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मातृत्व लाभ: जीवन, स्वास्थ्य और समानता के अधिकार का अभिन्न हिस्सा

Lokesh Pal June 13, 2025 05:15 10 0

संदर्भ:

हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने मद्रास उच्च न्यायालय के उस फैसले को पलट दिया, जिसमें एक सरकारी स्कूल की शिक्षिका को उसके तीसरे बच्चे के लिए विभाग ने मातृत्व अवकाश देने से इनकार कर दिया था।

अन्य संबंधित तथ्य:

  • सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि मातृत्व अवकाश महिलाओं के प्रजनन अधिकारों का हिस्सा है और इसे संवैधानिक संरक्षण मिलना चाहिए।

मातृत्व लाभ और सामाजिक न्याय:

  • ऐतिहासिक महत्व: मातृत्व लाभ सामाजिक न्याय और कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के विकास से गहराई से जुड़े हुए महत्त्वपूर्ण प्रावधान हैं। वर्ष 1880 के दशक में इनकी शुरुआत हुई, वे नीति निर्माण में महिलाओं की भूमिका और कार्यबल तथा राज्य दोनों में उनकी समावेशिता की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम को दर्शाते हैं।
  • प्रारंभिक कल्याण मॉडल: जर्मनी और फ्रांस जैसे देशों ने जनसंख्या में गिरावट को रोकने और मातृ-शिशु स्वास्थ्य में सुधार के लिए मातृत्व लाभ की शुरुआत की, जिससे अधिक महिलाओं को औपचारिक कार्य संरचना में शामिल करने में मदद मिली।

प्रजनन संबंधी न्याय में वैश्विक प्रगति:

  • आईएलओ (ILO) की भूमिका: अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने 1919 में मातृत्व संरक्षण संधि को अपनाया, जिसमें निम्नलिखित प्रावधानों की वकालत की गई थी:
    •  12 सप्ताह का सवेतन मातृत्व अवकाश प्रदान किया जाना।
    •  गर्भावस्था से पहले और बाद में निःशुल्क चिकित्सकीय देखभाल प्रदान किया जाना।
    •  अवकाश के बाद नौकरी की सुरक्षा गारंटी देना।
    •  स्तनपान के लिए विश्राम अवकाश प्रदान किया जाना।
  • वैश्विक स्वीकार्यता: हालांकि आज विश्व के अधिकांश देशों ने इस संधि को अपनाया है, जो महिलाओं के सक्रिय आंदोलन और प्रजनन न्याय एवं श्रम अधिकारों की व्यापक मुहिम से प्रेरित है।

भारत के प्रारंभिक एवं विधायी प्रयास:

  • स्वतंत्रता से पूर्व की पहल: भारत में विधायी सक्रियता की शुरुआत मातृत्व लाभ अधिनियम (1929) से हुई, जिसे बी. आर. अम्बेडकर, एन. एम. जोशी और एम. के. दीक्षित ने बॉम्बे विधान परिषद में पेश किया था। यह कदम मुंबई की महिला वस्त्र मजदूरों की स्वास्थ्य आवश्यकताओं की प्रतिक्रिया में उठाया गया था।
  • उद्योग जगत से प्रतिरोध: मिल मालिकों ने इस कानून को अतिरिक्त आर्थिक बोझ बताते हुए विरोध किया, जिससे महिलाओं की नियुक्ति में हिचकिचाहट पैदा हुई। हालाँकि, निम्नलिखित प्रांतों में मातृत्व संबंधी कानून लागू किये गए:
    •  मद्रास (1934)
    •  उत्तर प्रदेश (1938)
    •  पश्चिम बंगाल (1939)
    •  असम (1944)
  • श्रम अधिकारों का संहिताबद्धकरण: 1940 और 50 के दशक में, बी.आर. अंबेडकर ने मातृत्व संरक्षण पर विशेष ध्यान देते हुए श्रम कानूनों के संहिताबद्धकरण का नेतृत्व किया। उनके प्रयासों ने कार्यस्थल में महिलाओं के अधिकारों के प्रति भारत की दीर्घकालिक प्रतिबद्धता की नींव रखी।

स्वतंत्रता के उपरांत की कानूनी संरचना:

  • मातृत्व लाभ अधिनियम 1961: मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 ने महिलाओं के रोजगार को विभिन्न क्षेत्रों में विनियमित किया – जिनमें सरकारी कार्यालय, निजी कंपनियाँ, कारखाने, खदानें, बागान और 10 या अधिक कर्मचारियों वाले दुकान और प्रतिष्ठान शामिल हैं – बच्चे के जन्म से पहले और बाद दोनों ही अवधियों के अंतर्गत।
  • मुख्य प्रावधान: 12 सप्ताह का सवेतन मातृत्व अवकाश
    •  मातृत्व अवकाश के दौरान बर्खास्तगी से सुरक्षा
    •  गर्भावस्था के दौरान कठिन काम से छूट
    •  प्रसव के बाद स्तनपान के लिए विश्राम अवकाश
  • मुख्य सुधार: हालांकि वर्ष 2017 के संशोधन ने इस अधिनियम के प्रावधानों का दायरा काफी बढ़ा दिया:
    •  26 सप्ताह का मातृत्व अवकाश
    •  50 या अधिक कर्मचारियों वाले कार्यस्थलों में क्रेच (बाल देखभाल केंद्र) की अनिवार्यता
    •  कार्यदिवस के दौरान क्रेच में बच्चे से मिलने का अधिकार
    •  नियुक्ति के समय मातृत्व लाभों की जानकारी देना नियोक्ताओं के लिए अनिवार्य किया गया
  • वैश्विक संरेखण: ये सुधार 2000 के ILO मातृत्व लाभ संधि के अनुरूप थे, जिनका उद्देश्य मातृ स्वास्थ्य को बेहतर बनाना और कार्यस्थल में महिलाओं की समावेशिता को बढ़ावा देना था।

पारिवारिक अवकाश में वैश्विक प्रथाएँ:

  • लैंगिक समावेशी नीतियाँ: कुछ देशों ने भुगतानयुक्त अभिभावक या पारिवारिक अवकाश जैसी नीतियों की शुरुआत करके इन्हें और आगे बढ़ाया है, जो दोनों माता-पिता को समर्थन प्रदान करता है और देखभाल की जिम्मेदारी को लैंगिक रूप से समावेशी बनाता है।
  • स्वीडन की अग्रणी पहल (1974): स्वीडन ऐसा पहला देश था जिसने लैंगिक-तटस्थ अभिभावक अवकाश की शुरुआत की, जिससे उस पारंपरिक धारणा को चुनौती दी गई कि देखभाल केवल महिलाओं की जिम्मेदारी है।
  • उत्तरी और पूर्वी यूरोप: नॉर्वे, फ़िनलैंड, डेनमार्क, आइसलैंड, एस्टोनिया, लातविया और यूक्रेन जैसे देश माता-पिता को एक वर्ष या उससे अधिक का सवेतन पारिवारिक अवकाश प्रदान करते हैं, जिससे कार्य और निजी जीवन के बीच संतुलन बना रहता है और जिम्मेदारियों को साझा करने को बढ़ावा मिलता है।
  • सवेतन अवकाश में कमी: विश्व में केवल आठ देश ऐसे हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर गारंटीकृत सवेतन पारिवारिक अवकाश प्रदान नहीं करते, इनमें शामिल हैं: संयुक्त राज्य अमेरिका, सुरिनाम, टोंगा, मार्शल आइलैंड्स, माइक्रोनेशिया, नाउरू, पलाउ और पापुआ न्यू गिनी

रोजगार में लैंगिक भेदभाव से संबंधित मुद्दे:

  • वर्तमान चर्चाएँ: सवेतन मातृत्व अवकाश के वित्तपोषण की जिम्मेदारी को लेकर राज्य बनाम नियोक्ता — लंबे समय से विवाद बना हुआ है। स्पष्ट सहमति के अभाव में, यह बोझ अक्सर महिलाओं पर ही पड़ता है, जिसके परिणामस्वरूप भर्ती और पदोन्नति के दौरान कार्यस्थल पर भेदभाव किया जाता है।
  • श्रम बल भागीदारी पर प्रभाव: आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (PLFS), 2022-23 के अनुसार, भारत में महिला श्रम बल भागीदारी मात्र 37% रही, जो महिलाओं के सामने मौजूद संरचनात्मक बाधाओं को दर्शाती है।
  • ऑक्सफैम इंडिया: ऑक्सफैम इंडिया द्वारा भारत भेदभाव रिपोर्ट 2022 से पता चलता है कि पुरुषों और महिलाओं के बीच रोजगार में अंतर का 98% हिस्सा लैंगिक भेदभाव के कारण है।
  • नियोक्ताओं की पक्षपातपूर्ण धारणा: महिलाओं को अक्सर उनकी देखभाल संबंधी और घरेलू जिम्मेदारियों के कारण कम भरोसेमंद माना जाता है, जिससे पक्षपातपूर्ण भर्ती प्रक्रियाएं और पदोन्नति संबंधी अनेक बाधाएं उत्पन्न होती हैं।

2017 के संशोधन के कार्यान्वयन संबंधी कमियाँ:

