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आर्थिक वृद्धि एवं विकास हेतु भारत को एफडीआई की आवश्यकता

Lokesh Pal September 18, 2024 05:15 157 0

संदर्भ: 

वर्ष 2013 के दौरान शी जिनपिंग के सत्ता में आने से पूर्व, चीन की अर्थव्यवस्था विकास पथ पर अग्रसर थी। वैश्विक विनिर्माण केंद्र के रूप में, चीन को एक मजबूत आपूर्ति श्रृंखला, कुशल कार्यबल, बढ़ती मजदूरी और उन्नत बुनियादी ढाँचे से लाभ प्राप्त हुआ। देश में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) लगातार प्रवाहित हो रहा था, और इसका निर्यात-संचालित मॉडल उल्लेखनीय सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि को बढ़ावा दे रहा था। समृद्धि के इस दौर में प्रति व्यक्ति आय में भी पर्याप्त वृद्धि देखी गई, जिसने चीन को वैश्विक व्यापार में एक अग्रणी शक्ति के रूप में स्थापित किया। हालाँकि, शी जिनपिंग के सत्ता में आने के बाद से काफी बदलाव आया।

शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन के आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य में बदलाव

  • बढ़ती राजनीतिक शक्ति: शी जिनपिंग ने कम्युनिस्ट पार्टी पर अपना नियंत्रण स्थापित किया और वर्ष 2018 में उन्होंने राष्ट्रपति पद की सीमा को समाप्त कर दिया, जो पहले दो कार्यकाल तक सीमित थी, जिससे उन्हें संभावित रूप से अनिश्चित काल तक सत्ता में बने रहने की अनुमति प्राप्त हो गई। इस राजनीतिक एकीकरण ने विदेशी निवेशकों के मध्य अनिश्चितता की स्थिति उत्पन्न कर दी|
  • सत्ता का केंद्रीकरण और असहमति: शी जिनपिंग द्वारा शुरू किए गए निर्णायक परिवर्तनों में से एक राज्य सत्ता का मनमाना केंद्रीकरण रहा है। शी जिनपिंग ने राज्य नियंत्रण और राष्ट्रवाद पर जोर दिया तथा उनका विरोध करने वालों को कड़ी कार्रवाई का सामना करना पड़ा।
    • उदाहरण: 2015 में अलीबाबा जैसी निजी प्रौद्योगिकी कंपनियों पर की गई कार्रवाई के कारण जैक मा अचानक लोगों की नजरों से ओझल हो गए, जिससे निजी उद्यमों पर राज्य की पकड़ मजबूत होने का संकेत मिला।
  • प्रगति के लिए “चीन मॉडल” में व्यवधान: चीन का पिछला निर्यात-संचालित आर्थिक मॉडल, जिसने पर्याप्त विदेशी निवेश आकर्षित किया था, शी के नेतृत्व में प्रभावित होने लगा है। उनका ध्यान वैश्विक व्यापार से अधिक राष्ट्रवादी, अंतर्मुखी दृष्टिकोण की ओर चला गया।
  • कोविड-19 महामारी: कोविड-19 महामारी के दौरान ये चिंताएँ और बढ़ गईं, क्योंकि चीन के विशेष रूप से ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के प्रति, आक्रामक रुख, ने व्यापार को राजनीतिक हथियार के रूप में उपयोग करने की उसकी इच्छा को उजागर किया।
    • उदाहरण: चीन ने ऑस्ट्रेलिया के साथ व्यापार बंद करने की धमकी दी, जिससे चीनी बाजार पर निर्भर व्यवसायों में असुरक्षा की भावना पैदा हो गई। परिणामस्वरूप, कई कंपनियों ने चीन को एक अविश्वसनीय भागीदार के रूप में देखना शुरू कर दिया, जिससे उन्हें अपने संचालन में विविधता लाने और वैकल्पिक बाजारों की तलाश करने के लिए प्रेरित होना पड़ा।

