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भारतीय संविधान

Lokesh Pal November 27, 2025 05:15 6 0

संदर्भ:

भारत अपने संविधान के 76 वर्ष पूरे होने का जश्न मना रहा है, जो राज्य को विनियमित करने और समाज में सुधार लाने के लिए बनाया गया एक विशिष्ट भारतीय दस्तावेज है।

पश्चिमी बनाम भारतीय संवैधानिक दर्शन

  • राज्य की शक्ति पर पश्चिमी प्रभुत्व: पश्चिमी संविधानवाद उदारवाद से उभरा और राज्य को प्राथमिक खतरा माना, तथा संविधान को सरकारी प्राधिकार को नियंत्रित करने के उपकरण के रूप में इस्तेमाल किया।
  • सामाजिक उत्पीड़न की भारतीय मान्यता: भारतीय संविधान निर्माताओं ने यह समझा कि भारत में उत्पीड़न जातिगत पदानुक्रम, खाप पंचायतों और जमींदारी प्रथा जैसी सामाजिक संरचनाओं से संबंधित है।

एक सामाजिक दस्तावेज के रूप में संविधान

  • ग्रैनविले ऑस्टिन का चरित्र-चित्रण: ग्रैनविले ऑस्टिन ने भारतीय संविधान को एक “सामाजिक दस्तावेज” के रूप में वर्णित किया, तथा केवल राजनीतिक संस्थाओं की स्थापना करने के बजाय समाज को बदलने में इसकी भूमिका पर प्रकाश डाला।
  • राज्य से परे असमानता से निपटना: भारत में असमानता नागरिकों के बीच मौजूद थी, इसलिए संविधान में सामाजिक भेदभाव से सीधे लड़ने के प्रावधान शामिल किए गए।
  • सामाजिक बुराइयों से संबंधित प्रावधान:
    • अनुच्छेद 15(2): यह नागरिकों को सार्वजनिक सुविधाओं तक पहुँचने में दूसरों के साथ भेदभाव करने से रोकता है।
    • अनुच्छेद 17: अस्पृश्यता को समाप्त करता है और किसी भी रूप में इसके उपयोग को गैरकानूनी घोषित करता है।
    • अनुच्छेद 23: यह बलात् श्रम पर प्रतिबंध लगाता है तथा बेगार और सामंती जमींदारी जैसी शोषणकारी सामाजिक प्रथाओं का मुकाबला करता है।
  • समूह अधिकार और सकारात्मक कार्रवाई:
    • सुरक्षा की इकाई के रूप में समुदाय: भारतीय संविधानवाद ने माना कि व्यक्ति अपने समुदायों से सुरक्षा प्राप्त करते हैं, और इसलिए सार्थक स्वतंत्रता के लिए सामूहिक अधिकार आवश्यक हैं।
    • अल्पसंख्यक एवं लैंगिक संरक्षण: अनुच्छेद 29 और 30 अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों की रक्षा करते हैं, जबकि कई प्रावधान महिलाओं के लिए विशेष सुरक्षा सुनिश्चित करते हैं।
    • सकारात्मक कार्रवाई को शीघ्र अपनाना: भारत ने 1950 में ही SC/ST समुदायों के लिए आरक्षण को संवैधानिक रूप दे दिया था, तथा 1964 के अमेरिकी नागरिक अधिकार अधिनियम से एक दशक पहले ही भेदभाव-विरोधी उपायों को अपना लिया था।

भारत के धर्मनिरपेक्षता का विशिष्ट मॉडल

  • पश्चिमी पृथक्करण बनाम भारतीय दूरी: पश्चिमी राष्ट्र चर्च-राज्य पृथक्करण का पालन करते हैं, जबकि भारत “सिद्धांत आधारित दूरी ” का पालन करता है, तथा सामाजिक सुधार के लिए आवश्यक होने पर राज्य के हस्तक्षेप की अनुमति देता है।
  • अल्पसंख्यक सुरक्षा के लिए व्यक्तिगत कानून: भारत मुसलमानों, ईसाइयों और पारसियों को व्यक्तिगत कानून बनाए रखने की अनुमति देता है, जिससे अल्पसंख्यकों को सुरक्षित महसूस करने में मदद मिलती है – एक ऐसा दृष्टिकोण जो समान नागरिक कानूनों वाली पश्चिमी प्रणालियों में अनुपस्थित है।
  • मूल संवैधानिक धर्मनिरपेक्ष मानदंड: सांस्कृतिक समायोजन के बावजूद, भारतीय संविधान यह आदेश देता है कि राज्य का कोई धर्म नहीं है, धार्मिक करों पर प्रतिबंध लगाता है, और सरकारी स्कूलों में धार्मिक शिक्षा पर प्रतिबंध लगाता है (अनुच्छेद 28)।

संविधान में मान्यता प्राप्त खामियां

  • शक्तिशाली कार्यपालिका: निवारक निरोध और राजद्रोह के आधुनिक समकक्ष जैसे औपनिवेशिक युग के प्रावधान कार्यपालिका को अत्यधिक विवेकाधीन शक्ति प्रदान करते हैं।
  • आपातकालीन प्रावधान और अधिकार निलंबन: आपातकालीन प्रावधान अधिकारों के अस्थायी निलंबन को सक्षम करते हैं और स्वतंत्रता पर व्यवस्था बनाए रखने के औपनिवेशिक तर्क को प्रतिबिंबित करते हैं।
  • योग्य मौलिक अधिकार: भारत में मौलिक अधिकार निरपेक्ष नहीं हैं और इनमें उचित प्रतिबंध शामिल हैं, जिससे राज्य को व्यक्तिगत स्वतंत्रता में हस्तक्षेप को उचित ठहराने की पूरी छूट मिल जाती है।

निष्कर्ष

भारत का संविधान 76 वर्षों से इसलिए कायम है क्योंकि यह राज्य के अत्याचार और सामाजिक अत्याचार, दोनों को विशिष्ट रूप से संबोधित करता है। एक असमान समाज में, समानता के लिए हाशिए पर पड़े समूहों के साथ संवेदनशील व्यवहार आवश्यक है, जो यह सिद्ध करता है कि एकता के लिए एकरूपता की आवश्यकता नहीं होती।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: भारतीय संविधान की अक्सर ‘उधार का थैला’ कहकर आलोचना की जाती है, फिर भी राज्य और समाज के बीच संबंधों के प्रति अपने दृष्टिकोण में यह पश्चिमी संविधानवाद से अलग है। परिवर्तनकारी संविधानवाद की अवधारणा के संदर्भ में चर्चा कीजिए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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