प्रारंभिक परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: कच्चातिवू द्वीप, ज़ोमिया और खुरासान।
मुख्य परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: भारत यूरोप एफटीए, भारतीय विदेश नीति चुनौतियाँ ।
संदर्भ:
पिछले दशक की भारतीय विदेश नीति यह पता चलता है कि दक्षिण प्रशांत से अफ़्रीकी तट तक द्वीप राज्य और क्षेत्र भारत के बदलते भू- रणनीति का केंद्र बन गए हैं।
खुरासान
ग्रेटर खुरासान: यह मध्य एशिया का क्षेत्र है जिसमें ईरान, अफगानिस्तान, तुर्कमेनिस्तान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान और पाकिस्तान के हिस्से शामिल हैं। इसका एक विशाल और समृद्ध इतिहास रहा है। फ़ारसी में इस नाम का अनुवाद “उगते सूरज की भूमि” से है।
खुरासान प्रांत (पूर्व): उत्तरपूर्वी ईरान में यह प्रांत 2004 तक अस्तित्व में था, जब इसे तीन नए प्रांतों में विभाजित किया गया था। यह लगभग पुराने ग्रेटर खुरासान के पश्चिमी भाग के बराबर है।
ज़ोमिया:
अर्थ: ज़ोमिया शब्द दक्षिण पूर्व एशिया के एक विशाल, पहाड़ी क्षेत्र को संदर्भित करता है।
अवधारणा: यह मानचित्र पर एक मान्यता प्राप्त देश नहीं है, बल्कि एक भौगोलिक और सांस्कृतिक धारणा है। यह मुख्य भूमि दक्षिण पूर्व एशिया के उच्चभूमि को संदर्भित करता है, जो लंबे समय से केंद्रीकृत सरकारों से स्वतंत्र हैं।
विशेषताएँ: यह म्यांमार, लाओस, थाईलैंड और वियतनाम सहित कई देशों के एक बड़े क्षेत्र (लगभग 2.5 मिलियन वर्ग किलोमीटर) को कवर करता है। यह विभिन्न प्रकार के जातीय समुदायों का निवास स्थल है, जिनमें से प्रत्येक की अपनी अलग भाषा और रीति-रिवाज हैं।
कच्चातिवू द्वीप
राजनीतिक एजेंडा: भारत और श्रीलंका के मध्य जल की संकीर्ण पट्टी में एक द्वीप, कच्चातिवू है।
इस द्वीप पर भारत का ध्यान, तमिलनाडु के चुनावी मानचित्र में सत्तारूढ़ सरकार द्वारा हस्तक्षेप के एक हिस्से के रूप में है ।
नई सीमाओं की खोज: पिछले दशक के दौरान भारतीय विदेश नीति का विकास हुआ है। दक्षिण प्रशांत से लेकर अफ्रीकी तट तक के द्वीप राज्य और क्षेत्र अब भारत के विकसित हो रहे रणनीतिक मानचित्र का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।
द्वीपों का महत्त्व: भारत के भू-राजनीतिक वातावरण में द्वीपों का महत्त्व बढ़ गया है, जो इन पर बढ़ते फोकस में दिखाई देता है:
चीन के साथ समुद्री मुद्दों के मध्य मालदीव या संसाधन संपन्न पापुआ न्यू गिनी के साथ अधिक जुड़ाव, मॉरीशस में सहकारी बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं से लेकर ऑस्ट्रेलिया के साथ हिंद महासागर में सहयोग।
इंडो-पैसिफिक अवधारणा को अपनाना
अवधारणा की उत्पत्ति: “इंडो-पैसिफिक” की धारणा पहली बार वर्ष 2007 के दौरान भारतीय संसद में एक भाषण के दौरान दिवंगत जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे द्वारा प्रस्तुत की गई थी।
प्रारंभिक विरोध: प्रारंभ में, भारत में इंडो-पैसिफिक अवधारणा का विरोध किया गया था। कुछ संशयवादियों ने इसे “अमेरिकी साजिश” के रूप में देखा।
औपचारिक रूप से अपनाना: भारत को इंडो-पैसिफिक अवधारणा को औपचारिक रूप से स्वीकार करने में तकरीबन एक दशक से अधिक समय लग गया।
2018 में, प्रधानमंत्री ने सिंगापुर के वार्षिक शांगरी ला डायलॉग में एक भाषण के दौरान प्रस्ताव के लिए भारत के समर्थन की घोषणा की।
इंडो-पैसिफिक में शामिल होने के कारण: चीन के साथ संबंधों में गिरावट, जैसा कि कई सैन्य संकटों से देखा गया, और संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ विकासशील रणनीतिक सहयोग इस विकल्प में महत्वपूर्ण कारण थे।
संस्थागतकरण: भारत में इंडो-पैसिफिक क्षेत्र की अवधारणा पर व्यापक रूप से चर्चा की जाती है। क्वाड, इसका संस्थागत एंकर, जिसमें ऑस्ट्रेलिया, भारत, जापान और संयुक्त राज्य अमेरिका शामिल हैं।
