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चुनाव प्रचार खर्च पर सीमा की आवश्यकता

Lokesh Pal March 11, 2024 05:00 105 0

संदर्भ:

पिछले दो दशकों में केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर सरकारों द्वारा चुनाव पूर्व विज्ञापनों के लिए भारी बजट आवंटित करने की प्रवृत्ति लगातार देखि जा रही है।

मुख्य परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: चुनाव अभियान खर्च से संबंधित मुद्दे, जन प्रतिनिधित्व अधिनियम की मुख्य विशेषताएँ ।

चुनाव संबंधित खर्च से संबंधित मुद्दे:

  • चुनाव से पहले सत्तारूढ़ दल के अभियान: चुनाव से पहले सत्तारूढ़ दल में बड़े-बड़े कैम्पेन चलाये जाने और अपने नेता के प्रति सार्वजानिक रूप से बढ़-चढ़ कर प्रशंसा किये जाने की प्रवृत्ति रही ।
    • उदाहरण- सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के मुताबिक, केंद्र सरकार द्वारा  2018-19 से 2022-23 के मध्य विज्ञापनों पर 3,020 करोड़ रुपये खर्च किए थे I
    • इस वर्ष अप्रैल-मई में होने वाले आम चुनाव को देखते हुए इस खर्च में  2023-24 में वृद्धि होने की भी संभावना व्यक्त की गई है I
  • भारत में उम्मीदवारों के लिए चुनाव खर्च की सीमा:
    • बड़े राज्यों में उम्मीदवारों के लिए चुनाव खर्च की सीमा प्रति लोकसभा क्षेत्र ₹95 लाख और छोटे राज्यों में ₹75 लाख है।
    • हालाँकि, लगभग सभी प्रमुख राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों द्वारा एक बड़े अंतर के साथ  इस सीमा का उल्लंघन किया जाता हैं।
  • चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों के खर्च पर कोई सीमा नहीं: सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज (CMS) की एक रिपोर्ट के अनुसार राजनीतिक दलों द्वारा चुनाव के दौरान लगभग ₹50,000 करोड़ खर्च किए गए, जिसमें राजनितिक दल भाजपा द्वारा इस राशि का लगभग 50% और कांग्रेस द्वारा लगभग 20% खर्च किया गया । .
    • इस  रिपोर्ट के अनुसार इस पैसे का 35% प्रचार अभियानों पर खर्च किया गया, जबकि 25% अवैध रूप से मतदाताओं के मध्य वितरित किया गया।
    • दानदाताओं और निर्वाचित प्रतिनिधियों के मध्य सांठगांठ: इस फंडिंग का अधिकांश हिस्सा कॉर्पोरेट घरानों और व्यापारियों द्वारा प्राप्त होता है। इससे दानदाताओं और निर्वाचित प्रतिनिधियों के बीच नापाक गठजोड़ निर्मित होता है।
  • दान की अपारदर्शी प्रकृति:
    • वोटों के बदले नकद वितरण के साथ-साथ अधिकांश दान की अपारदर्शी प्रकृति भारत में स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की प्रक्रिया को कमजोर करती है।
    • अधर में चुनावी बांड : हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा चुनावी बांड योजना को रद्द किये जाने से वैध दान की अस्पष्टता दूर होगी, लेकिन अधिकांश फंडिंग अभी भी बेहिसाब तरीके से नकदी रूप में किया जाता है।

समान अवसर की ओर:

  • इंद्रजीत गुप्ता समिति (1998) और विधि आयोग की रिपोर्ट (1999): इन समितियों द्वारा  चुनावों के लिए राज्य द्वारा वित्त पोषण की अनुशंसा की गयी थी ।
    • इसका अर्थ यह है कि सरकार द्वारा राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों को चुनाव लड़ने के लिए धन का योगदान किया जाएगा ।
    • इसके लिए सभी राजनीतिक दलों के बीच सर्वसम्मति और ऐसे राज्य वित्त पोषण संबंधी मानदंडों के पालन में अनुशासन की आवश्यकता होती है।
  • 2016 में भारत के चुनाव आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट, ‘प्रस्तावित चुनावी सुधार’ के अनुसार समाधान:
    • सरकारी विज्ञापनों पर किसी भी आम चुनाव से छह महीने पहले प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए।
    • चुनाव व्यय सीमा: कानून में यह संशोधन किया जाना चाहिए कि किसी पार्टी द्वारा अपने उम्मीदवार को दी जाने वाली ‘वित्तीय सहायता’ भी उम्मीदवार के लिए निर्धारित चुनाव व्यय की सीमा के भीतर होनी चाहिए।
    • पार्टियों द्वारा खर्च की सीमा: पार्टियों द्वारा चुनावी खर्च की एक सीमा होनी चाहिए। यह सीमा, उम्मीदवार के लिए प्रदान की गई व्यय सीमा को चुनाव लड़ने वाले दल के उम्मीदवारों की संख्या से गुणा कर प्राप्त राशि से अधिक नहीं रखी जा सकती है।
    • अतिरिक्त न्यायाधीश: चुनाव से संबंधित मामलों के त्वरित निपटान के लिए उच्च न्यायालयों में अतिरिक्त न्यायधीश नियुक्त किया जा सकता है जो मानदंडों के उल्लंघन के खिलाफ निवारक के रूप में कार्य करेंगे।

निष्कर्ष: गौरतलब है कि इन सुधारों को सभी राजनीतिक दलों के समर्थन की आवश्यकता है और सुधारों के अभाव में भारत के लोगों द्वारा चुनावों की उच्च लागत वहन करनी पड़ेगी।

News Source:The Hindu

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