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कर्नाटक आरक्षण विधेयक

Lokesh Pal July 26, 2024 05:00 75 0

संदर्भ: 

हाल ही में, कर्नाटक आरक्षण विधेयक की लगभग सर्वत्र आलोचना हुई है तथा इसने इतना विवाद उत्पन्न कर दिया है कि राज्य सरकार को इसे रोककर आश्वासन जारी करने पर बाध्य होना पड़ा।

प्रारंभिक परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: आवागमन की स्वतंत्रता, काम करने का अधिकार, संघवाद, राष्ट्रीय विकास परिषद, आदि। 

मुख्य परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: स्थानीय नौकरियों में आरक्षण नीतियाँ, संघवाद और आर्थिक असमानताएँ, क्षेत्रीय आकांक्षाओं को सम्बोधित करने के उपाय, आदि।

कर्नाटक राज्य आरक्षण विधेयक:

  • कर्नाटक राज्य आरक्षण विधेयक (2024) उद्योगों, कारखानों और अन्य प्रतिष्ठानों में स्थानीय उम्मीदवारों को रोजगार, प्रबंधन श्रेणियों और गैर-प्रबंधन श्रेणियों में क्रमशः 50% और 70% आरक्षण अनिवार्य करता है।
  • वर्तमान में जिस तरह से विधेयक का मसौदा तैयार किया गया है, वह बहुत कठोर प्रतीत होता है अतः इसके कुछ प्रावधानों पर पुनर्विचार की आवश्यकता हो सकती है। 
  • हालांकि, अंतर्निहित मुद्दों अर्थात् भारत में नौकरियों का बढ़ता संकट और क्षेत्रीय सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के बारे में गहन चर्चा की आवश्यकता है, इससे पहले कि इसे बिना सोचे-समझे खारिज कर दिया जाए।

असमान विकास का नकारात्मक पक्ष:

  • भारत को विश्व में सबसे तेजी से उभरती हुई वृहद अर्थव्यवस्था होने का गौरव प्राप्त है। साथ ही इसकी सबसे बड़ी आबादी युवा भी है।
  • यह एक सुखद परिस्थिति होगी यदि इस मॉडल को युवाओं को उत्पादक रूप में पहचानकर, रोजगार प्रदान करने के लिए बड़ी संख्या में नौकरियां प्रदान की जाएं।
  • इसके बजाय, उच्च स्तरीय सेवाओं पर आधारित विकास मॉडल ने विकास और रोजगार को अलग कर दिया है।
  • यह स्थिति लंबे समय से बन रही है: वैश्वीकरण, वित्तीयकरण और तकनीकी प्रगति ने पूँजी और उच्च कुशल व्यक्तियों के एक छोटे समूह को असाधारण लाभ प्राप्त करने की अनुमति दी है, जबकि वैश्विक स्तर पर श्रमिक वर्ग की कमाई करने की क्षमता में गिरावट देखी गई है।
  • इस प्रवृत्ति के राजनीतिक दुष्परिणाम दुनिया भर में दिखाई देखे जा सकते हैं। 
  • विकसित देशों में, यह अन्य बातों के साथ-साथ, आप्रवासन के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में प्रकट होता है; भारत में, यह आंशिक रूप से क्षेत्रवाद और अंतर-राज्यीय प्रवासन के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में सामने आ रहा है।
  • यद्यपि विकसित देशों में उदारवादी दलों द्वारा आप्रवासन के पक्ष में तर्क दिया जाता रहा है, लेकिन यह मुख्यतः मेजबान देश के लिए उपयोगितावादी दृष्टिकोण से रहा है, ताकि अप्रिय नौकरियों के लिए श्रमिकों की कमी को दूर किया जा सके, तथा वृद्ध होती जनसंख्या की भरपाई की जा सके।
  • यद्यपि उपयोगितावादी दृष्टिकोण के वैश्विक रुझान महत्वपूर्ण हैं, भारत में स्थिति भिन्न और अधिक जटिल है।
  • भारतीय संविधान भारत में कहीं भी आवागमन की स्वतंत्रता तथा काम करने के अधिकार की गारंटी देता है; इस प्रकार की अधिवास सम्बन्धी आवश्यकताएं संकीर्णता को बढ़ावा देती हैं तथा राष्ट्रीय एकता के विरुद्ध नजर आती हैं।
  • साथ ही, स्थानीय आरक्षण को बढ़ावा देना राज्य के राजनीतिक नेतृत्व द्वारा अपने मतदाताओं के प्रति उत्तरदायी होने का एक प्रयास है।
  • स्थानीय आकांक्षाओं और राष्ट्रीय एकता के मध्य यह तनाव भारतीय राजनीति में गहन चर्चा का विषय बनता जा रहा है, जो धन के हस्तांतरण, परिसीमन और राज्य की अधिवास सम्बन्धी आवश्यकताओं के प्रश्नों में स्पष्ट दिखाई देता है।