विदेशी निवेश पर शी जिनपिंग की नीतियों का प्रभाव

  • अप्रत्याशित हस्तक्षेप : शी जिनपिंग के नीतिगत बदलावों, खास तौर पर सत्ता के केंद्रीकरण और अप्रत्याशित सरकारी हस्तक्षेपों ने विदेशी कंपनियों और निवेशकों के मध्य तनाव को बढ़ाने का प्रयास किया है।
  • प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में दशकीय गिरावट: शी जिनपिंग के नीतिगत बदलावों, के परिणामस्वरूप पिछले दशक में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) में तेज गिरावट साफ दिखाई देती हैं। 2013 में चीन ने 291 बिलियन डॉलर का एफडीआई आकर्षित किया था। हालांकि, 2023 तक यह आंकड़ा घटकर सिर्फ 43 बिलियन डॉलर रह गया।

उदाहरण के लिए : एप्पल जैसी कंपनियों ने अधिक स्थिर और पूर्वानुमानित कारोबारी माहौल की तलाश में अपना परिचालन वियतनाम जैसे देशों में स्थानांतरित करना शुरू कर दिया है।

  • वेंचर कैपिटल द्वारा वित्तपोषित कंपनियों के निर्माण में गिरावट: चीन के एक समय में संपन्न स्टार्टअप इकोसिस्टम में भी वेंचर कैपिटल द्वारा वित्तपोषित कंपनियों के निर्माण में भारी गिरावट दर्ज की गई है। वर्ष 2018 में तकरीबन 51,032 कंपनियों को वेंचर कैपिटल द्वारा वित्तपोषित किया गया था। 2023 तक, यह संख्या घटकर सिर्फ़ 1,202 रह गई अर्थात 97.6% की अप्रत्याशित गिरावट दर्ज की गई है।
  • आपूर्ति श्रृंखला में लचीलेपन को प्राथमिकता देना : चीन से दूर जाने की मेगाट्रेंड (2018-2028) आपूर्ति श्रृंखलाओं और विनिर्माण के वैश्विक पुनर्गठन को उजागर करती है, जो बढ़ती श्रम लागत, व्यापार तनाव और भू-राजनीतिक चिंताओं से प्रेरित है। कंपनियाँ और देश तेजी से उत्पादन में विविधता ला रहे हैं, दक्षिण पूर्व एशिया में, खासकर वियतनाम, भारत और थाईलैंड जैसे देशों में विकल्प तलाश रहे हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान यह प्रवृत्ति और तेज हो गई, क्योंकि देशों ने आपूर्ति श्रृंखला लचीलेपन को प्राथमिकता दी और चीन पर निर्भरता कम की, जिससे क्षेत्र में उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए नए अवसर पैदा हुए।

स्थानांतरित कंपनियों को आकर्षित करने के लिए भारत के प्रयास

भारत ने चीन से उत्पादन के वैश्विक बदलाव को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को आकर्षित करने के एक बड़े अवसर के रूप में देखा। सैमसंग जैसी तकनीकी दिग्गज कंपनियों ने अपने उत्पादन का एक बड़ा हिस्सा भारत और वियतनाम में स्थानांतरित कर दिया, जिससे भारत के विनिर्माण क्षेत्र की क्षमता पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा। हालाँकि, इस अवसर के बावजूद, भारत को वियतनाम और थाईलैंड जैसे देशों से कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा, जो स्वयं को एक प्रमुख वैश्विक विनिर्माण केंद्र के रूप में स्थापित करने की योजना बना रहे थे।

