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केवल संयुक्त कार्रवाई ही जलकुंभी के प्रसार को रोक सकती है

Lokesh Pal August 15, 2025 05:30 5 0

संदर्भ:

  • भारत के जलमार्गों को जलकुंभी (आइचोर्निया क्रैसिपेस) से गंभीर खतरा है। बकाइन रंग के फूलों वाला यह हानिरहित दिखने वाला जलीय पौधा देश भर के अंतर्देशीय जल को अवरुद्ध कर रहा है और जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर रहा है।
  • इसके अनियंत्रित प्रसार के लिए तत्काल, एकजुट कार्रवाई की आवश्यकता है।

जलकुंभी के बारे में:

  • जलकुंभी एक आक्रामक विदेशी प्रजाति है जो भारत का मूल निवासी नहीं है।
    • इसकी उत्पत्ति दक्षिण अमेरिका, विशेष रूप से अमेज़न बेसिन में हुई ।
    • इसे भारत में औपनिवेशिक शासन के दौरान विशुद्ध रूप से इसकी सजावटी सुंदरता के लिए लाया गया था; बंगाल के गवर्नर-जनरल की पत्नी लेडी हेस्टिंग्स इसके फूलों से इतनी मोहित हुईं कि उन्होंने इन्हें बंगाल के जल निकायों में लगाने का आदेश दिया ।
    • वहां से यह पूरे भारत में फैल गया, तथा वर्तमान में यह देश भर के 200,000 हेक्टेयर से अधिक अंतर्देशीय जल क्षेत्र को अपने आगोश में ले चुका है।
    • यह पौधा बहुत तेजी से बढ़ता है, केवल 5 से 15 दिनों में इसकी संख्या दोगुनी हो जाती है।
    • यह जल की सतह पर एक मोटी, अभेद्य परत का निर्माण करता है, जो सूर्य के प्रकाश को अवरुद्ध करता है और नीचे अंधेरा पैदा करता है, जिससे पारिस्थितिक समस्याओं उत्पन्न होता है।

जलकुंभी के आक्रमण के प्रभाव:

  • पारिस्थितिक विनाश:
    • घनी परत सूर्य के प्रकाश को जल में प्रवेश करने से रोकती है, जिससे जलीय पौधों का प्रकाश संश्लेषण प्रक्रिया बाधित होताहै।
    • इससे जल में घुली ऑक्सीजन में की मात्र में कमी आती है, जिसे हाइपोक्सिया कहा जाता है।
    • ऑक्सीजन की कमी से पारिस्थितिक श्वासावरोध होता है, वस्तुतः जलीय वनस्पतियों और जीवों का दम घुटता है, तथा मछलियाँ और अन्य जीवों की मृत्यु हो जाती हैं।
    • सम्पूर्ण जलगत खाद्य जाल नष्ट हो जाते हैं, तथा देशी जलीय पौधों की प्रजातियां नष्ट हो जाती हैं, जिससे जैव विविधता को गंभीर क्षति पहुंचती है।
    • केरल में वेम्बनाड झील, जो रामसर द्वारा मान्यता प्राप्त अंतर्राष्ट्रीय महत्व की आर्द्रभूमि है, इस पारिस्थितिक संकट का एक प्रमुख उदाहरण है।
  • आर्थिक क्षति:
    • मछुआरे गंभीर रूप से प्रभावित होते हैं क्योंकि घनी परते उनके जालों को उलझा देती हैंनावों की आवाजाही में बाधा डालती हैं, तथा मछलियों की संख्या में कमी आती हैं, जिससे उनकी आजीविका प्रभावित होती है।
    • किसानों, विशेषकर केरल के कुट्टनाड (जिसे ‘केरल का चावल का कटोरा’ कहा जाता है) जैसे क्षेत्रों में धान की खेती करने वाले किसानों को भारी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है
      • जलकुंभी सिंचाई चैनलों को अवरुद्ध करती है, खेतों में जल के प्रवाह में बाधा डालती है, और फसलों को नुकसान पहुंचाती है, जिससे खेती की लागत और प्रक्रिया में काफी वृद्धि होती है।
    • पर्यटन और परिवहन को भारी नुकसान, विशेष रूप से केरल जैसे राज्यों में जो बैकवाटर और हाउसबोट के लिए प्रसिद्ध हैं ।
      • हाउसबोट फंस जाते हैं, जल परिवहन रुक जाता है, और पर्यटकों के लिए समग्र आकर्षण कम हो जाता है।
  • जलवायु के लिए ख़तरा:
    • जब जलकुंभी के विशाल संचित बायोमास का क्षरण होता है, तो इससे मीथेन (CH4) गैस का उत्सर्जन होता है।
      • मीथेन एक प्रबल ग्रीनहाउस गैस है, जो ऊष्मा को रोकने में कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) से 25 गुना अधिक शक्तिशाली है, और इस प्रकार यह ग्लोबल वार्मिंग में महत्वपूर्ण योगदान देता है।
  • स्वास्थ्य संबंधी खतरे:
    • जलकुंभी के कारण जमा हुआ पानी मच्छरों के लिए आदर्श प्रजनन स्थल बन जाता है।
    • इससे मलेरिया और डेंगू जैसी वेक्टर जनित बीमारियों का प्रसार बढ़ जाता है, जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रभावितहोता है।

