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भारतीय न्याय व्यवस्था : 50 मिलियन से अधिक लंबित मामले

Lokesh Pal August 06, 2024 05:15 84 0

संदर्भ

हाल ही में, केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने संसद में बताया कि भारत भर में विभिन्न अदालतों में 50 मिलियन से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से लगभग 90% मामले जिला और अधीनस्थ अदालतों में हैं। जिससे यह मामला चर्चाओं में है। 

 

प्रारंभिक परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम (NJAC), न्यायाधीशों की नियुक्तियां, राष्ट्रीय मुकदमेबाजी नीति, आदि।

मुख्य परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: भारत की न्याय वितरण प्रणाली की प्रमुख समस्याएं, न्यायिक देरी की समस्या को दूर करने के लिए आवश्यक सुधार आदि।

न्याय मिलने में देरी:

  • केंद्रीय कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने संसद में बताया कि भारत भर में विभिन्न अदालतों में 50 मिलियन से अधिक मामले लंबित हैं, जिनमें से लगभग 90% मामले जिला और अधीनस्थ अदालतों में हैं।
  • न्याय प्रदान करने में देरी भारत में व्यापार को आसान बनाने और लोगों के जीवन को आसान बनाने में सबसे बड़ी बाधाओं में से एक है। 
  • यह लंबित मामला न केवल न्यायिक प्रणाली पर बोझ डालता है, बल्कि लाखों नागरिकों को समय पर न्याय मिलने से भी वंचित करता है, और इसका खामियाजा न केवल अर्थव्यवस्था को भुगतना पड़ता है, बल्कि समस्त नागरिक समाज को भी भुगतना पड़ता है।
  • हालांकि कानून मंत्री ने यह नहीं बताया कि हमारे न्यायाधिकरणों, राजस्व बोर्डों, उपभोक्ता अदालतों, सूचना आयोगों आदि में भी लगभग 50 मिलियन मामले लंबित हैं।