  • एफडीआई आकर्षित करने में सीमित सफलता: हालांकि भारत ने इस वैश्विक बदलाव से लाभ उठाने का लक्ष्य रखा था, लेकिन उसे अपेक्षित महत्वपूर्ण विदेशी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) प्रवाह नहीं प्राप्त हो सका। भारत सरकार ने एफडीआई को 26 बिलियन डॉलर से बढ़ाकर 260 बिलियन डॉलर करने जैसे महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किए, लेकिन 2013 से 2024 तक वास्तविक एफडीआई वृद्धि निराशाजनक रही है। इस अवधि के दौरान, शुद्ध एफडीआई वृद्धि दर नकारात्मक 1.5% चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि थी, जो नए निवेशों के साथ-साथ भारत से पूँजी बहिर्वाह को दर्शाती है।
  • सेवा क्षेत्र में वृद्धि: भारत के व्यापारिक निर्यात में वृद्धि मामूली रही है, वर्ष 2013 से 2024 तक इसकी चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर (CAGR) केवल 3.3% रही है। वैश्विक विनिर्माण केंद्र के रूप में भारत की क्षमता को देखते हुए यह आँकड़ा अपेक्षाकृत कम है। हालाँकि, भारत ने इसी अवधि के दौरान 8.45% चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर के साथ सेवा निर्यात में मजबूत वृद्धि का अनुभव किया है। यह आईटी और बिजनेस प्रोसेस आउटसोर्सिंग (बीपीओ) जैसे क्षेत्रों में भारत की ताकत को दर्शाता है।

उदाहरण के लिए : माइक्रोसॉफ्ट और अमेज़ॅन जैसी कंपनियों ने भारत में वैश्विक क्षमता केंद्र स्थापित किए हैं, जो देश की कम श्रम लागत के कारण वित्तीय, कानूनी और तकनीकी सहायता सेवाएँ प्रदान करते हैं। ये केंद्र सेवाओं के निर्यात का प्रतिनिधित्व करते हैं, क्योंकि ये कंपनियां भारत के बाहर के ग्राहकों को भी अपनी सेवाएँ प्रदान करते हैं। इसी तरह, टीसीएस और इंफोसिस जैसी भारतीय आईटी दिग्गज कंपनियों ने इस प्रवृत्ति का लाभ उठाया है, अपनी वैश्विक सेवा पहल का विस्तार किया है और समग्र रूप में देश के सेवा निर्यात के विकास में योगदान दिया है।

राष्ट्रीय विकास के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश का महत्त्व

  • उन्नत ज्ञान और तकनीक का हस्तांतरण: एफडीआई उन्नत ज्ञान और तकनीक कौशल प्रदान करता है जो स्थानीय उद्योगों को आधुनिक बना सकता है।
    • उदाहरण: भारत में बीएमडब्ल्यू के निवेश से अत्याधुनिक ऑटोमोबाइल विनिर्माण सेवाएं प्रारंभ की गई, जिससे स्थानीय उत्पादन क्षमता में सुधार हुआ।
  • उत्पादकता में सुधार: विदेशी कंपनियां श्रम, पूंजी और संसाधनों के लिए कुशल प्रबंधन पद्धतियां लाती हैं, जिससे स्थानीय उत्पादकता बढ़ सकती है। 
    • उदाहरण: वियतनाम में, कपड़ा क्षेत्र में एफडीआई ने स्थानीय उत्पादन मानकों को काफी बढ़ावा दिया, जिससे वियतनाम का उद्योग परिक्षेत्र वैश्विक स्तर पर अधिक प्रतिस्पर्धी बन गया।
  • स्थानीय कार्यबल में ज्ञान का प्रसार: एफडीआई स्थानीय कार्यबल को मूल्यवान ज्ञान के हस्तांतरण की सुविधा प्रदान करता है। जब विदेशी कंपनियाँ स्थानीय कर्मचारियों को काम पर रखती हैं, तो ये कर्मचारी ऐसे कौशल हासिल करते हैं, जिनका उपयोग वह बाद में अन्य फर्मों में भी कर सकते हैं।
    • उदाहरण: अमेज़न इंडिया द्वारा प्रशिक्षित कर्मचारी स्थानीय स्टार्टअप्स में सेवाएं प्रदान कर रहे हैं और तकनीकी ज्ञान का प्रसार कर रहे हैं, जिससे स्टार्टअप पारिस्थितिकी तंत्र में सुधार हो रहा हैं।
  • फर्म के अंतर्राष्ट्रीयकरण में योगदान : एफडीआई घरेलू फर्मों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विस्तार करने में मदद करता है।
    • उदाहरण: एफडीआई के माध्यम से बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ सहयोग करने के बाद इन्फोसिस ने वैश्विक स्तर पर विस्तार किया, जिससे कंपनी को एक मजबूत वैश्विक उपस्थिति विकसित करने और अपनी उत्पादकता में सुधार करने में मदद मिली।
  • स्थानीय कंपनियों की प्रतिस्पर्धात्मकता में वृद्धि: जब विदेशी कंपनियाँ किसी बाज़ार में प्रवेश करती हैं, तो वे वैश्विक मानक पेश करती हैं जो स्थानीय कंपनियों को अधिक प्रतिस्पर्धी बनने के लिए प्रेरित करते हैं। स्थानीय फ़र्म अपने विदेशी समकक्षों की प्रथाओं और तकनीकों से सीखती हैं, जिससे दक्षता और उत्पादन में सुधार होता है।

