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भारत में विज्ञान के प्रबंधन की समस्या (Problem of management of science in India)

Samsul Ansari January 22, 2024 05:06 244 0

संदर्भ

इस लेख के माध्यम से भारतीय विज्ञान और वैज्ञानिक प्रगति की प्रशासकीय क्षमता के संदर्भ में बात की गई है।

मुख्य परीक्षा के लिए प्रासंगिकता: भारत में  विज्ञान प्रबंधन से संबंधित मुद्दे- चिंताएँ और आगे की  राह।

भारत के समक्ष उपस्थित प्रमुख चुनौतियाँ

  • अनुसंधान और विकास पर कम व्यय: भारत में  सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 0.7% ही अनुसंधान एवं विकास पर खर्च किया जाता है, जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका और चीन के लिए यह आँकड़ा क्रमशः 3.5% और 2.4% है।
  • विज्ञान की दिशा और संगठन में असंगति: वर्ष 2022 में, भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन का स्थान प्रक्षेपण संख्या के मामले में 8वाँ था।
  • देखा जाए तो भारत परमाणु ऊर्जा, जीनोमिक्स, रोबोटिक्स और कृत्रिम बुद्धिमत्ता के क्षेत्र में उनके अधिकतम उपयोग के अवसर को भी खो रहा हैI
  • प्रबंधन में स्थिरता का अभाव: विज्ञान द्वारा निभाई जाने वाली महत्त्वपूर्ण भूमिका के संबंध में प्रशासनिक अस्थिरता  बाधक बनती है।
  • सार्वजनिक क्षेत्र का प्रभुत्व: भारत के विज्ञान क्षेत्र पर सार्वजनिक क्षेत्र का प्रभुत्व है।
  • कभी-कभार परियोजनाओं के विफल होने के कारण महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं के दीर्घकालिक स्थिर वित्तपोषण हेतु प्रतिबद्धताओं में कमी भी दखने को मिलती है।

वैज्ञानिकों की भूमिका का अत्यधिक विस्तार:

  •  वरिष्ठ वैज्ञानिकों की केंद्रीयता: भारत में विज्ञान से संबंधित प्रशासन, के केंद्र में इसके वरिष्ठ वैज्ञानिकों की ही भूमिका होती है, जिनमें से कुछ के द्वारा शीर्ष अंतरराष्ट्रीय स्तर के शिक्षाविद होने का दिखावा भी किया जाता है।
  • गलतफहमी: भारतीय विज्ञान प्रशासन के संबंध में वैज्ञानिकों की मूल धारणा यह है कि एक अच्छा वैज्ञानिक एक अच्छा विज्ञान प्रशासक भी सिद्ध हो सकता है।
  • व्यापक प्रशिक्षण का अभाव: भारत में वैज्ञानिकों को समय, लागत या सटीकता के मध्य प्राथमिकता तय करने के संबंध में प्रशिक्षित नहीं किया जाता है।
  • एक प्रशासक को मौलिक भूमिका नीति के अनुरूप एक उपक्रम को दूसरे के ऊपर वरीयता देने हेतु प्राथमिकता तय करना और पर्याप्त संसाधनों का आवंटन सुनिश्चित करना होता है।
  • हितों का टकराव: प्रशासनिक पदों को प्राप्त ऐसी शैक्षणिक भूमिकाएँ हितों के टकराव को जन्म देती हैं, जिससे विज्ञान के प्रशासन की समग्र गुणवत्ता प्रभावित होती है।
  • अखिल भारतीय स्थानांतरण का अभाव:  वैज्ञानिकों और विज्ञान प्रशासकों दोनों के संबंध में इस प्रावधान का अभाव दिखता है। प्रणाली के आंतरिक सूत्रों को प्रणाली का नियामक बनने की अनुमति देने के अपने नकारात्मक पक्ष होते  हैं।

ऐतिहासिक कारक

  • गरीबी:  1960 के दशक में गरीबी के कारण मुट्ठी भर संस्थानों, मुख्य रूप से भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों में उच्च स्तरीय उपकरणों को केंद्रित करने के लिए देश को विवश होना पड़ा था।
  • गेटकीपर सिस्टम: उस समय इन संस्थानों को कुछ उपकरणों तक विशेष पहुँच प्राप्त थी, जिससे एक गेटकीपर प्रणाली का विकास का हुआ, जिसने धीरे-धीरे पदों और सत्ता पर कब्जा करना शुरू कर दिया।
  • सिस्टम के इस शोषणकारी नेटवर्क के साथ हुए टकराव  के कारण कई प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों के कॅरियर और जीवन नष्ट हो गए ।

आगे की राह

  • मुख्य चिंताओं के समाधान की आवश्यकता: प्रशासन को प्रशासित विषय से अलगप्रशिक्षण और अभ्यास दिए जाने की आवश्यकता है। इससे संबंधित मुख्य चिंताओं को दूर करके ही भारत का विज्ञान प्रतिष्ठान अपनी आर्थिक और रणनीतिक आकांक्षाओं के साथ न्याय हासिल कर सकेगा।
  • अधिक निवेश की आवश्यकता: धन का आवंटन बुद्धिमत्तापूर्वक करना और उच्च प्रभाव वाली परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित करना अधिक महत्त्वपूर्ण है।
  • भूमिकाओं का पुनर्मूल्यांकन: जैसे-जैसे भारत अपने वैज्ञानिक प्रतिष्ठान को नया रूप देने के क्रम में आगे बढ़ रहा है, वैसे-वैसे प्रशासन में वैज्ञानिकों की भूमिका का पुनर्मूल्यांकन आवश्यक होता जा रहा है।
  • उचित प्रबंधन: विज्ञान के क्षेत्र में अब संतुलित एवं आवश्यक प्रबंधन की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने का समय आ गया है
  • भूमिकाओं का पृथक्करण: विज्ञान प्रतिष्ठानों के भीतर प्रशासनिक और वैज्ञानिक भूमिकाओं को अलग करने की आवश्यकता है।
  • उदाहरण: अमेरिका में, जहाँ प्रयोगशालाएँ विश्वविद्यालयों के तंत्र में अंतर्निहित होती हैं और वैज्ञानिकों द्वारा संचालित होती हैं, वही  वैज्ञानिकों को उनके कॅरियर की शुरुआत में ही प्रशासनिक भूमिका के लिए चुन लिया जाता है।
  • अखिल भारतीय विज्ञान प्रशासन केंद्रीय सेवा: यह एक अमेरिकी मध्य मार्ग व्यवस्था है जहाँ वैज्ञानिकों को विज्ञान प्रशासन केंद्रीय सेवा के अखिल भारतीय स्तर के तहत चुना और प्रशिक्षित किया जाता है।
  • ऐसी व्यवस्था में, विश्वविद्यालय के कुलपतियों के पास विश्वविद्यालय के साथ-साथ मंत्रालयों की नौकरशाही की तुलना में बातचीत द्वारा समझौता करने की अधिक शक्ति होती है।
  • प्रशिक्षण कार्यक्रम: चातुर्यता, यथार्थवाद, लचीलेपन और दृढ़ता जैसे कौशल पर जोर देते हुए प्रशासकों को अलग से तैयार करने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम शुरू करने की आवश्यकता है।

समाचार स्रोत: द हिंदू

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