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भारत : सार्वभौमिक बुनियादी आय लागू करने की आवश्यकता

Lokesh Pal September 14, 2024 05:30 11 0

संदर्भ:

हाल के आंकड़ों के अनुसार, बेरोज़गार आबादी में अनियंत्रित वृद्धि के कारण, उत्पादन और श्रम उत्पादकता क्षेत्र तो प्रभावित हो रहा है, लेकिन रोज़गार में कोई अपेक्षित वृद्धि नहीं हो रही है। यही कारण है कि अनेक देशों ने सार्वभौमिक बुनियादी आय (UBI) की अवधारणा का प्रस्ताव रखा है। यह विचार भूत कम समय में लोकप्रिय होता जा रहा है, खासकर तब जब अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने अपने नवीनतम विश्व रोज़गार और सामाजिक दृष्टिकोण में इस बात पर प्रकाश डाला है कि रोजगार सृजन की वृद्धि में गिरावट और असमानता में वृद्धि स्वचालन और कृत्रिम बुद्धिमत्ता (AI) के उपयोग में वृद्धि से जुड़ी हुई है।

 सार्वभौमिक बुनियादी आय (यूबीआई)

  • यूबीआई का तात्पर्य : 
  •  यूनिवर्सल बेसिक इनकम (यूबीआई) एक सामाजिक-आर्थिक नीति है, जिसके तहत सभी नागरिकों को उनकी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सरकार से नियमित, बिना शर्त एक निश्चित राशि मिलती है, चाहे उनकी रोज़गार स्थिति या आय कुछ भी हो। साधारण शब्दों में इसे बेसिक सेफ्टी नेट माना जा सकता है।

2016 में स्विटजरलैंड सार्वभौमिक बुनियादी आय योजना पर मतदान करने वाला पहला देश बना था। परंतु लगभग 77 प्रतिशत मतदाताओं ने गरीबी और सामाजिक असमानता से लड़ने और सभी को “सम्मानजनक” जीवन की गारंटी देने के लिए, प्रत्येक वयस्क को 2,500 स्विस फ़्रैंक (लगभग $2,560) और 18 वर्ष से कम आयु के प्रत्येक बच्चे को 625 फ़्रैंक की मूल मासिक आय देने की योजना को अस्वीकार कर दिया।


  • अर्ध-यूबीआई: भारत के संदर्भ में हमारे पास यूबीआई के विभिन्न रूप हैं जैसे किसानों और महिलाओं के लिए नकद हस्तांतरण योजनाएँ जैसे कि कुछ राज्यों ने इसे बेरोज़गार युवाओं तक भी पहुँचाया है और बेरोजगारी भत्ते के रूप में प्रदान किया जा रहा है ।
  • यूबीआई की आवश्यकता: रोजगार की कमी व अपर्याप्त आय के कारण बाज़ार में मांग की कमी है, जिससे कंपनियाँ कम उत्पादन कर रही हैं, जिसका आर्थिक विकास पर और अधिक प्रभाव पड़ रहा है। दूसरे शब्दों में, रोजगार की कमी व अपर्याप्त आय समग्र रूप से आर्थिक विकास में गिरावट आ रही है।
    • पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की विफलता: पूंजीवादी व्यवस्था में, एक व्यक्ति को उसके द्वारा किए गए काम के लिए भुगतान किया जाता है। लेकिन उन लोगों का क्या जिनके पास काम नहीं है? यह पूंजीवादी व्यवस्था की विफलता को दर्शाता है कि यह पर्याप्त रोजगार और आय उत्पन्न करने में असमर्थ है।

सामाजिक सुरक्षा जाल से संबंधित तथ्य 

  • आय के साथ गरिमापूर्ण जीवन : 1980 के दशक में, विश्व बैंक ने चेतावनी दी थी कि आय के साधनों के साथ-साथ गरिमापूर्ण जीवन महत्वपूर्ण है अतः इसके अभाव में अनेक भारतीय पीछे छूट सकते हैं इसके लिए सुरक्षा जाल स्थापित करने की सिफारिश की। इस दृष्टिकोण को भारत में 2000 के दशक के मध्य में लागू किया गया था, जिसमें रोजगार (MGNREGA, 2005), भोजन (राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013), शिक्षा (बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009) जैसे अनेक अनिवार्य अधिकार दिए गए थे।
  • सामाजिक सुरक्षा जाल: सामाजिक सुरक्षा जाल एक गैर-योगदानकारी हस्तांतरण कार्यक्रम हैं जो आम तौर पर गरीब व कमजोर वर्गों के प्रति संवेदनशील लोगों को लक्षित करते हैं, यूरोप में जिसे सामाजिक सहायता कहा जाता है।  
    • उदाहरण के लिए, शिक्षा का अधिकार (छह से चौदह वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा), मनरेगा के माध्यम से प्रदान किया जाने वाला काम का अधिकार शामिल है। हालाँकि कुछ राज्यों में दूसरों की तुलना में अधिक मज़बूत सामाजिक सुरक्षा सुरक्षा जाल हैं।
    • सामाजिक सुरक्षा जाल के प्रभाव : हालाँकि, बिना काम के सिर्फ़ पैसे मुहैया कराना सम्मान प्रदान नहीं करता। इसलिए, रोज़गार प्रदान करना महत्वपूर्ण है। अन्यथा, इसका परिणाम सामाजिक अलगाव हो सकता है, क्योंकि इससे पर्याप्त आय वाले और बिना आय वाले लोगों के बीच विभाजन पैदा हो सकता है, और बाद वाले को ‘बेकार’ के रूप में सामाजिक रूप से अपमानित या कलंकित किया जा सकता है।