जलकुंभी के खतरे से निपटने संबंधी उपाय:

  • पृथक दृष्टिकोण:भारत भर के समुदाय और नवप्रवर्तक इस ‘कीट’ को संसाधन में बदलनेका प्रयास कर रहे हैं ।
    • ओडिशा के महिला स्वयं सहायता समूह जलकुंभी से कुशलतापूर्वक हस्तशिल्प, टोकरियाँ और फर्नीचर का निर्माण करते हैं।
    • असम और पश्चिम बंगाल में इसे कागज और बायोगैस में परिवर्तित किया जा रहा है।
    • कुछ क्षेत्रों में जैविक खाद के लिए इसके उपयोग की संभावना पर शोध की जा रही है।
  • एक राष्ट्रीय नीति और संयुक्त कार्रवाई:जलकुंभी के खतरे से निपटने के लिए एक मजबूत, समन्वित नीति की आवश्यकता है।
    • वर्तमान में यह जिम्मेदारी कृषि, मत्स्य पालन, पर्यावरण और सिंचाई सहित कई सरकारी विभागों तक विस्तृत है, जिसके कारण प्रयास खंडित और अक्सर अल्पकालिक सिद्ध होते हैं।

जलकुंभी के खतरे को कम संबंधी उपाय:

  • क्षेत्र-विशिष्ट रणनीतियों के साथ एक राष्ट्रीय नीति: इस नीति को विभिन्न क्षेत्रों की विशिष्ट स्थितियोंऔर चुनौतियोंके अनुरूप बनाया जाना चाहिए, ताकि केरल और बंगाल जैसे राज्यों में प्रभावी कार्यान्वयन सुनिश्चित हो सके ।
  • एकल-बिंदु जवाबदेही: समस्या की देखरेख और प्रबंधन के लिएएक एकल नोडल एजेंसी कीस्थापना की जानी चाहिए, जिससे स्पष्ट जिम्मेदारी की वर्तमान कमी को दूर किया जा सके।
  • वैज्ञानिक निष्कासन और मशीनीकरण:निष्कासन के लिए उन्नत वैज्ञानिक तरीकों और मशीनीकृत समाधानों का उपयोग करें, विशेष रूप से उन क्षेत्रों में जहां श्रम महंगा या दुर्लभ है।
  • नवाचार को बढ़ाना: जलकुंभी से मूल्यवान उत्पाद बनाने में नवप्रवर्तकों को अपने प्रयासों का विस्तार करने में सहायता करने के लिए मजबूत नीतिगत समर्थन, वित्तीय प्रोत्साहन और एक मजबूत मूल्य श्रृंखला प्रदान करना।
    • इस प्रयास में सार्वजनिक-निजी भागीदारी (PPP) को प्रोत्साहित करना।
  • उन्नत अनुसंधान और विकास (R&D):जलकुंभी के प्रबंधन और उपयोग के लिए नए और अधिक कुशल तरीकों की खोज के लिए अनुसंधान में निवेश करना, जिसमें शिल्प, जैव ईंधन, खाद और वस्त्र के लिए इसका कुशल उपयोग भी शामिल है।
  • जागरूकता और सामुदायिक सहभागिता: व्यवस्थित और टिकाऊ समाधानों को बढ़ावा देनेऔर जलकुंभी को महज एक कीट से आजीविका के लिए एक संभावित संसाधन के रूप में देखने की धारणा को बदलने के लिएविशेषज्ञों, समुदायों और नीति निर्माताओं को एक साथ लाने की आवश्यकता है। 

निष्कर्ष:

भारत की नदियाँ और झीलें इतनी कीमती हैं कि इनकी उपेक्षा/तिरस्कार केवल किसी एक आक्रामक पौधे के कारण नहीं किया जा सकता है

  • जलकुंभी के खतरे से निपटने के लिए तत्काल कार्रवाई, जवाबदेही और एकजुट कार्रवाई की आवश्यकता है।
  • प्रत्येक समुदाय, सरकारी विभाग, उद्यमी और नागरिक को यह समझना होगा कि यह सिर्फ एक पारिस्थितिक समस्या नहीं है, बल्कि ग्रामीण आजीविका, खाद्य सुरक्षा, जलवायु और हरित अर्थव्यवस्था के लिए एक गंभीर चुनौती है।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न:

प्रश्न: जलकुंभी भारत के अंतर्देशीय जल में एक पारिस्थितिक, आर्थिक और प्रशासनिक चुनौती के रूप में उभरी है। इसके प्रभावों का विश्लेषण कीजिए और इसके प्रबंधन के लिए एक व्यापक क्षेत्र -विशिष्ट नीति ढाँचा प्रस्तावित कीजिए।

(15 अंक, 250 शब्द)

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