जवाबदेही का मुद्दा:

  • इस बहस के केंद्र में संघवाद और राजनीतिक जवाबदेही का सवाल है। 
  • ऐसी पहलों की राजनीतिक जवाबदेही उच्च कौशल की आवश्यकता वाले अनेक पदों के लिए आरक्षण से नहीं, बल्कि बड़े पैमाने पर अकुशल नौकरियों से आती है।
  • यह उल्लेखनीय है कि सभी स्थानीय आरक्षण पहल एक श्रेणीबद्ध पैमाने को अपनाती हैं, जिसमें अकुशल नौकरियों के लिए लगभग सार्वभौमिक आरक्षण और निचले स्तरों पर उच्च कौशल स्तरों के लिए आरक्षण होता है।

इससे उत्पन्न दो महत्वपूर्ण सवाल : 

  • अकुशल नौकरियों के लिए बड़े पैमाने पर पलायन को कौन से कारक प्रेरित करते हैं, जो आसानी से स्थानीय स्तर पर लागू किये जा सकते हैं?
  • स्थानीय आरक्षण के प्रति उद्योग जगत का विरोध केवल उच्च कौशल वाली नौकरियों तक ही सीमित क्यों नहीं है, जो यह दर्शाता है कि अकुशल नौकरियों के लिए प्रवासी श्रमिकों को प्राथमिकता दी जा रही है, भले ही स्थानीय लोग इच्छुक और सक्षम क्यों न हों?
  • पहले प्रश्न के उत्तर की स्पष्टता : बड़े पैमाने पर अकुशल प्रवासन स्वेच्छा से किया जाने वाला प्रवासन नहीं है, बल्कि संकटपूर्ण प्रवासन है, जो कुछ राज्य सरकारों द्वारा अपने क्षेत्रों का समुचित विकास करने में असमर्थता के कारण होता है।
  • हम नागरिक प्रवासन के लिए राष्ट्रीय एकता और संवैधानिक दृष्टिकोण अपना सकते हैं और हमें ऐसा करना भी चाहिए, लेकिन यह बौद्धिक रूप से बेईमानी होगी यदि हम विकास की दीर्घकालिक कमी के लिए राजनीतिक जवाबदेही के प्रश्न को नजरअंदाज करने के लिए ऐसा करते हैं।

दृष्टिकोण :

  • इसमें कोई संदेह नहीं है कि सभी राज्यों को वृहद भारतीय संघ का हिस्सा होने से आर्थिक और सांस्कृतिक लाभ मिलता है और इस प्रकार उनकी सम्पूर्ण देश और उसके लोगों के प्रति न्याय प्रदान करने, भेदभावपूर्ण बर्ताव न करने की जिम्मेदारी है।
  • हालाँकि, यह मुद्दा इतना गंभीर है कि इसे केवल बयानबाजी, राजनीतिक स्वार्थ या महज आक्रोश आदि की नजर से नहीं समझा जा सकता। 

