट: डेमोक्रेसी, फ्रेटरनलिज़्म, एंड स्टेट अथॉरिटी इन इंडिया (2007) में इस बात पर प्रकाश डाला है कि संविधान के “संस्थापक पिताओं” ने महिलाओं की संवैधानिक अधीनता को मजबूत करने में योगदान दिया। 
    • कीटिंग का तर्क : संविधान सभा इस प्रकार के समझौते पर पहुँची कि महिलाओं को मौलिक अधिकारों (जो सभी पर लागू थे) के माध्यम से सार्वजनिक जीवन में समानता दी गई, लेकिन भेदभावपूर्ण व्यक्तिगत कानूनों को निजी क्षेत्र में रखा गया जो महिलाओं को अधीन करना जारी रखते थे।

संस्थापक माताएं और समान नागरिक संहिता (यूसीसी)

  • अंतर्विषयक गठबंधन: संस्थापक माताओं, विशेष रूप से अमृत कौर, हंसा मेहता और बेगम ऐजाज़ रसूल जैसी महिलाओं ने सामाजिक क्रांति की अपनी साझा खोज में डॉ. बी.आर. अंबेडकर के साथ अंतर्विषयक गठबंधन बनाया। 
  • पितृसत्ता को खत्म करने का प्रयास: संस्थापक माताओं और अंबेडकर ने मिलकर भारतीय समाज में व्याप्त पितृसत्तात्मक पारिस्थितिकी तंत्र को समाप्त करने का प्रयास किया।

नोट : स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री डॉ. बी. आर. अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल पर मतभेदों के कारण 1951 में इस्तीफा दे दिया था।

  • समान नागरिक संहिता (यूसीसी): संविधान सभा के भीतर संस्थापक माताओं ने महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए अथक प्रयास किया।
    • उनकी प्रमुख मांगों में से एक समान नागरिक संहिता (यूसीसी) को मौलिक अधिकारों के एक भाग के रूप में शामिल करना था।
  • समान नागरिक संहिता पर उनके विचार: हंसा मेहता और अमृत कौर ने माना कि लैंगिक अन्याय को कायम रखने वाली सामाजिक-पितृसत्तात्मक शक्तियों को खत्म करने के लिए ऐसी संहिता आवश्यक थी।
  • डीपीएसपी में यूसीसी को समाहित करना : हालांकि यूसीसी को राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों (डीपीएसपी) में वापस समाहित कर दिया गया था, लेकिन संस्थापक माताओं ने सफलतापूर्वक सुनिश्चित किया कि इन सिद्धांतों को “देश के शासन में मौलिक” घोषित किया जाए, जो उनके कार्यान्वयन के लिए एक नैतिक प्रतिबद्धता का संकेत देता है।

धर्मनिरपेक्षता और महिला मुक्ति

संस्थापक माताओं ने धर्म और राज्य के बीच संबंधों पर भी महत्वपूर्ण बहस में भाग लिया।

  • लैंगिक समानता के लिए धर्म को सीमित करना: मौलिक अधिकारों पर उप-समिति में हंसा मेहता ने धर्म के अधिकार को सीमित करने का प्रयास किया, क्योंकि उन्हें डर था कि यह महिलाओं के समानता और सामाजिक सुधार के अधिकारों, विशेष रूप से बाल विवाह जैसी प्रथाओं के उन्मूलन में बाधा उत्पन्न कर सकता है।
    • हंसा मेहता के साथ ही अमृत कौर ने भी धर्म को महिलाओं की मुक्ति में बाधा बनने से रोकने के लिए “धर्म के स्वतंत्र अभ्यास” शब्द को “धार्मिक पूजा या उपासना की स्वतंत्रता” से बदलने पर जोर दिया।
  • धार्मिक स्वतंत्रता पर अमृत कौर की असहमति: “धार्मिक स्वतंत्रता” खंड पर अमृत कौर की असहमति ने धार्मिक प्रथाओं के अंतर्गत महिला विरोधी प्रवृत्तियों के बारे में उनकी चिंता को रेखांकित किया। 
    • उन्होंने चेतावनी दी कि अनियंत्रित धार्मिक स्वतंत्रता विधवा पुनर्विवाह अधिनियम, शारदा अधिनियम और यहां तक ​​कि सती प्रथा को समाप्त करने वाले कानून जैसे प्रगतिशील कानूनों को अमान्य कर सकती है।

समानता के भाव का अभी भी साकार होना बाकी

  • महिला समानता के लिए कमलादेवी का दृष्टिकोण: कमलादेवी चट्टोपाध्याय, एक अग्रणी महिला कार्यकर्ता और संविधान सभा की सदस्य थीं। उनका मानना ​​था कि संविधान ने भारत में महिलाओं के लिए एक नए युग की शुरुआत की, जो समानता और न्याय की गारंटी देता है। 
  • समानता के अधूरे वादे: हालाँकि, यह आशावाद अल्पकालिक था। 1974 में, भारत सरकार की रिपोर्ट, “समानता की ओर: भारत में महिलाओं की स्थिति पर समिति की रिपोर्ट”, ने यह निष्कर्ष निकाला कि संविधान द्वारा किए गए समानता के वादे स्वतंत्रता के दो दशक बाद भी पूरे नहीं हुए थे।

निष्कर्ष 

यद्यपि भारत अपनी संवैधानिक विरासत का जश्न मना रहा है, ऐसे में उन संस्थापक माताओं के योगदान को पहचानना और उनका सम्मान करना ज़रूरी है, जिन्होंने अपने पुरुष समकक्षों के साथ मिलकर भारतीय गणराज्य की दिशा तय की। परंतु समानता और न्याय के वादे को पूरा करना, खास तौर पर महिलाओं के लिए, तब तक अधूरा काम रहेगा, जब तक संस्थापक माताओं के सपने को व्यवहार में पूरी तरह से साकार नहीं किया जाता। 

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न 

प्रश्न: लैंगिक समानता सुनिश्चित करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद, भारत की संस्थापक माताओं का सपना अधूरा रह गया है। भारतीय संवैधानिक प्रथाओं में नारीवादी विचारधारा को लागू करने में चुनौतियों का आलोचनात्मक विश्लेषण करें तथा साथ ही संवैधानिक वादों और वास्तविकता के बीच की खाई को पाटने के उपाय सुझाएँ।

(15 अंक, 250 शब्द)

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