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बढ़ती शक्ति व जिम्मेदारियाँ – मोदी 3.0 के समक्ष उपस्थित प्रमुख भू-राजनीतिक चुनौतियाँ

Lokesh Pal June 19, 2024 05:00 152 0

संदर्भ: 

वर्तमान एनडीए सरकार, प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में अपने तीसरे कार्यकाल का शासन संचालित करते हुए आगे बढ़ रही है। इस कार्यकाल के दौरान पाँच भू-राजनीतिक चुनौतियाँ सरकार को विश्व के साथ उसके जुड़ाव को आकार देने के लिए आवश्यक होंगे।

प्रारंभिक परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: “गुटनिरपेक्षता” की नीति, क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (RCEP), महत्त्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकियों पर पहल (ICET) आदि। 

मुख्य परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: भारत की विदेश नीति का दृष्टिकोण, बदलते भू-राजनीतिक संदर्भ में भारत की विदेश नीति का विकास आदि।

मोदी 3.0 के समक्ष उपस्थित प्रमुख पाँच भू-राजनीतिक चुनौतियाँ निम्नलिखित हैं :

  • दिल्ली अब एक ऐसे अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य का सामना कर रही है जो वर्ष 2014 या 2019 से काफी भिन्न है।
  • अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में गहरे संरचनात्मक परिवर्तन हो रहे हैं, जिनके लिए भारत के वैश्विक दृष्टिकोण में बड़े समायोजन तथा घरेलू नीतियों में अनुकूलन की आवश्यकता है।
  • निम्नलिखित पाँच अनिवार्यताएँ नई सरकार के समक्ष आने वाली मात्र चुनौतियाँ नहीं हैं, बल्कि सरकार की मुख्य भू-राजनीतिक अनिवार्यताओं में से एक हैं।

प्रथम , महाशक्तियों के बीच प्रतिद्वंद्विता की वापसी, जिसके लिए विचारधारा के बजाय हितों से प्रेरित दृष्टिकोण की आवश्यकता है: 

  • एक ओर पश्चिम तथा दूसरी ओर चीन और रूस के मध्य नए सिरे से संघर्ष ने भारत के अंतरराष्ट्रीय संबंधों के संचालन के लिए 1991 की तुलना में बहुत अलग बाह्य परिस्थितियाँ उत्पन्न करनी शुरू कर दी हैं।
  • सोवियत संघ के पतन के साथ शीत युद्ध की समाप्ति पर, दिल्ली के पास सभी महाशक्तियों के साथ बातचीत करने की गुंजाइश थी।
  • यह व्यापक रूप से माना जा रहा था कि भारत प्रतिस्पर्धी शक्तियों के मध्य “गुटनिरपेक्षता” की अपनी नीति को “बहु-गठबंधन” – सभी महान शक्तियों के साथ सहयोग करने के विचार से प्रतिस्थापित कर सकता हैं।
    • हालाँकि, कई प्रवृत्तियाँ “बहु-संरेखण” के विचार को समस्याग्रस्त बनाती हैं।
  • जब तक विश्व की प्रमुख शक्तियाँ एक-दूसरे के साथ अच्छे से समायोजित रहती हैं, तब तक इससे कोई प्रभाव नहीं पड़ता कि सरकार अपनी नीति को किस दृष्टि से देखती है।
  • 2019 में मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल की शुरुआत के बाद से महाशक्तियों के मध्य संघर्ष तेज हो गया है।
  • बहु-संरेखण प्रमुख शक्तियों के साथ संबंधों में समरूपता का झूठा आभास भी देता है।
  • यद्यपि, वास्तविक विश्व में इन संबंधों की वर्तमान आर्थिक एवं सुरक्षा संबंधी महत्ता तथा उनकी भविष्य की संभावनाओं में काफी भिन्नता है।

उदाहरण के लिए, अमेरिका और यूरोप के साथ व्यापार और प्रौद्योगिकी संबंध रूस के साथ संबंधों से कहीं अधिक हैं।

  • जबकि अतीत में मास्को एक प्रमुख रक्षा साझेदार था।
  • वर्तमान में दिल्ली के सुरक्षा संबंधों में विविधता देखी जा सकती है।
  • चीन के साथ भारत के बड़े व्यापारिक संबंध भारी घाटे और सुरक्षा चुनौतियों से प्रभावित हैं।