आगे की राह 

  • आगे बढ़ने के लिए, अधिक व्यापक अभ्यास की आवश्यकता है, जिसके लिए कुछ महत्वपूर्ण कदम इस प्रकार हैं: 
  • सबसे पहले, भारत के रोजगार संकट को तत्काल दूर करने के लिए हमारे राजनीतिक वर्ग, कॉर्पोरेट क्षेत्र, नागरिक समाज को शामिल करते हुए एक वास्तविक राष्ट्रीय चर्चा होनी चाहिए।
    • दीर्घकालिक प्रतिक्रिया डेटा धोखाधड़ी, बेरोजगारी भत्ते या घुटने टेकने हेतु मजबूर करने वाला क्षेत्रवाद नहीं हो सकती है। 
    • राष्ट्रीय स्तर पर, यह स्पष्ट है कि वर्तमान कौशल और उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन हस्तक्षेप और अनेक चुनौतियों का सामना करने के लिए अपर्याप्त हैं। 
    • इसी तरह, राज्य स्तर पर, यह तथ्य कि राजनीतिक जवाबदेही डोमिसाइल कोटा में दिखाई देती है, रोजगार के पर्याप्त रूप से बढ़ने के बारे में चिंता का संकेत है।
  • दूसरा, हमें बड़े पैमाने पर संकटपूर्ण प्रवासन और कुछ राज्यों में विकास की व्यापक कमी के लिए राजनीतिक जवाबदेही को सामने रखना होगा।
    • यह राजनीतिक जवाबदेही राज्य और राष्ट्रीय नेतृत्व दोनों तक विस्तारित होनी चाहिए।
  • तीसरा, संघवाद और राष्ट्रीय एकता के प्रश्नों के लिए संस्थागत प्रतिक्रिया और अधिक राजनीतिक परिपक्वता दोनों की आवश्यकता है।
    • कमजोर पड़ चुकी राष्ट्रीय विकास परिषद को पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है।
  • अंत में, कॉर्पोरेट क्षेत्र को अकुशल श्रमिकों के कार्य मानकों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए, न कि उसे अपने लाभ के लिए श्रमिकों की अनिश्चितता का लाभ उठाने की अनुमति दी जानी चाहिए।
    • कर्नाटक आरक्षण विधेयक अनेक समस्याओं का एक लक्षण मात्र है।
    • जबकि विधेयक को स्थगित रखा जा सकता है या फिर से तैयार किया जा सकता है, लेकिन अंतर्निहित मुद्दों को हमारे विमर्श और राजनीति में सबसे आगे रखना होगा।
    • इस चुनौती के प्रति हमारी प्रतिक्रिया भारत के आर्थिक विकास, सामाजिक सामंजस्य और राजनीतिक स्थिरता के भविष्य को आकार देगी।

निष्कर्ष: 

भारत के रोजगार संकट और क्षेत्रीय असमानताओं को दूर करने के लिए राष्ट्रीय बहस, राजनीतिक जवाबदेही और कॉर्पोरेट जिम्मेदारी की आवश्यकता है ताकि सतत विकास, सामाजिक सामंजस्य और राजनीतिक स्थिरता सुनिश्चित की जा सके।

मुख्य परीक्षा पर आधारित प्रश्न:

प्रश्न: विभिन्न राज्यों द्वारा लागू की गई स्थानीय नौकरी आरक्षण नीतियों ने संघवाद और आर्थिक असमानताओं पर बहस छेड़ दी है। ऐसी नीतियों के कारणों और निहितार्थों की आलोचनात्मक जांच करें और राष्ट्रीय एकता बनाए रखते हुए क्षेत्रीय आकांक्षाओं को हल  करने के उपाय सुझाएँ। 

(15 अंक, 250 शब्द)

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