  • सीमित प्रयोज्यता: मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 एक प्रगतिशील कदम होने के बावजूद केवल औपचारिक क्षेत्र तक सीमित है, जहाँ भारत की कुल महिला श्रमिकों में से केवल 10% से भी कम संख्या कार्यरत हैं।
  • जागरूकता की कमी और कमजोर अनुपालन: अधिकांश महिलाएँ इस अधिनियम के अंतर्गत अपने अधिकारों से अनजान हैं। विशेष रूप से क्रेच जैसी सुविधाओं के प्रावधानों को लेकर नियोक्ताओं द्वारा अनुपालन अक्सर अपर्याप्त या उपेक्षित बना रहता है।
  • कानूनी प्रावधान: मातृत्व अवकाश के बाद घर से काम करने की अनुमति दी गई है, लेकिन इसका क्रियान्वयन कार्य की प्रकृति और नियोक्ता की इच्छा पर निर्भर करता है।
  • नियोक्ताओं पर निर्भरता: इसके परिणामस्वरूप, महिलाएँ अक्सर अपने कानूनी अधिकारों के लिए नियोक्ताओं पर निर्भर रहती हैं, जिससे ये प्रावधान व्यवहार में कम प्रभावी हो जाते हैं।
  • बहिष्कृत संबंधी मुद्दे: वर्तमान समय में, मातृत्व लाभ अधिनियम केवल औपचारिक क्षेत्र की महिलाओं को कवर करता है, जबकि घरेलू कार्य, कृषि, निर्माण और सड़कों के ठेला विक्रेता जैसे अनौपचारिक क्षेत्रों में कार्यरत अधिकांश भारतीय महिलाएँ इसके दायरे से बाहर रह जाती हैं।
  • प्रजनन अधिकारों पर संकट: अनौपचारिक क्षेत्र की महिलाओं को भी कार्यस्थल पर अपने प्रजनन अधिकारों की सुरक्षा की आवश्यकता है, जिससे इस क्षेत्र तक कानूनी प्रावधानों का विस्तार तत्काल जरूरी हो जाता है।
  • कार्यान्वयन संबंधी खामियाँ: निजी क्षेत्र में अक्सर मातृत्व लाभ अधिनियम का पूर्ण पालन नहीं किया जाता। इसके अलावा, संविदा (ठेके) पर नियुक्त कर्मचारियों को अक्सर इससे बाहर रखा जाता है, जबकि वे स्थायी कर्मचारियों जैसी ही शारीरिक और भावनात्मक चुनौतियों का सामना करते हैं।
  • दिल्ली उच्च न्यायालय का 2023 का निर्णय: एक महत्वपूर्ण मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि मातृत्व लाभ से इनकार करना अमानवीय है और यह संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन है।
    •  यह निर्णय दिल्ली विश्वविद्यालय द्वारा एक संविदा कर्मचारी को मातृत्व अवकाश के दौरान मनमाने ढंग से बर्खास्त करने के मामले में सुनाया गया था।
  • नौकरियों का संविदाकरण: जैसे-जैसे अधिक नौकरियाँ निजीकरण और संविदा आधारित होती जा रही हैं, यह सुनिश्चित करना आवश्यक हो गया है कि मातृत्व संरक्षण सभी श्रमिकों की श्रेणियों पर लागू हो, जिनमें संविदा कर्मचारी भी शामिल हैं।
  • पितृत्व अवकाश का अभाव: विश्व के अधिकांश प्रगतिशील देशों के विपरीत, भारत में पितृत्व या पारिवारिक अवकाश का कोई समग्र कानून नहीं है। अतः इससे पिता पितृत्व अवकाश से वंचित रहते हैं, जिससे उनकी देखभाल की जिम्मेदारी साझा करने की क्षमता सीमित होती है और यह जैविक आवश्यकतावाद पर आधारित पारंपरिक, लैंगिक भूमिकाओं को मजबूत करता है।

निष्कर्ष:

मातृत्व लाभ केवल श्रम संबंधी समस्या नहीं हैं, बल्कि यह जीवन, स्वास्थ्य और समानता के अधिकारों का मूल हिस्सा हैं। वर्तमान मातृत्व अवकाश नीति को प्रभावी ढंग से लागू किया जाना चाहिए और माताएं, पिता तथा दत्तक ग्रहण करने वाले अभिभावकों को समाहित करने वाले व्यापक पारिवारिक अवकाश कानून सक्रियता से राष्ट्रीय स्तर पर चर्चाओं के मुख्य विषय होने चाहिए।

 मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

प्रश्न. मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 जैसे प्रगतिशील कानूनी सुधारों के बावजूद, विशेष रूप से निजी और अनौपचारिक क्षेत्रों में समानुपाती कार्यान्वयन सुनिश्चित करने में चुनौतियाँ बनी हुई हैं। इस कार्यान्वयन अंतर के लिए जिम्मेदार कारकों की आलोचनात्मक समीक्षा करें।

(15 अंक, 250 शब्द)

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