ग्रीनफील्ड तथा ब्राउनफील्ड निवेश

  • ग्रीनफील्ड निवेश: इसमें विदेशी कंपनियाँ नए प्रोजेक्ट शुरू करती हैं, जैसे कि नई फैक्ट्रियाँ स्थापित करना या बुनियादी ढाँचा निर्मित करना।
  • ब्राउनफील्ड निवेश: इसमें विदेशी कंपनियाँ मौजूदा फ़र्मों का अधिग्रहण या उनमें विलय करती हैं। इससे मौजूदा परिचालन में बेहतर प्रबंधन और प्रौद्योगिकी संचार होता है।

 

भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आकर्षित करने में चुनौतियाँ

  • विनिर्माण/बुनियादी ढाँचे का खराब प्रदर्शन : भारत ने कमजोर बुनियादी ढाँचे और उच्च परिचालन लागतों के कारण विनिर्माण और बुनियादी ढाँचे के क्षेत्रों में एफडीआई आकर्षित करने के लिए संघर्ष किया है। हालाँकि सरकार ने उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना जैसी रणनीतियों को लागू किया, लेकिन वैश्विक फर्मों ने भारत के अविकसित बुनियादी ढाँचे में निवेश करने में संकोच किया है।
  • पारंपरिक नीतियों के दृष्टिकोण की सीमाएँ: पारंपरिक नीतियों के दृष्टिकोण, जैसे कि बुनियादी ढाँचे में सुधार या उत्पादन-लिंक्ड प्रोत्साहन पर ध्यान केंद्रित करना, एफडीआई को आकर्षित करने में पूरी तरह से सफल नहीं रहे हैं। 

उदाहरण: इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) को बढ़ावा देने के उद्देश्य से पीएलआई योजना के परिणामस्वरूप विदेशी निवेश में अपेक्षित वृद्धि नहीं हुई है।

  • एफडीआई सब्सिडी हेतु करदाता के पैसे का उपयोग करने की अव्यवहारिकता: अक्सर भारत उच्च घाटे और कम कर आधार के साथ राजकोषीय बाधाओं का सामना करता है, जो विदेशी निवेशकों को बड़े प्रोत्साहन देने की सरकार की क्षमता को सीमित करता है। ऐसे प्रोत्साहनों के लिए करदाता के पैसे का उपयोग सावधानीपूर्वक संतुलित किया जाना चाहिए, क्योंकि यह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रवाह को बढ़ाने में इन रणनीतियों की प्रभावशीलता और स्थिरता के बारे में सवाल उठाता है।

भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की वृद्धि में बाधाएँ

  • कार्य वीज़ा संबंधी मुद्दे: अन्य देशों के नागरिकों को भारत में कार्य वीज़ा प्राप्त करने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। कार्य वीज़ा अनुमोदन में देरी ने अमेज़न जैसी कंपनियों को प्रभावित किया, जिससे भारत में कार्यक्षेत्र का विस्तार करने की उनकी क्षमता में बाधा उत्पन्न हुई।
  • पूंजी नियंत्रण: पूँजी प्रत्यावर्तन पर सरकारी प्रतिबंध विदेशी निवेशकों के लिए चुनौतियाँ पैदा करते हैं। पूँजी प्रत्यावर्तन पर भारत के प्रतिबंधों ने विदेशी निवेश को हतोत्साहित किया है, जिससे विदेशी पूँजी का प्रवाह सीमित हो गया है।
  • संरक्षणवाद: घरेलू फर्मों के लिए समर्थन और आयात पर उच्च शुल्क विदेशी कंपनियों के लिए बाधाएँ पैदा करते हैं। आयातित वस्तुओं पर उच्च शुल्क ने विदेशी निर्माताओं के लिए भारतीय बाजार में प्रवेश करना और प्रतिस्पर्धा करना कठिन बना दिया है।
    • आर्थिक राष्ट्रवाद: आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने वाली नीतियाँ, जैसे “आत्मनिर्भर भारत”, विदेशी फर्मों को कुछ क्षेत्रों में प्रवेश करने से हतोत्साहित कर सकती हैं।
  • कर नीति और प्रशासनिक चुनौतियाँ: भारत की कर नीतियाँ अक्सर अप्रत्याशित होती हैं और अचानक परिवर्तन के अधीन होती हैं, जिससे विदेशी निवेशकों के लिए अनिश्चितता पैदा होती है। 

उदाहरण:  भारत सरकार के साथ वोडाफोन के कर विवाद ने भारत की कर व्यवस्था की अप्रत्याशितता के बारे में चिंताएँ बढ़ा दी हैं।

  • नियामक मुद्दे: ओवरलैपिंग विनियामक निकाय और सरकार की मनमानी शक्तियाँ निवेशकों के लिए अनिश्चितता पैदा करती हैं। विभिन्न विनियामक निकायों के बीच ओवरलैपिंग अधिकार क्षेत्र के कारण दूरसंचार क्षेत्र को विनियामक बाधाओं का सामना करना पड़ता है।
  • केंद्रीकृत योजना: राज्य और स्थानीय सरकारों को सीमित प्रतिनिधिमंडल अक्सर अधिकांश क्षेत्रों में केंद्रीकृत नियंत्रण, देरी और अक्षमताओं की ओर ले जाता है। विदेशी फर्मों को भारत की जटिल और केंद्रीकृत नियोजन प्रक्रियाओं के कारण देरी का सामना करना पड़ा है, जहाँ छोटे निर्णयों के लिए भी केंद्र सरकार से अनुमोदन की आवश्यकता होती है।
  • कानून के शासन की कमी: भारत में न्यायिक प्रक्रिया, खासकर अनुबंध प्रवर्तन के मामलों में, धीमी हो सकती है जो विदेशी निवेश को रोकता है। संपत्ति विवादों में लंबी मुकदमेबाजी प्रक्रियाओं ने दीर्घकालिक एफडीआई को हतोत्साहित किया है, क्योंकि निवेशकों को देरी से कानूनी समाधान के कारण संभावित वित्तीय नुकसान का सामना करना पड़ता है।
  • तकनीकी मानक और एकाधिकार: हालांकि कुछ क्षेत्रों में, अभी भी एकाधिकार बना हुआ है, और भारत के जटिल तकनीकी मानक विदेशी फर्मों के लिए मुश्किलें पैदा करते हैं। दूरसंचार क्षेत्र के अनूठे तकनीकी मानकों ने वैश्विक कंपनियों के लिए अनुपालन करना चुनौतीपूर्ण बना दिया है, जिससे प्रवेश में बाधाएँ पैदा हो रही हैं। 
  • बौद्धिक संपदा की चोरी: विदेशी कंपनियों ने इस संदर्भ में गंभीर चिंता व्यक्त की है कि भारत में बौद्धिक संपदा अधिकारों की पर्याप्त सुरक्षा नहीं है, हालाँकि चीन की तुलना में यह कम है। भारत के फार्मास्युटिकल क्षेत्र में बौद्धिक संपदा अधिकारों के कमज़ोर प्रवर्तन ने विदेशी निवेशकों के बीच उनके नवाचारों की सुरक्षा को लेकर चिंताएँ बढ़ा दी हैं।

