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न्यायिक प्रयोगवाद बनाम न्याय का अधिकार

Lokesh Pal September 17, 2025 05:30 135 0

संदर्भ:

धारा 498A/ भारतीय न्याय संहिता (BNS) 85 के मामलों में दो महीने की ‘कूलिंग पीरियड’ और परिवार कल्याण समिति को भेजने की सर्वोच्च न्यायालय की मंजूरी को न्यायिक अतिक्रमण के रूप में देखा जा रहा है।

  • इस उपाय की आलोचना पीड़ितों के त्वरित न्याय पाने के अधिकार को कमजोर करने तथा आपराधिक न्याय एजेंसियों की स्वायत्तता को प्रभावित करने के लिए की जाती है।

आईपीसी धारा 498A ( अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 85) की पृष्ठभूमि:

  • संदर्भ: 1980 के दशक में दहेज से संबंधित हत्या और विवाहित महिलाओं के खिलाफ क्रूरता में वृद्धि के कारण इसे शुरू किया गया था, जिसे अक्सर दुर्घटनाओं के रूप में छिपाया जाता था।
  • उद्देश्य: महिलाओं को विवाहोत्तर क्रूरता से बचाने के लिए एक कठोर कानून प्रदान करना, जो आवाजहीन लोगों के लिए “सुरक्षा कवच” के रूप में कार्य करेगा।
  • प्रावधान: क्रूरता को मानसिक या शारीरिक यातना, आत्महत्या के लिए उकसाना, या पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा दहेज के लिए उत्पीड़न के रूप में परिभाषित किया गया है।
  • प्रकृति: यह एक संज्ञेय अपराध था (पुलिस बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती थी) और गैर-जमानती (जमानत अधिकार नहीं था, बल्कि न्यायालय के विवेक पर निर्भर था), जिससे यह एक कठोर कानून बन गया।

प्रावधानों का दुरुपयोग: 

  • छोटे-मोटे विवादों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना: कभी-कभी छोटे-मोटे वैवाहिक मतभेदों को इतना बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता था कि उसमें पूरा परिवार शामिल हो जाता था
  • झूठे मामले दर्ज करना: कभी-कभी झूठी शिकायतें दर्ज की जाती थीं, जैसे विवाहेतर संबंधों से संबंधित मामले
  • दुरुपयोग की न्यायिक मान्यता: सर्वोच्च न्यायालय ने वैवाहिक क्रूरता कानूनों के दुरुपयोग को “कानूनी आतंकवाद” कहा, तथा इसके गंभीर सामाजिक और कानूनी परिणामों पर प्रकाश डाला।

न्यायपालिका का संतुलन अधिनियम:

  • प्रक्रियागत सुरक्षा उपाय: असली पीड़ितों की रक्षा करते हुए दुरुपयोग को रोकने के लिए, न्यायपालिका ने प्रक्रियागत सुरक्षा उपायों को लागू किया।
  • ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2014): सर्वोच्च न्यायालय ने वैवाहिक विवादों में प्राथमिकी दर्ज करने से पहले पुलिस द्वारा प्रारंभिक जांच अनिवार्य कर दी।
    • इसका उद्देश्य आरोपों की गंभीरता का आकलन करना तथा गलत मामलों के पंजीकरण को रोकना था।
  • अर्नेश कुमार बनाम बिहार राज्य (2014): सर्वोच्च न्यायालय ने 498A मामलों में पुलिस की गिरफ्तारी की शक्ति को प्रतिबंधित कर दिया
    • पुलिस अब FIR दर्ज होने पर तत्काल गिरफ्तारी नहीं कर सकती
    • इसके बजाय, उन्हें एक चेकलिस्ट (जैसे, गिरफ्तारी की आवश्यकता, अभियुक्त के फरार होने का जोखिम या साक्ष्य के साथ छेड़छाड़) का उपयोग करके गिरफ्तारी को उचित ठहराना था।
    • अन्यथा, उन्हें धारा 41A के तहत नोटिस जारी करना था, जिससे “अनावश्यक गिरफ्तारियों” को रोका जा सके।

इन निर्णयों का प्रभाव:

  • धारा 498 A (अब भारतीय न्याय संहिता की धारा 85) के तहत पंजीकृत अपराधों की संख्या 2015 में 1,13,403 से बढ़कर 2022 में 1,40,019 हो जाने के बावजूद, इसी अवधि के दौरान गिरफ्तारियां 1,87,067 से घटकर 1,45,095 हो गईं।

इलाहाबाद उच्च न्यायालय का “कूलिंग-ऑफ पीरियड”:

  • मुकेश बंसल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2022): इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक नया “प्रयोग” पेश किया: ऐसे मामलों में प्राथमिकी (FIR) दर्ज होने के बाद 2 महीने की “कूलिंग-ऑफ पीरियड”।
    • इस अवधि के दौरान पति या उसके रिश्तेदारों के खिलाफ कोई गिरफ्तारी या जबरन कार्रवाई नहीं की जानी थी।
    • इसके बजाय, मामले को परिवार कल्याण समिति (जिसमें सामाजिक कार्यकर्ता, सेवानिवृत्त अधिकारी शामिल होंगे) को भेजा जाना था ताकि दोनों पक्षों के बीच मध्यस्थता की जा सके और पुलिस द्वारा आगे की कार्रवाई करने से पहले एक रिपोर्ट प्रस्तुत की जा सके।
  • शिवांगी बंसल बनाम साहिल बंसल (जुलाई 2025) वाद: बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तावित इस मॉडल का समर्थन किया।

“कूलिंग-ऑफ पीरियड” की समस्याएं:

  • विलंबित न्याय: गंभीर यातना या आत्महत्या के लिए उकसावे का सामना करने वाले वास्तविक पीड़ितों के लिए, 2 महीने की कूलिंग-ऑफ पीरियड एक “निराशाजनक अवधि” में तब्दील हो जाती है, जहां तत्काल मदद से इनकार कर दिया जाता है।
  • कानूनी विशेषज्ञता और स्थिति का अभाव:परिवार कल्याण समितियों में अक्सर कानूनी अनुभव का अभाव होता है, तथा उनका गठन और कानूनी स्थिति अस्पष्ट होती है।
  • पुलिस कार्य में हस्तक्षेप: जाँच पुलिस का संवैधानिक कर्तव्य है, ऐसी गैर-वैधानिक समितियों का नहीं, जो अनुचित हस्तक्षेप है।

इतिहास खुद को दोहरा रहा है- “न्यायिक प्रयोगवाद”

  • राजेश शर्मा वाद (2017): सर्वोच्च न्यायालय ने पहले भी परिवार कल्याण समितियों के गठन के संबंध में इसी तरह के निर्देश जारी किए थे।
    • इस निर्णय को महिला अधिकार समूहों की ओर से व्यापक विरोध का सामना करना पड़ा था, जिन्होंने इसे “प्रतिगामी” तथा पीड़ितों के लिए न्याय के दरवाजे बंद करने वाला माना था।
  • मानव अधिकार मामले के लिए सामाजिक कार्रवाई मंच (2018): एक वर्ष के भीतर, सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने अपने ही निर्णय (राजेश शर्मा) को पलट दिया, जिसमें कहा गया कि परिवार कल्याण समितियों का विचार त्रुटिपूर्ण था।

निष्कर्ष:

  • सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इसी प्रकार के मॉडल को वर्तमान में समर्थन देना, जबकि न्यायालय ने पहले इसे अस्वीकार कर दिया था, “न्यायिक प्रयोगवाद” तथा वास्तविक पीड़ितों पर इसके संभावित प्रभाव के बारे में चिंताएं उत्पन्न करता है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: न्यायपालिका ने अक्सर भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के दुरुपयोग और अभियुक्तों के अधिकारों के बीच संतुलन बनाने का प्रयास किया है। इस आलोक में, ‘कूलिंग पीरियड’ और ‘परिवार कल्याण समितियों’ जैसे उपायों के हालिया न्यायिक समर्थन का आलोचनात्मक परीक्षण कीजिए। क्या ‘न्यायिक प्रयोगवाद’ के ऐसे उदाहरण पीड़ित के समय पर न्याय पाने के मौलिक अधिकार को कमजोर करते हैं? (15 अंक, 250 शब्द)

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