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राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग: वर्तमान चुनौतियाँ तथा संभावित उपाय

Lokesh Pal October 23, 2025 05:00 72 0

सन्दर्भ:

वर्तमान में राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NCM) का कोई अध्यक्ष या सदस्य नहीं है, जो एक गंभीर सामाजिक तथा राजनीतिक समस्या है।

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की वर्तमान स्थिति:

  • गैर-कार्यात्मक आयोग: राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग वर्तमान में गैर-कार्यात्मक है तथा इसके अध्यक्ष और सदस्यों के पद रिक्त हैं।
    • दिल्ली उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका (PIL) दायर कर इसके पुनर्गठन के लिए निर्देश देने की माँग की गई है।
  • आलोचना: कई लोगों का तर्क है, कि यदि आयोग का पुनर्गठन भी कर दिया जाए तो भी इससे अल्पसंख्यकों के जीवन पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। 
    • आयोग को एक “बेकार निकाय” बताया गया है, जो 47 वर्षों के अस्तित्व के बाद भी अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुरक्षित करने में विफल रहा है।

ऐतिहासिक संदर्भ और विकास

  • प्रारंभिक गठन (1978): राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग का गठन 1978 में संबंधित मंत्रालय के एक प्रस्ताव के माध्यम से एक कार्यकारी निकाय के रूप में किया गया था।
    • इसकी स्थापना संवैधानिक सुरक्षा उपायों की निगरानी के लिए अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए गठित एक समान आयोग के साथ की गई थी।
  • उन्नत दर्जे की माँग: राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को वैधानिक या संवैधानिक निकाय के रूप में उन्नत करने की प्रारंभिक माँग थी।
  • निर्णायक उपलब्धि (1992): 1992 में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति आयोग को अनुच्छेद 338 के तहत संवैधानिक दर्जा दिया गया।
    • हालाँकि, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग को संवैधानिक दर्जा नहीं दिया गया था और बाद में संसद के एक समर्पित अधिनियम के माध्यम से इसे वैधानिक दर्जा दिया गया था।
  • लक्षित क्षेत्र: वैधानिक दर्जा प्राप्त करने के बाद, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग ने अपना ध्यान निम्नलिखित की ओर केन्द्रित किया:
    • अनुच्छेद 29: अल्पसंख्यक भाषा, लिपि और संस्कृति का संरक्षण।
    • अनुच्छेद 30: अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थाएँ स्थापित करने और उनका प्रशासन करने का अधिकार।
  • NCM की शक्तियाँ: राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पास सिविल न्यायालय जैसी शक्तियाँ हैं, जो इसे व्यक्तियों के शमन, दस्तावेजों का अनुरोध करने और जाँच के दौरान साक्ष्य रिकॉर्ड करने की अनुमति देती हैं।

NCM की सीमाएँ और चुनौतियाँ:

  • सलाहकारी भूमिका: आयोग की भूमिका पूर्णतः सलाहकारी एवं गैर-बाध्यकारी है।
    • वह दंड नहीं लगा सकता, अपने आदेशों को लागू नहीं कर सकता, या अपनी सिफारिशों का अनुपालन सुनिश्चित नहीं कर सकता।
    • इससे ठोस परिणाम देने या उल्लंघनकर्ताओं को जवाबदेह ठहराने की उसकी क्षमता सीमित हो जाती है।
  • राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (NHRC): राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का गठन 1993 में किया गया था। 
    • राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अध्यक्ष को राष्ट्रीय मानवाधिकार ढाँचे का पदेन सदस्य बनाया गया। 
    • इससे आयोग की स्वतंत्रता कमजोर हो गई तथा वह व्यापक मानवाधिकार तंत्र के अधीन हो गया।
  • पृथक शैक्षिक आयोग का गठन (2004): अल्पसंख्यक शैक्षिक संस्थानों के लिए एक विशेष निकाय का गठन किया गया।
    • चूँकि अल्पसंख्यकों की शिक्षा (अनुच्छेद 30) एक प्रमुख लक्षित क्षेत्र रहा है, इसलिए उत्तरदायित्व के इस हस्तांतरण से राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के पास बहुत कम ठोस कार्य रह गया।
    • यह सीमित प्रासंगिकता वाला एक “दिव्यांग आयोग” बन गया।
  • स्वायत्तता का अभाव: राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग वास्तविक स्वतंत्रता के बिना कार्य करता है और प्रशासनिक नियंत्रण में रहता है, जिससे प्रभावी ढंग से कार्य करने की इसकी क्षमता सीमित हो जाती है।
  • न्यूनतम प्रभाव: अपने अस्तित्व के चार दशकों में, आयोग अल्पसंख्यकों के जीवन या अधिकारों में कोई ठोस सुधार नहीं ला सका है।
    • इसका कार्य व्यापक सीमा तक प्रतीकात्मकतथा संवैधानिक प्रावधानों को सार्थक सुरक्षा में परिवर्तित करने में असफल रहा है।
  • व्यवहार में अनावश्यक: सीमित शक्तियों, अतिव्यापी संस्थाओं और नगण्य परिणामों के साथ, राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अल्पसंख्यक अधिकारों के कार्यात्मक संरक्षक की बजाय एक नौकरशाही औपचारिकता बन गया है।
    • इसे न्यूनतम उपयोगिता के साथ सार्वजनिक संसाधनों की बर्बादी के रूप में देखा जाता है।
  • प्रणालीगत उपेक्षा: अल्पसंख्यक-संबंधी अन्य रिपोर्ट और समितियाँ भी महत्त्वपूर्ण नीतिगत कार्रवाई करने में विफल रही हैं, जो अल्पसंख्यक कल्याण और प्रतिनिधित्व को आगे बढ़ाने में प्रणालीगत उपेक्षा के व्यापक प्रतिरूप को दर्शाती है।

रंगनाथ मिश्रा समिति की सिफारिशें:

  • पृष्ठभूमि: धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों में सामाजिक तथा आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों की जाँच के लिए एक अस्थायी आयोग के रूप में अक्तूबर 2004 में स्थापित।
    • यह 2005 में कार्यात्मक हो गया और मई 2007 में इसने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की।
  • मुख्य सिफारिशें: सरकारी नौकरियों में 15% आरक्षण, मुस्लिम समुदाय पर विशेष ध्यान।

निष्कर्ष

राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग की प्रगति संस्थागत अस्तित्व और प्रभावी सशक्तीकरण के बीच के अंतर को उजागर करती है। प्रवर्तनीय शक्तियों, स्वायत्तता और राजनीतिक इच्छाशक्ति के बिना, ऐसे आयोग शक्तिहीन प्रहरी बनकर रह जाते हैं।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग (NCM) को प्रायः “दंतविहीन बाघ” कहा जाता है, जो अल्पसंख्यक अधिकारों का प्रभावी गारंटर होने की बजाय केवल एक प्रतीकात्मक निकाय है। इसकी वैधानिक सीमाओं और संस्थागत इतिहास के आलोक में, आलोचनात्मक विश्लेषण कीजिए कि क्या राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग अपने अधिदेश में पर्याप्त रूप से विफल रहा है।

(15 अंक, 250 शब्द)

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