एआई और स्वचालन का प्रभाव

  • निर्माण क्षेत्र: पहले निर्माण परियोजनाओं से बड़े पैमाने पर रोजगार पैदा किया जाता था, लेकिन अब बुलडोजर और क्रेन के इस्तेमाल से कार्यकुशलता बढ़ गई है, जबकि रोजगार कम हो गया है – जिस काम के लिए पहले सैकड़ों लोगों की जरूरत होती थी, उसे अब 10 कर्मचारी ही मशीनों के माध्यम से आसानी से सम्पन्न कर रहे हैं।
  • बैंकिंग क्षेत्र: हालांकि बैंकिंग क्षेत्र में भी तकनीकी संसाधनों का काफी विस्तार हुआ है, लेकिन इंटरनेट बैंकिंग और डिजिटल नवाचारों के बढ़ने के कारण कर्मचारियों की संख्या आधी रह गई है।
  • व्यापार क्षेत्र: व्यापार क्षेत्र, जो भारत में कृषि के बाद दूसरा सबसे बड़ा नियोक्ता है, में हाल के वर्षों में ई-कॉमर्स का तेजी से विकास हुआ है, अक्सर स्थानीय स्तर पर भी पड़ोस की दुकानों से खरीददारी करने के बजाय लोग लोग ऑनलाइन खरीदारी करना अधिक पसंद करते हैं।
    • यद्यपि हम इन ई-कॉमर्स स्टोर्स (डिलीवरी एक्जीक्यूटिव्स) के कारण उत्पन्न होने वाली नौकरियों को नजरअंदाज नहीं कर सकते।
  • कम आय वाला स्वरोजगार: एआई और ऑटोमेशन के कारण लोग अब बेरोज़गारी के बजाय नौकरियों की कमी के स्तर में वृद्धि के बारे में बात करते हैं। विस्थापित व्यक्ति कहीं और रोज़गार पाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिससे उन्हें अपने लिए खुद ही रोज़गार के अवसर बनाने पड़ रहे हैं। इससे स्वरोजगार में वृद्धि हुई है, हालाँकि आय के स्तर बहुत कम हैं।
  • भारत के समक्ष प्रमुख चुनौती : 
  • भारत में यह एक संक्रमण काल ​​है। वर्तमान में कौशल में असंतुलन है। अर्थात आसमान कौशल नई तकनीक के साथ सामंजस्य नहीं बिठा पाते हैं । हालांकि भारतीयों को इससे डरना नहीं चाहिए बल्कि एक आशावादी दृष्टिकोण रखना चाहिए क्योंकि आने वाली नई तकनीकों के साथ नई नौकरियाँ भी पैदा होंगी।

आगे की राह 

  • निजी क्षेत्र द्वारा निवेश: भारत के वित्त मंत्री और मुख्य आर्थिक सलाहकार ने इस बात पर जोर दिया है कि निजी उद्योग को श्रम-प्रधान क्षेत्रों में अधिक निवेश करना चाहिए।
  • शिक्षा, स्वास्थ्य व ग्रामीण रोजगार पर ध्यान देना : सरकार को श्रम-प्रधान क्षेत्रों में निवेश करने की जरूरत है। दरअसल सरकार ने शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे श्रम-प्रधान क्षेत्रों और ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में आवंटन कम कर दिया है, जो बहुत अधिक रोजगार पैदा करता है।
    • उदाहरण के लिए : प्रधानमंत्री आवास योजना – ग्रामीण जिसे 2016 में लॉन्च किया गया था, जिसका उद्देश्य समाज के सबसे गरीब तबके को आवास उपलब्ध कराना था, इसका ग्रामीण स्तर पर समग्र सामाजिक सुरक्षा जाल पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ा। यह ग्रामीण आवास योजना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार भी पैदा करती है और इसने स्टील, सीमेंट और इलेक्ट्रिकल कंपोनेंट क्षेत्रों में मांग में वृद्धि की है।
  • वित्तीय संसाधनों की आवश्यकता: सार्वभौमिक बुनियादी आय योजना (यूबीआई) को लागू करने से पहले सरकार को पर्याप्त संसाधनों की आवश्यकता है। यदि सरकार प्रत्यक्ष करों से अधिक धन जुटाती है, तो इस अंतर को पाटना संभव है, क्योंकि भारत का प्रत्यक्ष कर जीडीपी अनुपात केवल 6.25% है। कई विकसित देशों में यह प्रतिशत बहुत अधिक है।
  • सामाजिक सुरक्षा जाल को मजबूत करना: सामाजिक सुरक्षा जाल को मजबूत करने पर ध्यान देने की आवश्यकता है। सरकार शिक्षा तो प्रदान कर रही है, लेकिन शिक्षा की गुणवत्ता के बारे में सोचना भी अधिक महत्वपूर्ण है। यदि सरकार खाद्य सुरक्षा प्रदान कर रही है, तो छिपी हुई भूख और पौष्टिक भोजन की कमी भी मौजूद है। अतः सभी क्षेत्रों पर ध्यान देने की नितांत आवश्यकता है । 

निष्कर्ष

यूनिवर्सल बेसिक इनकम (UBI) की अवधारणा भारत में आय असमानता और बेरोज़गारी दर में अप्रत्याशित वृद्धि को रेखांकित करने के लिए एक आशाजनक समाधान प्रदान करती है। हालाँकि, इसके कार्यान्वयन के लिए देश की आर्थिक क्षमताओं और सामाजिक कारकों पर सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि यह यूनिवर्सल बेसिक इनकम (UBI) के लाभार्थियों के बीच सामाजिक अलगाव पैदा कर सकता है।

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