भौगोलिक तर्कों की व्यवहार्यता :

  • शीतयुद्ध के दौरान महाशक्तियाँ एक दूसरे से भौगोलिक परिदृश्य पर कुछ दूरी पर अवस्थित थीं, किन्तु वर्तमान परिदृश्य में दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण शक्ति, चीन, भारत का पड़ोसी है।
  • मामले को बदतर बनाने के लिए, दिल्ली बीजिंग के साथ व्यापक संघर्ष में उलझी हुई है, जो वाशिंगटन के साथ मतभेद रखता है और मास्को के करीब जा रहा है।
  • अंतरराष्ट्रीय प्रणाली में भारत के अपने विस्तार ने निश्चित रूप से नई महाशक्ति प्रतिद्वंद्विता से निपटने में दिल्ली को कुछ स्थान दिया है।
    • लेकिन वह स्थान सीमित है और संकुचित होता जा रहा है।
    • इसका मतलब यह है कि भारत को महाशक्तियों के बीच चल रही प्रतिस्पर्धा में मौजूद मुद्दों पर चुनाव करना होगा।
    • झुकना कोई स्थायी रणनीति नहीं हो सकती।
  • प्रत्येक मुद्दे पर ये विकल्प भौतिक हितों की संतुलित गणना पर आधारित होंगे, न कि “बहु-संरेखण” और “बहुध्रुवीयता” जैसे नारों पर।

द्वितीय, वैश्विक अर्थव्यवस्था की बदलती संरचना, जो घरेलू स्तर पर और अधिक सुधार की माँग करती है:

  • यदि भारत ने 1990 के दशक के अंत में आर्थिक वैश्वीकरण के तर्क को अपना लिया था, तो अब उसे वैश्विक अर्थव्यवस्था पर भूराजनीति के प्रभाव से निपटना होगा।
  • निसन्देह, मोदी सरकार ने 2019 में एशिया-व्यापी मुक्त व्यापार वार्ता (आर.सी.ई.पी.) से बाहर निकलने के बाद से ही आर्थिक वैश्वीकरण में विश्वास खो दिया है।
  • इसके अतिरिक्त प्रमुख पश्चिमी अर्थव्यवस्थाओं द्वारा चीन पर निर्भरता कम करने के प्रयासों ने भारत के लिए अपनी भू-आर्थिक स्थिति को बढ़ाने के नए अवसर खोले हैं।
    • हालाँकि, दिल्ली उन संभावनाओं को हासिल करने से कुछ दूर है।
    • दिल्ली विश्वसनीय भौगोलिक क्षेत्रों, लचीली आपूर्ति श्रृंखलाओं और रणनीतिक साझेदारों के साथ मुक्त व्यापार को तरजीह देते रहती है।
    • लेकिन व्यापार सहयोग के लिए इन नारों को ठोस नतीजों में तब्दील करना अभी बाकी है।
  • इस बीच, इस बात की चिंता है कि नई वैश्विक गतिशीलता से निपटने के लिए आवश्यक सुधारों के लिए सरकार की क्षमता 2024 के चुनाव के परिणाम से बाधित है।
  • घरेलू आर्थिक परिवर्तन के लिए सरकार की इच्छाशक्ति और क्षमता के बारे में आशंकाओं को दूर करना नई सरकार के लिए एक महत्त्वपूर्ण कार्य होगा।

तृतीय, उभरती हुई तकनीकी क्रांति वैश्विक शक्ति के पुनर्वितरण का वादा करती है जो वर्तमान में महाशक्ति प्रतिस्पर्धा का एक अभिन्न अंग है: 

  • इससे भारत में उन्नत प्रौद्योगिकी के विकास में तेजी आने के द्वार खुल गए हैं। 
  • अमेरिका के साथ महत्त्वपूर्ण और उभरती प्रौद्योगिकियों (ICET) पर पहल, जिसकी समीक्षा इस सप्ताह दिल्ली में दोनों देशों के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों द्वारा की गई, इस ओर इशारा करती है।
  • हालाँकि, नई संभावनाओं का पूरा लाभ उठाने के लिए भारत को उन्नत विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी क्षेत्र के आधुनिकीकरण की आवश्यकता होगी, जो अभी तक राज्य के एकाधिकार के अधीन रहा है।

