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भारत में ध्वनि प्रदूषण में वृद्धि एवं असफल सरकारी नीतियाँ

Lokesh Pal September 02, 2025 05:00 27 0

संदर्भ:

शहरी ध्वनि प्रदूषण वर्तमान समय की सबसे उपेक्षित सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्याओं में से एक के रूप में उभर कर सामने आया है।

  • भारतीय शहरों में ध्वनि का स्तर नियमित रूप से स्वीकार्य सीमा से अधिक हो जाता है, विशेष रूप से स्कूलों, अस्पतालों और आवासीय क्षेत्रों के पास, जिससे शांति तथा सम्मान का संवैधानिक परिदृश्य कमजोर हो जाता है।

ध्वनि प्रदूषण की निगरानी और डेटा संबंधी मुद्दे:

  • केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) ने 2011 में एक वास्तविक समय डेटा प्लेटफॉर्म के रूप में राष्ट्रीय परिवेशी शोर निगरानी नेटवर्क (NANMN) का शुभारंभ किया।
  • आज, यह बिखरे हुए डेटा और निम्न प्रवर्तन के साथ एक निष्क्रिय भंडार के रूप में कार्य करता है।
    • कई सेंसर 25-30 फीट की ऊँचाई पर लगाए गए हैं, जो CPCB के 2015 के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन करते हैं तथा गलत आँकड़ें प्रस्तुत करते हैं, परिणामस्वरूप उत्पन्न डेटा राजनीतिक और प्रशासनिक रूप से निष्क्रिय बना रहता है।

ध्वनि प्रदूषण प्रबंधन में वैश्विक अंतर:

  • यूरोप: शोर से उत्पन्न बीमारियों और मृत्यु दर के आँकड़ों का सार्वजनिक नीतियों को तैयार करने में सक्रिय रूप से उपयोग किया जाता है।
    • यूरोपीय पर्यावरण एजेंसी ने शहरी शोर की वार्षिक आर्थिक लागत 100 बिलियन यूरो मापी है, जिससे सरकारों को गति सीमा और ज़ोनिंग ढाँचे को पुनः डिजाइन करने के लिए प्रेरित किया गया है।
  • भारत: भारत विनियामक विखंडन, कमजोर संस्थागत क्षमता और पारदर्शिता की कमी से प्रभावित है, जैसा कि उत्तर प्रदेश के 2025 के प्रथम तिमाही के शोर संबंधी आँकड़ों की जनता के लिए अनुपलब्धता से देखा जा सकता है।

ध्वनि प्रदूषण से संबंधित संवैधानिक और कानूनी प्रावधान:

  • अनुच्छेद 21: सम्मानपूर्वक जीवन के अधिकार में मानसिक और पर्यावरणीय कल्याण भी शामिल है।
  • अनुच्छेद 48A: सक्रिय पर्यावरण संरक्षण का आदेश देता है।
  • ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण) नियम, 2000: मजबूत कानूनी ढाँचा प्रदान करता है, लेकिन इसका प्रवर्तन व्यापक रूप से प्रतीकात्मक ही रहता है।
  • विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, शांत क्षेत्रों में सुरक्षित सीमा दिन के दौरान 50dB(A) और रात में 40dB(A) है, लेकिन दिल्ली और बंगलूरू जैसे शहरों में, संवेदनशील संस्थानों के पास भी स्तर सामान्यतः 65-70dB(A) तक पहुँच जाता है।

 न्यायिक हस्तक्षेप:

  • सर्वोच्च न्यायालय (वर्ष 2024): भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने पुनः पुष्टि की, कि पर्यावरणीय व्यवधान – जिसमें अत्यधिक शोर भी शामिल है – अनुच्छेद 21 के तहत प्राण और दैहिक स्वतंत्रता के मूल अधिकार का उल्लंघन कर सकता है।
  • शोर प्रदूषण (V) में न्यायालय ने माना, कि अनियंत्रित शहरी शोर मानसिक स्वास्थ्य और नागरिक स्वतंत्रता के लिए गंभीर खतरा उत्पन्न करता है (यह मामला 2005 का है, जिसमे शहरी शोर तथा मूल अधिकारों पर इसके प्रभाव पर नए सिरे से चिंताओं के संदर्भ में, न्यायालय द्वारा 2024 में पुनः संदर्भ और व्याख्या की गई थी |)

ध्वनि प्रदूषण के प्रभाव:

  • पारिस्थितिक प्रभाव:
    • पक्षियों संबंधी समस्याएँ: ऑकलैंड विश्वविद्यालय द्वारा 2025 में किए गए एक अध्ययन से पता चला है, कि शहरी शोर और कृत्रिम प्रकाश के संयोजन से ‘मैना’ पक्षी की नींद और गाने के पैटर्न में केवल एक रात के बाद ही व्यवधान उत्पन्न हो जाता है
    • सामाजिक संकेतन में कमी: पक्षियों का संकेतन मार्ग प्रभावित होता है, जिससे सामाजिक संकेतन में संलग्न होने की उनकी क्षमता में कमी आ जाती है
      • यह निष्कर्ष इस बात पर प्रकाश डालता है, कि ध्वनि प्रदूषण पारिस्थितिक संचार प्रणालियों को बाधित करता है तथा जैव विविधता और पर्यावरणीय नैतिकता के गहन क्षरण का प्रतिनिधित्व करता है।
    • सामाजिक-सांस्कृतिक और राजनीतिक पहलू
      • नागरिक थकान: शहरी ध्वनि प्रदूषण न केवल एक तकनीकी समस्या है, बल्कि एक राजनीतिक और सांस्कृतिक समस्या भी है।
        • हॉर्न बजाने, ड्रिलिंग करने और लाउडस्पीकरों के व्यापक रूप से सामान्यीकरण के कारण नागरिक थकान उत्पन्न हो गई है, जहाँ शोर को चुनौती देने की बजाय सहन किया जाता है।
      • अदृश्य प्रदूषक: वायु प्रदूषण या अपशिष्ट के विपरीत, शोर कोई दृश्य निशान नहीं छोड़ता है, जिसके कारण यह एक अदृश्य प्रदूषक बन जाता है, जो अक्सर सार्वजनिक आक्रोश से बच जाता है।
        • सार्वजनिक स्वास्थ्य को चुपचाप लेकिन महत्त्वपूर्ण रूप से नुकसान पहुँचाती है, विशेष रूप से बच्चों, वृद्ध और पहले से ही स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त लोगों को प्रभावित करती है।

ध्वनि प्रदूषण से संबंधित शासन में अंतराल:

  • पुराना कानूनी ढाँचा प्रणाली: यद्यपि भारत में ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम, 2000 मौजूद हैं, लेकिन आधुनिक शहरी जीवन की वास्तविकताओं को प्रतिबिंबित करने के लिए उनका शायद ही कभी अद्यतन किया जाता है।
  • संस्थागत समन्वय का अभाव: नगर निकायों, यातायात पुलिस और प्रदूषण नियंत्रण बोर्डस के बीच बहुत कम समन्वय है, जिसके परिणामस्वरूप इनका कार्यान्वयन कठिन हो जाता है।
  • राष्ट्रीय ध्वनिक नीति का अभाव: राष्ट्रीय परिवेशी वायु गुणवत्ता मानकों के समतुल्य राष्ट्रीय ध्वनिक नीति का अभाव विनियमन को और कमजोर करता है
  • कमजोर शिकायत निवारण: एक मजबूत शिकायत निवारण तंत्र के बिना प्रवर्तन व्यापक रूप से प्रतीकात्मक और अप्रभावी रहता है।

आगे की राह

  • NANMN का विकेंद्रीकरण: राष्ट्रीय परिवेशीय शोर निगरानी नेटवर्क (NANMN) का विकेंद्रीकरण तथा स्थानीय निकायों को वास्तविक समय के शोर डेटा तक पहुँच प्रदान की जानी चाहिए, साथ ही उस पर कार्रवाई करने की जिम्मेदारी भी दी जानी चाहिए।
  • निगरानी को प्रवर्तन से जोड़ें: निगरानी को सीधे प्रवर्तन से जोड़ा जाना चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि उल्लंघनों पर जुर्माना लगाया जाए, ज़ोनिंग अनुपालन तथा निर्माण गतिविधियों पर प्रतिबंध लगाया जाए।
  • जागरूकता को संस्थागत बनाना: शोर जागरूकता अभियानों को संस्थागत बनाया जाना चाहिए, ताकि “नो हॉर्निंग डे” जैसी प्रतीकात्मक पहल निरंतर व्यवहार परिवर्तन कार्यक्रमों में विकसित हो सकें।
  • शहरी नियोजन में ध्वनिक लचीलापन शामिल करना: शहरी नियोजन में ध्वनिक लचीलापन शामिल करना चाहिए, शहरों को न केवल गति और विकास के लिए बल्कि ध्वनिक सभ्यता के लिए भी डिजाइन करना चाहिए।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

प्रश्न: ध्वनि प्रदूषण (विनियमन और नियंत्रण) नियम, 2000 जैसे कानूनी सुरक्षा उपायों के बावजूद, भारतीय शहरों में ध्वनि का स्तर लगातार बढ़ रहा है। ध्वनि प्रदूषण पर प्रभावी नियंत्रण में विद्यमान चुनौतियों का उल्लेख करते हुए इसे कम करने के लिए आवश्यक उपायों को स्पष्ट कीजिए?

(10 अंक, 150 शब्द)

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