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लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद

Lokesh Pal May 30, 2025 05:15 20 0

संदर्भ:

लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद पिछले छह वर्षों से रिक्त है, जिससे संवैधानिक अनुपालन और लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर प्रश्न उठ रहे हैं।

संवैधानिक आधार

  • लोकसभा: अध्यक्ष (सत्तारूढ़ पार्टी) + उपाध्यक्ष (विपक्ष)
  • अनुच्छेद 93: अध्यक्ष तथा उपाध्यक्ष का निर्वाचन
  • अनुच्छेद 94: उपाध्यक्ष त्यागपत्र/हटाने/अयोग्यता तक पद पर बने रहते हैं।
  • अनुच्छेद 180: अध्यक्ष की अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष को पूर्ण नियंत्रण प्राप्त होता है
  • भूमिका: निरंतरता और तटस्थता रक्षक, केवल स्थान नहीं।

मुख्य उत्तरदायित्व

  • कार्य: जब अध्यक्ष चुनाव/यात्रा पर हों, तो सदन का संचालन करना।
  • भूमिकाएँ: निजी सदस्य विधेयक समिति के अध्यक्ष, बजट समिति और संवेदनशील चर्चा में महत्त्वपूर्ण भूमिका।
    • उदाहरण: 2011- मीरा कुमार की अनुपस्थिति में करिया मुंडा ने सदन का संचालन किया।
  • निरंतरता: संसदीय लोकतंत्र की निरंतरता सुनिश्चित करता है।

डेमोक्रेटिक कन्वेंशन

  • परंपरा: अध्यक्ष (सत्तारूढ़) + उपाध्यक्ष (विपक्ष)
  • विपक्ष का प्रतिनिधित्व: विपक्ष को प्रतिनिधित्व और वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य मिलता है।
  • बाधित: कार्यवाही में बहुसंख्यकवादी प्रभुत्व को रोकता है।
  • पारस्परिक सम्मान: पक्षों के बीच पारस्परिक सम्मान और सहयोग उत्पन्न करता है।

वर्तमान संकट

  • अभूतपूर्व रिक्ति: 17वीं लोकसभा (2019-2024): 6 वर्षों तक कोई उपाध्यक्ष नहीं।
  • 18वीं लोकसभा (2024-2029): दृष्टिकोण विद्यमान
  • नियम-8: चुनाव तब जब अध्यक्ष तिथि तय करें।
  • 75 वर्षों में पहली बार: लगातार 2 कार्यकाल बिना उपाध्यक्ष के। संस्थागत संकट उत्पन्न हुआ और लोकतांत्रिक परंपरा टूटी।

ऐतिहासिक अभ्यास

  • 1952: एम.ए. अयंगर (विपक्ष) – प्रथम उपाध्यक्ष
  • 1991: शिवराज पाटिल (स्पीकर) + सूरज भान (उपाध्यक्ष)
  • 2019 तक: 2019 तक प्रत्येक लोकसभा में एक उपाध्यक्ष होगा।
  • द्विदलीय समर्थन: सरकारों में द्विदलीय सहयोग दिखाया गया।
  • क्षरण: वर्तमान प्रवृत्ति से 7 दशक पुरानी परंपरा की हानि

सरकार का दृष्टिकोण

  • आम सहमति का अभाव: विपक्ष के साथ कोई आम सहमति नहीं, कोई उपयुक्त उम्मीदवार उपलब्ध नहीं।
  • कोई समय-सीमा नहीं: अनुच्छेद 93 में कोई समय सीमा नहीं है- “जितनी जल्दी हो सके लचीला समय हो।”
  • वास्तविकता: सदन का नियंत्रण साझा नहीं करना चाहते।