यह एक शक्तिशाली समूह है जो दर्शाता है कि ये देश कैसे सहयोग करते हैं और साझा उद्देश्य साझा करते हैं।
यूरोप की पुनः खोज
यूरेशिया का प्रभाव: रूस यूरेशिया को अपना प्राकृतिक क्षेत्र मानता है। रूस और चीन के नेतृत्व वाला शंघाई सहयोग संगठन (SCO) इस आदर्श का प्रतीक है।
भारत की भागीदारी: 2017 में, महाद्वीपीय एशिया में अपने हितों को पहचानते हुए और रूस के साथ अपने संबंधों को मजबूत करते हुए, भारत एससीओ में शामिल हो गया।
विस्तार: प्रारंभ में आंतरिक एशिया पर केंद्रित, यूरेशिया में भारत की रुचि अब यूरोप तक फैल गई है, जो एक महत्वपूर्ण बदलाव को दर्शाता है।
यूरोप की पुनः खोज: हाल के वर्षों में, भारत के विदेशी संबंधों में यूरोप का अधिक महत्वपूर्ण होना एक बदलाव का संकेत है।
व्यापार और समझौते
व्यापार गतिशीलता: भारत और यूरोप के मध्य व्यापार बढ़ रहा है। यूरोपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार समझौते की कमी के बावजूद, व्यापार, निवेश और प्रौद्योगिकी विनिमय में उल्लेखनीय वृद्धि दर्ज की गई है।
यूरोप भारत का दूसरा सबसे बड़ा वाणिज्यिक भागीदार और तीसरा सबसे बड़ा निर्यात गंतव्य स्थल के रूप में है।
हाल ही में, भारत ने EFTA के साथ एक मुक्त व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसमें आइसलैंड, लिकटेंस्टीन, नॉर्वे और स्विट्जरलैंड शामिल हैं।
विकास: फ्रांस भारत के लिए एक प्रमुख द्विपक्षीय भागीदार देश के रूप में उभरा है। \
समग्र रूप से यूरोप तेजी से महत्वपूर् होता जा रहा है।
भारत यूरोप की विविधता को पहचानता है, इस महाद्वीप को विविध क्षेत्रों के संग्रह के रूप में देखता है।
क्षेत्रीय फोकस: कई यूरोपीय क्षेत्र भारत के लिए काफी महत्त्व रखते हैं, विशेष रूप से नॉर्डिक क्षेत्र, नॉर्डिक-बाल्टिक गठबंधन, मेड 9 और काकेशस।
मध्य पूर्व के माध्यम से भारत और यूरोप के मध्य एक आर्थिक गलियारे की योजना, साथ ही अब्राहम समझौते और गाजा युद्ध जैसी घटनाएँ, इस क्षेत्र के साथ भारत के रिश्ते को बदल रही हैं।
एकीकृत परिप्रेक्ष्य: संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब के साथ भारत के गठबंधन, लाल सागर क्षेत्र में इसकी नौसैनिक उपस्थिति के साथ, मध्य पूर्व, अफ्रीका, पूर्वी भूमध्यसागरीय की अधिक एकीकृत तस्वीर को आकार देने में मदद कर रहे हैं।
रेनियन, और पश्चिमी हिंद महासागर, ये पहले के स्वतंत्र क्षेत्र अब परस्पर संबंधित माने जाते हैं।
भू-राजनीतिक फोकस में बदलाव:
संशोधित प्राथमिकताएँ: भारत अपना ध्यान “दक्षिण एशिया” से हटाकर पूर्वी उपमहाद्वीप में उप-क्षेत्रीय सहयोग और बंगाल की खाड़ी के आसपास अंतर-क्षेत्रीय सहयोग की ओर केन्द्रित कर रहा है।
पाकिस्तान सीपीईसी गलियारे के माध्यम से चीन के साथ वाणिज्यिक संबंध बना रहा है और आर्थिक मुद्दों के समाधान के लिए संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब से सहायता की माँग कर रहा है।
गतिशील क्षेत्र: क्षेत्र स्थिर नहीं हैं; वे राजनीति और अर्थव्यवस्था के अनुसार उतार-चढ़ाव को दर्शाते रहते हैं। महत्त्व पाने वाले दो नए क्षेत्र हैं “ज़ोमिया” और “ख़ुरासान”।
भारत की भागीदारी: जैसे-जैसे ज़ोमिया और खुरासान विकसित हो रहे हैं, उनके रणनीतिक महत्त्व के कारण भारत के भी इसमें शामिल होने का अनुमान है।
निष्कर्ष
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि भारत की विदेश नीति ऑडिट समुद्री अभिविन्यास और एक नई क्षेत्रीय सहभागिता योजना की ओर एक रणनीतिक बदलाव की ओर इशारा करता है। बताई गई चिंताओं को संबोधित करने के लिए एक बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जिसमें रणनीतिक संबंध, क्षेत्रीय सहयोग और बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य में सक्रिय भागीदारी इत्यादि शामिल हैं।
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