सरकार और न्यायपालिका के प्रभावी कदम  

  • अधिकांश मामलों में, केंद्र और राज्य सरकारें ही मुख्य वादी हैं।
  • केंद्रीय मंत्री ने घोषणा की है कि राष्ट्रीय मुकदमा नीति का मसौदा औपचारिक रूप से अपनाया जाएगा, जो मुकदमेबाजी को कम करने के लिए सभी सरकारी पक्षों को बाध्य करने का प्रयास करेगा।
  • कुछ राज्यों में पहले से ही मुकदमेबाजी नीतियां लागू हैं, जबकि कर्नाटक में मुकदमेबाजी कानून मौजूद है।
  • सरकारें लंबित मामलों को बढ़ने से पहले उनके निपटान के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचे और कर्मचारियों की उपलब्धता सुनिश्चित कर सकती हैं, जिसमें अदालतों और न्यायाधिकरणों को शिफ्ट प्रणाली में न्यूनतम ब्रेक के साथ चलाना शामिल है।
  • सरकारों को भारतीय अदालतों और न्यायाधिकरणों पर बोझ कम करने के लिए न्यायपालिका और अर्ध-न्यायिक निकायों, जैसे सुलह तंत्र, लोक अदालतों, ग्रामीण न्यायालयों आदि के साथ मिलकर वैकल्पिक विवाद निपटान प्रणालियों का समर्थन और स्थापना करनी चाहिए।
  • इसके साथ ही अनावश्यक मुकदमों व मुकदमेबाजों को रोकने के लिए कुछ निरुत्साहन भी होना चाहिए।
  • इस जटिल सुधार प्रणाली में न्यायाधीशों की चयन प्रक्रिया भी शामिल है।
  • आजकल सर्वोच्च एवं उच्च न्यायालयों में न्यायाधीशों की नियुक्ति कॉलेजियम प्रणाली द्वारा की जाती है, जिसके अंतर्गत नियुक्तियाँ आंतरिक भाई-भतीजावाद प्रणाली से अधिक होते हैं।
  • यही कारण है कि भारत में केवल 350 ‘न्यायिक परिवारों’ में से अस्पष्ट तरीके से न्यायाधीशों की नियुक्ति की जा रही है।
  • कुछ मामलों में पक्षपात का भी आरोप लगाया गया है।
  • इस समस्या का समाधान राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम (NJAC) के माध्यम से करने का प्रयास किया गया था, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने इसे रद्द कर दिया , क्योंकि इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता के विरुद्ध पाया गया।
  • यदि विश्व न्याय व्यवस्था के स्तर पर देखें तो वहाँ न्यायाधीश कभी भी अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति का एकमात्र प्राधिकारी नहीं होते हैं ।
  • यदि वे नियुक्तियों में शामिल होते भी हैं तो उनमें जांच और संतुलन की व्यवस्था होती है।
  • सम्भव है कि भारत सरकार राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम को रद्द किये जाने से असन्तुष्ट है, तथा न्यायिक नियुक्तियों में देरी हो रही है।
  • संसद द्वारा इस अधिनियम को पुनर्जीवित किया जाना चाहिए, जो देश में सर्वोच्च प्राधिकरण है, ताकि लोगों की इच्छा को प्रतिबिंबित किया जा सके। न्यायाधीशों को आकर्षित करने के लिए बेहतर सुविधाएं व पारदर्शी नियुक्तियाँ दी जानी चाहिए और लैंगिक संतुलन सुनिश्चित किया जाना चाहिए।
  • उदाहरण के लिए, उपभोक्ता अदालतों के लिए एक सेवानिवृत्त नौकरशाह और जिला न्यायाधीश के साथ एक महिला सदस्य की नियुक्ति करना अनिवार्य है ।
  • निचली अदालतों के मामले में, न्यायाधीश राज्य न्यायिक सेवा से आते हैं, जबकि न्यायाधिकरणों और न्याय-निर्णयन आयोगों के सदस्यों की नियुक्ति सेवानिवृत्त न्यायाधीशों और नौकरशाहों में से की जाती है, जिसमें अस्पष्टता और पक्षपात प्रमुख समस्याएं हैं।
  • अधिकांश सेवानिवृत्त कर्मचारी अपने कर्तव्यों का निर्वहन करते समय उदारता बरतते हैं और प्रायः अपनी ड्यूटी के समय की आवश्यकताओं को भी पूरा नहीं कर पाते। इससे विलम्ब बढ़ता है।
  • हमारी व्यवस्था में, कोई प्रभावी पर्यवेक्षण नहीं है ।
  • न्यायपालिका के पास कुछ विशेषाधिकार हैं जो उसके लिए विशेष हैं। उदाहरण के लिए, औपनिवेशिक व्यवस्था के तहत अदालतें गर्मियों और सर्दियों में छुट्टियां रखती थी।
  • स्वतंत्रता के बाद, सौभाग्यवश हमने विग पहनने की औपनिवेशिक विरासत को छोड़ दिया, लेकिन राज-युग के न्यायाधीशों द्वारा ली जाने वाली उदार छुट्टियों को नहीं छोड़ा।
  • ये छुट्टियाँ, न्यायाधीशों के आकस्मिक और वार्षिक अवकाश के अतिरिक्त है ।
  • किसी भी अन्य सार्वजनिक संस्थान की तरह, हमारी अदालतों को भी सार्वजनिक अवकाशों को छोड़कर प्रतिदिन काम करना चाहिए।
  • यह तर्क कि न्याय करना अत्यधिक तनावपूर्ण है, सही नहीं है, क्योंकि डॉक्टर, पुलिस अधिकारी और अन्य लोग काफी लम्बे समय तक तनावपूर्ण परिस्थितियों में काम करते हैं।
  • बार-बार स्थगन की प्रक्रिया को रोकना चाहिए इससे बिलंब और बढ़ जाता है।
  • वर्तमान में, अधिकतम तीन बार स्थगन का नियम अधिकतर उल्लंघन के मामलों में अपनाया जाता है।
  • कुछ मामलों में, जब न्यायाधीशों ने इस नियम को सख्त करने का प्रयास किया, तो वकीलों ने विभिन्न तरीकों से इसके खिलाफ आंदोलन किया, अदालतों का बहिष्कार किया, न्यायाधीशों के खिलाफ शिकायत की और यहां तक ​​कि हड़ताल पर चले गए (जो कि अवैध है)।
  • हरीश उप्पल बनाम भारत संघ (2003) मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वकीलों को किसी भी परिस्थिति में हड़ताल नहीं करनी चाहिए या अदालती काम विघ्न नहीं डालना चाहिए।
  • इससे ज्ञात होता है कि अब तक भी भारत में कोई प्रभावी न्यायालय प्रबंधन प्रणाली नहीं अपनाई जा रही है ।
  • विकसित देशों में , न्यायाधीश मामले के दाखिले के चरण में ही दोनों पक्षों के वकीलों को बुलाकर समयसीमा पर सहमति बनाते हैं, ताकि जहां तक ​​संभव हो, मामलों का निपटारा पूर्व-निर्धारित समय-सीमा के भीतर हो सके।
  • अब उन्नत तकनीक के कारण मामलों का तेजी से निपटारा किया जा सकता है
  • कोविड काल ने दिखा दिया है कि मामलों की सुनवाई और निर्णय वर्चुअली अर्थात ऑनलाइन माध्यम से किया जा सकता है।
  • इससे भारत की अदालती बुनियादी संरचना की समस्या को भी कुछ हद तक कम करने में मदद मिलेगी।
  • न्याय वितरण प्रणाली में व्यापक सुधार न केवल भारतीय न्यायालयों पर बोझ को हल्का करने के लिए आवश्यक हैं, बल्कि जनता का विश्वास बहाल करने के लिए भी आवश्यक हैं।
  • भारत जैसे विविधतापूर्ण और जनसंख्या वाले देश में सामाजिक व्यवस्था बनाए रखने और लोकतांत्रिक सिद्धांतों को कायम रखने के लिए समय पर और कुशल न्याय आवश्यक है।

निष्कर्ष:

भारत की न्याय प्रणाली में सुधार के लिए बुनियादी ढांचे को बढ़ाने, कुशल केस प्रबंधन अपनाने, न्यायाधीशों की नियुक्तियों को संशोधित करने और सभी के लिए समय पर, सुलभ और निष्पक्ष न्याय सुनिश्चित करने के लिए प्रौद्योगिकी का लाभ उठाने की आवश्यकता है।

मुख्य परीक्षा पर आधारित प्रश्न:

प्रश्न: भारत की न्याय वितरण प्रणाली को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण मुद्दों की जांच करें और न्यायिक देरी की समस्या को दूर करने के लिए व्यापक सुधारों का सुझाव दें। चर्चा करें कि ये सुधार भारत में व्यापार करने की आसानी और जीवन जीने की आसानी को बेहतर बनाने में कैसे योगदान दे सकते हैं।                           

(15 अंक, 250 शब्द)

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