भारत के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश में सुधार के उपाय 

  • बेहतर आर्थिक सुधार प्रक्रियाएँ: भूमि अधिग्रहण कानून व जटिल तकनीकी मानक जैसी प्रक्रियाओं को सरल बनाने से विदेशी फर्मों के लिए भारत में परिचालन स्थापित करना आसान हो सकता है।
    • उदाहरण: एक सुव्यवस्थित भूमि अधिग्रहण प्रक्रिया व सरल तकनीकी मानक अधिक विनिर्माण-आधारित एफडीआई को प्रोत्साहित करेगी।
  • शोध संगठनों में निवेश: सक्षम शोध संस्थानों का निर्माण अधिक प्रभावी नीति-निर्माण का समर्थन कर सकता है।
    • उदाहरण: RAND Corporation जैसे थिंक टैंक स्थापित करने से बेहतर-सूचित आर्थिक निर्णय और रणनीतियाँ संभव हो सकती है।
  • सरकारी कार्यान्वयन समूहों में ज्ञान का संचार: भारत को वियतनाम जैसे देशों से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है जो सक्रिय रूप से एफडीआई को आकर्षित कर रहे हैं, जबकि भारतीय नौकरशाही की वैश्विक रुझानों के अनुकूल होने की गति अत्यधिक धीमी है।
    • उदाहरण: परियोजना प्रबंधन और आर्थिक सुधार में वैश्विक विशेषज्ञों से परामर्श करने से बुनियादी ढांचे के विकास और निवेश प्रक्रियाओं को तेज़ करने में मदद मिल सकती है।
  • राजनीतिक अर्थव्यवस्था के अवरोधों को प्रबंधित करना: नौकरशाही की लालफीताशाही को कम करना और प्रक्रियाओं को सरल बनाना भारत को विदेशी निवेश के लिए अधिक आकर्षक गंतव्य बनाने में सहायक हो सकता है।
    • उदाहरण: वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) नंबर प्राप्त करने की प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना, जो वर्तमान में विलंबित है और कभी-कभी भ्रष्टाचार से ग्रस्त है, यह व्यवसाय संचालन को गति देने में मदद करेगा।
  • विदेशी प्रौद्योगिकी और ज्ञान के प्रति सम्मानजनक दृष्टिकोण: विदेशी फर्मों के साथ सहयोग को प्रोत्साहित करने से प्रौद्योगिकी और सर्वोत्तम प्रथाओं के हस्तांतरण में सुविधा हो सकती है।
    • उदाहरण: भारतीय और विदेशी फर्मों के मध्य साझेदारी को बढ़ावा देने से भारत को वैश्विक विशेषज्ञता का लाभ उठाने और उद्योगों में ज्ञान हस्तांतरण को बढ़ावा देने में मदद मिलेगी।

निष्कर्ष :

भारत की आर्थिक वृद्धि के लिए प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) आवश्यक है, यह उन्नत प्रौद्योगिकी सुनिश्चित करता है, उत्पादकता बढ़ाता है तथा रोजगार सृजन में योगदान करता है। हालाँकि, वैश्विक बदलावों का पूरा लाभ उठाने के लिए, भारत को विनियामक बाधाओं, बुनियादी ढाँचे की कमी और नीतिगत असंगतियों जैसी चुनौतियों का समाधान करना होगा। निवेश के परिक्षेत्र में सुधार करके, भारत स्वयं को एक अग्रणी वैश्विक विनिर्माण केंद्र के रूप में स्थापित कर सकता है।

मुख्य परीक्षा पर आधारित प्रश्न :

प्रश्न: वैश्विक फर्मों का चीन से पीछे हटने की अवधि के दौरान, विशेष रूप से विनिर्माण क्षेत्र में एफडीआई आकर्षित करने में भारत के प्रदर्शन का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए। भारत को अपने एफडीआई प्रवाह को उल्लेखनीय रूप से बढ़ाने में किन चुनौतियों का सामना करना पड़ता है? टिप्पणी कीजिए।

  (15 अंक, 250 शब्द)

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