कार्यालय की रिक्तता का प्रभाव

  • संवैधानिक उल्लंघन: अनुच्छेद 93 की गलत व्याख्या की गई:
    • किसानों का उद्देश्य तत्काल सम्पूर्ण बुनियादी ढाँचे का निर्माण था।
    • देरी संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करती है, चुनिंदा अनुपालन के लिए नकरात्मक उदाहरण तैयार करती है।
  • बहुसंख्यक नियंत्रण: अध्यक्ष (सत्तारूढ़) + कोई उपाध्यक्ष नहीं पूर्ण सरकारी नियंत्रण।
  • उन्मूलन: संस्थागत जाँच और संतुलन को समाप्त करता है।
  • तटस्थ मध्यस्थ: विपक्ष ने तटस्थ मध्यस्थ खो दिया। संसद रबर स्टैंप बनाम विचार-विमर्श करने वाली संस्था बन गई।
  • कमज़ोर करना:अल्पसंख्यक अधिकारों की सुरक्षा को कमजोर किया।
  • सम्मेलन का विवरण: वेस्टमिंस्टर प्रणाली- विपक्ष को महत्त्वपूर्ण स्थान मिले भारत ने ब्रिटिश सत्ता-साझाकरण सम्मेलनों पर निर्माण किया।
  • प्रतिगमन: पूर्व अभ्यास ने लोकतांत्रिक परिपक्वता दिखाई। वर्तमान उल्लंघन लोकतांत्रिक प्रतिगमन को दर्शाता है।
  • संस्थागत असुरक्षा: सत्तारूढ़ पार्टी की संस्थागत असुरक्षा का संकेत है।
  • आपातकालीन संकट: यदि अध्यक्ष इस्तीफा दे देता है या अक्षम हो जाता है, तो आपातकालीन संकट से संस्थागत शून्यता उत्पन्न हो सकती है, जिससे जिससे सदन की अध्यक्षता करने के लिए कोई नहीं बचेगा।
    • ऐसे मामले में, आपातकालीन सत्र प्रक्रियागत गतिरोध का सामना कर सकते हैं, जिससे राष्ट्रीय संकट के दौरान संसद में गतिरोध उत्पन्न हो सकता है। पूर्वनिर्धारित उत्तराधिकार योजना का अभाव संवैधानिक आदेशों की उपेक्षा के खतरों को उजागर करता है।

आगे की राह

  • तत्काल कार्यवाही: अध्यक्ष को नियम 8 के अनुसार बिना देरी के चुनाव की तारीख तय करनी चाहिए। वार्ता के माध्यम से आम सहमति बनाना महत्त्वपूर्ण है।
    • सरकार को संवैधानिक अनुपालन को प्राथमिकता देनी चाहिए, जबकि विपक्ष को उपयुक्त उम्मीदवार प्रस्तुत करने चाहिए।
    • सबसे बढ़कर, यह स्वीकार किया जाना चाहिए: संवैधानिक आदेश वैकल्पिक नहीं हैं।
  • संहिताकरण आवश्यक: इस परंपरा को औपचारिक रूप से संहिताबद्ध किया जाए, कि अध्यक्ष सत्तारूढ़ दल से और उपाध्यक्ष विपक्ष से हो।
  • समय-सीमा: अध्यक्ष और उपाध्यक्ष के चुनाव के लिए संवैधानिक समय-सीमा निर्धारित की जाए। उदाहरण: निरंतरता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए लागू करने योग्य उदाहरण बनाएँ।
  • समिति को सशक्त बनाना: प्रक्रियागत सुरक्षा उपायों की समीक्षा करने और उन्हें मजबूत करने के लिए संसदीय समिति को सशक्त बनाना।
  • संविधान संशोधन: प्रमुख पदों पर विपक्ष का प्रतिनिधित्व अनिवार्य करने के लिए संविधान संशोधन पर विचार करें।
  • न्यायिक भूमिका: सर्वोच्च न्यायालय को “जितनी जल्दी हो सके” वाक्यांश की व्याख्या करनी चाहिए। संवैधानिक नियुक्तियों में स्वीकार्य देरी की स्पष्ट सीमाएँ निर्धारित करें।
    • लोकतांत्रिक संस्थाओं को कार्यकारी निष्क्रियता से बचाने के लिए कार्य करें।
    • यह सुनिश्चित करें, कि संवैधानिक आदेश न्यायोचित हैं, विवेकाधीन नहीं।
    • शासन में संवैधानिक सर्वोच्चता के सिद्धांत को सुदृढ़ करना।
  • लोकतांत्रिक विमर्श: नागरिक समाज को सक्रिय रूप से जन जागरूकता बढ़ानी चाहिए।
  • मीडिया: मीडिया को संवैधानिक उल्लंघनों को लगातार उजागर करना चाहिए।
  • नागरिक: नागरिकों को कठोर संवैधानिक अनुपालन की माँग करनी चाहिए।

निष्कर्ष

शिक्षाविदों को उपाध्यक्ष के महत्त्व के बारे में जनता को शिक्षित करना चाहिए और निरंतर उल्लंघनों के लिए राजनीतिक लागत बनाने के लिए गति का निर्माण करना चाहिए।

मुख्य परीक्षा हेतु अभ्यास प्रश्न

लोकसभा में उपाध्यक्ष का पद लंबे समय से रिक्त होने के कारण संवैधानिक अनुपालन और संसदीय परंपराओं संबंधी चिंताएँ बढ़ गई हैं। इस संदर्भ में, लोकतांत्रिक संतुलन बनाए रखने में अलिखित परंपराओं की भूमिका का आकलन कीजिए। क्या ऐसी परंपराओं के लिए वैधानिक समर्थन संस्थागत जवाबदेही को मज़बूत कर सकता है?

(15 अंक, 250 शब्द)

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