चतुर्थ, दिल्ली को नए क्षेत्रों के उदय के अनुकूल होना होगा जो पुरानी क्षेत्रीय श्रेणियों से विलग होंगी : 

  • पिछले दशक में दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्व एशिया जैसे कई पारंपरिक रूप से परिभाषित क्षेत्रों को शामिल करते हुए हिंद-प्रशांत का उदय इसका एक उदाहरण है।
  • अरब खाड़ी की वित्तीय आत्मनिर्भरता, अफ्रीका की तीव्र आर्थिक वृद्धि और यूरोप की दक्षिणी पहुँच, उपमहाद्वीप के पश्चिम में भारत के लिए रोमांचक नए अवसरों की ओर इशारा करती है।
  • भारत-मध्य पूर्व-यूरोप आर्थिक गलियारा (IMEC) आने वाले समय का एक संकेत मात्र है।
  • दिल्ली को अब अफ्रीका, दक्षिणी यूरोप और मध्य पूर्व के साथ संबंध बनाने के लिए अधिक संसाधनों – कूटनीतिक, राजनीतिक, आर्थिक और सुरक्षा – का निवेश करना होगा तथा उन पुराने मानसिक मानचित्रों को मिटाना होगा जो इन क्षेत्रों को अलग-अलग इकाईयों के रूप में देखते थे।

पंचम, दिल्ली को भारत के उत्थान पर अपनी अतिशयोक्तिपूर्ण बयानबाजी में नरमी बरतने की आवश्यकता है : 

  • इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने की ओर अग्रसर है और वैश्विक पदानुक्रम में निरंतर प्रगति कर रहा है।
  • लेकिन इसकी कुल जीडीपी लगभग 4 ट्रिलियन डॉलर है, जबकि वहीँ भारत की प्रति व्यक्ति जीडीपी मात्र 2,800 डॉलर है।
  • यदि भारत की विकास संबंधी चुनौतियाँ बड़ी हैं, तो देश के भीतर बढ़ती असमानता से निपटने की समस्या भी बड़ी है।
  • भारत का बढ़ता वैश्विक प्रभाव, संक्षेप में, घरेलू समृद्धि और समानता के तीव्र विस्तार के लिए विश्व का लाभ उठाने की ओर उन्मुख होना चाहिए।
  • दिल्ली को यह भी याद रखना चाहिए कि विश्व इतिहास में ऐसी उभरती हुई शक्तियों की भरमार है जो वैश्विक व्यवस्था में ऊपर उठने के दौरान दुर्घटनाग्रस्त हो गईं।
  • यद्यपि दिल्ली का नया आत्मविश्वास स्वागत योग्य है, लेकिन उसे अतिक्रमण के स्पष्ट खतरों से बचना चाहिए।
  • भारत की ताकत को अधिक आँकना और सामने मौजूद चुनौतियों को कम आँकना भू-राजनीतिक अहंकार और नीति निर्माण में आत्मसंतुष्टि को जन्म देता है, जिसके दूरगामी परिणाम घातक भी हो सकते हैं।

निष्कर्ष: 

निष्कर्षतः इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि भारत को महत्त्वपूर्ण भू-राजनीतिक चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके लिए भौतिक हितों, घरेलू सुधारों, तकनीकी प्रगति, क्षेत्रीय जुड़ाव और अपने बढ़ते वैश्विक प्रभाव के प्रति संतुलित दृष्टिकोण पर आधारित रणनीतिक निर्णय लेने की आवश्यकता है।

मुख्य परीक्षा पर आधरित प्रश्न:

प्रश्न: विकसित हो रहा वैश्विक परिदृश्य भारत के लिए नई चुनौतियाँ और अवसर प्रस्तुत कर रहा है। इस बदलते भू-राजनीतिक संदर्भ में प्रभावी रूप से नेविगेट करने के लिए भारत को अपनी विदेश नीति के दृष्टिकोण को कैसे अनुकूलित करना चाहिए, इसका आलोचनात्मक परिक्षण कीजिए। 

(15 अंक, 250 शब्द)

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